आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में - 36. आर्थिक संकट बढ़ाते क्रेडिट कार्ड 37. विदेशी बैंकों में काले...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में -
36. आर्थिक संकट बढ़ाते क्रेडिट कार्ड
37. विदेशी बैंकों में काले धन का विश्व कीर्तिमान
38. प्रकृति के लिए संकट बनता आधुनिक विकास
39. आर्थिक सुधारों के दौरान घटा रोजगार
40. आर्थिक विकास ने बढ़ाया भूख का दायरा
आर्थिक संकट बढ़ाते क्रेडिट कार्ड
जो क्रेडिट कार्ड तात्कालिक आर्थिक समस्या के हल के कारक हुआ करते थे वे आर्थिक मंदी के चलते उपभोक्ता के लिए बड़े आर्थिक संकट का कारण बन रहे हैं। प्रतिष्ठा व सम्मान का मजबूत आधार माने जाने वाले ये कार्ड अब उं+ची ब्याज दरों की वजह से सिर पर बोझ साबित हो रहे हैं। हमारे देश में करीब 2 करोड़ 80 लाख क्रेडिट कार्डधारी हैं और इन उपभोक्ताओं ने करीब 30 करोड़ उधार बैंकों से लिया हुआ है। आर्थिक मंदी के चलते भारत में करीब 15 लाख लोग जनवरी 9 तक नौकरी से निकाले गए हैं। इनमें से ज्यादातर क्रेडिट कार्डधारी हैं। दुर्भाग्य के मारे ये लाचार अब क्रेडिट कार्ड से ली गई उधार की सामग्री का भुगतान समय पर नहीं कर पाने के कारण 48 फीसदी की ब्याज दर से भुगतान करने का अभिशाप भोग रहे हैं।
आर्थिक मंदी की मार पड़ने के साथ ही भूमंडलीय नवउदारवाद की हवा निकल गई। इसका असर भारत ही नहीं दुनिया के उन सभी देशो में देखने में आया है जो अमेरिकी नीतियों के दबाव के चलते इसके अनुयायी बने थे। अमेरिका भी इस मार से अछूता नहीं रह सका। अक्टूबर 7 से जनवरी 9 तक वहां 36 लोख लोग नौकरी से हाथ धो बैठे। विश्वग्राम के बहाने नवउदारवादी अवतार के सोलह साल के भीतर बेरोजगारी का अमेरिका में यह सबसे बड़ा दौर है। राष्ट्रपति ओबामा इस संकट से निपटने के लिए कंपनियों के अनर्गल खर्चों और सी.ई.ओ. की उं+ची तनखाओं पर लगाम लगाने की बाजय इस मंदी की मार से उबरने के दृष्टिगत आठ सौ अरब का पैकेज देने की तैयारी में लगे हें।
क्रेडिट कार्ड की ब्याजी माया एक जाल है। जिसका सामान्य ब्याज छत्तीस प्रतिशत और समय पर किस्त न चुका सकने की हालत में 48 प्रतिशत तक देना होता है। छोटी क्रेडिट पर लगे ब्याज पर तो उपभोक्ता ध्यान इसलिए नहीं दे पाता क्योंकि ब्याज के रूप में काटी गई राशि खाते में एकाएक बहुत बड़ी मात्रा में कम नहीं होती। लेकिन मान लो आपने डेढ़ लाख का थीयेटर टी.वी. सिस्टम क्रेडिट कार्ड की बिना पर उठाया है और आप समय पर पैसा किसी कारणवश नहीं चुका पाए और एक लाख की उधारी शेष है तो उस पर जुर्माना सहित जो 48 प्रतिशत ब्याज कटेगा उस गुणाभाग के चलते आपके खाते में जाम राशि से एकाएक 48 हजार की बड़ी रकम कम हो जाएगी। इस राशि के एकाएक घट जाने की जानकारी जब आपको मिलेगी तब पता चलेगा कि आपके बेहतर जिंदगी के स्वप्न चकनाचूर हो गए हैं। विदेशी निजी बैंकों में तो लूट का यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।
एक अध्ययन से पता चला है कि उपभोगवादी समाज की संरचना में लगे अमेरिका में 25 साल पहले लगभग तीन लाख अमेरिकी आर्थिक रूप से दिवालिए थे, वहीं भूमंडलीकयकरण के दौर में इनकी संख्या बढ़कर करीब 20 लाख हुई और अब मंदी की मार ने इन दिवालियों की संख्या 25 लाख के आंकड़े तक पहुंचा दी है। इन बद्तर हालातों के पीछे कर्ज लेकर दिखावे और शोशोबाजी का दर्शन प्रमुख रहा है।
अमेरिका की इस आर्थिकी का विस्तार अब भारत के उन नगरों में स्पष्ट दिखाई देने लगा है जहां क्रेडिट कार्डधारियों की संख्या ज्यादा है। इनके हालात तब और भयावह हो गए जब विश्वव्यापी मंदी ने निर्यात में 20 फीसदी की कमी ला दी। हीरे-जवाहरात के 35-40 हजार कारखाने बंद हो गए। सत्यम कंप्यूटर के दिवाले ने आईटी की चमक पर कीचड़ उछाल दी। खबरों का कारोबार करने वाले कई न्यूज चैनल डूब गए। देखते-देखते 15 लाख से भी ज्यादा लोग नौकरी से हाथ धो बैठे।
जो आर्थिकी केवल वस्तुओं के उत्पादन, उपयोग और उपभोग की भ्रामक संस्कृति पर टिकी हो उसका यही हश्र होता है। क्योंकि यह उपभोक्तावादीसंस्कृति संचय और अपव्यय के सनातनी भारतीय दर्शन को लीलने का काम करती हे। अमेरिका की तर्ज पर हम अपने देश में जिस कथित विकास और सुख-समृद्धि के छलावे में लगे हैं वह दरअसल विकास और समृद्धि का विकृत स्वरूप है जो व्यक्ति में भोगवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हएु असमानता को बढ़ावा देता है। सबसे बड़ा संकट तो वर्तमान में यह है कि नवउदारवाद के बहाने अमेरिका हमारे घर में बैठकर हमें अमेरिकन बनाने का छल कर रहा है और हम छले जाने के बावजूद भी कमोवेश उसी तरह छले जाने की खुशफहमी हैं जब अंग्रेज हमारे देश में व्यापार के बहाने आए थे और फिर हमारे शासक बन बैठे थे।
हालांकि अमेरिका में बहुत पहले गैलप पोल के अध्ययन ने यह साबित कर दिया था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है, ऐसा तीन चौथाई अमेरिकियों ने गैलप पोल के जरिए माना था। उनका यह भी मानना था कि कालांतर में अमेरिका की विकास दर गिरेगी और रोजगार के बड़े संकट उभरेंगे। इस दर्शन को मानने वाले अमेरिकियों ने दूरदर्शिता से काम लेते हुए अपने बच्चों को चाइनीज सीखने व पढ़ने के लिए भी उत्प्रेरित किया। क्योंकि उनका मानना था कि चाइनीज पढ़ाना भविष्योन्मुखी सोच है, क्योंकि जिसे अंग्रेजी के साथ चाइनीज भी आती होगी उसी के लिए केरियर की बेहतर संभावनाएं हैं।
अमेरिका की इन सब अंदरुनी बद्तर हालातों की जानकारी होने केबावजूद हम उसकी मुक्त व्यापार की नीतियों का अंधानुकरण करने में लगे हुए हैं। क्रेडिट कार्ड के सबसे ज्यादा उपभोकता उन निजी बैंकों के हैं जिनका मालिकाना हक अमेरिका के पूंजीपतियों का है और वे क्रेडिट कार्ड के मार्फत 36 से 48 प्रतिशत बयाज वसूलने का तंत्र धड़ल्ले से हमारे यहां संचालित किए हुए हैं। जबकि भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकों में ये ब्याज दरें 20 से 30 फीसदी तक ही सिमटी हैं। मुनाफे का यह निजीकरण किसके हित साध रहा है? लाभ-हानि के इस विसंगतिपूर्ण समीकरण का उल्लेख करते हुए विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. जोसेफ स्टि्गलिट्स को नई दिल्ली में ‘आज का संकट और पूंजीवाद का भविष्य' विषय पर बोलते हुए कहना पड़ा कि ‘अमेरिका ने लाभ का निजीकरण और हानि का समाजीकरण किया हुआ है'।
लेकिन हम इन संकेतों और विश्वव्यापी मंदी की आहट से भी चेत नहीं रहे हैं अंततः हमारी नतियां कारपोरेट जगत की ही पोषक बनी हुई गतिशील हैं। इसी कारण वर्तमान में पूंजी का आश्चर्यजनक ढंग से केंद्रीयकरण होता चला जा रहा है। दुनिया के पांच हजार पूंजीपतियों की तिजोरियों में दुनिया की पूंजी क्रेडिट कार्ड जैसे तरीकों से समाती जा रही है। अभी भी भारत में विकास की दर 7 प्रतिशत के करीब है और इसमें मुक्त व्यापार की तरलता मौजूद है इसी तरलता पर देशी और विदेशी पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि है। नतीजतन वे सरकारी नीतियों में अपने हितों के दृष्टिगत बदलाव लाकर ऐसे उपभोक्तावादी समाज को गढ़ने में लगे हैं जो आखिर में क्रेडिट कार्ड का ग्राहक बनने की तरह खुद को आर्थिक जंजाल में फंसा पाता है।
विदेशी बैंकों में जमा कालेधन का विश्व कीर्तिमान
देश के सकल बजट का आठ गुना काला धन स्विस व अन्य विदेशी बैंकों में जमा है। 1456 अरब डॉलर की यह संपत्ति एक शर्मनाक कीर्तिमान है। यदि गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड पुस्तक में दुनिया के शर्मनाक कीर्तिमानों को भी शामिल करने का प्रावधान होता तो भारत इस शर्मनाक �श्रृंखला के शिखर पर दशकों से बना चला आ रहा होता। क्योंकि स्विट्जरलैंड के बैंकों में दुनिया के तमाम देशों का जो कालाधन जमा है, भारत उसमें अव्वल है। अंतर्राष्ट्रीय दबावों के चलते स्विस बैंकिंग एसोसिएशन ने यह जानकारी 2006 में जारी उस सूची में की है जिसमें यह खुलासा किया गया है कि किस देश का कितना कालाधन स्विस बैंकों में है। अब यहां योग के द्वारा स्वास्थ्य के प्रति चेतना जगाने के बाद राजनीतिक जागरूकता अभियान चला रहे बाबा रामदेव ने इस धन को वापिस लाने की मांग करते हुए राष्ट्रीय मुद्दा बनाए जाने का शंखनाद कर दिया है, वहीं लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव ने भी इस विपुल धन राशि को चुनावी मुद्दा बना दिया है।
स्विस बैंकों में जमा भारत का कालाधन 1456 अरब डॉलर हमारे देश में उपलब्ध विदेशी मुद्रा भंडार से पांच गुना ज्यादा है। भारत पर चढ़े विदेशी ऋण की तुलना मे यह तेरह गुना ज्यादा है। यदि हम इस भारी-भरकम राशि को रुपये में परिवर्तित करें तो यह 72 लाख 80 हजार करोड़ बैठती है। मसलन 728 खरब रुपये। भारत के बाद स्विस बैंकों में रूस 470 अरब डॉलर, ब्रिटेन का 390, यूक्रेन का 96 अरब डॉलर रुपया जमा है। चीन यूक्रेन के नीचे है।
इस सूची का जारी होना आर्थिक संकट का एक उज्ज्वल पक्ष है। क्योंकि आर्थिक मंदी की जबरदस्त मार झेल रहे अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के दबाव में स्विट्जरलैंड सरकार ने अपनी बैंकों में जमा विदेशी धन के बारे में सूचनाएं देने का सिलसिला शुरू किया है। यही नहीं अमेरिका के विधि विभाग ने इतना नैतिक व वैधानिक दबाव स्विस सरकार पर बना दिया है कि कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए वहां के सबसे बड़े यूबीए बैंक ने तुरंत 17 हजार अमेरिकी गोपनीय खाता धारकों के 78 करोड़ डॉलर काले धन का भुगतान अमेरिका को कर दिया। अमेरिका अभी भी शेष खाताधारियों का धन वापिस लाने में स्विस सरकार पर मुकदमा चलाने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए हुए है। ब्रिटेन और इटली भी स्विस सरकार पर दबाव जारी है। इन्हें उम्मीद है कि स्विस बैंकों में जमा कालाधन उन्हें जल्द वापस मिल जाएगा।
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते जानकारी देने का सिलसिला तो स्विस सरकार ने शुरू कर दिया है, लेकिन वह फिलहाल यह जानकारी पर्याप्त दबाव बनाने वाले देशों को ही दे रही है। यहां हैरानी यह है कि भारत सरकार ने अभी तक इस काले धन की जानकारी के लिए मुंह तक नहीं खोला। सरकार यदि आग्रह करे तो उसे भी अपने देश के लोगों के गोपनीय खातों की सूची मिल जाएगी। लेकिन लंबे समय तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस से जुड़े राजनीतिकों, नौकरशाहों, पूंजीपतियों और दलालों का गठजोड़ उसे मजबूर किए हुए है। दरअसल यही वह गठजोड़ है, जिसमें हथियारों के सौदागर, परमाणु बिजली घरों के दलाल और विदेशी बाजार में प्रतिबंधित दवाओं को भारत में बेचे जाने की इजाजत दिलाने वाले अभिकर्ता शामिल हैं। उक्त सामग्री उपलब्ध कराने वाली मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों डॉलर में बनने वाली कमीशन-राशि को बाला-बाला स्विस और अन्य विदेशी बैंकों में जमा करा देती हैं।
भारत को इस राशि का पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि प्रवर्तन निदेशालय के पास यह जानकारी है कि कौन लोग बार-बार स्विट्जरलैंड की यात्रा पर्यटन के बहाने करते हैं। ऐसे लोगों की संख्या 75 से 80 हजार के करीब है जो लगभग प्रत्येक वर्ष स्विट्जरलैंड की यात्रा करते हैं। इन्हें संदेह के दायरे में लाकर इनसे पूछताछ की जा सकती है। भारतीय नियमों के अनुसार कोई भी भारतीय नागरिक बिना भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति के विदेशों में धन जमा नहीं कर सकता। 25-30 साल तक तो स्विस सरकार ने भी गोपनीय खातों को गोपनीय बनाए रखने के नियम का सख्ती से पालन किया लेकिन आर्थिक मंदी के दौर में जब विश्व समुदाय ने उस पर दबाव बनाया तो वह नियमों में शिथिलता बरतते हुए जानकारी देने को तैयार हो गया। लेकिन भारत सरकार ही इन धनपतियों की सूची मांगने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही।
यदि इस काली पूंजी का निवेश भारत के विकास में हो जाता है तो भारत सरकार का राजकोषीय घाटा जो सकल घरेलू उत्पाद का 7 प्रतिशत है, वह समाप्त हो जाएगा। विदेशी बैंकों का कर्ज उतर जाएगा, क्योंकि यह धन राशि विदेशी ऋण से 13 गुना ज्यादा है। अगर इस रकम को 25 लाख करोड़ रुपये मान लिया जाए तो इसकी स्वदेश वापसी से देश के सभी किसानों के कर्ज माफ हो सकते हैं। यही नहीं अर्थशास्त्रियों का जो आकलन है उसे मानें तो पूरे देश में विश्वस्तरीय सड़कों का तानाबाना तैयार किया जा सकता है। बिजली की कमी को पूरी तरह दूर कर हरेक ग्रामीण घर को बिजली मुहैया कराई जा सकती है। संपूर्ण आबादी को शुद्ध पेय जल का इंतजाम भी संभव है। दस करोड़ परिवारों के लिए ढाई लाख रुपये की कीमत से अच्छी गुणवत्ता वाले घर बनाए जा सकते हैं। इसके साथ ही प्रत्येक गांव को 4 करोड़ रुपये भी दिए जा सकते हैं। जिनसे वहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, विद्यालय तथा इंटरनेट की सुविधा वाले स्कूल, खेल के मैदान भी बनाए जा सकते हैं। इस राशि को स्वदेश लाने में ऐसा संदेश देशवासियों को जाएगा कि जब विदेशी बैंकों से काला धन वापस लाने की बाध्यता निर्मित हो सकती है तो वहां धन जमा ही क्यों किया जाए? इससे नैतिकता व ईमानदारी का विस्तार होगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा।
स्विट्जरलैंड के अलावा भारत के भ्रष्टाचारियों का कालाधन जापान, जर्मनी, सिंगापुर, मारिशस, दुबई, कुवैत, ओमान और अफ्रीका के कुछ मामूली देशों में भी जमा है। यह राशि 50 हजार अरब रुपये तक हो सकती है। जर्मनी ने तो घोषणा भी कर दी है कि अगर कोई देश चाहे तो वह उसे उन नागरिकों के नाम भी दे सकता है जिनके पैसे जर्मनी के बैंकों में जमा हैं। लेकिन हमारी सरकार है कि इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रही।
आज लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव इस मुद्दे को चुनावी रंग देते हुए यह घोषणा कर रहे हैं कि यदि केंद्र की सत्ता पर वे काबिज हुए तो इस काले धन को वापिस लाएंगे। लेकिन इनसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि पांच साल पहले जब राजग की सरकार केंद्र में थी तब इस दिशा में इन दोनों नेताओं ने क्या पहल की? दरअसल इस धन को वापिस लाने की दृढ़ इच्छा शक्ति अब तक किसी भी राजनैतिक दल ने नहीं दिखाई।
लेकिन अब चेतना जरूरी है क्योंकि अमेरिका समेत अन्य पूंजीपति देशों के बैंकों के दीवालिया होने की खबरें लगातार आ रही हैं। स्विट्जरलैंड भी आर्थिक संकट के दौरे से गुजर रहा है। ऐसे में यदि स्विस बैंकों का दिवाला निकलने का सिलसिला शुरू हो जाता है तो भारतीय नागरिकों का यह काला धन डूबनातयहै। इसलिए समय रहते इस काले धन को स्वदेश लाकर इस राष्ट्रीय विपुल धन राशि से दो को समृद्धशाली बनाने और देश की गरीबी दूर करने में लगा देना चाहिए। अन्यथा देश का आम जनता और सरकार रामनामी माला जपते रह जाएंगे।
प्रकृति के लिए संकट बनता आधुनिक विकास
ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक संपदाओं का दोहन वर्तमान आधुनिक एवं आर्थिक विकास नीति का आधार है। लेकिन हमारे यहां जिस निर्दयी बेशरमी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है, उस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा आर्थिक विकास की निरंतरता तो बनी ही नहीं रह सकती, दीर्घकालिक दृष्टि से देखें तो विकास की यह अवधारणा उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जीने का भयावह संवैधानिक संकट खड़ा कर रही है, जिसकी रोजी-रोटी की निर्भरता प्रकृति पर ही अवलंबित है। इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरावली की पर्वत �श्रृंखलाओं से उत्खनन पर पूरी तरह अंकुश लगाना एक बाजिव और जरूरी पहल है। विकास के बहाने पर्यावरण संरक्षण के मामलों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है लेकिन इस मर्तबा इस फैसले से यह संदेश प्रचारित हुआ है कि पर्यावरण सुरक्षा के हितार्थ कड़े से कड़े कदम उठाए जा सकते हैं।
आज का सीमेंट, कंक्रीट व लोहे की संरचनाओं से जुड़ा आधुनिक विकास हो अथवा कंप्यूटर व संचार क्रांति से संबंधित प्रौद्योगिक विकास सबकी निर्भरता प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस विकास के दारोमदार जल, जंगल और जमीन तो हैं ही तमाम खनिज, जीवश्म ईंधन, रेडियोऐक्टिव और तरल पदार्थ भी हैं। ये संपदाएं अब अकूत नहीं रहीं। इनके भंडार बेशुमार दोहन से रीत रहे हैं। लिहाजा प्रकृति का पारिस्थतिकी संतुलन तो संकट में आ ही गया है एक बड़ी आबादी के जीने का अधिकार भी खतरे में है। क्योंकि प्रकृति के खजाने लुट जाएंगे तो संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में दिए जीने के अधिकार के प्रावधान का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा? इस लिहाज से अरावली पर्वत �श्रृंखलाओं पर खनन पर सर्वोच्च न्यायालय के अंकुश के महत्व का दायरा असीमित है। इस फैसले को आधार बनाकर अन्य स्थलों पर अंधाधुंध हो रहे दोहन को नियंत्रित किया जा सकता है।
न्यायालय ने गुड़गांव, फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के 548 वर्ग किलोमीटर के दायरे में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि खनन क्षेत्र में शर्तों के मुताबिक पर्यावरण सुधार के प्रावधानों को अमल में नहीं लाया जा रहा था। अरावली की पहाड़ियां दुनिया की प्राचीनतम पर्वत �श्रृंखलाएं हैं। इन पहाड़ियों के मानव समुदाय के लिए कुदरती महत्व हैं। इन्हीं पहाड़ियों की ओट, पश्चिमी रेगिस्तान को फैलने से रोके हुए है। अन्यथा हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जो उपजाऊ भूमि है उसे रेगिस्तान में तब्दील होने में समय नहीं लगेगा। पहाड़ियों की हरियाली नष्ट होने से इस क्षेत्र में शुष्कता का विस्तार हुआ। नतीजतन जल स्तर नीचे चला गया। प्रकृति का पारिस्थितिकी तंत्र स्थिर रहे इस लिहाज से अदालत द्वारा सख्ती बरतना जरूरी था। क्योंकि हमारी राजनीतिक इच्छा शक्ति और प्रशासनिक दृढ़ता तो आखिरकार अपने निजी हितों के चलते उत्खननकर्ताओं के ही हित-पोषण में लगी हुई है।
हमारे देश में अरावली की पर्वत श्रेणियां ऐसे अकेले स्थल नहीं हैं जहां की संपदा को बेजा लूटकर पर्यावरण विनाश किया गया हो। इसके पूर्व दक्षिण भारत की पश्चिमी घाटियों में उत्खनन की प्रक्रिया जारी रहने से घाटी के वन क्षेत्र और नदियों की गहराई संकट के दायरे में आ गए थे। पश्चिम के ये वन प्रांत दुर्लभ वनस्पतियों व जैव विविधता के अनुपम उदाहरण हैं। इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय को पहल करनी पड़ी थी।
भारत में पर्यावरण विनाश की सीमा अरावली पर्वत श्रेणियों और पश्चिम के घाटों तक ही सीमित नहीं है, मध्यक्षेत्र में भी बेतरतीब ढंग से जारी रहकर प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के कारण सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां तो खतरे में हैं ही अनेक जीवनदायी नदियों का वजूद भी संकट में है। छत्तीसगढ़ में कच्चे अयस्क के अवैज्ञानिक दोहन से शंखिनी नदी को ही पूरी तरह प्रदूषित करके रख दिया है। बेलाडिला के जो लोह तत्व अवशेष के रूप में निकलते हैं, वे किरंदल नाले के जरिए शंखिनी नदी में प्रवाहित होते हैं। इस कारण नदी और नाले का पानी अम्लीय होकर लाल हो जाता है, जो न तो पीने के लायक रह गया है और न ही सिंचाई के लायक।
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयंत्र रोजाना करीब 60 टन दूषित मलवा चंबल और चामला नदियों में बहाकर उन्हें दूषित तो बना ही रहे हैं, मनुष्य- मवेशी व अन्य जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी जानलेवा साबित हो रहे हैं। बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकी तंत्र को गड़बड़ाने जा रही रेणुका बांध परियोजना को रद्द करने की मांग भी उठ रही है। इस परियोजना को अस्तित्व में लाने का मुख्य मकसद दिल्लीवासियों को अतिरिक्त 275 मिलियन गैलन पानी प्रतिदिन मुहैया कराना है। जबकि दिल्ली के लिए हथिनी कुंड और वजीराबाद बैराज पहले से ही जल संरक्षण और जल प्रदाय कर रहे हैं। 1994 की इस परियोजना पर पांच सहयोगी प्रदेश राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल और उत्तर प्रदेश समझौता करने एकजुट हुए थे। लेकिन राजस्थान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। ऐसी स्थिति में परियोजना रद्द मानी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। धीमी गति से परियोजना को गतिशील बनाने के लिए कार्रवाइयां जारी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह परियोजना यदि अमल में आती है तो निचले हिमाचल क्षेत्र में दो हजार हेक्टेयर में फैले जंगल और कृषि क्षेत्र डूब में आएंगे। रेणुका अभ्यारण्य डूब में आएगा। सात सौ से ज्यादा परिवार प्रभावित होंगे जो वनोत्पाद से अपना जीवनयापन करते हैं। साथ ही लहसुन, अदरक और टमाटर की नगदी फसलों पर आधारित यहां की कृषि अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाएगी। बड़े पैमाने पर विभिन्न समुदायों के लोगों की धार्मिक संस्कृति व धरोहरों का भी विनाश होगा।
दरअसल दिल्ली को फिलहाल रेणुका बांध से जलापूर्ति की जरूरत नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड की जो ऑडिट रिपोर्ट 2008 आई है, उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि दिल्ली में कुल जल प्रदायगी का 40 प्रतिशत वितरण के दौरान रिसाव के चलते बर्बाद हो जाता है। दिल्ली जल बोर्ड इस बर्बादी को रोक ले तो उसे जलापूर्ति के लिए किसी नये विकल्प की जरूरत नहीं रह जाती है। लेकिन हमारे देश में कथित विकास के ठेकेदारों का एक ऐसा माफिया तंत्र खड़ा हो गया है जो राजनीतिज्ञ और अधिकारियों का आर्थिक हित संरक्षक बना हुआ है। विकास के इसी गठजोड़ के हित-पोषण के हेतु 50 साल के भीतर प्रकृति पर निर्भर करीब चार करोड़ आदिवासी व अन्य समुदायों के लोग आधुनिक विकास परियोजनाएं खड़ी करने के लिए अपने पुश्तैनी अधिकार क्षेत्रों जल, जंगल और जमीन से खदेड़े गए हैं। जिनका उचित पुनर्वास लालफीतीशाही और भ्रष्टाचार के चलते आज तक नहीं हो पाया है।
अब यहां समस्या यह उठती है कि हम विकास का ऐसा कौन-सा आदर्श प्रतिदर्श (मॉडल) तैयार करें जिसके अंतर्गत विकास की गतिशीलता भी बनी रहे और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में समानांतर सुधार होता रहे? आधुनिक विकास का आधार प्राकृतिक संसाधन हैं लेकिन इनके विनाश की शर्त पर खनिजों के दोहन का वर्तमान सिलसिला जारी रहा तो प्रकृति के पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलित हो जाना तय है। यह तंत्र लड़ाखड़ाता है तो जीव-जगत का विनाश भी तय है। लिहाजा अब औद्योगिक विकास व वाणिज्यिक लाभ-हानि के गुणाभाग से परे आर्थिक विकास का मूयांकन जल, जंगल और भूमि के पैमाने पर हो? क्योंकि प्राणी जगत का अस्तित्व अंततः प्राकृतिक संपदा की उपलब्धता में ही निहित है। शायद इसलिए गांधीजी ने पहले ही कह दिया था कि हमें कोई अधिकार नहीं कि हम प्रकृति के भंडार में से आने वाली पीढ़ियों का हिस्सा भी हड़प लें? लेकिन गांधी के इस संजीवनी वाक्य पर अमल कौन करे?
आर्थिक सुधारों के दौरान घटा रोजगार
अर्जुन सेन गुप्त आयोग और फिक्की के आर्थिक वृद्धि और रोजगार के अवसर संबंधी अध्ययनों से बेहद चौंकाने वाले एवं विरोधाभासी निष्कर्ष सामने आए हैं। गुप्त ने अपने 1999 से 2005 के दौरान रोजगार की स्थिति में आए परिवर्तनों के आकलन का खुलासा करते हुए कहा है, इस बीच रोजगार के अवसर दो प्रतिशत घटे हैं। जबकि इन्हीं दो दशकों में आर्थिक सुधारों का बोलबाला रहा और सकल घरेलू उत्पाद दर में भी आशातीत वृद्धि दर्ज की गई। यह विचित्रा विरोधाभास क्यों? जिसमें विकास दर का ग्राफ तो ऊपर जा रहा है लेकिन रोजगार के अवसर घट रहे हैं। फिक्की (फेडरेशन ऑफ इंडिया चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) भी भूमंडलीकरण के अमल के दौरान डेढ़ दशक के अध्ययन से इस नतीजे पर पहुंचा है कि आर्थिक विकासों के अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। गुप्त ने यह अध्ययन पांच साल पहले उस समय शुरू किए थे जब सकल घरेलू उत्पाद दर चरम पर थी।
राष्ट्रीय कड़वी सच्चाइयों से रुबरु कराने का काम अर्जुनसेन गुप्त आयोग पूरी निष्पक्षता से करता रहा है। गुपत आयोग ने ही बताया था कि देश में 7 करोड़ 30 लाख लोग 9 रुपये प्रतिदिन और 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन की मामूली आय से गुजारा करते हैं। और अब उन्होंने आर्थिक सुधारों के मुगालते को तोड़ते हुए तथ्य व साक्ष्यों से ताकीद की है कि बाजारवाद को बेलगाम बढ़ावा देने के युग में रोजगार की दर दो प्रतिशत घटी है। गुप्त आयोग ने यह भी सुनिश्चित किया है कि इस दौरान रोजी-रोटी कमाने के अवसरों में बढ़ोतरी संगठित क्षेत्रों की बजाय उन असंगठित क्षेत्रों में हुई है जिन्हें सरकारी संरक्षण तो मिला ही नहीं बल्कि उनके कारोबार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने के उपाय किए गए। हमारे देश की एक अरब से ज्यादा सबसे बड़ी आबादी का हिस्सा असंगठित व्यावसायिक संस्थानों से ही अपनी आजीविका चलाता है। इन क्षेत्रों में लघु व कुटीर उद्योगों के साथ हाट बाजार, फल-सब्जी व अन्य ऐसे छोटे कारोबार आते हैं जिनकी आय के स्रोत निश्चित नहीं हैं। ऐसे ही उद्योग-धंधों से 85 प्रतिशत आबादी जुड़ी हुई है।
असंगठित क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ने के बावजूद आश्चर्यजनक विरोधाभास यह सामने आया है कि इनकी मासिक आमदनी की दर में गिरावट दर्ज की गई है। जबकि इन्हीं दो दशकों में संगठित क्षेत्र जिनमें सरकारी कार्यालय और उपक्रम भी शामिल हैं, उनमें उच्च पदों पर बैठे लोगों की आय में जबरदस्त वृद्धि दर दर्ज की गई है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो जाने के बाद तो यह असमानता संघर्षशील वर्ग के लिए ईर्ष्या, कुंठा व असंतोष का कारण बन रही है। उच्च वेतनमान पूंजीवादी-भोगवादी संस्कृति को बढ़ावा देने के साथ पर्यावरण दूषित करने के कारक के रूप में भी सामने आ रहे हैं। जो सामाजिक असंतोष के विस्फोटक कारण साबित हो सकते हैं?
यहां विडंबना यह भी देखने में आ रही है कि हमारे सत्ताधारी दल समेत अन्य राजनीतिक दलों के लिए न तो असंगठित क्षेत्र का संरक्षण कोई मुद्दा है और न ही वे रोजगार के नये अवसर उत्सर्जित करने के प्रति चिंतित दिखाई देते हैं। इसलिए चुनावी घोषणा-पत्रों में ये मुद्दे कमोबेश नदारद हैं। इसके उलट दलीलें दी जाती हैं कि उच्च वेतनमान और उद्योग जगत को दिए जाने वाले राहत पैकेजों से पैदा होने वाली समृद्धि रिस-रिस कर असंगठित समृद्धि की आय बढ़ाएगी।
केन्द्र में फिर से मनमोहन सिंह सरकार के काबिज होने के बाद उद्योग जगत इसलिए खुश है क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि सरकार ऐसी आर्थिक नीतियों पर चलेगी जिससे औद्योगिक विकास तो कायम रहे ही उद्योग जगत को आर्थिक मंदी से उबारने के बरक्स राहत पैकेज मिलें। क्योंकि वैश्विक मंदी ने एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था भारत पर अनुमान से अधिक असर डाला है। जिसके चलते अंदाजा लगाया जा रहा है कि साल 2009-10 में देश के आर्थिक विकास की दर 6 प्रतिशत तक सिमटकर रह जाएगी। वैसे भी मनमोहन सिंह चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ऐलान करते रहे थे कि उनकी सरकार की वापिसी होती है तो वे 100 दिन के भीतर बिगड़ी अर्थव्यवस्था सुधार देंगे। इसीलिए उद्योग जगत उम्मीद लगाए बैठा है कि विनिर्माण और रोजगारोन्मुख उद्योगों के लिए सरकार बड़ा आर्थिक पैकेज ला सकती है।
यहां सरकार को यह खयाल रखने की जरूरत होगी कि औद्योगिक विकास और कृषि क्षेत्र के विकास के बीच बेहतर संतुलन तो बना ही रहे, वंचित तबका भी असंतोष की आग में न झुलसे इसके लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना की तर्ज पर खाद्य का अधिकार कानून भी लागू करना होगा। यह कानून सभी लोगों को पर्याप्त खाद्य की सुनिश्चतता की गारंटी देता है। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा-पत्रा में इस कानून को लागू करने का वादा भी किया है। क्योंकि देश के कुलीन व राजनीतिक पहुंच वाले लोगों ने प्राकृतिक संपदा से लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़ी खाद्य-सामग्री पर जिस तरह से जायज-नाजायज कब्जा किया हुआ है उससे भी विषमता की खाई बढ़ी है। इसे भी कम करने के नजरिए से खाद्य सुरक्षा कानून अमल में लाना जरूरी है। क्योंकि प्राकृतिक संपदा व संसाधनों और सरकारी कार्य निष्पादन संबंधी क्षेत्रों में एकाधिकार से भी असंगठित क्षेत्रों में रोजगार के अवसर घटे हैं। यदि ऐसे उपायों को अमल में लाया जाता है तो आर्थिक वृद्ध की दर के साथ रोजगार के अवसरों में भी संतुलन बना रहेगा।
आर्थिक विकास ने बढ़ाया भूख का दायरा
आर्थिक विकास के तमाम उपक्रमों के बीच भूख का लगातार बढ़ता दायरा भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के स्वप्न को भ्रम में तब्दील कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम की जो ताजा रिपोर्ट सामने आई है उसने तय किया है कि विकासशील देशों की दौड़ में शामिल भारत में अमीरी-गरीबी की खाई लगातार चौड़ी होते जाने के अनुपात में भूख, विषमता और असमानता का दायरा भी फैलता जा रहा है। यहां तक कि हम अविकसित देशों की �श्रृंखला में भी बेहद शर्मनाक स्थिति में हैं।बहरहाल इस रिपोर्ट ने यह तय कर दिया है कि उं+ची व भ्रामक विकास दर के आंकड़ों पर टिका विकास ढोल में पोल भर है।
संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य सुरक्षा की रिपोर्ट ने तय किया है कि दुनिया में कुपोषण की शिकार कुल आबादी का 27 प्रतिशत और कम वजन वाले बालक- बालिकाओं की 43 प्रतिशत आबादी अकेले भारत में है। ये बद्तर हालात गरीबों के खान-पान में कमी आते जाने के कारण निर्मित हुए हैं। भूख और कुपोषण के बढ़ते इस दायरे का प्रमुख कारण वैश्विक धरातल पर खाद्य-पदार्थों की बेतहाशा बढ़ती कीमतें बताई जा रही हैं।
एमएस स्वामीथन शोध प्रतिष्ठान ने भी भूख और कुपोषण की भयावहता जाहिर करने वाली रिपोर्ट पेश की है। रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में हालात इतने चिंताजनक हैं कि गरीबों को साधारण आहार और उसमें शामिल पौष्टिक तत्वों की न्यूनतम मात्रा भी नहीं मिल पाने के कारण महिलाएं व बच्चे रक्ताल्पता के शिकार हो रहे हैं। असम, हरियाणा और राजस्थान भी इसी लीक पर हैं। तुलनात्मक रूप में इन राजयों में थोड़ा सुधार हो रहा है। स्वामीनाथन संस्थान की रिपोर्ट इस भ्रम को तोड़ती है कि विकसित राज्य माने जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व आंध्रप्रदेश जैसे प्रदेशों में गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा की कोई बेहतर स्थिति है। इससे जाहिर है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं के ग्रामीण परिवेश में जारी रहने के बावजूद खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
इसके पहले स्वामीनाथन संस्थान और विश्व खाद्य कार्यक्रम ने 2001 में ऐसा ही सर्वेक्षण किया था, तब केवल 13 प्रतिशत आबादी खून की कमी के दायरे में थी। लेकिन 2007-08 में जब 2001 के प्रारूप के अनुसार ही सर्वेक्षण किया गया तो यह दायरा बढ़कर 27 फीसदी हो गया। इसी दौरान 15 से 49 साल की औसत आयु वर्ग की रक्ताल्पता वाली महिलाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई। रक्त की यही कमी माओं और शिशुओं की मृत्यु का प्रमुख कारण बनी हुई है। प्रसव के दौरान भी इसी एक वजह से सबसे ज्यादा माताओं की मौत होती है। स्वास्थ्य संबंधी मामलों में अब हमारे परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण विभाग आवंटन (बजट) का बहना नहीं बना सकते। क्योंकि भारत सरकार के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का जो प्रतिवेदन सामने आया है उसने खुलासा किया है कि 2007-08 में स्वास्थ्य विभाग को आवंटित धनराशि लौटा दी गई। इससे जाहिर होता है कि सफेद हाथी बनी सरकारी मशीनरी धनराशि के सदुयोग में नाकाम रही। चिकित्सा सुविधा के क्षेत्र में ये हालात चिंतनीय पहलू हैं।
1990-91 में जब आर्थिक उदारता के दृष्टिगत भूमंडलीकरण की बुनियाद भारत में रखी जा रही थी, तब से जितने भी भूख, कुपोषण, गरीबी और खाद्य सुरक्षा संबंधी जितने भी अध्ययन व सर्वेक्षण किए गए, सभी ने प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट दर्ज की। वर्तमान हालात की तस्वीर तो इतनी भयावह है कि वैश्विक भूख सूचकांक में जो 119 देश शामिल हैं उनमें भारत का स्थान 94 पायदान पर है। भुखमरी की भारत में यह स्थिति रंवाडा, मलावी, नेपाल, पाकिस्तान, नाइजीरिया, कैमरुन ओर सूडान से भी गई-बीती है।
मौजूदा दौर में विश्वव्यापी आर्थिक संकट भूख के दायरे को और जयादा बढ़ाने वाला साबित होगा। क्योंकि मौजूदा संकट केवल आर्थिक संकट न होकर पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला संकट है। जो शोषण पर आधारित इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के खोखले ढांचे में पैदा हुए संकट का नतीजा है। पूंजीवादी व्यवस्था लोगों की क्रयशक्ति को लगातार घटा देती है। इस कारण बाजार में मांग भी कम हो जाती है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने आर्थिक संकट को बढ़ाने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी क्योंकि इन्हीं नीतियों के अमल के बाद लाखों लघु और मध्यम आधार की औद्योगिक इकाइयां एक-एक कर बंद होती चली गईं। भूमंडलीकरण के पैरोकारों ने यहां यह चतुराई भी बरती कि लघु व कुटीर उद्योगों के बंद होने से बेरोजगार हुए लोगों की गिनती तो उन्होंने कभी नहीं कि उलट नवउदारवादी नीतियों के महिमामंडन करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मिले रोजगार के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया। जिसका खुलासा सत्यमकंप्यूटर का दिवाला निकलने से भी हुआ है। अब जरूर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन कह रहे हैं कि मंदी की दुर्दशा के चलते 2009 के अंत तक पांच करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। इस भयावहता की आकाशवाणी करने के पीछे उदारवादी नीतियों के अलंबरदारों की मंशा है कि सरकारें मंदी से उबरने के लिए कारपोरेट जगत को नये-नये पैकेज दें।
जबकि इस आर्थिक मंदी से सबक लेते हुए सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत आर्थिक उदारवादी नीतियों से पीछा छुड़ाए। लघु, कुटीर व औद्योगिक इकाइयों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को श्रम केंद्रित नीति के आधारभूत ढांचे के हिसाब से गतिशील करे। नौकरियों पर लगी पाबंदियों को हटाए। सरकारी कर्मचारियों के वेतन और भत्ते बढ़ाने की आयोग की सिफारिशों को मानने की बजाय राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन निश्चित करे। क्योंकि भारी-भरकम वेतन पाने से सरकारी अमला भोग-विलास की प्रवृत्तियों में लिप्त होकर अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संपदा के दोहन का ही कारण बनेगा। भ्रष्टाचार में भी इसकी लिप्तत और बढ़ेगी। क्योंकि आर्थिक और सरकारी सुरक्षा व्यक्ति को निरंकुश व निर्मोही बनाने का काम कर रही है। इसी कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न भोजन, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं गरीब की चौखट तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ जाती हैं। गरीब को खाद्य शिक्षा व स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देने वाली इन योजनाओं का जब एम. एस. स्वामीनाथन संस्थान और विश्व खाद्य कार्यक्रम निष्पक्ष मूल्यांकन करते हैं तो पता चलता है कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार व मनमानी उन्हीं जनकल्याणकारी राष्ट्रीय कार्यक्रमों में निहित है जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले हें। सही मायनों में भारत में भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद गरीबी को बढ़ाने वाला साबित हुआ है। इसलिए इस पर अंकुश लगाए बिना समग्र आबादी के मंगल की कामना नहीं की जा सकती?
क्रमशः – अगले अंक में जारी…
आर्थिक व्यवस्था को पर समझ बनाने बेहतरीन लेख सहधन्यवाद आपका भार्गव जी मैं आपके सभी पन्नो का पाठन करूंगा।
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