दो शब्द भा रतीय स्वतंत्रता-संग्राम में पुरुषों की भाँति महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय स्वतंत्रता की बलिवेदी पर असंख्य भ...
दो शब्द
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में पुरुषों की भाँति महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय स्वतंत्रता की बलिवेदी पर असंख्य भारतीय महिलाओं ने अपने जीवन की हँसते-हँसते आहुति दे दी! और अपने प्राणों के रहते हुए अपने देश पर आंच नहीं आने दी। राजस्थान का इतिहास तो ऐसी वीरांगनाओं की शौर्यपूर्ण गाथाओं और उत्सर्ग से भरा पड़ा है जिन पर व्यापक शोध एवं सृजन की आवश्यकता है। उनके जीवन के त्याग और बलिदान की गाथाओं को एकत्र करके हम उन्हें सच्ची राष्ट्रीय श्रद्धांजलि तो दे ही सकते हैं, साथ ही, वर्तमान और भावी पीढ़ी को भी संप्रेरित कर सकते हैं। आज जबकि समग्र राष्ट्र की युवा और प्रौढ़ शक्तियाँ स्वार्थ की पंक में डूब कर राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और स्वतंत्रता को नष्ट प्रायः करने में लगी हैं, ऐसे में हम सभी साहित्यकारों का दायित्व है कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के स्वर्णिम इतिहास का अध्ययन करके ऐसी हुतात्माओं को चित्रित करके साहित्य-जगत के समक्ष प्रस्तुत करें।
यहाँ यह उल्लेख करना आत्मश्लाघा नहीं होगी कि इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए मैंने प्रस्तुत कृति से पूर्व ‘वीरबाला कुँवरि अजबदे पंवार’ (1997) और ‘महासाध्वी अपाला’ (1998) नामक भावपूर्ण चरित काव्य हिन्दी को दिए। अब इसी शृंखला में आपके कर-कमलों में ‘वीरांगना चेन्नम्मा’ नामक चरितकाव्य कृति प्रस्तुत है। वीरांगना चेन्नम्मा ‘काकती’ (कित्तूर) अर्थात् कर्नाटक प्रदेश के धूलप्पा देसाई और उनकी धर्म पत्नी पद्मावती देवी की एक मात्र बेटी थी। धूलप्पा देसाई कित्तूर की तरफ से मराठों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। धूलप्पा देसाई तत्कालीन महाराजा कित्तूर की सेना में वीर सरदार थे। उनकी मृत्यु के उपरान्त महाराजा कित्तूर धूलप्पा देसाई की विधवा धर्मपत्नी को सौ रूपया मासिक पैन्सन (भरण-पोषण वृत्ति) राज कोष से देते थे। पद्मावती देवी और चेन्नम्मा नागरमलशेट्टी की देखरेख में ‘काकती’ में रहती थीं।
इस काव्य कृति का ताना-बाना चेन्नम्मा के प्रति मेरी जिज्ञासा के फलस्वरूप बुना गया। मैंने चेन्नम्मा का नाम ‘प्रातः स्मरण’ नामक ओज, प्रसाद एवं माधुर्य से पूर्ण संस्कृत रचना में पढ़ा और सुना था, फलतः मैंने ‘कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति’ की प्रधान सचिव डॉ॰ बी॰एस॰ शांताबाई को पत्र द्वारा अपनी जिज्ञासा को पूर्ण करने हेतु लिखा। उन्होंने मुझे प्रो॰ एस॰ श्रीकंठमूर्ति द्वारा लिखित ‘कित्तूर की रानी वीरांगना चेन्नम्मा’ शीर्षक गद्य काव्यकृति भेज दी, जिसका प्रकाशन भी ‘कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति’, 178, 4 मैन रोड, चाम राज पेट, बेंगलोर-560018 (कर्नाटक) से हुआ है। यह गद्य काव्य कृति कर्नाटक सरकार की ओर से वहाँ की द्वितीय कक्षा में अधिकृत रूप से पढ़ाई जाती है।
मैंने इस गद्य काव्य कृति को पांच बार से अधिक ध्यानपूर्वक पढ़ा और सम्पूर्ण घटनाक्रम को क्रमशः चिन्हांकित किया। उपर्युक्त गद्य काव्य कृति में कथानक टेढ़ा-मेढ़ा बुना है। मैंने चरित्काव्य से न्याय करते हुए मुख्य कथानक को संज्ञानित किया और सहज व सरल बनाते हुए ‘वीरांगना चेन्नम्मा’ के कथानक का ताना-बाना तैयार किया तथा इसे आज की सबसे प्रिय गीतिकाव्य शैली- दोहा शैली में प्रस्तुत किया। मैंने कथानक में आंशिक परिवर्तन किए हैं तथा भारतीय नारी के स्वाभिमान और राष्ट्रीय सम्मान को सर्वोच्चता एवं प्रमुखता से प्रस्तुत किया है। हाँ, जो बात बौद्धिक कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी, उसे परिवर्तित करते हुए तर्कसम्मत बना दिया है किन्तु महारानी चेन्नम्मा की वीरता, स्वाभिमान और अस्मिता तथा ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़-छाड़ नहीं की है। वस्तुतः, इतिहास तो नीरस व तथ्यपूर्ण घटनाक्रम ही होता है और काव्य-इतिहास और कल्पना को समन्वित करके चलता है तथा मनोरंजक, प्रेरक, कौतूहल और जिज्ञासापूर्ण होता है।
‘चेन्नम्मा वीरांगना’, जीवन ललित ललाम।
त्याग-समर्पण-वीरता, उज्ज्वल छवि, निष्काम।।
‘वीरांगना चेन्नम्मा’ नामक इस काव्य कृति में ऐतिहासिक नामों को यथावत रखा है। इसलिए कहीं-कहीं मात्रिक दोष भी रचा- बसा है। भाषाई सरलता और सहजता को आद्योपान्त बनाये रखने का प्रयास किया गया है, जिससे आम बोलचाल की जन सामान्य की भाषा का रूप और भी अधिक निखरकर सहज संप्रेषित हो सके।
मुझे आशा है कि आपको यह चरित काव्य कृति ‘वीरांगना चेन्नम्मा’ अवश्य रास आयेगी। यदि यह काव्यकृति किसी भी रूप में आपके मर्म को छू सकी तो मेरा श्रम सार्थक हो जायेगा। त्रुटियाँ ज्ञान-क्षितिज को बढ़ाती हैं, सहृदयता की प्रतीक होती हैं, मार्ग दर्शकों से मिलाती हैं। इस भावना से सदैव सबका स्वागत है।
माँ सरस्वती का यह सारस्वत प्रसून आपको सादर उपहार में देता हूँ। सद्भावनाओं सहित!
भारतीय गणतंत्र दिवस, सन् 2010 ई॰ के शुभागमन पर!
डॉ॰ महेश ‘दिवाकर’
‘सरस्वती’, 12-मिलन विहार,
देहली राष्ट्रीय मार्ग, मुरादाबाद-244001
उत्तर प्रदेश (भारत)
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डॉ० महेश ‘दिवाकर’ - एक परिचय
नाम : डॉ० महेश चन्द्र साहित्यिक नाम : ‘दिवाकर’
जन्म तिथि : २५.१.१९५२
जन्म स्थान : ग्राम- महलकपुर मॉफी, देहली-राष्ट्रीय राजमार्ग,
पो० पाकबड़ा (मुरादाबाद) उ०प्र०, भारत
पिता का नाम : स्व० कृपाल सिंह पंवार
माता का नाम : श्रीमती विद्या देवी पंवार
पत्नी का नाम : डॉ० चन्द्रा पंवार, पी-एच०डी० (हिन्दी)
शिक्षा : पी-एच.डी., डी.लिट.(हिन्दी), पी.जी. डिप्लोमा इन जर्नलिज्म
सम्प्रति : एशोसिएट प्रोफेसर, अध्यक्ष एवं शोध निदेशक,
पत्रकारिता, उच्च हिन्दी अध्ययन एवं शोध विभाग
गुलाबसिंह हिन्दू (स्नातकोत्तर) महाविद्यालय, चाँदपुर-स्याऊ (बिजनौर) उ०प्र०, भारत
सम्बद्धता : एम०जे०पी०रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, (बरेली) उ०प्र०, भारत
लेखन विधाएं : कविता, नयी कविता, गीत, मुक्तक, कहानी, निबन्ध,
रेखाचित्र, संस्मरण, शोध, समीक्षा, सम्पादन, पत्रकारिता, यात्रावृत्त, जीवनी, अनुवाद, साक्षात्कार।
प्रकाशित कृतियाँ :
(क) मौलिक कृतियाँ :
(अ) शोध ग्रंथ
१.हिन्दी नयी कहानी का समाजशास्त्रीय अध्ययन (पी-एच०डी०) -१९९०
२.बीसवीं शती की हिन्दी कहानी का समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन (डी०लिट्०) ९२
३.हिन्दी गीति काव्य- २००९
(आ) समीक्षा-ग्रंथ
४.सर्वेश्वर का कवितालोक -१९९४
५.नवगीतकार डॉ०ओमप्रकाश सिंह : संवेदना और शिल्प- २०१०
(इ) साक्षात्कार संग्रह
६.भोगे हुए पल (बीस साक्षात्कारों का संग्रह)-२००५
७.आपकी बात : आपके साथ (इक्कीस साक्षात्कारों का संग्रह)-२००९
(ई) नयी कविता संग्रह
८.अन्याय के विरूद्ध -१९९७
९.काल भेद -१९९८
(उ) गीत संग्रह
१०.भावना का मन्दिर -१९९८
११.आस्था के फूल -१९९९
(ऊ) मुक्तक-गीति संग्रह
१२.पथ की अनुभूतियाँ -१९९७
१३.विविधा -२००३
१४.युवको! सोचो! -२००३
१५.सूत्रधार है मौन! -२००७
१६.रंग-रंग के दृश्य -२००९
(ओ) खण्ड काव्य
१७.वीरबाला कुँवर अजबदे पंवार -१९९७
१८.महासाध्वी अपाला -१९९८
१९.रानी चेन्नम्मा -२०१०
(औ) यात्रा-वृत्त
२०.सौन्दर्य के देश में - २००९
(ख) सहलेखन कृतियाँ :
१.डॉ० परमेश्वर गोयल की साहित्य साधना- २००५
२.बाबू बाल मुकुन्द गुप्त : जीवन और साहित्य- २००७
(ग) सम्पादित अभिनन्दन ग्रंथ :
१.बाबू सिंह चौहान : अभिनंदन ग्रंथ (’९८)
२.प्रो० विश्वनाथ ाुक्लः एक शिव संकल्प(अभिनंदन ग्रंथ) (२००२)
३.गंधर्व सिंह तोमर ‘चाचा’ : अभिनन्दन ग्रंथ (२०००)
४.प्रो० रामप्रकाश गोयल : अभिनन्दन ग्रंथ (२००१)
५.बाबू लक्ष्मण प्रसाद अग्रवाल : अभिनंदन ग्रंथ (२००७)
६.प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ अभिनन्दन ग्रंथ (’०९)
७.महाकवि अनुराग गौतम : अभिनन्दन ग्रन्थ (’०९)
८.प्रो० हरमहेन्द्र सिंह बेदी : अभिनंदन ग्रंथ (’१०)
(घ) सम्पादित स्मृति ग्रंथ :
१.स्व० डॉ० रामकुमार वर्मा : स्मृति ग्रंथ (’०१)
२.स्व० कैलाशचन्द्र अग्रवाल : जीवन और काव्य-सृ`ि ट (’९१)
(ङ) सम्पादित कोश :
१.रूहेलखण्ड के स्वातंत्रयोत्तर प्रमुख साहित्यकार : संदर्भ कोश (’९९)
२.भारत की हिन्दी सेवी प्रमुख संस्थाएँ : संदर्भ कोश (२०००)
३.दोहा संदर्भ कोश (२००७)
४.गीति-काव्य संदर्भ कोश (यंत्रस्थ)
५.ग्रामीण शब्दावली-कोश (यंत्रस्थ)
(च) सम्पादित काव्य संकलन :
१.यादों के आर-पार (’८८)
२.प्रणय गंधा (’९०)
३.प्रेरणा के दीप (’९२)
४.अतीत की परछाइयाँ (कहानी संकलन)(’९३)
५.नेह के सरसिज (’९४)
६.काव्यधारा (’९५)
७.वंदेमातरम् (देशभक्ति की गीति रचनाएँ)(’९८)
८.नई ाती के नाम (’०१)
९.हे मातृभूमि भारत! (देशभक्ति की गीति रचनाएँ)(’०१)
१०.आखर-आखर गंध (’०२)
११.क्या कह कर पुकारूँ? (भक्ति एवं आध्यात्मिक गीति रचनाएँ)(’०३)
१२.बाल-सुमनों के नाम (’९६)
१३.समय की शिला पर (दोहा संकलन)(’९७)
१४.आजू-राजू (’९८)
१५.नन्हें-मुन्नें (’९८)
(छ) सम्पादित काव्य संकलन (विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में समाहित) :
१.विद्यापति वाग्विलास (’८३) (एम०ए० प्रथम वर्ष हिन्दी के लिए)
२.विद्यापति सुधा (’८५) (एम०ए० प्रथम वर्ष हिन्दी के लिए)
३.एकांकी संकलन (’९०) (बी०ए० द्वितीय वर्ष हिन्दी के लिए)
(ज) सम्पादित काव्य संकलन (साहित्यकार विशेष)
१.नूतन दोहावली (’९४)
२.ओरे साथी! (’०६)
(झ) सम्पादित विशिष्ट ग्रंथ
१.तुलसी वांगमय (’८९)
२.अभिव्यक्ति : समाज और वाङ्गमय (’०२)
३.हिन्दी पत्रकारिता : स्वरूप, आयाम और सम्भावना (’०६)
४.पर्यावरण और वांगमय (’०७)
अन्य साहित्यिक उपलब्धियाँ :
अ संस्थापक अध्यक्ष : अखिल भारतीय साहित्य कला मंच
अ पूर्व संयुक्त सचिव - हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद (राज्यपाल उ०प्र० द्वारा नामित)(१३ दिसम्बर, २००१ से १३ दिसम्बर, २००४)
अ तीन दर्जन से अधिक शोध छात्रों को पी-एच०डी० उपाधि निर्देशन।
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ का साहित्यः संवेदना और शिल्प शीर्षक पर रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय में वैशाली माँगलिक को पी-एच०डी० प्रदत्त।
अ मुरादाबाद जनपद के साहित्यकारों के सन्दर्भ में डा० महेश ‘दिवाकर’ के साहित्य का अध्ययन शीर्षक पर रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय में मिथिलेश को पी-एच०डी० प्रदत्त।
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ : सृजन के विविध आयाम (४०० पृ ठ) - १९९५
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ : सृजन के बीच (२०० पृ ठ) - १९९९
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ : व्यक्ति और रचनाकार शीर्षक पर लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से एम० फिल० लघु शोध प्रबंध- २००३
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ का जीवन व साहित्य शीर्षक पर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम०फिल० लघु शोध प्रबंध- २००३
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ की प्रकाशित कृतियों का समीक्षात्मक अध्ययन शीर्षक पर एम० जे० पी० रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम०ए० लघु प्रबंध।
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ के काव्य में रा ट्रीय चेतना शीर्षक पर एम० जे० पी० रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम० ए० लघु शोध प्रबंध
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ के काव्य में विविध स्वर शीर्षक पर एम० जे० पी० रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम० ए० लघु शोध प्रबंध
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ : संवेदना व शिल्प शीर्षक पर एम० जे० पी० रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली से एम० ए० लघु शोध प्रबंध
अ डॉ० महेश ‘दिवाकर’ : की साहित्य साधना शीर्षक पर कामराज मदुरै विश्वविद्यालय से एम०फिल० - २००७
अ वीरबाला कुँवर अजबदे पंवार (खण्डकाव्य) पर गुरूनानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर (पंजाब) से एम०फिल-२००८
अ अकाशवाणी और दूरदर्शन से समय-समय पर अनेक रचनाएँ प्रसारित।
अ रा ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में आयोजित अनेकशः संगोष्ठियों और सेमिनारों में विविध विषयों पर व्याखान।
अ देश-विदेश की अनेकशः पत्र-पत्रिकाओं और काव्य संकलनों में समय-२ पर विविध विधाशः रचनाएँ प्रकाशित।
अ नार्वे और स्वीडन की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक यात्रा- ५ दिसम्बर २००८ से १६ दिसम्बर २००८ तक।
अ देश-विदेश की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विविध अलंकरण एवं सम्मान।
सम्पर्क :
डॉ० महेश ‘दिवाकर’, डी०लिट्०
‘सरस्वती भवन’,
मिलन विहार, दिल्ली रोड, मुरादाबाद (उ०प्र०) पिन - २४४००१
E-mail: maheshdiwakar@yahoo.com
mcdiwakar@gmail.com
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सर्ग - 1
वसुधा पर यदि सृष्टि में, बसे कहीं पर स्वर्ग।
तो वह भारत देश है, जहाँ स्वर्ग-अपवर्ग।।
देवों की धरती यही, ऋषियों की सन्तान।
सद्गुण से बनते यहाँ, सभी मनुज भगवान।।
पशु-पक्षी, पत्थर, नदी, विटप-धरा-नभ-ईश।
अग्नि-वायु-जल-चन्द्रमा, रवि-ग्रह सब जगदीश।।
जड़-चेतन इस देश में, होते सभी महान।
गुणियों की यह भूमि है, जाने सकल जहाँन।।
रक्षक है परमात्मा, कृषक जीवन-प्राण।
धर्म-कर्म-विज्ञान में, अखिल विश्व संप्राण।।
दिया ज्ञान-विज्ञान का, दुनिया को आलोक।
कर्म-संस्कृति से खिला, निखिल लोक-परलोक।।
ऋतुओं से रहते मुदित, तीज और त्यौहार।
दुर्लभ जीवन-रत्न हैं, मंगलमय उपहार।
सहज ज्ञान औ’ भक्ति का, बालक पढ़ते पाठ।
जहाँ राम औ’ कृष्ण भी, बसें अंक में आठ।।
सत्य-अहिंसा-प्रेम का, देता युग-सन्देश।
वसुधा को घर मानता, भारत जगत विशेष।।
जन्म भूमि यह ‘भरत’ की, ‘भारत’ इसका नाम।
कण-कण में इस देश के, बसें राम-घनश्याम।।
बसा भरत की भूमि पर, ‘कर्नाटक’ प्रभाग।
‘धारवाड़’ इस प्रान्त का, अद्भुत है संभाग।।
‘धारवाड़’, प्रखण्ड में, बसा नगर ‘कित्तूर’।
‘हिरेमल्ल शेट्टी’ यहाँ, रहते बादस्तूर।।
‘हिरेमल्ल’ भर्ती हुये, ‘बीजापुर’ की फौज।
मानो उनको मिल गयी, इस जीवन में मौज।।
‘हिरेमल्ल शेट्टी’ बने, सेनापति सरदार।
खुश होकर सुल्तान ने, दिये अमित उपहार।।
राज दिया कित्तूर का, धन भी दिया तमाम।
‘शमशेर जंग बहादुर’, मिली उपाधि इनाम।।
‘हिरेमल्ल’ के वंश में, राजा हुये विशेष।
‘मल्लसर्ज’ कित्तूर के, थे प्रसिद्ध नरेश।।
महाराजा कित्तूर के, ‘धूलप्पा’-सरदार।
वीर, मराठा-युद्ध में, छोड़ गये संसार।।
‘धूलप्पा देसाइ’ की, बेटी रही अनाम।
‘चेन्नम्मा’ वीरांगना, पड़ा उसी का नाम।।
तेरी कृपा से सखे! चरित रचा निष्काम।
अपना तो कुछ भी नहीं, तेरे बिन हे राम!।
गहन तिमिर नभ में घिरा, सन्नाटा चहुँओर।
मलयानिल थी बह रही, कहीं छुप गया भोर।।
मन्द-मन्द दीपक जलें, सदन-कक्ष के बीच।
दीप-शिखा को वायु भी, लेती हृदय भींच।।
सदन-कक्ष के बीच में, पड़ी पालिका एक।
जिस पर लेटी एक थी, वृद्धा तकिया टेक।।
समय पूर्व ही दर्द ने, जकड़ा यौवन-छोर।
इसीलिए तो जरा ने, दिया उसे झकझोर।।
नैनों में अनुभव-चमक, मुख पर चिन्ता भाव।
मन-खग उड़े अतीत में, आ जाता था ताव।।
वृद्धा को भगवान ने, दिया-सुता-सा रत्न।
जिसको अनुपम प्यार से, बड़ा किया कर यत्न।।
धीरे-धीरे हो गया, बचपन उससे दूर।
बाल किशोरी रूप में, सुन्दर थी भरपूर।।
माता उसे पुकारती, दिया ‘चेन्नू’ नाम।
मानो माँ की भावना, फूल रही निष्काम।।
शनैः शनैः होता गया, माँ का स्वास्थ्य खराब।
मनो अभावों ने दिया, उसको टका जवाब।।
पर, माँ की शिक्षा बनी, सबके लिए मिशाल।
निपुण बालिका हो गयी, करती बड़े कमाल।।
बेटी माँ के सामने, पढ़ती पुस्तक एक।
सहज भाव माँ सुन रही, ले तकिया की टेक।।
माँ से पूछे बालिका, प्रश्न करे गम्भीर।
भारतमाता आ गयी, धरकर मनो शरीर।।
माँ! ये कैसे ग्रंथ हैं? भरे असत्य संदेश।
गोरों के कल्याण का, देते ज्ञान विशेष।।
सौदागर के रूप में, आये गोरे देश।
बतलाते ये ग्रंथ हैं, स्वामी बने विशेष।।
शुरू-शुरू में तो किया, मित्रों-सा व्यवहार।
राजा और नबाव को, दिये अमित उपहार।।
ऐसा जादूकर दिया, फँसा धनिक संवर्ग।
गोरों की कृपा उन्हें, मानो लगती स्वर्ग।।
राजा और नबाव में, मची परस्पर होड़।
गोरों ने जादू दिया, उन पर अपना छोड़।।
नीति कुटिलता से भरी, नहीं प्यार का नाम।
रियासतों को कर दिया, बेबस और गुलाम।।
फँसी देश की आत्मा, हाय! विदेशी जाल।
तड़प मीन-सी मर रही, कौन पूछता हाल।।
फँसे विदेशी चाल में, राजा और नवाब।
किंकर्तव्यविमूढ़ सब, ओढ़े हुये नक़ाब।।
भेड़-बकरियों की तरह, कटने सब तैयार।
देते नहीं जबाब थे, गोरों के दरबार।।
ऊपर से गोरे बड़े, अन्दर काली कींच।
बधिकों से बदतर सभी, गोरे कितने नीच।।
लिखे जिन्होंने ग्रंथ हैं, क्या उनकी औक़ात।
देश-कलम को बेचकर, पाते वे सौगात।।
माँ! मुझको रूचता नहीं, इन ग्रंथों का पाठ।
इनको पढ़ना व्यर्थ है, सोलह दूनी आठ।।
माँ! जब हो जाऊँ बड़ी, एक रहेगा काम।
गोरों का निशि दिन करूँ, क्षण में काम तमाम।।
माँ बोली तब घूरकर, किया हाथ संकेत।
चुप होजा अब लाड़ली! सुनता खड़ा निकेत।।
माता चिन्ता मत करो, क्यांेकर हुई उदास।
अँग्रेज़ों का एक दिन, होगा सत्यानाश।।
अँग्रेज़ों के जुल्म का, होगा निश्चित अन्त।
भारत-वैभव विश्व में, फैले दिशा-दिगन्त।।
माँ! गोरों ने देश को, किया बहुत बर्बाद।
ये होने देंगे नहीं, कभी देश आजाद।।
लूट-फूट-धोखा बने, माँ! इनके हथियार।
भय-लालच-आतंक से, करते ये अधिकार।।
फैल रहा आतंक बन, अँग्रेज़ों का जाल।
नित प्रति करते जा रहे, भारत को बदहाल।।
संस्कृति-शिक्षा-सभ्यता, धन-जन लुटता रोज।
अजग़र जैसा हो गया, माता! इनका ओज।।
राज और राजा हुये, इनके सभी अधीन।
आटा-चक्की बन गयी, अंग्रेजीयत-मशीन।।
नित्य कट रहे देश में, राजाओं के शीश।
जो करता विद्रोह है, उसको डाला पीस।।
माँ! तेरी सौगन्ध है, खौल रहा है खून।
मेरी रग-रग में हुआ, पैदा बहुत जुनून।।
अपमानों की शृंखला, करती है बेचैन।
काटे भी कटते नहीं, माता! दिन औ’ रैन।।
अँग्रेज़ों की दासता, करूँ नहीं स्वीकार।
इससे तो मरना भला, जीत मिले या हार।।
माँ! किंचित् धीरज धरो, करो तनिक विश्वास।
देखोगी तुम देश में, आजादी-मधुमास।।
अँग्रेज़ों के शीश पर, दौड़ेगी तलवार।
बच्चा-बच्चा देश का, लड़े उठा हथियार।।
अँग्रेज़ों की क्रूरता, देख रहा है देश।
तानाशाही-क्रूरता, रूकी न अब तक लेश।।
अँग्रेज़ों से यदि लड़ा, कोई वीर समाज।
रहा तमाशा देखता, हाय! पड़ोसी राज।।
सब राजे मिल देश के, करते यदि संग्राम।
तो निश्चित अंग्रेज सब, बनते यहाँ गुलाम।।
यहाँ शिवाजी-छत्रपति, हुये अनेकों लाल।
राणा जैसे वीर से, डरा मुग़लई काल।।
त्याग-समर्पण-वीरता, कहाँ देश-अभिमान।
पता नहीं खोया कहाँ, वीर धरा का मान।।
जगह-जगह पर हो रहे, अगणित वीर शहीद।
शोषण-भय-आतंक में, मनें दिवाली-ईद।।
मुट्ठीभर अंग्रेज ने, जीना किया मुहाल।
दम्भ-द्वेष-पाखण्ड से, आता नहीं उबाल।।
अपने-अपने अहं में, भरे राज-युवराज।
आलस घोर विलासिता, चलें राज औ’ काज।।
माँ! करता है लगा दूँ, राज-मुकुट में आग।
तब शायद कोई मिले, आजादी का राग।।
गहन ईर्ष्या-द्वेष में, फँसे राज-दरबार।
सत्ता-सुख की लालसा, भस्म किये परिवार।।
आज किला जीता यहाँ, कल जीता उस छोर।
गोरों की ही जीत का, यहाँ-वहाँ है शोर।।
राज हड़पने के लिए, चालें चलें तमाम।
मानो भारत देश के, शाही बने इमाम।।
काम लुटेरों का करें, कहलाते अंग्रेज।
कहाँ वीरता-न्याय है, गोरे ज्यों चंगेज।।
बुद्धिमान कहते इन्हें, दुनिया के इंसान।
ये मानव के रूप में, सचमुच हैं शैतान।।
तनया की बातें सुनी, माँ को आया क्रोध।
इधर-उधर को देखकर, देने लगी प्रबोध।।
माँ ने समझाया बहुत, करो न ऐसी बात।
दीवारों के कान भी, होते-करते घात।।
चप्पे-चप्पे पर यहाँ, जासूसों का राज।
सुना अगर दीवान ने, बिगड़ें सारे काज।।
घोर बुढ़ापा देख यह, खड़ा सामने काल।
मिट्टी करे खराब क्यों? कैसा पुरसा-हाल।।
चालबाज अंग्रेज हैं, धूर्त्त और ग़द्दार।
पता नहीं किस बात पर, लड़ें सभी मक्कार।।
कभी न करना भूल से, बेटी! ऐसी बात।
सुन-सुन तेरी बात को, काँप रहा है गात।।
भारत के राजा जहाँ, विवश और असहाय।
क्या मतलब हमको पड़ा, जो तू रही सताय।।
माँ के मन की लालसा, होवें पीले हाथ।
हँसी-खुशी बेटी विदा, जाय पिया के साथ।।
बेटी रहे न मायके, घर उसका ससुराल।
मात-पिता की कामना, रहे सदा खुशहाल।।
पिता वीरगति पा गये, बसे स्वर्ग में जाय।
मेरा अब दायित्व है, तेरा घर बस जाय।।
चलते-सोते-जागते, पड़े न मन को चैन।
पल-पल चिन्ता खा रही, बेटी! दिन औ’ रैन।।
कहते-कहते बह गया, नैनों से कुछ नीर।
शब्द आँसुओं में झरे, माँ की ममता-पीर।।
माँ के सुन भावुक बचन, कहा बीच में टोक।
हे माँ! बेहद हूँ दुःखी, मुझे अरे! मत रोक।।
माता! चिन्ता मत करो, रखो सहज विश्वास।
‘चेन्नू’ के कारण कभी, होय नहीं उपहास।।
जन्म दिया है ईश ने, देश-धर्म-रक्षार्थ।
शादी करना है नहीं, माँ! मेरा पुरूषार्थ।।
अँग्रेज़ों ने देश का, लूट लिया सम्मान।
भारत माँ का कर रहे, पग-पग पर अपमान।।
फिर भी, जन-जन कर रहा, गोरों की तारीफ़।
लिखा पुस्तकों में पड़ा, हैं अंग्रेज शरीफ़।।
जिधर-जिधर को दौड़ते, माता! आँखें-कान।
बाँध प्रशंसा के रहे, पुल भी सभी जवान।।
राम-कृष्ण की भूमि पर, गयी कालिमा छाय।
मानो भारत भूमि पर, वीर रहा अब नाय।।
अपने-अपने स्वार्थ में, लोग रहे हैं डूब।
अँग्रेज़ों की कर रहे, सभी प्रशंसा खूब।।
सुन-सुनकर बातें यही, खून खौलता मात!
रोम-रोम फिर पूछता, कहाँ चल रही घात।।
बुद्धि बग़ावत कर रही, देता हृदय साथ।
गोरों से होकर रहें, माते! दो-दो हाथ।।
माता बोली रोककर, धीमी कर आवाज!
लेना-देना क्या हमें, कर अपना तू काज।।
बड़ी-बड़ी सेना हुई, अँग्रेज़ों से पस्त।
राजा औं’ सुल्तान के, हुए सूर्य अस्त।।
चेन्नू! तू क्या चीज है? जैसे बाल मराल।
बाज सभी अंग्रेज हैं, करते राज हलाल।।
कोई कुछ बकता रहे, उधर न दे तू ध्यान।
रखो काम से काम तुम, खूब बढ़ाओ ज्ञान।।
जिस दिन तू रानी बने, पीले कर दूँ हाथ।
छोड़ रहा है रात दिन, यह शरीर भी साथ।।
माता के सुनकर बचन, चेन्नू हुई उदास।
रानी बन, माँ! क्या करूँ? निकल पड़े उच्छ्वास।।
माँ! रानी की भूमिका, दासी बनती हाय!
इससे तो मरना भला, कुल की शाख़ न जाय।।
बड़े-बड़े राजा हुये, अँग्रेज़ों के ख़ास।
गोरे शासन कर रहे, राजा इनके दास।।
राजा-रानी नाम के, सजा शीश पर ताज।
राजा तो अंग्रेज हैं, सचमुच करते राज।।
बेटी की बातें सुनी, माँ रह गयी अवाक्।
कब से बेटी! हो गयी, तू इतनी चालाक।।
अरे! कहाँ विदुषी! लिया, राजनीति का ज्ञान।
तुझे बताता कौन है, चेन्नू यह विज्ञान।
चेन्नू माँ के प्रश्न पर, रही देर कुछ मौन।
फिर, माँ से कहने लगी, ‘माँ! ये गोरे कौन?’
हमें दबाने का मिला, क्या इनको अधिकार?
गोरों की औक़ात क्या, क्या हम पर उपकार??
जन्म भूमि मेरी यही, पावन भारत देश।
किसी विदेशी का नहीं, भारत परम निवेश।।
गोरे रहें न देश में, भारत बने निहाल।
जितनी जल्दी हो सके, देवें देश-निकाल।।
चूर-चूर गोरें करें, अर्थ-व्यवस्था हाय!
कूट नीति से देश को, जर्जर रहे बनाय।।
बदल रहे हैं देश की, संस्कृति औ’ इतिहास।
अपना पतझर थोपते, ले जाते मधुमास।।
सोना-चाँदी-धातुऐं, जाती सभी विदेश।
हीरा-मोती-रत्न सब, गायब हुये विशेष।।
बेशकीमती वस्तु जो, ले जाते ग़द्दार!
कचरा अपने देश से, लाते ये मक्कार।।
सोने की चिड़िया कभी, कहलाता था देश।
आज भिखारी की तरह, बचा न घर में लेश।।
पड़े देखना देश को, दुर्दिन बड़े जरूर।
दाने-दाने को सभी, जब होंगे मजबूर।।
माँ बोली-हे चेन्नू! यही सत्य है आज।
लेकिन, आधे विश्व में, अँग्रेज़ों का राज।।
छिपे न गोरे-राज में, अम्बर का दिनमान।
अंग्रेजी-सत्ता बनी, दुनिया में उपमान।।
बिना एकता विश्व में, कोई सका न जीत।
पर, भारत में एकता, अब सपने की प्रीत।।
जीत सके अंग्रेज को, आज असंभव काम।
राम-कृष्ण अब हैं कहाँ, बेटी! भारत धाम।।
चेन्नू बोली ठीक है, मात! तुम्हारी बात।
लेकिन, यह भी सत्य है, रहती सदा न रात।।
बिन प्रयास होता नहीं, कभी असंभव काम।
मन में दृढ़ विश्वास से, मिल जाते हैं राम।।
छिपे भले ही रवि नहीं, गोरी-सत्ता आज।
अँग्रेज़ों को एक दिन, पड़े छोड़ना राज।।
माँ फिर से कहने लगी, पगली! होजा मौन।
अंग्रेजी-आतंक में, तुझे सुनेगा कौन।।
दिशा-दिशा मं दूर तक, गोरे करते राज।
पगली! तू कैसे लड़े, किस पर करती नाज।।
चेन्नू बोली-माँ! मुझे, ईश्वर पर विश्वास।
वह मेरे संकल्प का, करे नहीं उपहास।।
रक्षा हित निज भूमि की, करूँ सभी बलिदान।
बच्चा-बच्चा देशहित, देगा अपने प्रान।।
चरणों की सौगन्ध माँ! बदलूँ युग-प्रवाह।
कांप उठें अंग्रेज सब, सत्ता उठे कराह।।
अस्त्र-शस्त्र औ’ सैन्यबल, सभी करूँ एकत्र।
युद्ध-प्रशिक्षण औ’ कला, सीखूँगी सर्वत्र।।
गोरों के आतंक से, मुक्त कराऊँ देश।
मुझे नहीं माँ! चाहिए, अबला-नारी वेश।।
भारत मेरा देश है, तब तक रहे गुलाम।
जब तक परदा आँख से, नहीं हटाय अवाम।।
निकले तोड़ पहाड़ को, जल की माला फूट।
त्यों जनता की एकता, पड़े दुष्ट पर टूट।।
टिके न कोई सामने, जनता करे बवाल।
प्राण बचाते भागते, करते मौन सवाल।।
फिर कोई बचता नहीं, जनता करती चोट।
जनता का होता सदा, भीषणतम विस्फोट।।
तानाशाही रेत की, होती है दीवार।
अधिक समय टिकती नहीं, सहे न अपना भार।।
जिस दिन जनता देश की, खाने लगी उबाल।
जगह-जगह तब देश में, होंगे बहुत बवाल।।
जब तक जनता देश की, करती नहीं विद्रोह।
तब तक जन-मन में रहे, भारी ऊहापोह।।
भरती है जन चेतना, जन-जन में उत्साह।
हम सबका दायित्व है, बनें न लापरवाह।।
देश हमारा प्राण है, देश हमारी शक्ति।
देश-धर्म की भावना, पैदा करती भक्ति।।
देश-धर्म पर जो मिटे, सदा मिले सम्मान।
युग-युग उनको मानता, दुर्गा औ’ भगवान।।
दृढ़ निश्चय कर आदमी, जब लेता संकल्प।
खड़ी सफलता हेरती, पग-पग मिलें विकल्प।।
तानाशाही का करें, जन-जन घोर विरोध।
टिके नहीं फिर सामने, बड़े-बड़े अवरोध।।
जब होता पथ भ्रष्ट नर, बनता तानाशाह।
जनता को ही लूटता, बन जनता का शाह।।
जनता माँ! का एक दिन, लगे खौलने खून।
पैदा जनता में करे, सच्चा मनुज जुनून।।
अस्त्र-शस्त्र ले हाथ में, हो जाते एकत्र।
चलने फिर देते नहीं, तानाशाही-सत्र।।
जनता को जाग्रत करूँ, उठा हाथ तलवार।
तभी मिलेगी देश को, आजादी-उपहार।।
बड़ा कठिन यह काम माँ, नहीं असंभव लक्ष्य।
मरना अपने देशहित, जीवन सुन्दर सत्य।।
इसी लक्ष्यहित करूँगी, किसी नृप से ब्याह।
रानी बनकर फिर लडूँ, करूँ नहीं परवाह।।
शक्ति बनूँ उस राज की, भरूँ प्रजा में ज़ोश।
अँग्रेज़ों के इस तरह, उड़ जायेंगे होश।।
बातें बेटी की सुनी, उमड़ उठे अरमान।
माँ के मुख पर छा गयी, पलभर को मुस्कान।।
चेन्नू! तू भोली बड़ी, धन्य! देश हित राग।
राजा की रानी बनो, फले तुम्हारा भाग।।
होवे पूरी कामना, देती माँ आशीश!
दुश्मन के आगे कभी, झुके न तेरा शीश।।
बेटी! बड़े गरीब हम, किस्मत के पाबंद।
प्रभु! अम्बर छूने चला, बिटिया का आनंद।।
मन ही मन माँ ने दिया, बेटी को आशीश।
हाथ प्यार से रख दिया, भावुक मन से शीश।।
माता! मुझको देखना, रानी बनूँ जरूर।
अँग्रेज़ों का एक दिन, नीचा करूँ गुरूर।।
माँ! मेरे बलिदान से, पैदा हो वह ज्वाल।
जिसमें जलकर भस्म हो, गोरी-सत्ता-ब्याल।।
तेरे सपने पूर्ण हों, सफल करें भगवान।
पर, चेन्नू! लगती मुझे, तू है अति नादान।।
आँखों में ममता भरी, छलक रहा था प्यार।
माँ बोली सोजा अरे, सोता सब संसार।।
बुनती रही भविष्य के, सुन्दर-सुन्दर स्वप्न।
कब निंदिया आयी, गयी, कब मन हुआ प्रसन्न।।
आने लगी पड़ौस से, चकिया की आवाज।
दूर मन्दिरों में छिड़ें, मधुर-सुरीले साज़।।
प्राची के आकाश में, होने लगा प्रभात।
बाल अरूण की रश्मियाँ, लगीं दिखाने गात।।
चली थिरकती रश्मियाँ, खगकुल करते शोर।
मन्द-मन्द बहता पवन, मलय सुवासित भोर।।
खग-कुल का कलरव पड़ा, जब चेन्नू के कान।
नींद नयन से उड़ गयी, रची अधर मुस्कान।।
इसी बीच सांकल बजी, खट-खट बजी किवार।
‘चेन्नू-चेन्नू’ नाम ले, कोई रहा पुकार।।
माँ थी गहरी नींद में, सोती चादर तान।
शनैः-शनैः चेन्नू उठी, माँ को सोई जान।।
घर का खोला द्वार तो, तन-मन हुआ विभोर।
बाल-सखा थे सामने, नाच उठा मन-मोर।।
चेन्नम्मा ने कर दिये, घर के बन्द कपाट।
तीनों उपवन को गये, जीवन जहाँ सपाट।।
रायण्णा-बालण्णा दोनों
सुबह टहलने आते थे।
मुँह बोली भगिनी चेन्नम्मा
साथ-साथ सब जाते थे।
बाल सखा बचपन से तीनों
फूले नहीं समाते थे।
अँग्रेज़ों के तीनों दुश्मन
गोरे नहीं सुहाते थे।
चेन्नम्मा के पिता धूलप्पा
अँग्रेज़ों ने मार दिये।
बालण्णा-रायण्णा के-
पिता भी बेघर वार किये।
इसीलिए, ये तीनों अपने
दुश्मन को पहचानते थे।
गोरे भारत लूट रहे हैं
भली-भाँति ये जानते थे।
दैनिक जीवन में भी इनके
यह व्यवहार झलकता था।
रोम-रोम से इन तीनों के
भारत-प्रेम छलकता था।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
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