आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में - 41. संकट में है जैव विविधता 42. तबाही की पूर्व सूचना है नलकूप क...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में -
41. संकट में है जैव विविधता
42. तबाही की पूर्व सूचना है नलकूप क्रांति
43. प्राकृतिक संसाधनों की घटती उपलब्धता
44. जैव विविधता के विनाश से जुड़ा भोजन का संकट
45. आर्थिक मंदी और घटता औद्योगिक उत्पाद
संकट में है जैव विविधता
दुनियाभर में बेजुबान जीव-जंतु और वनस्पतियों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। जबरदस्त मानव हस्तक्षेप और विपरीत परिस्थितियों के चलते 41 हजार से अधिक प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। विलुप्त हो रही प्रजातियों को बचाने के काम में लगे अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण संघ (आई.यू.सी.एन.) द्वारा जारी की गई 2007 की रेड लिस्ट से खुलासा हुआ है कि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों के लिए धरती पर बड़ा संकट पैदा होता जा रहा है। 2008 तक खतरे के दायरे में आने वाली प्रजातियों की संख्या 16 हजार 118 थी, जो अब बढ़कर 41 हजार 415 के आंकड़े को छू गई है। यदि देश और उनकी सरकारों ने इनके संरक्षण की दिशा में जरूरी और सख्त कदम नहीं उठाए तो जैव विविधता के ह्रास की दर निरंतर बढ़ती चली जाएगी।
एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं में और पेड़ों पर आश्रय ढूढ़ता फिरता था। लेकिन ज्यों-ज्यों मानव प्रगति करता गया प्राणियों का स्वामी बनने की उसकी चाह बढ़ती गई। इस चाहत के चलते पशु असुरक्षित हो गए। वन्य जीव विशेषज्ञों ने जो ताजा आंकड़े प्राप्त किए हैं उनसे संकेत मिलते हैं कि इंसान ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिए पिछली तीन शताब्दियों में दुनियासे लगभग 200 जीव-जंतुओं का अस्तित्व ही मिटाकर रख दिया है। भारत में वर्तमानमें करीब 140 जीव-जंतु विलोपशील अथवा संकटग्रस्त अवस्था में हैं। आई.यू.सी.एन. की इस साल की रेड लिस्ट में किए गए खुलासे के अनुसार प्रत्येक चार स्तनधारियों में से एक, पक्षियों में से एक, उभयचरों (जलचर और थलचरों) की एक-तिहाई और विश्वभर के पेड़-पौधों की प्रजातियां आसन्न खतरे का संकट झेल रही हैं। इन प्रजातियों के लुप्त होते चले जाने से पारिस्थितिकी असंतुलन का खतरा भी मंडरा रहा है। इस रेड लिस्ट से यह भी संकेत मिलते हैं कि वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य और चिड़ियाघरों की संपूर्ण व्यवस्था इनका संरक्षण कर पाने में असमर्थ साबित हो रही है। नतीजतन जैव विविधता का ह्रास लगातार बना हुआ है।
दरअसल अभ्यारणय वन्य प्राणियों को बचाने का एक प्रयत्न भर हैं। इन सरकारी उपक्रमों में वन और वन्य प्राणियों के प्रति सरकार और उसके अमलों की औपचारिक प्रवृत्ति भारतीय जन-जातियों अशिक्षा, अज्ञानता और प्रकृति से भरण-पोषण करने की मजबूरी इन्हें ठीक से विकसित करने में लगातार बाधा उत्पन्न कर रही हैं। भारतीय भाषाओं में वन्य जीवन सम्बन्धी साहित्य का अभाव भी इन उपक्रमों की प्रगति में रोड़ा है।
पंचांग (कैलेंडर) के शुरू होने से 18वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही। 18वीं से 20वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है। एक बार जिस प्राणी की नस्ल पृथ्वी पर समाप्त हो गई तो पुनः उस नस्ल को धरती पर पैदा करना मनुष्य के बस की बात नहीं है। हालांकि वैज्ञानिक क्लोन पद्धति से डायनासौर को धरती पर फिर से अवतरित करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं लेकिन इसका अवतरण कब संभव होगा, इसकी अभी कोई समय-सीमा तय नहीं है।
भारत में फिरंगियों द्वारा किए गए निर्दोष प्राणियो के शिकार की फेहरिस्त भले ही लंबी हो उनके संरक्षण की पैरवी अंग्रेजों ने ही की। 1907 में पहली बार सर माइकल कीन ने जंगलों को प्राणी अभ्यारण बनाए जाने पर विचार किया किंतु सर जॉन हिबेट ने इसे खारिज कर दिया। ई. आर. स्टेवान्स ने 1916 में कालागढ़ के जंगल को प्राणी अभ्यारण्य बनाने का विचार रखा। किंतु कमिश्नर विंडम के जबरदस्त विरोध के कारण मामला फिर ठंडे बस्ते में बंद हो गया। 1934 में गर्वनर सर माल्कम हैली ने कालागढ़ के जंगल को कानूनी संरक्षण देते हुए राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाने की बात कही। हैली ने मेजर जिम कार्बेट से परामर्श करते हुए इसकी सीमाएं निर्धारित कीं। सन् 1935 में यूनाइटेड प्राविंस (वर्तमान उत्तर प्रदेश एवं उत्तरांचल), नेशनल पार्कस एक्ट पारित हो गया। और यह अभ्यारण्य भारत का पहला राष्ट्रीय वन्य प्राणी उद्यान बना दिया गया। यह हैली के प्रयत्नों से बना था, इसलिए इसका नाम ‘हैली नेशनल पार्क' रखा गया। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने जिम कार्बेट की याद में सइका नाम ‘कार्बेट नेशनल पार्क' रख दिया। इस तरह से भारत में राष्ट्रीय उद्यानों की बुनियाद फिरंगियों ने रखी।
मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ देश के ऐसे राज्य हैं जहां सबसे अधिक वन और प्राणी संरक्षण स्थल हैं। प्रदेश के वनों का 11 फीसदी से अधिक क्षेत्र उद्यानों के लिए सुरक्षित है। ये वन विंध्य-कैमूर पर्वत के रूप में दमोह से सागर तक, मुरैना में चंबल और कुवांरी नदियों के बीहड़ों से लेकर कूनो नदी के जंगल तक, शिवपुरी का पठारी क्षेत्र, नर्मदा के दक्षिण में पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुए हैं। एक ओर तो ये राज्य देश में सबसे ज्यादा वन और प्राणियों को संरक्षण देने का दावा करते हैं,वहीं दूसरी ओर वन संरक्षण अधिनियम 1980 का सबसे ज्यादा उल्लंघन भी इन्हीं राज्यों में होता है।
वर्तमान में जिस रफ्तार से वनों की कटाई चल रही है उससे तय है कि 2125 तक जलाऊ लकड़ी की भीषण समस्या पैदा होगी, क्योंकि वर्तमान में प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी के ईंधन की जरूरत पड़ती है। देश की संपूर्ण ग्रामीण आबादी लकड़ी के ईंधन पर निर्भर है। ग्रामीण स्तर पर फिलहाल कोई ठीक विकल्प भी दिखाई नहीं दे रहा है। सरकार को वन-प्रांतरों के निकट जितने भी गांव हैं उनमें ईंधन की समस्या दूर करने के लिए बड़ी संख्या में गोबर गैस संयंत्र लगाने चाहिए और प्रत्येक घर में एक विद्युत कनेक्शन निशुल्क देना चाहिए। ग्रामीणों के पालतू पशु इन्हीं वनों में घास चरते हैं इस कारण प्राणियों के प्रजनन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यह घास बहुत सस्ती दरों पर ग्रामीणों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। घास की कटाई इन्हीं ग्रामों के मजदूरों से कराई जाए तो गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले जो ग्रामीण हैं उनके परिवारों की उदरपूर्ति के लिए धन भी सुलभ हो सकेगा और वे संभवतः जंगल से चोरी-छिपे लकड़ी भी नहीं काटेंगे।
वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए देश के प्रत्येक राष्ट्रीय उद्यान में ‘प्रोजेक्ट टाइगर' बनाया जाए। इस योजना के अंतर्गत उद्यानों के निकटवर्ती गांवों में रहने वालों को वन और प्राणियों का प्राकृतिक महत्व बताते हुए संरक्षण के लिए भारत सरकार की तरफ से प्रशिक्षण दिया जाए। संरक्षित सीमा से जुड़े ग्राम वासियों की बंदूकों के लाइसेंस निरस्त कर दिए जाएं। वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा में जब तक सख्त कदम नहीं उठाए जाते तब तक वन व प्राणियों को बचाया जाना मुश्किल है।
तबाही की पूर्व सूचना है नलकूप क्रांति
हमारे देश में बीते साठ सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में से एक है ‘पानी'। ‘जल ही जीवन है' की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती रही है। आजादी के दौरान प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता छःहजार घनमीटर थी, जो अब घटकर करीब डेढ़ हजार घनमीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से किया जा रहा है उससे यह निश्चित-सा हो जाता है कि अगले कुछ साल बाद जल की उपलब्धता घटकर बमुश्किल सोलह सौ की जगह हजार-ग्यारह सो घनमीटर रह जाएगी। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के अनुसंधानपरक अध्ययनों से साबित हुआ है कि भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ियों को कालांतर में जबरदस्त जल समस्या और जल संकट का सामना करना होगा। नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने ‘क्रांति' की संज्ञा दी, दरअसल यह संज्ञा तबाही की पूर्व सूचना थी, जिसे हम नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं। हालांकि नलकूप क्रांति वाकई तबाही की पूर्व सूचना थी, बात अब सच्चाई में बदल गई है। इसी के चलते मध्य प्रदेश सरकार ने गहराती जल समस्या से निपटने के लिए आठ जिलों के चौबीस विकासखंडों में नलकूप उत्खनन पर रोक लगा दी है।
खाद्यान्न सुलभता के आंकड़ों को पिछले साठ साल की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इस खाद्यान्न उत्पादन के लिए जिस हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है उसके कारण नलकूपों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है, लेकिन उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता घटी है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार नलकूप खुदाई की आमतौर से प्रचलित तकनीक गलत है। इसके लिए जमीन के भीतर तीस मीटर तक विधिवत सीलिंग होनी चाहिए ताकि जमीन की इस गहराई वाले हिस्से का पानी अपने क्षेत्र में सुरक्षित रहे। इसके बाद नीचे की खुदाई जारी रखनी चाहिए। इस तकनीक के अपनाने से खर्च में नौ हजार रुपये की बढ़ोत्तरी जरूर होती है, लेकिन भूजल स्तर में गिरावट नहीं आती। लेकिन इस तकनीक के अनुसार नलकूपों का उत्खनन हमारे देश में नहीं किया गया। जिसके दुष्परिणाम अब सामने हैं।
अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूल पूरे देश में थे, जिनकी संख्या अब साठ लाख से ऊपर है। सस्ती अथवा निःशुल्क बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई है। पंजाब और मध्य प्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया हुआ है। इस उत्खनन के चलते पंजाब के 12, हरियाणा के 3, मध्य प्रदेश के 8 जिलों से पानी ज्यादा निकाला जा रहा है, जबकि वर्षाजल से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। गुजरात के मेहसाणा और तमिलनाडु के कायेम्बतूर जिलों में तो भूमिगत जल एकदम खत्म ही हो गया है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र और महेन्द्रगढ़, मध्य प्रदेश के खंडवा, खरगोन और भिंड जिलों में प्रतिवर्ष जल की सतह आधा मीटर नीचे खिसक रही है। इस जल के नीचे उतर जाने से इस जल को ऊपर खींचने में ज्यादा बिजली खर्च हो रही है। जिन जलक्षेत्रों में पानी का अत्याधिकदोहन हो चुका है, वहां पानी खींचने के खर्च में 490 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है।
अकेले मध्य प्रदेश में प्रतिवर्ष खोदे जा रहे कुओं और नलकूपों पर विचार करें तो आंकड़े देखने पर पता चलता है कुओं और नलकूपों के जरिए धरती से जल दोहन के सिलसिले में जैसे क्रांति आई हुई है। ये खनन सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही मार्चों पर युद्धस्तर पर हो रहे हैं। प्रदेश के 45 जिलों में हरेक साल लगभग दो लाख 80 हजार कुएं और 15 हजार नलकूपों का खनन किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक इस खनन में प्रदेश के सहकारी बैंकों का करीब एक हजार करोड़ और प्रदेश भर में शाखाएं खोले बैठे राष्ट्रीयकृत बैंकों का करीब नौ सौ करोड़ रुपया लगा हुआ है। इस धनराशि में वह राशि शामिल नहीं है जो 1990 से 93 के बीच प्रदेश में ऋण मुक्ति अभियान के अंतर्गत माफ कर दी गई थी। इसके अलावा निजी स्तर पर करोड़ों रुपये नलकूप खनन में लगाए जा रहे हैं। बिखरे हुए उद्योगों के रूप में मौजूद वह खनन क्रांति बतौर एक जज्बाती जुनून की तरह परवान चढ़ती चली जा रही है। इस क्रांति के परिणाम समष्टिगत लाभ की दृष्टि से उतने लाभकारी नहीं रहे, जिस अनुपात में इस खनन क्रांति से जलस्तर घटा है और जल प्रदूषण की संभावनाएं बढ़ी हैं। नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से कुओं के जलस्तर पर जबर्दस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कुओं की हालत यह है कि 75 प्रतिशत कुएं हर साल दिसंबर माह में, 10 प्रतिशत जनवरी में और 10 प्रतिशत अप्रैल माह में सूख जाते हैं। पूरे प्रदेश में केवल दो प्रतिशत ऐसे कुएं हैं, जिनमें बरसात के पहले तक पानी रहता है। ग्राम सिंहनिवास (शिवपुरी) के कृषक बुद्धाराम कहते हैं इस इलाके में जब से ट्यूबवैल बड़ी मात्रा में लगे हैं तब से कुओं का पानी जल्दी सूखने लगा है। शिवपुरी जिला पंचाय के पूर्व अध्यक्ष रामसिंह यादव का कहना है, ‘एक ट्यूबवैल 5 से 10 कुओं का पानी सोख लेता है।' जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् भी अब मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने और जलधाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है। नलकूपों के खनन में तेजी आने से पहले तक कुओं में लबालब पानी रहता था, लेकिन सफल नलकूपों की पूरी एक �श्रृंखला तैयार होने के बाद कुएं समय से पहले सूखने लगे।
भूमि संरक्षण विभाग के अधिकारियों का इस सिलसिले में कहना है कि भूमि में 210 से लेकर 330 फीट तक छेद (बोर) कर दिए जाने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएं नीचे चली गईं। इससे जलस्तर भी नीचे चला गया और ज्यादातर कुएं समय से पूर्व ही सूखने लगे।
नलकूपों का खनन करने वाली रिग्ग और गेज मशीनों के चलने में धरती की परतों का बहुत बड़ा क्षेत्र प्रकंपित होता है। इससे अविरल बह रही जलधाराओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और जलधाराओं की पूरी संरचना अस्त-व्यस्त होकर बिखर गई जो जलस्तर स्थिर बनाए रखने में सहायक रहती थी। अब हालात इतने बदतर हो गए हैं कि जलस्तर तीन सौ से आठ सौ फीट नीचे तक चला गया है। ये मशीनें आठ इंच तक का चौड़ा छेद करती हैं। लिहाजा यह तो निश्चित है कि ये मशीनें जलस्तर की समस्या बढ़ाएंगी ही जल प्रदूषण की समस्या भी खड़ी करेंगी, क्योकि अधिक गहराई से निकाले गए जल में अनेक प्रकार के खनिज व लवण घुले होते हैं और जल की सतह पर जहरीली गैसें छा जाती हैं जो अनेक रोगों को जन्म देती हैं। ये गैसें गहरे कुओं के लिए और भी घातक होती हैं।
भिंड जिले के कुओं में हर साल जहरीली गैसों का रिसाव होता है। पिछले 6-7 सालों के भीतर यहां दो दर्जन से ज्यादा लोग जहरीली गैसों की गिरफ्त में आकर प्राण गंवा चुके हैं। भिंड जिले के ग्रामों में कुएं 75 से 125 फीट तक गहरे हैं। पानी खींचने के लिए पानी की मोटरें लगी हुई हैं। जब कभी मोटर खराब हो जाती है तो किसान को खराबी देखने के लिए कुओं में उतरना होता है और अनजाने में ही किसान जल की सतह तक निकलकर फैली गेस की चपेट में आकर
होश गंवा बैठता है और जान दे देता है।
कृषि वैज्ञानिकों और अधिकारियों का इस सिलसिले में कहना है कि कुएं में जहरीली गैसों से मौतें इसलिए होती हैं क्योंकि गहरे कुओं में कार्बनडाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड और मीथेन गैसें होती हैं जिससे ऑक्सीजन की कमी गहरे कुओं में हो जाती है। कुओं में ऑक्सीजन की कमी की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि कुओं के भीतर जो भी मौतें हुईं, उन मृतकों के मुंह खुले और त्वचा का रंग पीला पाया गया। ये जहरीली गैसें निकलने का प्रमुख कारण जल स्तर लगातार गिरते जाना मानते हैं और यह भी चेतावनी देते हैें कि जल स्तर इसी तरह नीचे गिरता रहा और कुओं का गहरीकरण होता गया तो जहरीली गैसों का और जयादा रिसाव हो सकता है। कृषि वैज्ञानिक कुओं में जहरीली गैस का पता लगाने के लिए उपाय सुझाते हैं कि जब भी गहरे कुओं में उतरना हो तो पहले कुओं में जलती हुई लालटेन रस्सी में बांधकर पानी की सतह तक उतारें। यदि लालटेन बुझ जाती है तो समझिए कि कुएं में जहरीली गैसें हैं।
कठोर चट्टानों की जटिल संरचना वाले मध्य प्रदेश में भू-जल संवर्द्धन की अवधारणा इसकी विविधता के कारण विशिष्ट पहचान रखती है। उत्तर भारत में हिमालय से निकलने वाली नदियों के तंत्र के विपरीत प्रदेश की सभी छोटी-बड़ी नदियां भू-जल से जलमग्न एवं प्रवाहित रहती हैं। प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा लावा निर्मित बेसाल्ट चट्टानों से निर्मित है। जिसका सकल क्षेत्रफल 1.43 लाख वर्ग किलोमीटर है, जो प्रदेश के क्षेत्रफल का करीब एक तिहाई है। भू-जल की उपलब्धि, भू-स्तर के नीचे पाए जाने वाले जल भंडारों के गुणों की असमानता पर निर्भर होती है। भू-जल उपलब्धि की समस्या झाबुआ जैसे जिलों में, जहां वर्षा का औसत 80 सेंटीमीटर से कम है, वर्षा की कमी के कारण और जटिल हो जाती है। वर्षाऋतु में बहने वाले पानी के उपयुक्त संरक्षण द्वारा भू-स्तर के नीचे जो जल भंडार रीत गए हैं। उनकी जल आपूर्ति की जा सकती है। स्थानीय परिस्थितियों में स्थान भेद के कारण होने वाले अंतर के बावजूद मोटे तौर पर बेसाल्टी चट्टानों में 90 फीट गहराई तक उपलब्ध जल भंडारों का जल पीने योग्य है, परंतु गहरे नलकूप जिनका छिद्रण क्षमता 500 फीट के करीब है, ऐसे नलकूपों में खारे पानी की मात्रा ज्यादा है। इस कारण पानी की शुद्धता के लिए भू-स्तर के नीचे उपलब्ध जल भंडारों को वर्षा जल से भरकर पुनर्जीवित किया जाना जरूरी है।
अंधाधुंध नलकूपों के गहरीकरण पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय नहीं तलाशे गए तो इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत तक सबसे जबर्दस्त संकट जल की कमी और जल प्रदूषण का होगा। इस समस्या के निराकरण के सार्थक उपाय बड़ी मात्रा में पारंपरिक जलग्रहण के भंडार तैयार करना है। पारंपरिक मानते हुए जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले पचास सालों में घोर उपेक्षा की है, नतीजतन आज हम जल समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि इन्हीं तकनीकों के जरिए स्थानीय मिट्टी और पत्थर से पद्मश्री और पद्मविभूषण से सम्मानित अण्ण हजारे की अगुआई में महाराष्ट्र के गांव रालेगन सिद्धि में जो जल भंडार तैयार किए गए हैं, उनके निष्कर्ष समाज के सर्वांगीण विकास, समृद्धि और रोजगार के इतने ठोस आधार बने हैं कि वे जल संग्रहण की अभियांत्रिकी तकनीक (वाटर रिर्सोसेज इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी) और रोजगारमूलक सरकारी कार्यक्रमों के लिए जबर्दस्त चुनौती साबित हुए हैं।
अण्णा हजारे द्वारा इजाद कुशल जल प्रबंधन पर्यावरण की एक साथ तीन समस्याओं का निदान खोजने में भी सहायक हैं। इस तकनीक से भूगर्भीय जलस्तर बढ़ा है। भू-क्षरण रुका है और बड़े बांधों के जल रिसाव से खेती के लिए उपयोगी जो हजारों बीघा जमीन दलदल बन जाती है उसकी कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसी तकनीक इजाद करने में हमारे वैज्ञानिक और इंजीनियर नाकाम रहे हैं। जल संग्रहण की इन तकनीकों की एक खासियत यह भी है कि इनकी संरचना के निर्माण में किसी भी सामग्री को बाहर से लाने की जरूरत नहीं है। स्थानीय मिट्टी, पानी और पत्थर से ही जल संग्रहण की ये सफल तकनीकें तैयार होती हैं। यदि इन तकनीकों का गंभीरता से अनुसरण नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल समस्या से कोई अन्य तकनीक नहीं उभार सकती?
प्राकृतिक संसाधनों की घटती उपलब्धता
देश में आजादी के बाद दूर-दृष्टि का बहाना लेते हुए जो विशाल जलाशय सिंचाई, विद्युत ओर पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर बनाए गए थे वे अब दम तोड़ रहे हैं। केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजे आंकड़े दिए हैं उनसे जाहिर होता है कि आने वाली गर्मियों में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है। इन आंकड़ों से यह साबित हो गया है कि, जल आपूर्ति आलीशान जलाशयों (बांध) की बजाय जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का वर्चस्व खतरे में पड़ गया, दूसरी ओर जिन ग्रामों और कस्बों के लोगों को विस्थापित कर बसाने के जो भी प्रयास किए गए वे विस्थापित लोगों के लिए कई साल बीत जाने के बावजूद जीवन-यापन के लिए अनुकूल सिद्ध नहीं हुए।
लगातार कम वर्षा अथवा अवर्षा के चलते माताटीला सहित चार जलाशय अपनी स्थापित जल क्षमता को प्राप्त न होने के कारण न तो विद्युत उत्पादन के निर्धारित लक्ष्य को पूरा कर पाए और न ही सिंचाई और पेय जल की तय क्षमताओं पर खरे उतरे। मौसम के मिजाज में लगातार हो रहे परिवर्तन से साल दो हजार सात में मार्च माह से ही मई जैसी गर्मी की तपन परिवेश में अनुभव होने लगी है। इस कारण बिजली और पानी की मांग भी बढ़ी है। पहाड़ी क्षेत्रों में कम बर्फ गिरने व कम वर्षा से खाली पड़े जलाशय जल उपलब्धता संबंधी चिंताओं को बढ़ावा दे रहे हैं। देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारन की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा 10 फरवरी, 2007 तक के तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षों के औसत भंडारन से भी कम जल का भंडारन हुआ हे। गौरतलब यह भी है दिसंबर 2005 में केवल 6 जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है। इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है, उनमें पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है। जिन जलाशयों में पानी की कमी है उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधीसागर व तवा, झारखंड के तेंनूघाट, मेथन, पंचेतहिल व कोनार महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणाप्रतापसागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं।
चार जलाशय तो ऐसे हैं जो पिछले एक साल से लगातार पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के रिहन्द जलाशय की विद्युत क्षमता 399 मेगावाट है। इसके लिए अप्रैल 2005 से जनवरी 2006 तक 938 मिलियन यूनिट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन वास्तविक उत्पादन 847 मिलियन यूनिट और राजस्थान के राणाप्रताप सागर में 271 मिलियन यूनिट के लक्ष्य की तुलना में 203 मिलियन यूनिट विद्युत का उत्पादन हो सका। कम वर्षा के यही हालात रहे तो यह निश्चित है कि जिन जलाशयों की विद्युत की जो उत्पादन क्षमता है उसमें निश्चित रूप से असाधारण गिरावट आएगी।
हमारे देश में बीते साठ सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। प्राकृतिक संसाधनों में से एक है ‘पानी' के साथ हमारे देश में ऐसा ही हश्र हुआ है। ‘जल ही जीवन है' की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती रही है। आजादी के दौरान प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता छः हजार घनमीटर थी, जो अब घटकर करीब एक हजार दो सौ घनमीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से और नदी, नालों, कुओं व छोटे ताल-तलैयों से पंपों के जरिए किया जा रहा है उससे यह निश्चित-सा हो जाता है कि अगले कुछ सालों बाद जल की उपलब्धता घटकर बमुश्किल एक हजार घनमीटर से भी कम रह जाएगी।
पूर्व में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के अनुसंधानपरक अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ियों को कालांतर में जबरदस्त जल समस्या और जल संकट का सामना करना होगा। नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने ‘क्रांति' की संज्ञा दी, दरअसल यह संज्ञा तबाही की पूर्व सूचना है जिसे हम नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं। देश में खाद्यान्न सुलभता को आंकड़ों को पिछले साठ साल की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इस खाद्यान्न उत्पादन के लिए जिस हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है उसके कारण नलकूपों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है, लेकिन उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता घटी है।
अभी तक भूमिगत जल का ही संकट परिलक्षित हो रहा था लेकिन अब केंद्रीय जल आयोग ने जलाशयों में जलाभाव संबंधी जो आंकड़े दिए हैं, उनसे यह आशंकाएं बढ़ गयी हैं कि बर्बादी की बुनियाद पर जिन बड़े जलाशयों की आधारशिला रखी गई थीं और उनसे जल व विद्युत उपलब्धता के जो दावे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जा रहे थे वे खोखले साबित होने लगे हैं। हालांकि आजादी के बाद भारतीय जन-मानस जिस तेजी से शिक्षित होने के बाद उपभोक्तावादी संस्कृति का अनुयायी हुआ, उसी तेजी से उसने जल और विद्युत दोनों का बेरहमी से दुरुपयोग भी करना शुरू कर दिया। इस दुरुपयोग में सरकारी मशीनरी भी भागीदार है। सरकारी और कार्पोरेट दफ्तरों के कक्षों को वातानुकूलित बनाए रखने के लिए चौबीसों घंटे एयर कंडीशनर का प्रयोग किया जाने लगा, वहीं खेतों में फसल की सिंचाई के लिए बिजली की उपलब्धता नहीं है। गर्मियों में भी इन दफ्तरों में इतनी ठंडक पैदा कर दी जाती है कि दफ्तरों में कार्यरत लोगों को गर्म कपड़े पहनने होते हैं। यह बिजली का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? बिजली के ऐसे दुरुपयोग पर हर क्षेत्र में अंकुश लगाया जाना अत्यन्त जरूरी है। यदि केवल ए.सी. पर अंकुश लगाया जाता है तो हजारों मेगावाट बिजली दुरुपयोग से बचेगी।
बड़े बांध (जलाशय) हजारों एकड़ भूमि पर खड़े जंगलों को काटकर बनाए जाते हैं। जबकि ये जंगल जलवायु को संतुलित बनाए रखने के साथ, धरती में नमी बनाए रखने के लिए भी जरूरी हैं। इस नमी से भी मिट्टी में 0.2 प्रतिशत आर्द्रता रहती है। इसी आर्द्रता से वायु में 0.1 प्रतिशत शीतलता बनी रहती है। जंगली और दुर्लभ वन्य प्राणियों के लिए भी इन जंगलों का अस्तित्व बनाए रखना जरूरी है। लेकिन हम वन्य प्राणियों की तो क्या, बड़े बांधों के लिए उन बस्तियों और उनमें रहने वाले लोगों को भी उजाड़ देते हैं जो जल और जंगल से आत्मसात होते हुए सदियों से जीवन गुजारते चले आ रहे होते हैं। जब इन लोगों का संबंध बांध क्षेत्रों की जमीन और जंगल से विस्थापन के बहाने टूट जाता है तो इनकी कई पीढ़ियां कई दशकों तक दाने-दाने को मोहताज बनी रहती हैं। भले ही सरकार इनके ठीक से पुनर्स्थापित किए जाने के चाहे जितने ही दावे करती रहे?
पाश्चात्य और आयात शिक्षा तंत्र के बहाने हमारे राजनेताओं और नौकरशाहों ने पारंपरिक जीवन-पद्धतियों की अवहलेना कर विकास के नये ढांचों को सदियों के लिए उपयोगी जताकर भले ही खड़ा किया हो? देश की आजादी के पचास-साठ साल के भीतर ही विकास की कथित अवधारणाएं खंडित होने लगी हैं ओर इनके नतीजे निरर्थक साबित होने के साथ प्रकृति के साथ किए खिलवाड़ को भी स्पष्ट करने लगे हैं। यही कारण है कि आज हम अवर्षा अथवा कम वर्षा जल और विद्युत संकट का सामना करने के लिए विवश और लाचार दिखाई दे रहे हैं।
इस समस्या के निराकरण के सार्थक उपाय बड़ी मात्रा में पारंपरिक जलग्रहण के भंडार तैयारन करना है। पारंपरिक मानते हुए जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले पचास-साठ सालों में घोर उपेक्षा की है, नतीजतन आज हम जल समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि इन्हीं तकनीकों के जरिए स्थानीय मिट्टी और पत्थर से पद्मश्री और पद्मविभूषण से सम्मानित अण्णा हजारे की अगुआई से महाराष्ट्र के गांव रालेगन सिद्धि में जो जल भंडार तैयार किए गए हैं, उनके निष्कर्ष समाज के सर्वांगीण विकास, समृद्धि और रोजगार के इतने ठोस आधार बने हैं कि वे जल संग्रहण की अभियांत्रिकी तकनीक (वाटर रिसोर्सेज इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी) और रोजगार मूलक सरकारी कार्यक्रमों के लिए जबर्दस्त चुनौती साबित हुए हैं।
अण्णा हजारे द्वारा इजाद किए कुशल जल प्रबंधन पर्यावरण की एक साथ तीन समस्याओं का निदान खोजने में भी सहायक हैं। इस तकनीक से भूगर्भीय जलस्तर बढ़ा है। भू-क्षरण रुका है और बड़े बांधों के जल रिसाव से खेती के लिए उपयोगी जो हजारों बीघा जमीन दलदल बन जाती है उसकी कोई गुंजाइश नहीं है, साथ ही जंगलों का विनाश करने की भी जरूरत नहीं है। ऐसी तकनीक इजाद करने में हमारे वैज्ञानिक और इंजीनियर नाकाम रहे हैं। जल संग्रहण की इन तकनीकों की एक खासियत यह भी है कि इनकी संरचना के निर्माण में किसी भी सामग्री को बाहर से लाने की जरूरत नहीं है। स्थानीय मिट्टी, पानी और पत्थर से ही जल संग्रहण की ये सफल तकनीकें तैयार होती हैं। यदि इन तकनीकों का गंभीरता से अनुसरण नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामर्थ्य की बात नहीं रह जाएगी।
जैव विविधता के विनाश से जुड़ा भोजन का संकट
वह दिन अभी स्मृति से विलुप्त नहीं हुए, जब ग्रामों में पहली बारिश के साथ ही बिना किसी मानवीय उपक्रम के खेतों की बागड़ें और घरों की भींट व छतें आहारजन्य वनस्पतियों से लद जाया करती थीं। बहुत जरूरी हुआ तो कोठे की किसी मियार से लटकी पोटली में संभालकर रखे बीज दीवार के सहारे गीली मिट्टी में दाब दिए। फिर उनके अंकुरण से लेकर फलन का काम कुदरत के करिश्मे पर छोड़ निश्चित हो लिए। प्राकृतिक रूप से ही बरसाती नालों और पोखरों में विविध जीव-जंतुओं की लीला मचल उठती थी। वनप्रांतरों में उपलब्ध जैव-विविधता के इंद्रधनुषी रंगों का तो कहना ही क्या? देखते ही देखते आहारजन्य वनस्पतियों और जंतुओं की उपलब्धता प्रकृति पर निर्भर एक बड़ी आबादी की क्षुधापूर्ति की साध्य बन जाया करती थी। लेकिन पाश्चात्य मूल्यों की तर्ज पर आधुनिकीकरण और आर्थिक विकास की दर बढ़ाने की दृष्टि से अनियंत्रित औद्योगिक संस्थानों और ऊर्जा संयंत्रों को प्रोत्साहित किए जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने सारे पारिस्थितिकी तंत्र को तो गड़बड़ाया ही आम भारतीय को उपभोग की संस्कृति का भी आदी बना दिया। नतीजतन प्रकृति का बेरहमी से दोहन हुआ, मिट्टी में आर्द्रता कम हुई और प्राकृतिक रूप से बरसात में उत्पन्न हो जाने वाली जैव विविधता विलुप्त होने लगी। कृषि दर बढ़ाने के लिए कीटनाशक दवाओं और आनुवंशिक बीजों के इस्तेमाल ने जैव विविधता को नष्ट करने में बढ़-चढ़कर योगदान दिया। धीरे-धीरे जैव विविधता नष्ट हुई और जलवायु संकट भी बढ़ा। देखते-देखते करोड़ों लोगों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे।
इस बात की वैज्ञानिक व तार्किक पड़ताल हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले ही कर ली थी कि जैव विविधता मानवीय जीवन और उसके हितों की सुरक्षा करती हे। इसलिए भारतीय दर्शन और अध्यात्म का मूलाधार समस्त जीव एवं वनस्पतियों की रक्षा और कल्याण के सरोकारों से जुड़ा था। भौतिक सुख और कामजन्य लिप्साओं से भारतीय तत्वदर्शन इसीलिए दूरी बनाए रखने के सिद्धांत सामने लाता रहा। जिससे प्राकृतिक संपदा अनवरत बनी रहे और इंसान उपभोग के लालच में पड़कर जैव विविधता के क्रमिक विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध न कर दे। लेकिन आधुनिक जीवन-शैली में हमारी सुरसामुख हुई लिप्साएं इतनी विस्तृत हो गईं कि हमने जैव विविधता का विनाश कर पर्यावरणीय संतुलन को ही लड़खड़ा दिया। और अब जलवायु संकट भी हम झेल रहे हैं।
प्रगति की नाप हमने आम नागरिक की खुशहाली की बजाय शेयर बाजार में उछाल और भौतिक संसाधनों की उपलब्धियों से की। इनका वजूद कायम रहें इस बिना पर हमने संविधान में संशोधन कर कानून भी शिथिल किए। नतीजतन नदियां, तालाब, वन, वन्य जीव, समुद्र तट, उपजाऊ भूमि सब कथित विकास की भेंट चढ़ते हुए अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये संशोधन, राजनेताओं, नौकरशाहों और औद्योगिक समूहों की गठजोड़ ने सिर्फ इसलिए कराए जिससे प्राकृतिक संपदा का दोहन निर्बाध चलता रहे। भूमंडलीकरण के दौर में इस दोहन की गति और बढ़ गई। और प्राकृतिक संपदा कुछ निजी हाथों की संपत्ति में तब्दील होती चली गई।
जैव विविधता के लिए जरूरी पांच तत्वों में से सबसे ज्यादा हानि जल और पृथ्वी की हुई। औद्योगिक इकाइयों ने जल का इस हद तक दोहन किया कि जल संकट तो बढ़ा ही पृथ्वी की नमी भी जाती रही। नमी की कमी से जैव विविधता की जड़ें भी मुरझाती चली गईं। उद्योगों के कारण शहरीकरण बढ़ा और शहरीकरण के विस्तार से कृषि भूमि घटी इस विस्तार ने भी जैव विविधता को रौंदा।नतीजतन भारत में उपलब्ध 33 प्रतिशत वनस्पतियां तथा 62 प्रतिशत जीव-जंतुओं काअस्तित्व संकट में है। यदि विकास की यही गति रही तो 2050 तक विश्व की एक चौथाई प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी और मानव के लिए भूख का संकट और गहरा जाएगा।
कीटनाशक भी जैव विविधता के विनाश के कारण बने। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो करीब बीस हजार लोग प्रतिवर्ष विषैले कीटनाशकों के कारण ही मारे जाते हैं। जब मनुष्य के प्राणों की चिंता नहीं तो जैव विविधता की चिंता कौन करे? हालांकि नये प्रयोगों ने अब यह साबित कर दिया है कि फसल की सुरक्षा के लिए रासायनिक कीटनाशक जरूरी नहीं हैं। लेकिन ये नतीजे तब सामने आए जब आन्ध्र प्रदेश के ग्राम पुनुकुल और बांग्लादेश के किसानों ने कीटनाशकों का उपयोग किए बिना उपज अच्छी गुणवत्ता व ज्यादा मात्रा में पैदा कर कृषि वैज्ञानिकों को चुनौती दे डाली। लेकिन इस बीच लाखों टन कीटनाशकों का इस्तेमाल खेतों में किया गया, उसने लाखों एकड़ कृषि भूमि और असंख्य जल स्रोतों को प्रदूषित तो किया ही वनस्पति एवं जीव-जंतुओं की सैंकड़ों प्रजातियों को नष्ट कर दिया और सैंकड़ों को लुप्तता के कगार पर पहुंचा दिया। गौरैया, कौवे, गिद्ध, सांप, केंचुए, मेंढ़क आदि प्रजातियां खेतों में छिड़के कीटनाशकों के कारण ही विलुप्तता के कगार पर हैं।
स्वास्थ्यवर्धन के लिए दुनिया में बढ़ती आयुर्वेद दवाओं के उपयोग ने जड़ी- बूटियों से संबंधित जैव विविधता का विनाश किया है। विश्वभर में चिकित्सा विज्ञानी एड्स, कैंसर, हृदयरोग, रक्तचाप, मधुमेह आदि रोगों की स्थायी चिकित्सा का निदान भारतीय जड़ी-बुटियों में ढूंढ़ रहे हैं। इस कारण करोड़ों बिलियन डॉलर की जड़ी-बूटियों का निर्यात भारत से योरोपीय देशो में किया जा रहा है। जड़ी-बूटियों के निर्यात में कोई बाधा न आए इस नजरिए से केंद्र सरकार ने वनवासियों के संरक्षण से जुड़े कानूनों के क्रियान्वयन को जटिल बना दिया है। ऐसा फकत इसलिए किया गया जिससे वन संपदा का धड़ल्ले से बहुराष्ट्रीय कंपनियां नकदीकरण कर सकें। इन जड़ी-बूटियों का वनवासी आहार व उपचार में भी इस्तेमाल करते हैं, जिससे अब वे वंचित हैं। लेकिन जिस द्रुतगति से जड़ी-बूटियों का दोहन किया जा रहा है उसके चलते कितनी जड़ी-बूटियों का अस्तित्व बचा रह पाएगा?
�श्रृंगार प्रसाधन में वनस्पतियों की बढ़ती मांग जैव विविधता के लिए खतरा बनी हुई है। भारतीय पुष्प प्रसाधन सामग्री के निर्माण के लिए गुणवत्ता की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं। यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इनकी मांग लगातार बढ़ रही है। इसी कारण फूलों की खेती फिलहाल लाभ का सौदा बनी हुई है। लेकिन असीमित दोहन से प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने वाली पुष्प बल्लरियां नष्ट हो रही हैं। इन पुष्पों की कई किस्मों का उपयोग वनवासी भोज्य पदार्थ के रूप में करते चले आ रहे हैं, जिससे अब उन्हें नये कानूनी प्रावधानों के मार्फत वंचित किया जा रहा है।
नष्ट होती जैव विविधता से बेतरह प्रभावित होने वाले वे छोटे सीमांत किसान और वनवासी हैं जिनके लिए भूमि के टुकड़े, जलस्रोत और वनप्रदेश प्राकृतिक धरोहरें थीं। लेकिन कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण, औद्योगिक विकास और शहरीकरण ने पारिस्थितिकी तंत्र के ढांचे को ध्वस्त किया। नतीजतन जैव विविधता के क्षरण का क्रम शुरू हुआ। भूमंडलीकरण की शुरुआत के समय यह आशा की गई थी कि वस्तुओं की गुणवत्ता और प्राकृतिक संपदा के संरक्षण पर सरकारी शिकंजा और मजबूत होगा, लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी माफियाओं के समक्ष जैसे पूरे सरकारी तंत्र ने घुटने टेक दिए। जबकि सरकारी तंत्र को ध्यान रखना चाहिए कि जैव विविधता, विलक्षणता का वैकल्पिक अवतरण सरल व संभव नहीं है। जैव विविधता के विनाश ने भी गरीब को भोजन से वंचित किया हुआ है। जिसे प्रखरता से रेखांकित नहीं किया गया।
आर्थिक मंदी और घटता औद्योगिक उत्पादन
वैसे तो विश्वव्यापी मंदी का दौर है लेकिन भारत में औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार शून्य से भी नीचे चली जाएगी यह अंदाजा न सरकार को था और न हीउद्योगपतियों को? लिहाजा इस नकारात्मक महामंदी के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए बड़े आर्थिक पैकेज, छूटों और कर व बैंक ब्याज में कटौती की राहतों के अलावा राष्ट्र के नीति नियंताओं के पास और कोई सार्थक उपाय नहीं है। इस मंदी के चलते रोजगार का संकट भी गहराएगा।
घटते औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े सामने आने के साथ सूचना तकनीक, कंप्यूटर और निर्माण के साथ निर्यात के क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर रोजगार घटने के संकेत मिलने लगे हैं। पूंजीवादी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की पिछलग्गू बनी भारतीय अर्थव्यवस्था का यही हश्र होना था। ग्यारहवीं योजना की संरचना का आधार बढ़ती विकास दर की संभावनाओं को लेकर रची गई थी। योजनाकारों को उम्मीद थी कि अगली योजना के अंतिम चरण में दस प्रतिशत विकास दर का लक्ष्य आसानी से प्राप्त कर लिया जाएगा। लेकिन औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर नकारात्मक होकर आधा प्रतिशत नीचे चली गई है। जो आंकड़े और सर्वेक्षण सामने आए हैं, वे दर्शाते हैं कि अर्थव्यवस्था ढोल में पोल बन गई है। औद्योगिक उत्पादनों में जिस तेजी से गिरावट दर्ज की गई है उतनी ही तेजीसे रोजगार के अवसर आधुनिक क्षेत्रों में घटने के संकेत हैं। अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशो में भी करीब 25 लाख लोगों को नौकरियों से निकाले जाने का सिलसिला शुरू हो गया है।
पिछले डेढ़ दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था की कृत्रिम तौर से पेश की जा रही गुलाबी तसवीर फीकी पड़ने लगी है। औद्यागिक उत्पादन का जो सूचकांक जनवरी 2007 में 11.6 प्रतिशत था वह जनवरी 2008 में गिरकर 5.3 की वृद्धि दर पर अटक गया। और अब शून्य तक नीचे चला गया है। यदि वित्तीय साल 2006-2007 के प्रत्येक माह के औद्योगिक उत्पादन की पड़ताल की जाए तो उसकी तुलना में 2007-2008 के प्रत्येक माह में वृद्धि दर घाटे के क्रम में रही है। यह गिरावट इसलिए भी सोचनीय है क्योंकि उद्योग जगत देश के सकल घरेलू उत्पाद में 26 फीसदी का योगदान दे रहे हैं। खेती का योगदान भी घटकर 18.5 प्रतिशत रह गया है। 55 प्रतिशत योगदान वाले सेवा क्षेत्र की हालत भीचिंताजनक है। इधर विश्वव्यापी मंदी के चलते निर्यात में भी 12 फीसदी की कमी आई है।
औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) से नापा जाता है। इनकी परस्पर अनुकूल सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। लेकिन एक स्थापित मानव संसाधन सलाहाकार संस्था के सर्वे से जा हकीकत सामने आई है उसने स्पष्ट किया है कि सूचना तकनीक, उद्योग और विनिर्माण के क्षेत्रों में रफ्तार शिथिल पड़ गई इसलिए नये रोजगार उपलब्ध कराए जाने के अवसर बड़ी संख्या में घटेंगे। मुक्त बाजार व्यवस्था और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के साथ भारतीय व्यवसाय की पारंपरिक व्यवस्थाओं को ढकोसला साबित करते हुए ढांचागत संरचना विकसित किए जाने पर ज्यादा जोर दिया गया। सरकारी हस्तक्षेप के मार्फत गैर ढांचागत व्यवस्थाओं को छिन्न-भिन्न करने के कुत्सित प्रयास भी जारी रखे गए। खुदरा व्यापार में बेजा दखल और लघु व कुटीर उद्योगों की पीठ पर पूंजीपतियों के उद्योगों की स्थापना व व्यापार का एकाधिकार इसके उदाहरण हैं। यही कारण रहे कि उत्पादन व रोजगार के क्षेत्र में हालात बेहतर होने की बजाय और खस्ताहाल हुए। मसलन विद्युत के क्षेत्र में जो वृद्धि दर 8.3 फीसदी थी, उसमें पांच प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। उत्खनन के क्षेत्र में यह गिरावट 6 प्रतिशत तक है।
ये हालात एक ओर निवेश में कमी को दर्शाते हैं, वहीं दूसरी ओर नौकरियों में नये सृजन के अवसरों को नकारते हैं। सर्वेक्षण पर विश्वास करें तो कई बड़ी कम्प्यूटर और सूचना तकनीक कंपनियां इस साल शैक्षिक संस्थानों में परिसर चयन करने नहीं जा रही हैं। इस कारण अभियांत्रिकी, प्रबंधन व वाणिज्य स्नातकों में बेरोजगारी बढ़ेगी। दूसरी तरफ बंगलूर स्थिति कंपनियों ने अभियांत्रिकियों के औसत वेतन तीन प्रतिशत घटाने का निर्णय भी ले लिया है।
सूचना तकनीक और कंप्यूटर उद्योग को हमने रोजगार के अवसर बड़ी संख्या में उपलब्ध कराने का कारक मान लिया था, यह हमारा भ्रम था और हम दिग्भ्रमित बने रहे, यह कंपनियों की कुटिल चालाकी रही। सूचना तकनीक और कंप्यूटर कंपनियां इसलिए परवान चढ़ीं क्योंकि इन्हें केंद्र और राज्य स्तर पर भरपूर संरक्षण तो मिला ही इनकी खरीद के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों के बेवजह प्रावधान भी रखे गए और कंप्यूटर प्रशिक्षण से भी लोगों को जोड़ा गया। अंततः कंप्यूटर तकनीकी सरकारी व निजी संस्थानों में चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। उपलब्धि की कोई भी सौगात चरम पर पहुंचने के बाद ठहराव धारण कर लेती है। अब कंप्यूटर तकनीकी भी इसी ठहराव की गिरफ्त में हैं। वैसे भी यह तकनीकी उत्पादन की बजाय प्रबंधन कौशल से जुड़ी हुई थी। इसीलिए इसके दूरगामी परिणाम यही निकलने थे और इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटने ही थे?
उत्पादन और रोजगार के अवसर घटने की आशंकाओं की वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने भी पुष्टि की है। उनका मानना है कि भारतीय निर्यात में कमी होने के कारण 20 लाख रोजगार घटेंगे। इसके विपरीत भारतीय उद्योग संगठनों का दावा है कि वाणिज्य मंत्री का आंकड़ा गलत है, 80 लाख लोग बेरोजगार होंगे। ऐसी भयावह शंकाओं के बावजूद हम बड़े और उत्पादन रहित उद्योगों के पक्षधरता की शर्त पर लघु, कुटीर, कृषि और अन्य विविध किस्मों के घरेलू उद्योग-धंधों को उजाड़ते चले जा रहे हैं। मानवीय श्रम आधारित गांधीवादी आग्रह व प्रासंगिकता को उद्योगों से निम्नतर रखा है, जबकि हमें एक बड़ी आबादी वाले देश में मानव श्रम, मशीनी दक्षता और कंप्यूटर के प्रबंध कौशल के बीच एक ऐसा संतुलन बनाने की जरूरत थी जो परस्पर जुड़े रहकर एक-दूसरे के हित साधक बने रहते।
कृषि संकट के बुनियादी कारणों की पड़ताल किए जाने की बजाय हमने सतही कारणों को महत्व दिया और किसान को ऋण मुक्ति व नये ऋण की उपलब्धता के मृगतृष्णा के भ्रम में डाल दिया। यदि हम वाकई किसान के हित चिंतक बनना चाहते हैं तो किसान की पेंशनभोगियों की तरह नियमित आय सुनिश्चित की जाए। खेत में खड़ी फसल की उत्कृष्टता एवं पैदावार की बढ़त, खाद, पानी व बिजली की बुनियादी जरूरतों की समयबद्ध उपलब्धता से जुड़ी है। इनकी उपलब्धता के अभाव में फसल तो फसल किसानों की हाड़-मांस की काया भी सूखती चली जाती है। इसलिए खेती को खाद, पानी व बिजली की सुलभता तो प्रदाय हो ही, इनकी निर्भरता स्थाई न रहे, इसलिए प्रकृति से तादात्म्य स्थापित किया जाए। कृषि यदि प्रकृति से जुड़ती है तो दुग्ध उत्पादन से भी जुड़ेगी। दूध उत्पादन से किसान जुड़ा रहेगा तो दूध के नगदीकरण से भी जुड़ा रहेगा। ऐसे में उसकी साहूकारों पर कर्ज की निर्भरता धीरे-धीरे तिरोहित होगी। वैसे भी देखा गया है कि जिन क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादक समितियों की व्यापक संरचना है, वहां-वहां किसानों की आत्महत्याएं देखने में नहीं आई हैं और वे कमोबेश ऋणग्रस्तता से भी मुक्त हैं। ग्रामीण, रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर पलायन न करें इसके लिए ग्रामीण स्तर पर ही उत्पादनों की प्रसंस्करित किए जाने के संयंत्र भी लगाए जाने जरूरी हैं। यदि उद्योग और रोजगार को गांधीवादी श्रम आधारित अवधारणा से जोड़ा जाता है तो विकास के कथित आंकड़े निवेशकों और रोजगार धारियों को झकझोरेंगे नहीं। विश्वव्यापी मंदी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में अक्षम रहेगी। लेकिन सोच को नीतिगत स्वरूप में बदलने के लिए सरकार को पूंजीवादी सोच की दुविधा और अमेरिकी अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़े रहने की मानसिकता से भी निजात पानी होगी। भारत के नीति निर्माताओं को यह सोचना चाहिए कि सांस्कृतिक बहुलता वाले इस देश में विशाल आबादी के जीविकोपार्जन के साधन स्थानीयता से जुड़े रहे हैं इस नाते लघु, कुटीर व कृषि उद्योग से जुड़ी विविध उत्पादकता तो है ही जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन मानव-जीवन के लिए वरदान बने हैं, इसके लिए इन्हें अक्षुण्ण बनाए रखने की सांस्कृतिक व्यावहारिक समझ भी भारतीय ज्ञान परंपरा में है। यदि ऐसा संभव होता है तो न उत्पादन घटेगा और न ही रोजगार। वैसे भी कोई भी एक अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया के लिए आदर्श नहीं हो सकती। अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने अमेरिका को तो आर्थिक कुचक्र में डाला ही, पूरी दुनिया को भी अनियंत्रित वित्तीय आर्थिक तंत्र में उलझा दिया। अब इन हालातों से उबरने के लिए तमाम देशों को अपनी देशज अर्थव्यवस्थाएं ही खंगालनी पड़ रही हैं।
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