ॐ भूर्भवः तत्सवितुवरेण्यं भर्गोदेवस्य... ‘‘ओह ! माँ का फिर फोन...'' बकुल गुड़गाँव जाने के लिए तैयार होते हुए चहकी। माँ की ती...
ॐ भूर्भवः तत्सवितुवरेण्यं भर्गोदेवस्य...
‘‘ओह ! माँ का फिर फोन...'' बकुल गुड़गाँव जाने के लिए तैयार होते हुए चहकी। माँ की तीन साल से बरकरार वही चिरंतन चिंता..., ‘उम्र फिसल रही है। पीयूष यदि पसंद है तो उसकी रजामंदी लेकर अंतिम फैसला ले...। अन्यथा वे कहीं और लड़का देखें। साथ ही वे अपनी चिंता के स्थायी भाव की तरह हिदायत देती हैं, लड़के से एकांत में नहीं मिलना। निश्चित दूरी बनाए रखना। महिला को अकेली पाकर पुरूष पर कब हैवानियत हॉवी हो जाए, कहा नहीं जा सकता।‘
माँ चूंकि कॉलेज में हिन्दी साहित्य की प्रोफेसर हैं इसलिए दकियानूसी तो हैं नहीं। लेकिन कामकाजी महिला होने के नाते हो सकता है उनका वास्ता किसी परिचित पुरूष के हैवानियत में तबदील हो जाने की स्थिति से पड़ा हो और वे शरीरजन्य अदृश्य हैवानियत क्या होती है इससे रूबरू हुई हों ? हालांकि माँ खुद ऐसे लोकोपवादों का हिस्सा रहीं, जो स्त्री की सामाजिक मान-मर्यादा के विरूद्ध हैं। माँ की इसी उच्छृंखलता और मजबूत आर्थिक स्वावलंबन के कारण माँ के पारिवारिक रिस्ते गौण होते चले गए थे। बताते है माँ की बेवफाई इतनी बढ गई थी की उनकी कुछ जरूरतें पिता से पूरी होती तो कुछ माँ के चहेते विश्व विद्यालय के डीन डॉ. हरिमोहन मिश्रा से। माँ के इस दंभ का परिणाम भुगता बेचारे उन पिता ने जो अपनी सादा जीवन शैली और गरीबों के प्रति उदार प्रवृत्ति के चलते अपने वकालात के पेशे से कमोबेश कम अर्थ-अर्जन कर पाते थे। माँ के इसी उपेक्षित बर्ताव के कारण पिता काहिल, शराबी और एकांगी होते चले गए। बावजूद माँ-बेटी के प्रति शंकित रहती हैं कि उसके कदम कहीं बहक न जाएँ। सेक्स जो भोग का अंदरूनी मामला है उसे सवयंवर-वेदी पर सात फेरे लेने के उपरांत ही भोगा-परखा जाए। अवचेतन में बैठी रूढ़ परंपराओं में यौन भूमिकाएँ यहीं से शुरू हों, यही समाजिक नैतिक तकाजा है। माँ के वार्तालाप में इस संदेश का प्रच्छन्न बोध, भय, चेतावनी रहती है। ओह ! माँ जब अनुशासित रहने की हिदायतें देती हैं तब उनकी ध्यान में अनायास ही नकारात्मक छवि उतरती चली आती है। जबकि माँ को स्त्री होने के नाते समझना चाहिए कौमार्य तो फल की वह गुठली है जिसे चटकना ही है। बस थोड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है, जिसके तकनीकी उपाय बाजार में सहज सुलभ हैं।
पीयूष, एक हाई क्वालीफाई बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊँचे स्टेट्स और सालाना बारह लाख के पैकेज पर काम करने वाले युवक से बकुल की पहचान पुरानी नहीं है। बमुश्किल चार-पाँच दिन पहले ही से अपने दायित्व-निर्वहन के सिलसिले में उनकी मुलाकातों का क्रम शुरू हुआ। फिर उनमें परस्पर ऐसा आकर्षण जागा कि उनके लिए बीता हुआ कल आज की स्मृति और आने वाला कल आज का स्वप्न लगने लगा।
दरअसल, पीयूष गुड़गाँव में माइंड स्पेस कॉम्पलेक्स में स्थित जिस यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी में सॉफ्वेयर इंजीनियर है, उस दफ्तर में कुछ दिनों से अजीब किस्म की हैरत में डालने वाली परेशानियाँ सामने आ रही हैं। उन्हें आरंभिक दौर में अतीन्द्रिय शक्तियों की शैतानी हरकत भी समझा गया। प्रबंधकों ने प्रेतात्माओं की शांति हेतु जानकारों से शांति के कर्मकांडी उपाय भी कराए। लेकिन सुफल नहीं मिले।
पीयूष के कारपोरेट दफ्तर में दरअसल होता यह है कि कंप्यूटर ऑन करने के एक घण्टे के भीतर की-बोर्ड से दी जाने वाली कमांड नामंजूर की जाने लगती है। ए.सी. बैठने लगता है। जो लॅपटॉप फ्लेट व कार में ठीक काम करता है वही दफ्तर में काम बंद करने लग जाता है। बहरहाल पूरा दफ्तर इस अदृश्य शैतानी समस्या से जूझ रहा है। प्रबंधन ने वास्तुशास्त्री द्वारा सुझाए उपायों का भी बिल्डिंग में तोड़-फोड़ कराकर निवरण कराया। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात !
फिर पीयूष ने कैम-टू-कैम ऑन लाइन होते हुए बताया था, वह आजकल हिन्दी की एक फीचर एजेंसी की वेबसाइट बनाने में लगा है। कंपनी ने दो सप्ताह के भीतर वेबसाइट अपडेट कर ऑन लाइन करने का अनुबंध किया हुआ है। लेकिन अनायास पैदा हो जाने वाली इन अनहोनी घटनाओं ने ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी है कि समय पर काम पूरा न हो पाने के कारण पार्टी के समक्ष शर्मिंदा भी होना पड़ा। किंतु अच्छी बात यह रही कि एजेंसी के मालिक-संपादक चिन्मय मिश्र को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वे विलंब के लिए नाराजी जताने की बजाय, उसमें दिलचस्पी लेने लग गए। दरअसल मिश्र एजेंसी के संपादक होने के साथ प्रतिष्ठित विज्ञान व गल्प कथा लेखक भी हैं। उनकी रचनाएँ देश भर के हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित छपती रहती हैं। मिश्र ने ही पीयूष को दृढ़ विश्वास से बताया था कि मामला प्रेत-बाधा अथवा वास्तुदोष कतई नहीं है। इसलिए किसी अंध विश्वास में पड़ने की जरूरत नहीं है। मिश्र ने ही क्लू दिया था कि यह रासायनिक गैसों से जुड़ा मामला है। जो अदृश्य रूप में कहीं से रिस कर इलेक्ट्रोनिक उपकरणों पर हमला बोल, उन्हें निष्क्रिय बना रही हैं। इसलिए समस्या के समाधान के लिए किसी रासायनिक इंजीनियर से ट्रीटमेंट कराओ।
पीयूष ने कैम-टू-कैम संवाद संप्रेषण में अपनी मूढ़ता पर हंसते हुए बताया था, ‘कि एक कामयाब सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहते हुए उसने तो पहले यह सोचा ही नहीं था कि कोई ऐसी अदृश्य गैसें भी होती हैं जो कंप्युटर जैसे उपकरणों को बेजान कर सकती हैं।' खनकती ध्वनि तरंगों में बिंधे पीयुष के स्वर और भाषाई उच्चारण बकुल को अनायास ही भा गए थे।
तब ‘नेशनल सॉलिड वेस्ट कंपनी से संपर्क साधा गया। कंपनी ने इस आश्चर्य जनक मामले के शोध व निराकरण का दायित्व केमिकल इंजीनियर कु. बकुल चतुर्वेदी पर डाल दिया।
तब चार दिन पहले पर्सनेलिटी वर्किंग वूमेन की स्मार्टनेश लिए बकुल मेट्रो रेल से द्वारका के लिए निकली थी। मेट्रो के द्वारका स्टेशन पर खुद पीयूष उसे लेने आए थे। चूंकि वे कैम-टू-कैम बातचीत में एक-दूसरे से मुखातिब हे चूके थे, इसलिए उन्हें एक-दूसरे को पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। बकुल ने अभिवादन स्वरूप जब पीयूष से हाथ मिलाया तो अनुभव किया कि वह उसकी देह के गठन और नयनाभिराम सौंदर्य को ग्रहण करते हुए निहार रहा है। स्त्री के खिले सौंदर्य के साथ यह बर्ताव लाजिमी भी है, वरना सुंदर स्त्री के सम्मान को अंदरूनी ठेस न लगेगी ?
बकुल ने स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरते वक्त पीयूष के बराबर चलते हुए अनुमान लगाया कि उसकी पाँच फीट छह इंच की ऊँचाई की तुलना में इस सुदर्शन युवक पीयूष की ऊँचाई पाँच फीट ग्यारह इंच के करीब तो होगी ही। फिर उसके मन में एक फंतासी जगी, ‘काश...जोड़ी जम जाए तो फबेगी खूब ।'
अगले पल वे पीयूष की मारूति स्विफ्ट में थे। बकुल विंड स्क्रीन के बीचों बीच लगे काँच में अपना प्रतिबिंब निहारते हुए सफर में अनायास छितरा गए श्रृंगार को संवारने लग गई। तत्पश्चात वस्त्रों की सलवटों को दुरूस्त करने के लिए उसने वक्षस्थल को उभारते हुए टॉप इतना नीचे खींचा कि छातियों का कसा हुआ उभार और उन्नत हो गया। वह सामान्य हुई। कार गुड़गाँव के मुख्य मार्ग पर गति पकड़ रही थी।
-‘‘ आपने बीई कहाँ से की है ?'' पीयूष ने जिज्ञासावश पूछा।
-‘‘ गवरमेंट इंजीनियररिंग कॉलेज, ग्वालियर से बायो केमिस्ट्री एण्ड केमिकल साइंस में बीई की है। और आपने ?''
-‘‘ मैंने आई.आई.टी. कानपुर से इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एण्ड कंप्यूटर साइंस में बीई और सॉफ्टवेयर में एमटेक...। कितना अच्छा संयोग है कि आप ग्वालियर की हैं और मैं शिवपुरी का...। चंबल के कुख्यात डकैतों के लिए बदनाम इलाका !'' दोनों एक साथ ठिलठिला कर उन्मुक्तता से हंसे। जैसे पूर्व परिचित हों।
-‘‘ ओह ! याद आया..., आप शायद आई.आई.टी. की मेरिट में थे...। आपका सचित्र समाचार मैंने अखबार में पढ़ा था। शायद आपने आई.आईर्.टी. एण्ट्रेंस कॉम्पटीशन नाइंटी सिक्स में क्वालीफाई किया है ?'' आत्मविश्वास से लबरेज बकुल चहकी।
-‘‘ यस...! कम्पलीटली परफेक्ट...! आपकी स्मरण शक्ति लाजवाब है। क्या कोई केमिकल ट्रीटमेंट लेती हो जो मेमोरी इतनी शार्प बनी हुई है ?''
-‘‘ स्मृति अथवा चेतना का दिमाग में कोई एक तय केंद्रीय बिन्दु नहीं है। बल्कि वह दिमाग की संयुक्त क्रिया का प्रतिफल होती है। इसलिए इसका न तो केमिकल ट्रीटमेंट संभव है और न ही औषधीय प्रयोग से इसे बढ़ाया जा सकता। यह सब जन्मजात है। कुदरती है।''
-‘‘ ठीक कहा बकुल ! मानव शरीर में ही नहीं ब्रह्माण्ड के भी आंतरिक रहस्य इतने जटिल और अनंत हैं कि समस्त रहस्यों को वैज्ञानिक शोधों व तकनीकों से जानना असंभव ही है। विज्ञान केवल बाहरी दुनिया की पड़ताल कर सकता है। बल्कि इन अनुसंधानों में लगातार लगे रहकर कहो ग्लोबल वार्मिंग ही इतनी बढ़ जाए कि पृथ्वी को प्रलय ही लील ले...।''
-‘‘ इसीलिए तो हमारे मनीषियों ने प्रकृति व मनुष्य की अंदरूनी दुनिया को अध्यात्म और बाहरी दुनिया को विज्ञान से जोड़कर देखा...।''
-‘‘ लो..., प्रकृति और विज्ञान की बातें करते-करते कितनी जल्दी ऑफिस आ गए। लगता है हमारे वैचारिक तलों में कहीं तालमेल है, इसलिए पहचान दोस्ती में बदल सकती है...?'' पीयूष ने आलीशान बिल्डिंग के तलघर में कार पार्क करते हुए सवाल उछाला।
-‘‘ क्यों नहीं...। इसीलिए तो हम आधे घण्टे की मुलाकात में इतना में घुल मिल गए। वरना मुझे तो अनजान लोगों से खुलने में संकोच होता है। हमारी क्षेत्रीय पहचान ने भी आंतरिक निकटता बढ़ाने का काम किया है।''
-‘‘ क्षेत्र, भाषा और जाति परस्पर जल्दी निकटता बढ़ाने का काम करते हैं।''
कार से उतरने के बाद पीयूष ने रिमोट से गाड़ी लॉक की। फिर निसंकोच बकुल की हथेली अपनी हथेली में ली और उसे लगभग खींचता सा चौदह मंजिला भवन के आधार तल पर ही स्थित यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ्तर में ले आया। पीयूष ने कक्ष में प्रवेश के साथ ही कंप्यूटर सिस्टम और ए.सी. खोल दिए। बकुल देख रही थी पीयूष तत्परता से काम में जुट गया था। उसने शब्दिता संवाद सेवा फीचर एजेंसी की फाइल खोली और बकुल को सर्वथा नजर अंदाज कर प्रोजेक्ट के काम को आगे बढ़ाने में लग गया। बकुल को पीयूष की अंगुलियों की चपलता और स्क्रीन पर एकाग्रता, कहीं भीतर तक प्रभावित कर रही थीं। शायद प्रतिभा और परिश्रम का यही समन्वय रहा है, जो वे प्रावीण्य सूचियों में अपना नाम दर्ज कराते रहे हैं।
बकुल ने गूगल की साइट खोल कुछ सूत्र वाक्य टंकित किए और प्रतीक्षा करने लगी कि इस तरह से कंप्यूटर में व्यवधान आ जाने के सिलसिले में गूगल का सर्च इंजन क्या खोजकर देता है।
कुछ ही देर में इंटरनेट के मायालोक में समाए ज्ञानवर्द्धक सूचनाओं के पृष्ठ स्क्रीन पर उभरने लगे। बकुल ने सरसरी निगाह से पृष्ठों की पड़ताल आरंभ की...। अब तक जो कारण दर्शाये गए थे, वे कंप्यूटर के हार्डवेयर और नाजुक कल-पुर्जों की गड़बड़ी से जुड़े थे। जिनकी गंभीर समझ उसे नहीं थी। जब पृष्ठों के अवतरण का क्रम अनवरत रहा तो उसने फाइल की पृष्ठ संख्या देखी..., ‘दो हजार एक सौ नौ...।'
-‘‘ ओह माय गॉड !'' हताशा से बौखलाई बकुल ने माउस पेड पर जोर से पटका। विचलित मनस्थिति में बकुल अनायास ही आँखें मूँद रिवाल्विंग कुर्सी की पीठिका पर चित्त अवस्था में पसरती चली गई। पीयूष की एकाग्रता भंग हुई। उसने बकुल को निहारा..., उसके उन्नत उभारों से टॉप की व्ही शेप के बंध जैसे टूटने को हैं। कमर में कसी जींस और टॉप के बीच के नाभि प्रदेश की मृषण मांसल देह की कांति जैसे असंयमित भोग का आमंत्रण हो...। एक अनंग उत्तेजना में सनसनाई मानसिकता जैसे पीयूष को विवश कर रही थी कि निर्द्वंद्व पसरी चित्त देह पर वह पट्ट पसर जाए...।
अंगड़ाई लेती बकुल ने आँखें खोलीं। पीयूष को कमनीय कातरता से ताड़ते पाया। उसने अनुभव किया कि अपनी लापरवाही से वह जिस शारीरिक स्थिति में पहुँच गई थी, उसमें किसी भी युवा का उन अपारदर्शी हिस्सों में झांकना नैसर्गिक है, जिनमें पुरूष को बहका देने के रहस्य प्रच्छन्न हैं। ऐसे में उन्हें अनावृत्त कर मनमानी करने के लिए किसी का भी चंचल मन मचल सकता है। शायद स्त्री-पुरूष के सह कामकाज के बीच कुछ ही ऐसी ही परिस्थिति होती हैं कि वे उन्हें एक दूसरे के करीब लाने का माहौल अनजाने में ही रच देती हैं।
-‘‘ सॉरी पीयूष...। काम का भारी दबाव मुझे व्यथित कर देता है।'' वह लजाते हुए सामान्य हुई।
-‘‘ लगता है काम की थकान से आप ऊब गईं...। मैं ताजगी के लिए कॉफी मंगाता हूँ...।''
पीयूष ने कॉफी का आदेश दिया ही था कि उसके मोबाइल पर मंत्र जाप शुरू हुआ। ‘घ् नमस्य शिवाय..., घ् नमस्य शिवाय...!'
-‘‘ ओह ! भोपाल से चिन्मय मिश्र हैं...।'' फिर कॉफी के घूँट सुड़कने के साथ उसने मोबाइल ऑन कर कान से सटाया, ‘‘नमस्ते सर !''
-‘‘ नमस्ते..., नमस्ते...! समस्या का कोई हल निकला ?''
-‘‘ फिलहाल तो नहीं सर..., लेकिन हम युद्धस्तर पर जुटे हैं। केमिकल ट्रीटमेंट के लिए इंजीनियर बकुल चतुर्वेदी को लगाया हुआ है। वे मेरे साथ ही दफ्तर में समस्या के समाधान में जुटी हैैंं...।''
-‘‘ बहुत खूब ! अच्छा मुझे याद आ रहा है, ठीक इसी समस्या पर दो साल पहले मैंने एक लेख लिखा था, जो ‘स्त्रोत' फीचर से जारी होकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपा था। स्त्रोत एक ऐसी फीचर एजेंसी है जो हिन्दी विज्ञान लेखन को बढ़ावा देते हुए वैज्ञानिक जानकारी फैलाने का उल्लेखनीय काम कर रही है। मेरे पर्सनल कंप्यूटर से वह लेख डीलिट हो गया है। मैं स्त्रोत बुलेटिन की प्रति खोज रहा हूँ..., जैसे ही मिलती है, मेल करता हूँ। तुम्हारी समस्या के समाधान का फॉर्मूला भी उसमें अवश्य मिलेगा।''
-‘‘ जल्दी भिजवाइए सर..., ऐसा होता है तो हम आपके शुक्रगुजार रहेंगे।''
-‘‘ ठीक है।'' वार्तालाप समाप्त हो गाया।
दोनों ने कॉफी पीना शुरू की ही थी कि कंप्यूटर और ए.सी. जवाब देने लग गए। बकुल कुछ सोच-समझ पाती इससे पहले किसी जल-भँवर की तरह स्क्रीन पर उभर रही रोशनी गुल हो गई।
उसने तुरंत साथ लाए बैग से बॉक्स निकाला। जिसमें विभिन्न रासायनिक घोलों से भरी डिब्बियां थीं। सी.पी.ओ. का चेम्बर खोलने के बाद सावधानीपूर्वक बकुल ने चाँदी, पीतल, ताँबे और एल्युमीनियम के नाजुक पुर्जों को निकालकर डिब्बियों में बंद कर दिया। करीब तीस मिनट में वह फारिग हुई। बोली, ‘आज का काम पूरा हुआ। टुडे वर्क इज फिनिश।''
-‘‘ क्या जिन्न बोतल में बंद हो गया।'' मदारियों सी कार्यप्रणाली देख पीयूष ने चुटकी ली।
-‘‘ हाँ..., जिन्न, प्रेत, भूत, भय, हॉरर, हवा जो भी हो..., अदृश्य गैसों के रूप में हैं तो केमिकल ट्रीटमेंट में हकीकत सामने आ जाएगी।
-‘‘ इन गैसों को हम देख सकते हैं बकुल ?''
-‘‘ नहीं। गैसों को देखा नहीं जा सकता। यह प्रकृति की अंदरूनी दुनिया है। इसका केवल आभास किया जा सकता है। हम ज्यादातर दुनिया को अपनी संवेदनाओं से ही जानते हैं। ऐसे कई तत्व हैं जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से पहचान नहीं सकते। गैसों के अलावा तमाम सूक्ष्म जीवों और तरंगों को भी हम कहां पहचान पाते हैं ? संगीत की लय को भी हम कहां देख पाते हैं, किन्तु लय को सुनने वाले कान हमारे पास हैं। वह आवाज भी हम कहां देख पाते हैं, जो लय को प्रतिध्वनित करती है। बावजूद इनके वजूद हैं और हम इन्हें स्वीकारते भी हैं। और मानवीय संवेदना, ह्यूमन सेंसेविटी..., ‘‘बकुल ने बेहिचक आवेगपूर्वक पीयूष की हथेली फैलाई और उस पर गोल-गोल अंगुली घुमाते हुए फिर बोली, '' इसे भी हम छूकर महसूस करते हैं...। समझे...?'' हसीन शरारत करते हुए बकुल मुस्कराई। पीयूष उसकी अल्हड़ता से सकपका कर रह गया।
-‘‘ गैसों के चित्र बनाए जाने संभव हैं...? ‘‘मासूम बने रहते हुए पीयूष ने जिज्ञासा जताई।
-‘‘ इनके चित्र तो बस धुएँ की कल्पना की तरह हैं। वह तो दिमाग ही है, जिसमें परिकल्पनाएं छवियाँ उभारती रहती हैं। कंप्यूटर व मोबाइल तकनीक आज सर्वव्यापी है फिर भी हम सॉफ्टवेयर की बुद्धि और वेब फंक्शन की सजीव कल्पना का चित्रण कहां कर पाते हैं ?''
-‘‘...........'' पीयूष निरूत्तर व हतप्रभ था।
-‘‘ भौतिक विज्ञान के इन वजूदों का आभास तो किया ही जाता है, इन्हें आभासी हकीकत के आयाम से जोड़कर मनुष्य के लिए ये उपयोगी भी साबित हो जाते हैं। जैसे रेडियो, टीवी, वायरलैस, मोबाइल, नेट।''
-‘‘ तब क्यों हम भूत-प्रेत एंद्रिक व अलौकिक शक्तियों के फेर में भ्रमित होते रहते हैं ?''
-‘‘ मैं कोई विज्ञान और परा-मनोवैज्ञानिक शक्तियों की विशेषज्ञ थोड़ी ही हूँ, जो हर सवाल का तार्किक जवाब दे सकूँ। वह तो मैं अपने सब्जेक्ट के इतर धर्म, साहित्य व संस्कृति विषयक पुस्तकें खाली वक्त में पढ़ती रहती हूँ इसलिए नॉलेज में अपडेट बनी रहती हूँ। फिर भी मेरी जानकारी के मुताबिक बताती हूँ...।''
अपनी दिमाग-तंत्रिकाओं पर जोर डालने के बाद बकुल शुरू हुई, ‘‘आज दुनिया की संपूर्ण मानव जाति के समक्ष विरोधाभासी संकट यह है कि विज्ञान सम्मत शिक्षा हासिल करने के बावजूद उसकी आस्थाएँ तो अध्यात्म में हैं लेकिन वह जीना भौतिकता में चाहता है। इसी कारण वह अवचेतन में बैठी जन्मजात संस्कारों की जड़ता और सामाजिक वर्जनाओं को नहीं तोड़ पा रहा है। भूत, प्रेत, फरिश्ते आत्माएँ, अप्सराएँ, देवी, देवता विज्ञान की कसौटी पर खरे भले ही न उतरते हों, लेकिन मनुष्य उनके अस्तित्व को सदियों से मंजूर करता चला आ रहा है। इसलिए यही स्वीकारोक्ति हमें अंधविश्वास की अज्ञानता से छुटकारा नहीं लेने देती...''
बकुल थोड़ा रूककर बोली, ‘‘लिहाजा आज भी हम गणेशजी के दूध पीने, समुद्री जल मीठा हो जाने, मूर्तियों के रंग बदलने, दीवारों व पेड़ों पर दैवीय आकृतियां उभरने, अमरावती में अलौकिक प्रकाश से साध्वी के भस्मीभूत हो जाने जैसी घटनाओं के वास्तविक कारणों को जानने की बजाय दैवीय शक्तियों का चमत्कार मान, उनके समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं। ये घटनाएँ अंधश्रद्धा का प्रतीक होने के साथ हमारे अंतर्मन में जड़ीभूत वर्जनाओं को भी व्यक्त करती हैं। विज्ञान अलौकिक और पराशक्तियों के पक्ष को इसलिए कपोल कल्पित मानता है क्योंकि इनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मानव संवेदना तंत्र द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि हम व्यक्ति में विश्व दृष्टि का सृजन नहीं कर पा रहे हैं।''
-‘‘ तुम्हें तो विज्ञान और अध्यात्म का बड़ा ज्ञान है बकुल ! ऐसा विश्लेषण तो प्रवचनों में भी असंभव है।'' पीयूष ने अचरज से उसे निहारा।
-‘‘ ज्ञान असीम है। हमें जो ज्ञात है, वह मुट्ठीभर है लेकिन जो अज्ञात है वह अनंत है, अपार है। जिज्ञासु ब्रह्माण्ड के रहस्य लोक को जितना जानने की कोशिश करते हैं, यह दुनिया उतनी ही मायावी लगने लगती है। इसीलिए उपनिषदों से आधुनिक विज्ञान तक ब्रह्माण्ड के असंख्य रहस्य पहेली ही बने हुए हैं।''
फिर बकुल घड़ी में समय देख हैरान हुई, ‘ओह ! पीयूष पाँच बज चुके। चलना चाहिए। लंबा सफर तय करना है।' बकुल उठ खड़ी हुई।
-‘‘ तुम उस समय को मापने की कोशिश कर रही हो जो असीम और अपरिमेय है...।''
-‘‘ आप भी दर्शन की भाषा बोलने लग गए...।''
दोनों ठठाकर हंसे।
-‘‘ मैं कहां दर्शन की भाषा समझूँ ? मैं तो मानवीय सरोकारों के ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ। भीतरी और बाहरी दुनिया के बारे में जितना तुमने मुझे बताया, मैंने इतना तो पहले कभी जाना ही नहीं। तकनीकी शिक्षा और कॅरियर की जद्दोजहद के फेर में अब तक किसी लड़की से मेरी निकटता नहीं बढ़ी। भावनाओं का ज्वार मुझमें उफनता ही नहीं। पर अब लगता है बकुल, तुम्हारा आज का साथ मेरे अंतर्मन में जमी तकनीकी जड़ता को तोड़ने वाला साबित होगा।''
-‘‘ ऐसा होता है तो यह मेरे लिए सौभाग्यशाली है।'' अपने वाक्चातुर्य के प्रभाव का पीयूष पर असर देख बकुल निहाल थी। वह आत्ममुग्ध थी क्योंकि उसके सौंदर्य और ज्ञान के मिश्रित प्रभाव ने पीयूष के चित्त पर सम्मोहन का जादू जगा दिया था।
वापिसी के लिए वे कार में थे। पीयूष ने स्थिर गति से कार ड्रइव करते हुए पूछा, ‘‘बकुल तुम आस्तिक हो या नास्तिक ?''
-‘‘ मैं हूँ तो आस्तिक..., परंतु मेरी आस्तिकता धार्मिक पाखण्ड और कर्मकांड मैं निहित नहीं हैं। स्त्री की दैहिक शुचिता, पवित्रता की भी मैं वैसी हिमायती नहीं हूँ कि वर्जिनिटी (कौमार्य) के भंग होने पर आत्मघाती कदम उठा लूं। मैं प्रकृतिवादी हूँ। प्रकृति और पुरूष की अवधारणा में विश्वास रखती हूँ। विज्ञान प्रकृति के तथ्यों व सत्यों पर आश्रित प्रकृति का दर्शनशास्त्र ही तो है। अब तक विज्ञान ने जो भी तरक्की की है वह प्रकृति के तत्वों का कायांतरण भर है। ऊर्जा पर नियंत्रण का चमत्कार ही है। विज्ञान अब तक तत्वों में अदृश्य रूप में स्थित परमाणु का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर पाया है। इसलिए विज्ञान की आधारशिला अंततः प्रकृति ही है, पीयूष।''
-‘‘ और स्त्री-पुरूष की आधारशिला क्या है ? वह अदृश्य कौन-सा आकर्षण है जो विपरीत लिंगियों को खींचता है, मिलाता है ?''
दोनों में फूटे अंदरूनी आवेग ने त्वचा में कमनीय कांति ला दी।
-‘‘ स्त्री-पुरूष का आकर्षण एक जैविक जरूरत है। डिमांड इज बॉयलॉजीकल। दैहिक मिलन, शरीर के अदृश्य हिस्सों में विलीन जैविक रसायनों और संवेदनाओं को परसपर आदान प्रदान को तल देता है। सृष्टि की यही विनोद लीला है। इसी लीला में जीव-जगत का जैविक विकास अंतर्निहित है।''
रोचक बातों में पता ही नहीं चला कि वे कब मेट्रो स्टेशन पहुँच गए। प्लेटफॉर्म सूना पड़ा था। मेट्रो खड़ी थी। इस वक्त मेट्रो में ज्यादा रस नहीं रहता है। उसे छूटने में अभी बारह मिनट बांकी थे। दोनों वातानुकूलित डिब्बे के भीतर हो लिए। इन दो प्राणियों को छोड़ डिब्बा पूरा खाली था। बकुल ने बैग सीट पर रखे और ठीक पीयूष के सामने खड़ी हो गई। तब पीयूष उसके चेहरे की तरफ झुकता सा बोला, ‘‘बकुल तुमने ऑस्कर वाइल्ड का लिखा यह कथन पढ़ा है कि ज्यादातर लोग दूसरे लोग होते हैं। यानी वे वही सोचते हैं जो दूसरे सोच रहे होते हैं...''
-‘‘ हां, पढ़ा है..., और अपने बीच इस पल यह यथार्थ भी है..., यू किस मी...'' और बिदांस बाला बकुल ने वर्तमान क्षणों का भरपूर लुत्फ उठाने की दृष्टि से पीयूष का चेहरा अपने चेहरे पर खींच लिया। तीव्र उत्तेजना में आलिंगन बद्ध हुए शरीरों में प्राकृतिक रूप से आलोड़ित-आंदोलित हो रहे जैव रसायनों और संवेदनाओं के समरस होने का क्रम शुरू हुआ। लेकिन सार्वजनिक स्थल पर तो यह प्रक्रिया यौनजन्य वर्जना होने के साथ एक हरकत ही थी। इसलिए डिब्बे में लोगों के चढ़ने की आहट हुई तो दोनों बेमन से अलग हो गए। रेल की चलने की उद्घोषणा हुई तो पीयूष नीचे उतर आया। पीयूष उस खिड़की पर था जिसके पारदर्शी कांच के उस पार बेताव बकुल थी। कांच के दोनों तरफ स्पर्श की कोशिशों को वास्तविक तल नहीं मिलने के कारण दोनों का आवेश आभासी तल पर छटपटाता रह गया। मेट्रो अपने तल पर गति पकड़ रही थी।
दफ्तर से फारिग हो पीयूष घर पहुँचा। समय पर काम पूरा न होने के दबाव से दिमाग ठसा था। शिथिल करने के लिए फ्रिज से बीयर की बोतल उठाई और आधी बोतल एक बार में गटक गया। मुंह का स्वाद बिगड़ा तो रसोई में नमकीन ढूँढ़ा। सभी डब्बे खखोरने पर एक डब्बे में मां के हाथों से बने पापड़ व खीचले मिल गए। माइक्रोवेव में सेंकते हुए माता-पिता की याद आ गई। पिछली मर्तबा बात हुई थी तब मां ने बुरी तरह से उसे डपटा था, ‘‘रे पीयूष तूने तो हमारा सुख-चैन हर लिया। हमें पहले पता होता कि तू बैक-टैक की पढ़ाई करके मां-बाप का सहारा नहीं रह जाएगा, तो तुझे मैं किसी भी हाल में नहीं पढ़ाती। विदेशी कंपनियों का बंधुआ बना रहकर उन्हें मालामाल करने में दिन-रात खटता है। शरीर सुखा लिया। कैसा लंपा-सा हो गया है। इससे तो अच्छा होता, तू मंद बुद्धि पैदा होता। यहीं छोटी-मोटी नौकरी कर हमारे बुढ़ापे का सहारा तो बना रहता। जरा सी दुःख परेशानी आने पर अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चों का मुंह ताकना पड़ता है। चल हमारी फिकर तो छोड़, भाग में जो बदा होगा, भुगत लेंगे। पर तू तो शादी कर ले। बत्तीस में आ गया। उम्र थोड़ी और खिंच गई तो कोई भला बाप तो तुझसे अपनी बेटी ब्याहने से रहा। तूने कहीं किसी करमजली से आँख लड़ा रखी हो तो उसी के संग फेरे डाल ले। चाहे परजात हो। बिरादरी समाज की निंदा की चिंता हमें नहीं। हमें सुकुन से जीने देना चाहता है तो जल्दी फैसला ले।'' मां ने उसका कोई उत्तर सुने बिना फोन काट दिया।
पीयूष जानता है मां की कड़वी बातें जीवन की व्यावहारिक सच्चाई हैं। मां पढ़ी-लिखी जरूर आठवीं तक है, पर उनके मुंहफट और ठसक भरे देशज लहजे के सामने अच्छे-अच्छे ठहर नहीं पाते। विश्वग्राम कार्पोरेटकल्चर द्वारा प्रवर्तित बाजारवादी प्रौद्योगिता के वे दक्ष कामगारों के रूप में बंधुआ ही तो हैं। मानवश्रम के शोषण के अमेरिकी संस्करण ! एडम स्मिथ की पूँजीवादी आर्थिकी के पिछौवा ! जिसकी व्यस्तता में न परिजनों के प्रति मोह रह गया है और न उनकी असहायता के संरक्षण की परवाह ! अभिभावकों के प्रति कृत्ध्नता के बोध ने मन-मस्तिष्क में विचित्र किस्म की उदासीन एकांतिकता भर दी। इसे भंग करने के उपाय के अंतर्गत उसने बकुल से बात करने का बहाना ढूँढ़ा। अविलंब पीयूष ने पापड़ और खीचलों के स्वाद के साथ शेष बीयर भी पेट में उड़ेल ली।
पीयूष लेपटॉप खोल नेट सर्फिंग करने लग गया। मेल बॉक्स में चिन्मय मिश्र का मेल पड़ा था। पढ़ने का सिलसिला शुरू किया तो वह हैरान रह गया। इलेक्ट्रोनिक उपकरण बंद हो जाने की जो समस्या उनके दफ्तर में चल रही थी, हुबहू वैसी ही समस्या का लेख में विस्तार से उल्लेख तो था ही, आसान समाधान भी था। ऐसा धरती से रिस रही लैंडफिल गैसों के समूह के कारण हो रहा था। उनके दफ्तर में इन गैसों का आसार इसलिए और ज्यादा था क्योंकि दफ्तर आधार तल में स्थित है। लेख में बताया गया था, ऐसी गैसें उन स्थलों पर उत्सर्जित होती हैं, जहां गड्ढों युक्त ऊबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण औद्योगिक, प्रौद्योगिक व घरेलू कचरे से पाटकर किया जाता है। कचरे का प्राकृतिक रूप से ट्रीटमेंट होने से पहले बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं। दस-बारह साल बाद इन गैसों का उत्सर्जन शुरू होता है और ये गैसें इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के नाजुक पुर्जों पर हमला बोल उनकी संवेदन शक्ति कुंद कर देती हैं।
किसी प्रोफेशनल से बात करने का पीयूष को उम्दा प्रोफेशनली बहाना मिल गया था। उसने तुरंत फ्रिज से दूसरी बोतल निकाली। दांतों से ढक्खन खोला। गटकते हुए बकुल का नम्बर डायल किया।
-‘‘ हैलो..., कौन...?'' बकुल की उनींदी आवाज गूँजी।
-‘‘ मैं पीयूष...।''
-‘‘ सोये नहीं अभी। बारह बज रहे हैं।''
-‘‘ आईटी बीपीओ कंपनियों के निशाचरजीवियों को नींद आती है कभी ? टार्गेट एचीव करने की कमबख्त चिंता हर वक्त बनी रहती है। पर आज तो तुम्हारे जिस्म, ग्लेमर और बोल्डनेस का जादू छाया है, माय डियर बकुल !''
-‘‘ लगता है नशे में हो..., ड्रिंक ली है क्या ?''
-‘‘ तुम्हारे रूप की ख्वाहिश, अदाओं में तहजीब और वाणी की मिठास का नशा क्या कम है जो दारू पीने की जरूरत पड़े...?
-‘‘ हट..., झूठे कहीं के...सच बता न ड्रिंक ली है ?'' अपनी तारीफ सुन बकुल इठलाई।
-‘‘ हां..., ली है। बीयर की एक बोतल चढ़ा चुका हूँ..., दूसरी पी रहा हूँ। जब किसी प्रोफेशनल से बेतकल्लुफी से बात करनी होती है तो संकोच न बना रहे इसलिए बीयर या वाइन कभी-कभा ले लेता हूँ।'' पीयूष ने सफाई दी।
-‘‘ मेरे प्यारे निष्काम कर्मयोगी इतनी रात गए प्रोफेशनल से बात करोगे या मित्र बकुल से ?'' बकुल को भी शोखी भरी शरारत सूझ आई।
-‘‘ पहले प्रोफेशनल से बात करूँगा फिर मित्र बनाम माशूका से...''
-‘‘ माशूक से भी आगे की जो कड़ी होती है उसके बारे में भी सोचो ?'' उसने समय की अनुकूलता देख प्रतीकात्मक रूप में शादी का प्रस्ताव रख दिया।
-‘‘ कुछ दिन फ्लर्टिंग करलें, फिर इस पड़ाव पर तो पहुँचना ही है।''
-‘‘ देखो, पीयूष तुम्हारे साथ मेरी आशिक मिजाजी फिलहाल एक क्षणिक मानसिक या शारीरिक आनंद के लिए है। लेकिन मैं चाहती हूँ कि क्यों न हम इसमें स्थायित्व लाएँ। हम एक ही जाति से हैं और एक ही क्षेत्र से। इसलिए परिजनों की सहमति लेने में भी आसानी रहेगी ?''
-‘‘ यह तो मैंने सोचा ही नहीं। मेरे पेरेंट्स भी शादी के लिए परेशान हैं। तुम्हारे प्रस्ताव के प्रति मैं गंभीर हूँ। वादा करता हूँ जल्दी फैसला लूँगा...।''
बकुल को लगा, मेट्रो में शारीरिक संवाद की उसकी ओर से की गई पहल का जादू प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति साबित होने जा रही है, जिसने पीयूष के सपाट अंतराल में संवेदना और रोमांच की अनुभूति का आकाश खोलना शुरू कर दिया है। सच, अंग, आंखें और आवाज की अभिव्यक्तियां ही तो स्त्री-पुरूष को परस्पर रिझाने की वह विधा हैं जो प्रगाढ़ता का अटूट भरोसा रचती हैं।
-‘‘ चलो अब व्यावसायिक मुद्दे पर आओ...?'' बकुल ने संयम का सहारा लिया।
-‘‘ ओ.के.। मैंने जिन विज्ञान लेखक चिन्मय मिश्र की बात की थी उनका मेरे मेल पर आर्टिकल आ गया है। मैंने पढ़ा तो हैरान रह गया। अदृश्य शक्तियों का कंप्यूटर पर इस हमले को उन्होंने लैंडफिल गैसों का हमला बताया है। जिस तरह से उन्होंने तथ्यपरक वर्णन व विवेचन किया है उससे मुझे विश्वास है कि गड़बड़ी इन्हीं गैसों के उत्सर्जन से पैदा हुई है। मुझे तो उम्मीद ही नहीं थी की हिन्दी में इतना सार्थक विज्ञान लेखन हो भी रहा है...।''
-‘‘ ओह..., समझी ! अब याद आ रहा है...। लैंडफिल गैसें इसी प्रकृति की होती हैं। ये कोमल इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के संपर्क में आकर इनकी संवेदन शक्ति क्षीण कर देती हैं। तुम थोड़ा इंतजार करो मैं नेट पर जाकर गूगल में लैंडफिल सर्च करती हूँ... और फिर मैं ही लाइन पर आती हूँ...।''
पीयूष बीयर पीकर और मैगी बना खाकर निपट ही रहा था तब तक मोबाइल की घंटी तीन मर्तबा बजकर चौथी बार बजी। पीयूष ने मोबाइल उठाया, ‘‘हैलो...,''
-‘‘ कहां मुशगूल थे मेरे प्यारे निष्काम कर्मयोगी जो इतनी देर लगा दी...। झपकी ले ली क्या ?'' बकुल ने पीयूष को छेड़ा।
-‘‘ ये तुम्हारा बारह लाख सालाना कमाने वाला निष्काम कर्मयोगी झक मार रहा था, जो इतनी देर लग गई। हाथ से रूखी-सुखी मैगी बनाकर हाल ही में खाई है। तुम साथ होती तो यह बेस्वाद खाना तो नहीं खाना पड़ता।''
-‘‘ चलो अब छोड़ो भी..., कॅरियर के फेर में ज्यादातर युवाओं की इसी मनोदशा में उम्र बीत रही है। और कॅरियर जब देखो तब अधूरा ही लगता है। प्रतिस्पर्धा की होड़ और नई मंजिल पाने की दौड़ में पैकेज बढ़कर मिलता भी है तो काम का बोझ, सह-उत्पाद के रूप मानसिक तनाव बढ़ा जाते हैं।''
-‘‘ एक बात है बकुल तुम्हारी बातचीत में कमाल के संदेश प्रगट होते रहते हैं ? तुम्हारी काबलियत लाजवाब है।''
बकुल ठिलठिलाकर हंसते हुए बोली, ‘‘ सूचनाओं में बड़ी ताकत होती है पीयूष। इसलिए मैं खाली वक्त में खाली न बैठकर पत्र-पत्रिकाएँ अथवा नेट सचिंर्ग में लगी रहकर नवीनतम सूचनाओं से अपनी बौद्धिक क्षुधा मिटाती रहती हूँ। इससे मेधा की तार्किकता बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के बढ़ती रहती है।''
-‘‘ बहुत अच्छा। सर्च में क्या निकला ?''
-‘‘ लैंडफिल गैसों की वही प्रकृति है जो तुमने मुझे लेख से पढ़कर बताईं थी। तुम्हारे दफ्तर में इन्हीं गैसों के प्रभाव से कम्प्यूटर बंद हो रहे हैं। कल केमिकल डाइग्नोस्टिक रिपोर्ट तैयार हो जाती है तो मैं कल ही रिपोर्ट, बिल व पुर्जे लेकर गुड़गाँव आती हूँ।''
-‘‘ यू कम वेलकम...स्वागत है...। माय स्वीट् लवली...। कल तुम्हें मैं अपना फ्लेट भी दिखा दूँगा...।''
-‘‘ क्या तुमने गुड़गाँव में फ्लेट ले लिया है ? वहां तो प्रोपर्टी बड़ी महंगी है।'' जानकारी की पुष्टि के लिए बकुल ने एक साथ बड़ी सहजता से दो सवाल उछाले।
-‘‘ हां, मैंने छह माह पहले ही आकाशगंगा अपार्टमेंट में फ्लेट की रजिस्ट्री कराई है। अड़तालीस लाख का पड़ा था। पिछले छह-सात साल की नौकरी की यही जमा पूँजी थी। अच्छा, कल कहां से रिसीव करूँ ?''
-‘‘ कल रहने देना। मैं ओखला के दफ्तर से रिपोर्ट लेकर अपनी ही गाड़ी से निकलूँगी। मुझे भीखाजी कामा प्लेस में दफ्तर का कुछ काम है। वहां से धौला कुआं होती हुई सीधे तुम्हारे दफ्तर पहुँचूंगी। वहीं मिलना। डोंट वरी।'' फिर वह हसीन शरारत के मूड में आकर बोली, ‘‘प्यारे पीयूष..., तुम्हें शायद ऑस्कर वाइल्ड का वह वाक्य याद नहीं कि ज्यादातर लोग...‘‘ मोबाइल स्पीकर पर एक लंबा चुंबन खींचा...। फिर कनेक्शन काट दिया। पीयूष ने नंबर री-डायल किया तो स्विच स्टॉप की सूचना का हिन्दी-अंग्रेजी टेप बज रहा था। की-गर्ल साइकोलॉजी से अनजान पीयूष बकुल के दुःसाहसिक बर्ताव की पहल के समक्ष एक बार फिर अचकचा कर रह गया।
अगले दिन करीब चार बजे बकुल यूनिवर्स सॉफ्टवेयर कंपनी के दफ्तर में थी। पीयूष अपने कक्ष में मिल गया। हैलो..., हाय की कमनीय व जोशीली औपचारिकता के साथ ही बकुल काम में जुट गई। चार पन्ने की रिपोर्ट बिल के साथ पीयूष को दे दी। बकुल उन पुर्जों को सीपीओ में फिट करने लग गई जिन्हें वह लेबोट्री में जाँच के बाद वापिस लाई थी।
पीयूष ने रिपोर्ट पढ़ते हुए उसे चिन्मय मिश्र के लेख की तुलनात्मक कसौटी पर कसा। कंप्यूटर लैंडफिल गैसों के समूह से ही प्रभावित हो रहे थे। रिपोर्ट में गैसों के उत्सर्जन व निवारण के जो कारण बताए थे, उन्हें कहीं बेहतर ढंग से चिन्मय मिश्र ने अपने लेख ‘कचरा मैदानों से फूटती शैतानी गैसों' में बताया था। पीयूष को आद्योपांत रिपोर्ट पढ़ने के बाद लगा, अंग्रेजी के दबाव में कुछ तो हम बेवजह हिन्दी और भाषाई वैज्ञानिक लेखन को नकारते हैं। इस नकारात्मकता में हम उन मूल्यों की भी अवहेलना करते हैं जो हमें प्रकृतिजन्य समस्याओं के जैविक समाधान तलाशने के तरीके देते हैं।
लेख में तथ्यात्मक प्रयोग का उदाहरण देते हुए बताया गया था कि यदि औद्योगिक-प्रौद्योगिक व घरेलू कचरे में केचुएँ छोड़ दिए जाएं तो वे इस कचरे को चट कर जाते हैं। अहमदाबाद के पास मुथिया गांव में साठ हजार टन वजनी कचरे में पचास हजार केचुएं छोड़ कर समस्या का चमत्कारिक ढंग से ट्रीटमेंट कर लिया गया था।
पीयूष सोच रहा है, रासायनिक परीक्षण की जो रिपोर्ट सत्तावन हजार सात सौ अड़तीस रूपये में मिली है, वही एक हिन्दी विज्ञान लेखक ने मुफ्त में दी है। लेकिन टेक्नोक्रेसी की बाध्यता के चलते उसका कोई मूल्य नहीं ? वाकई हम कानूनी बाध्यताओं की तरह तकनीकी बाध्यताओं के मकड़जाल में उलझते चले जा रहे हैं ? रिपोर्ट व लेख में समस्या का तात्कालिक हल था कंप्यूटर कक्षों के खिड़की और दरवाजे खोल कर रखे जाएँ। ए.सी. न चलाएँ। पीयूष ने दफ्तरी को बुलाकर कंप्यूटर कक्षों के दरवाजे व खिड़कियां खोल देने का निर्देश दिया। फिर वह खुद एकाउण्ट्स सेक्शन में बिल के भुगतान का चैक बनवाने चला गया।
तकनीकी काम निपटाकर तीन घंटे की टेस्टिंग के उपरांत बकुल ने पीयूष से ओ.के. रिपोर्ट व चैक हासिल कर लिए। फिर दोनों बकुल की कार से आकाशगंगा अपार्टमेंट के रास्ते पर थे। गाड़ी ड्राइव करते हुए बकुल सोच रही है..., जिस युवक से परिणय-बंधन की उम्मीद जगी है क्यों न उसके रग-रग से गुजरते हुए उसकी खूबी और खामियों को रेशे-रेशे खुद भी जान ले और पीयूष को भी जान लेने का अवसर दे दे। हम से तो छत्तीसगढ़ के वे आदिवासी सभ्य हैं जो अपने विवाह योग्य होते लड़के-लड़कियों को ‘घोटुल' प्रथा के माध्यम से एक-दूसरे को शारीरिक स्तर पर परखने का अवसर देते हैं।
पूर्व नियोजित फ्लैट पर जाने के प्रोग्राम को लेकर बकुल आशंकित भी थी कि दो युवा देहों की आसक्तियों का आवेग विवेक खोकर वर्जना तोड़ सकता है ? इसलिए कुटिल चतुराई से बकुल ने गर्भ निरोधक पूर्व में ही अपनाकर सावधानी बरत ली थी। गोया वह किसी भी शैतानी से जूझने अथवा रूबरू होने को कमोबेश तत्पर थी। बकुल अपनी अब तक की उपलब्धियों से संतुष्ट थी। बीई की डिग्री और छह लाख के जॉब जैसी लक्ष्यपूर्तियों के बाद अब बकुल को लग रहा है कि विवाह ही वह पड़ाव है जहां हर तरह की सुरक्षा और सुकून मिलने की उम्मीद की जा सकती है। पीयूष के पद, पैकेज और प्रतिष्ठा से वो खुद रूबरू हो चुकी है। तय है, उसके खाते से जरूरत का कोई भी चैक डिसऑनर होने वाला नहीं है। फिर वो खुद भी तो कमाती है। वाबजूद अवचेतन में बैठी कोई सनातन रूढ़ सांस्कृतिक सोच जरूर ऐसी है, जिसकी उत्प्रेरणा से वशीभूत ज्यादातर उच्च शिक्षित, आत्मनिर्भर व आधुनिक स्त्री भी अंततः अपना सुरक्षित आश्रय समर्थ पुरूष के ही संरक्षण में तलाशती है। कमोबेश वह भी तो इसी तलाश में है।
वे अद्वितीय वास्तु शिल्प से निर्मित फ्लेट में थे। बकुल दंग रह गई थी। जैसे ख्वाब में हो। और फिर उसे लगा वह एक ऐसे आशियाने में है जहां रिश्तों की तपिश का संसार बसाया जा सकता है। मोहब्बत के इन्द्रधनुषी रंगों की वितान पर गर्म देहों की गंध फैलाई जा सकती है। सृष्टि सृजन को गति दी जा सकती है।
-‘‘ घर गंदा कितना रखते हो पीयूष ? साफ सफाई के लिए बाई नहीं रखी क्या ? ‘‘घर का अधिकारपूर्वक मुआयना करती बकुल बोली थी।
-‘‘ बाई तो लगी है। पर मेरी टाइमिंग अनिश्चित है इसलिए बाई रोजाना साफ-सफाई नहीं कर पाती।''
बेहतर आंतरिक सज्जा से सुसज्जित वे घर के शयनकक्ष में आए तो बकुल पलंग पर बिछे चादर को अस्त-व्यस्त व धूल-धूसरित देख गुस्साई, ‘‘लगता है घर के कामों में तुम्हारी कोई दिलचस्पी नहीं है। चादर फटकार कर बिछाने में भला वक्त ही कितना जाया होता है...''बकुल ने एक झटके में चादर खींचा और झटकार कर बिछा दिया। घुटनों के बल पलंग पर चढ़ वह सलवटें ठीक कर रही थी, तब उसके उन्नत नितंब और उभरी नग्न पिंडलियों से यौन संवेदनाओं का प्रसार झरकर पीयूष को रोमांचित कर कामासक्त बना रहे थे। सलवटें ठीक कर वह पीयूष के सामने खड़ी हुई तो आभास किया शायद पीयूष शरारत के मूड में आ गया है। पीयूष आगे बढ़कर कोई हरकत करता तब बकुल के मोबाइल पर मंत्र जाप शुरू हुआ ॐ भूर्भवः...
‘‘पीयूष जरा शांत रहना। शायद मां का फोन है...।''
बकुल ने मोबाइल ऑन करते हुए स्पीकर भी ऑन कर दिया, जिससे पीयूष भी वार्तालाप सुन ले, ‘‘बोलो ममी...''
-‘‘ घर पहुँच गई बेटा...?'' मां की चिंता सामने आई।
-‘‘ बस अभी पहुँची हूँ ममी...।'' बकुल ने सफेद झूठ बोला।
-‘‘ अच्छा वो तूने क्या नाम बताया था उस लड़के का..., पीयूष उससे कुछ और आगे बात हुई...?
-‘‘ बस ममी एकाध दिन में फाइनल टेस्टिंग ले लूँ..., उसके आचार-व्यवहार ठीक से परख लूँ, फिर बताती हूँ ?''
-‘‘ जल्दी निर्णय ले बकुल उनतीस की हो रही है...। तेरे पापा भी रोज पूछते हैं और मैं तो चिंता मुक्त होती ही नहीं। तेर हाथ पीले हों तो गंगा नहाएँ।''
बकुल की दिमाग-तंत्रिकाएँ झन्नाईं, अंततः इक्कीसवीं सदी में भी जैसे बीसवीं सदी के जीवन, काल और दिशाएँ ठिठके हैं। स्थगित हैं। हमारे पास स्वतंत्र सत्ता है भी तो सिर्फ इसलिए क्योंकि फिलहाल हम बृहत्तर दिल्ली (एनसीआर) में अकेले हैं। अनचाहे गर्भ को टालने की निश्चिंतता है। वरना अतीत का बोझ तो स्त्री का पीछा ही नहीं छोड़ता।
-‘‘ ठीक है ममी मैं फ्रेश हो लूँ..., फिर कॉल बैक करती हूँ।'' और बकुल ने फोन काट दिया।
-‘‘ अच्छा तो फाइनल टेस्टिंग लेने चली हो ?'' पीयूष रहस्यमयी अंदाज में बोला।
-‘‘ अब मां को क्या एकदम बता दूँ कि हम यहां तक पहुँच गए हैं और मैं इतनी रात गए उसी के घर में हूँ...‘‘ बकुल अनायास निकले ‘टेस्टिंग' शब्द के दोहरे अर्थ अब समझ पाई। समझते ही शर्म की लाली की जो लालिमा उसके गालों व आंखों में उभरी उस भाषा को पढ़ता हुआ पीयूष बकुल के निकट बढ़ चला। तब पीछे हटती बकुल बोली, ‘‘साढे नौ बज रहे हैं पीयूष चलने दो...''
-‘‘ दिल्ली की सड़कों पर इतनी रात गए अकेली जाने की बेवकूफी करोगी ? फिर तुम्हारा कौन घर में कोई इंतजार कर रहा है। यहीं रूको फाइनल टेस्टिंग करके जाना...। ऑस्कर वाइल्ड का वह कुटेशन याद करो... कि ज्यादातर लोग...''
फिर वे परस्पर बांहों में आए तो तनाव मुक्त थे। साहचर्य की ऊर्जा ने पूर्व से ही देहों में अदृश्य जो हार्मोंस और सिम्स होते हैं उनकी गति इतनी बढ़ा दी थी कि अतृप्त कामोत्तेजना से कांति त्वचाओं पर फूटने लगी थी। बकुल अपनी चतुराई पर मन ही मन सोच रही थी, अकसर मर्दों द्वारा औरतों को औजार बनाने की चर्चाएं आती रही हैं लेकिन उसकी उत्सुकताएं हैं कि उसने एक मर्द को सेक्स टूल बना लिया। बकुल का जैविक ज्ञान बता रहा था कि यौन भूमिकाएं संसर्ग के अलावा ऐसा प्राप्य भी हैं जो मानसिक चेतना को सुकून और शरीर को पौष्टिकता देती है। शादी के बाद जब स्त्री में इसी जैविक रसायन की आपूर्ति होती है तो उसकी देह कैसे गदरा जाती है।
यौवनोत्सव के पहले पड़ाव में ठहराव आया तो पीयूष बोला, ‘‘अपनी मां को फाइनल टेस्टिंग की रिपोर्ट तो दे दो...।''
-‘‘ चुप बेशरम !'' और मदमस्त बकुल ने पीयूष का चेहरा अपनी छातियों के बीच दाब लिया। और वे एक बार फिर कामजनित असीम फंतासियों को मूर्त रूप देने लग गए।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी,
शिवपुरी (म.प्र.) पिन 473-551
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