प्रमोद भार्गव का आलेख - बाजारवाद में भगवान श्री कृष्‍ण

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  भूमण्‍डलीकरण के दौर में बाजारवाद ईश्‍वरीय शक्ति प्राप्‍त महान व्‍यक्‍तित्‍व का दोहन अपने आर्थिक हितों के लिए कैसे करता है इसका उदाहरण जन...

 

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भूमण्‍डलीकरण के दौर में बाजारवाद ईश्‍वरीय शक्ति प्राप्‍त महान व्‍यक्‍तित्‍व का दोहन अपने आर्थिक हितों के लिए कैसे करता है इसका उदाहरण जन्‍माष्‍टमी को देखने में आया। इस दिन देश भर के बहुभाषी समाचार पत्रों में प्रबंधन क्षेत्र के आधुनिक गुरूओं के माध्‍यम से कृष्‍ण के चारित्रिक गुणों में प्रबंधकीय कौशल खंगाला गया। प्रबंधन के उनमें वे सारे गुण खोज लिए गए जो फोर्ब्‍स सूची के पूंजीपतियों में निहित बताए जाते हैं और जिनके सरोकार सिर्फ आर्थिक हितों को सही गलत तरीकों से संवर्द्धन में लगे रहना होता है। जबकि कृष्‍ण जीवनपर्यंत सामाजिक न्‍याय की स्‍थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई लड़ते रहे। खेतिहर संस्‍कृति और दुग्‍ध क्रांति के माध्‍यम से ठेठ देशज अर्थ व्‍यवस्‍था की स्‍थापना और विस्‍तार में लगे रहे। सामरिक दृष्‍टि से उनका श्रेष्‍ठ योगदान भारतीय अखण्‍डता के लिए उल्‍लेखनीय रहा। क्‍या मजाल है कि आज की बाजारवादी व्‍यवस्‍थाओं की तरह कृष्‍ण के किसान और गोपालक कहीं भी फसल व गायों के क्रय-विक्रय के लिए मंडियों में पहुंचकर शोषणकारी व्‍यवस्‍थाओं के शिकार होते दिखाई देते हों ? कृष्‍ण जड़ हो चुकी उस राज और देव सत्ता को भी चुनौती देते हैं जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूट तंत्र और अनाचार का हिस्‍सा बन गये थे ? जबकि आधुनिक प्रबंधक गुरूओं का काम प्रबंधन के ऐसे जाल फैलाना रह गया है जिनका मकसद केवल उपभोक्‍ता की जेब तराशना है। भारतीय लोक के कृष्‍ण ऐसे प्रबंधक कतई नहीं थे ? बल्‍कि कृष्‍ण तो भारतीय अवतारों में ऐसा विलक्षण चरित्र रहे हैं, जिनकी विकास गाथा अनवरत साधारण मनुष्‍य बने रहने में निहित रही।

त्‍योहारों के सांस्‍कृतिक आशय प्रबंधकीय कौशल का आधार बनें इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन सोलह कलाओं में निपुण कृष्‍ण जैसे बहुआयामी पौराणिक पात्र में प्रबंधक की दृष्‍टि से केवल उन गुणों को उभारा जाए जो स्‍वार्थ सिद्धियों के हेतु चतुराईयों, चालाकियों और कुटिलताओं के प्रतीक हों ? यह एक महानायक के बहुआयामी चरित्र के साथ स्‍वार्थ सिद्धियों के लिए किया जाने वाला खिलवाड़ है। ये गुण आधुनिक जीवन शैली को विकसित व महिमा मंडित कर देने वाले प्रबंधकों के लिए तो जरूरी हो सकते हैं लेकिन उत्‍पादक और उपभोक्‍ता के हित साधक कृष्‍ण के लिए कतई जरूरी नहीं थे। यह सही है कि कृष्‍ण में सब चालाकियां बालपन से ही थीं जो किसी चरित्र को वाक्‌पटु और उद्‌दण्‍ड बनाती हैं। लेकिन बाल कृष्‍ण जब माखन चुराते हैं तो अकेले नहीं खाते अपन सब सखाओं को खिलाते हैं और जब यशोदा मैया चोरी पकड़े जाने पर दण्‍ड देती हैं तो उस दण्‍ड को अकेले कृष्‍ण झेलते हैं। वे दण्‍ड का भागीदार उन सखाओं को नहीं बनाते जो चाव से माखन खाने में भागीदार थे। चरित्र का यह प्रस्‍थान बिंदु किसी उदात्त नायक का ही हो सकता है, उन प्रबंध गुरूओं का नहीं जो प्रबंधन के संस्‍थानों में दौलत बनाने के गुर सिखाते हुए विषमता की विभाजक रेखा खींच रहे हैं और चतुराई से बेईमानी कैसे हो यह पाठ पढ़ाने में लगे हैं। प्रबंधन के ऐसे ही गुरु उन उद्योगपतियों के लिए राष्‍ट्रीयकृत बैंकों से ऋण दिलाकर हित साधते रहे है, जो ऋण लेकर दिवालिये हो जाते हैं। ऐसे उद्योगपति बैंकों को 10 लाख करोड़ से भी ज्‍यादा का चुना लगा चुके है। आश्‍चर्य है, ऋण भार से ग्रस्‍त किसान ऋण न पटा पाने कि शर्मनाक स्‍थिति में आत्‍महत्‍या करता है परंतु 10 लाख करोड़ का कर्ज पचा जाने वाले पूंजीपतियों में एक भी आत्‍महत्‍या नहीं करता ? यह बेहयाई इसी प्रबंधन की सीख है।

कृष्‍ण को मैनेजर, डिप्लोमैट, मोटिवेटर, काउंसलर, कम्‍युनिकेटर, थिंकिंग मैनेजर, लीडर, प्‍लॉनर, मनोविश्‍लेषक, ट्‌यूटर और ना जाने किन-किन प्रबंधन से जुड़े शब्‍दांडंबरों से विभूषित किया गया। मसलन उन्‍हें केवल उस नज़रिये से देखने की कोशिशें की गईं जो वैश्‍विक पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को मजबूत बनाने के कारक गुण हैं। जबकि कृष्‍ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरूद्ध था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्‍ति समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्‍न बनाने के गुर गढ़ने में कृष्‍ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्‍ण जब चोरी करते हैं, स्‍नान करती स्‍त्रियों के वस्‍त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए कलिया नाग का मान मर्दन करते हैं, उनकी वे सब हरकतें अथवा संघर्ष उत्‍सवप्रिय हो जाते हैं। नकारात्‍मकता को भी उत्‍सवधर्मिता में बदल देने का गुर कृष्‍ण चरित्र के अलावा दुनिया के किसी इतिहास नायक के चरित्र में विद्यमान नहीं हैं ?

क्‍या कोई प्रबंधन का गुर राजसत्ता से ही नहीं उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इन्‍द्र से विरोध ले सकता है जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था ? यदि हम इन्‍द्र के चरित्र को देवतुल्‍य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्‍य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे। लेकिन कृष्‍ण ने रूढ़, भ्रष्‍ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्‍ता से विरोध लिया, जिस सत्‍ता ने इन्‍द्र को जल प्रबंधन की जिम्‍मेदारी सौंपी हुई थी और इन्‍द्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को तो समय पर जल चाहिए अन्‍यथा फसल चौपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्‍ण के नेतृत्‍व में कृषक और गौ पालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था, जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्‍तक हुआ और जल वर्षा की शुरूआत किसान

हितों को दृष्‍टिगत रखते हुए शुरू हुई। क्‍या आधुनिक प्रबंधन प्रशासन से टकराने की हिमाकत करने का पाठ पढ़ाता है अथवा प्रशासन की चिरौरी करने का ? पुरूषवादी वर्चस्‍ववाद ने धर्म के आधार पर स्‍त्री का मिथकीकरण किया। इन्‍द्र जैसे कामी पुरूषों ने स्‍त्री को स्‍त्री होने की सजा उसके स्‍त्रीत्‍व केा भंग करके दी। देवी अहिल्‍या के साथ छल पूर्वक किया गया दुराचार इसका शास्‍त्र सम्‍मत उदाहरण है। आज नारी नर के समान स्‍वतंत्रता और अधिकारों की माँग कर रही है लेकिन कृष्‍ण ने तो औरत को पुरुष के बराबरी का दर्जा द्वापर में ही दे दिया था। राधा विवाहित थी लेकिन कृष्‍ण की मुखर दीवानी थी। ब्रज भूमि में स्‍त्री स्‍वतंत्रता का परचम कृष्‍ण ने फहराया। जब स्‍त्री चीर हरण (द्रौपदी प्रसंग) के अवसर पर आए तो कृष्‍ण ने चुनरी को अनंत लंबाई दी। स्‍त्री संरक्षण का है कोई ऐसा दूसरा उदाहरण ? इसीलिए वृंदावन में यमुना किनारे आज भी पेड़ से चुनरी बांधने की परंपरा है । जिससे आबरू संकट की घड़ी में कृष्‍ण रक्षा करें। लेकिन आज बाजारवादी प्रबंधकों ने स्‍त्री की अर्ध निर्वस्‍त्र देह को विज्ञापनों का एक ऐसा माल बनाकर बाजार में छोड़ दिया है जो उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति का पोषण करती हुई लिप्‍साओं में उफान ला रही है। स्‍त्री खुद की देह को बाजार में उपभोग के लिए परोस रही हैं। कृष्‍ण का मंतव्‍य स्‍त्री शुचिता की ऐसी निर्लज्‍जता के प्रदर्शन प्रबंधन का हितकारी कहीं भी कृष्‍ण साहित्‍य में देखने में नहीं आता।

कृष्‍ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाओं की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्‍व के जानकार थे। इसीलिए कृष्‍ण पूरब से पश्‍चिम अर्थात मणीपुर से द्वारका तक सत्ता विस्‍तार के साथ उसके संरक्षण में भी सफल रहे। मणीपुर की पर्वत श्रृंखला पर और द्वारका के समुद्र तट पर कृष्‍ण ने सामरिक महत्‍व के अड्‌डे स्‍थापित किए जिससे कालांतर में संभावित आक्रांताओं यूनानियों, हुणों, पठानों, तुर्कों, शकों और मुगलों से लोहा लिया जा सके। वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठों और हिंसक वारदातों का हिस्‍सा बने हुए हैं। कृष्‍ण ने संकट की इन घड़ियों में निपटने के लिए प्रबंधन के क्‍या गुर दिए बता पायेंगे प्रबंधन के गुरू ? कृष्‍ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणीपुर के मूल निवासी कृष्‍ण दर्शन से प्रभावित भक्‍ति के निष्‍ठावान अनुयायी है।

सही मायनों में बलराम और कृष्‍ण का मानव सभ्‍यता के विकास में अद्‌भुत योगदान है। बलराम के कंधों पर रखा हल इस बात का प्रतीक है कि मनुष्‍य कृषि आधारित अर्थव्‍यवस्‍था की ओर अग्रसर है। वहीं कृष्‍ण मानव सभ्‍यता व प्रगति के ऐसे प्रतिनिधि हैं जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्‍पादनों से अर्थव्‍यवस्‍था को आगे बढ़ाते हैं। ग्रामीण व पशु आधारित अर्थव्‍यवस्‍था को गतिशीलता का वाहक बनाए रखने के कारण ही कृष्‍ण का नेतृत्‍व एक बड़ी उत्‍पादक जनसंख्‍या स्‍वीकारती रही। लेकिन बाजारवादी शैक्षणिक व्‍यवस्‍था के प्रबंधकों ने कृष्‍ण जन्‍म दिवस के अवसर पर कृष्‍ण के उस मूल्‍यवान योगदान अथवा प्रबंधन का कहीं जिक्र नहीं किया जो किसान और कृषि के हित तथा गाय और दूध के व्‍यापार से जुड़ा था। बावजूद इसके पूरे ब्रज मण्‍डल और कृष्‍ण साहित्‍य में कहीं भी शोषणकारी व्‍यवस्‍था की प्रतीक मंडियों और उनके कर्णधार दलालों का जिक्र नहीं है। शोषण मुक्‍त इस अर्थव्‍यवस्‍था का क्‍या आधार था हमारे आधुनिक प्रबंधन के गुरूओं को इसकी भी पड़ताल करनी चाहिए ? क्‍योंकि कृष्‍ण उस प्रबंधन के गुरू कभी नहीं हो सकते जो उन प्राकृतिक संसाधनों का क्षमता से अधिक दोहन में लगे हैं जिसके उत्‍पादन तंत्र को विकसित करने में भू-मण्‍डल को लाखों करोड़ों साल लगे। कृष्‍ण तो इस जैव विविधता रूपी सौंदर्य के उपासक व संरक्षक थे। जिससे ग्रामीण जीवन व्‍यवस्‍था को प्राकृतिक तत्‍वों से जीवन संजीवनी मिलती रहे। लेकिन आज के उद्योग, उद्योगपति और प्रबंधन तो जल जंगल और जमीन से उन रहवासियों को बेदखल करने में लगा है जो कृषि परंपरा के ज्ञान प्रबंधन के वशीभूत प्राकृतिक संपदा को संतुलित दोहन कर जीवन यापन के आदी थे। जबकि आज चार करोड़ से भी ज्‍यादा लोग आधुनिक जीवन शैली के लिए खड़े किए गए निर्माणों का दण्‍ड भोगने को अभिशप्‍त हैं। बिहार में कोसी का कहर आधुनिक जीवन शैली की विकृत परिणति है। कृष्‍ण इस विषम जीवन शैली के हिमायती कभी नहीं रहे।

इस संदर्भ में प्रभाष जोशी ने बहुत अच्‍छे ढंग से कहा हैं, ‘‘आज वे कह रहे हैं कि तुम वहीं होओगे और बनोगे जैसा बाजार तुम्‍हें बनाएगा। बाजार ने ऐसी ईश्‍वर जैसी ताकत कैसे पा ली ? कल तक तो धर्म, था राज्‍य था, विज्ञान था, विचार था। आज बाजार है क्‍योंकि जिनके पास पूंजी है उन्‍हें बाजार चाहिए और जिनका बाजार है वे उसे ईश्‍वर बना देना चाहते हैं। क्‍योंकि आदमी आसानी से ईश्‍वर के सामने ही हथियार डालता है।'' लेकिन ईश्‍वर की आधुनिक अर्थ-पोषित अवधारणा भी अब बाजार और उसके प्रबंधक गुरु गढ़ने लगे हैं ? बेचारे भगवान को भी ये प्रबंधन के गुरु न जाने किस-किस मंडी में अपने हितों के दोहन के लिए उतारेंगे।

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

फोन 07492-232007, 233882

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है ।

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - बाजारवाद में भगवान श्री कृष्‍ण
प्रमोद भार्गव का आलेख - बाजारवाद में भगवान श्री कृष्‍ण
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