आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में: 31. नदियों को संकट में डालते पिघलते हिमनद 32. आर्थिक विकास से जु...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
पिछले अंक से जारी…
इस अंक में:
31. नदियों को संकट में डालते पिघलते हिमनद
32. आर्थिक विकास से जुड़ा पानी
33. वनों को संकट में डालते वन कानून
34. लोक लुभावन नारा और सस्ता अनाज
35. सुरसामुख बनती भूख
नदियों को संकट में डालते पिघलते हिमनद
महत्ती, महंगी और लंबी अवधि में पूर्ण होने वाली परियोजनाओं को धरातल पर लाकर उन्हें बड़ी आबादी के लिए उपयोगी बनाए जाने के सिलसिले में हमारे देश में इतने विरोधाभास सामने आते हैं कि ज्यादातर परियोजनाएं वजूद में आते-आते अपनी बुनियादी महत्ता ही खो देती हैं। कुछ ऐसा ही नदियों को जोड़ने वाली बृहद परियोजना के संबंध में हो रहा है। अब तो यह सवाल भी उठाया जाने लगा है कि जब नदियां ही सूख जाएंगी तो उन्हें परस्पर जोड़ने से क्या लाभ? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। क्योंकि हमारे देश की जीवन रेखा बनी मुख्य नदियों का उद्गम स्थल हिमालय की पर्वत �श्रृंखलाओं में पसरे वे हिमनद (ग्लेशियर) हैं जो धीमी गति से पिघलते रहकर नदियों की जलधार बने रहते हुए मानव समुदाय के लिए पूरे साल नदियों को उपयोगी बनाए रखते हैं। लेकिन लगातार बढ़ते तापमान ने इन हिमनदों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। बहरहाल जब जल के स्रोत ही सूख जाएंगे तो नदियों में जलधार कहां से आएगी?
देश की नदियों को एक मजबूत नहर संरचना के माध्यम से जोड़े जाने की दृष्टि से भारत सरकार अरबों रुपये खर्चने जा रही है। जबकि इसके विपरीत ताजा वैज्ञानिक अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि हिमालय से निकलने वाली गंगा-यमुना जैसी नदियां कालांतर में सूख सकती हैं। लिहाजा इस योजना पर इतने बड़े पैमाने पर इतनी बड़ी धनराशि व्यय करने का क्या औचित्य?
अमेरिका स्थिति नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च (एनसीएआर) की ओर से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि गंगा समेत विश्व की 925 बड़ी नदियां सूख रही हैं। पिछले 50 सालों में इन नदियों में जलप्रवाह घटा है। यदि यही सिलसिला बना रहा तो 2050 तक इन नदियों से मिलने वाले पानी में 60 से 90 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। इससे जल संकट के लिए हा-हाकार तो मचेगा ही खाद्य-संकट की भयावहता भी सामने आएगी। शोध ने यह भी साफ किया है कि यह संकट किसी एक देश या क्षेत्र की नदियों पर ही नहीं दुनिया की सभी जीवनदायी नदियों पर गहरा रहा है। क्योंकि इस सूची में चीन की पीली नदी, पश्चिम अफ्रीका की नाइजर और अमेरिका की कोलोरेडो जैसी नदियां भी शामिल हैं।
भारत में नदी जोड़ो परियोजना के तहत हिमालयीन और प्रायद्वीपीय 37 नदियों को परस्पर जोड़े जाने का प्रस्ताव विचारधीन है। एनडीए की सरकार के दौरान 2002 में जब यह योजना बनी थी तब इस परियोजना की शुरुआती अनुमानित लागत 5.6 लाख करोड़ के करीब थी। दस साल के भीतर परियोजना को पूरी कर लेने की उम्मीद जताई गई थी। परंतु सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के मद्देनजर की गई सुनवाई के अनुसार योजना को अमल में लाने में चालीस साल से भी ज्यादा का वक्त लग सकता है। हमारे देश में राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायालयीन अड़चनों का जिस तरह से सामने आने का सिलसिला शुरू होता है उसके तईं किसी भी योजना का लम्बा खिंचना एक अभिशाप है।
दूसरी तरफ अध्ययन, आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते जिस तेजी से धरती का तापमान बढ़ रहा है और औद्योगिक कचरा जिस तरह से नदियों के लिए अभिशाप बना हुआ है उसके चलते 25-30 साल के भीतर जयादातर भारतीय नदियां मौसमी नालों में तब्दील होकर रह जाएंगी। वैसे भी गंगा का स्रोत जिस गंगोत्री नाम के हिमनद से निकलता है एक अध्ययन के अनुसार वह 1935 से 1971 तक हर साल उन्नीस मीटर सिकुड़ता था, वर्तमान में इसके संकुचित होने की गति चौंतीस मीटर प्रति वर्ष है। इसके सिकुड़ने के इन हालातों को पैदा करने का कारण धरती का बढ़ता हुआ बुखार है। हिमालय के अन्य हिमनद भी इस रफ्तार से पिघल रहे हैं।
जीवनदायी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी रही हैं। नदियों के किनारे ही ऐसी आधुनिकतम बड़ी सभ्यताएं विकसित हुईं जो कृषि और पशुपालन पर अवलंबित रहीं। लेकिन जब से सभ्यताएं औद्योगिक प्रौद्योगिक उत्पादनों से जुड़ गईं तब ये अति विकसित व आधुनिक मानी जाने वाली सभ्यताएं मात्रा 50 साल के भीतर ही नदियों जेसी अमूल्य प्राकृतिक संपदा के लिए खतरा बन गईं। एक तरफ इन्हें प्रदूषित किए जाने का सिलसिला जारी रहा तो वहीं दूसरी तरफ नदियों के जल के बंटवारे को लेकर भी राज्यों के परस्पर उत्तेजक विवाद सामने आए।
भारत सरकार ने फिलहाल 14 नदियों को राष्ट्रीय परियोजना में शामिल कर इन्हें जोड़ने की परियोजना बनाई है। 13500 किलोमीटर लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुई मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान हैं। 12528 लाख हेक्टेयर भू-खंडों और वन प्रांतों में प्रवाहित इन नदियों में 690 घन मीटर जल है। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलें लहलहाती हैं। यदि निर्धारित समय सीमा में नदियां जुड़ जाती हैं तो सिंचित भूमि का रकबा भी बढ़ेगा और मोक्षदायिनी इन नदियों से बाढ़ से हर साल पैदा होने वाले संकट से भी किसी हद तक छुटकारा मिलने की उम्मीद की जा सकती है। ऐसे हालात में बाढ़ग्रस्त नदी का पानी सूखी नदी में डाला जा सकता है।
वैसे ‘पानी' हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्रधिकार में आता है। इसलिए कावेरी जल विवाद पिछले 18 साल से वजूद में है।चंबल नदी के सिंचाई जल को लेकर भी राजस्थान और मध्य प्रदेश में हर साल विवाद छिड़ा रहता है। वहीं महानदी और ब्रह्मपुत्रा नदियां अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण बनी हुई हैं। विस्थापन जैसी राष्ट्रीय आपदा और मानवीय बाधाओं के चलते मध्य प्रदेश में काली सिंध पार्वती, नेवज और चंबल नदियों के गठजोड़ का प्रस्ताव प्रदेश सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। ऐसे ही विवादों में उलझी बड़े बजट और लंबी अवधि वाली नदी जोड़ो परियोजनाएं आशंकाओं के दायरे में हैं। क्योंकि जब तक नदियों को जोड़े जोन की परियेाजना पूरी होगी तब तक लगातार बढ़ रहे तापमान के कारण हिमनद पिघलकर अपना अस्तित्व ही खो देंगे और इसके दुष्फलस्वरूप नदियां भी सूख जाएंगी। मसलन ऐसी विचाराधीन परियोजनाओं का भविष्य में कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा? यह सवाल बेवजह नहीं है, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अन्यथा कालांतर में सफेद हाथी साबित होने वाली इस परियोजना से तत्काल तो इस्पात और सीमेंट के उद्योगपति, परियोजना निर्माता, ठेकेदार और अधिकारियों का गठजोड़ तो लाभ उठा लेंगे, लेकिन जब नदियां ही खतरे में पड़ जाएंगी तो मानव आबादी को क्या लाभ मिलेगा? विनिर्माण से जुड़ी इन स्वार्थी लॉबियों की पड़ताल की भी जरूरत है। क्योंकि सरकार पर अपेक्षित दबाव इसी लॉबी का है और यह लॉबी कुछ भी कराने में कमोवेश सक्षम भी है।
आर्थिक विकास से जुड़ा पानी
किसी भी देश के आर्थिक विकास में जीवनदायी जल की महत्ता अंतर्निहित है। हालांकि विकास दर के सूचकांक को नापे जाते वक्त पानी के महत्व को दरकिनार रखते हुए किसी भी देश की औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आई.आई.पी.) से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। 2006-2007 में भारत की विकास दर ने 9.6 तक की उं+चाइयां छुई थीं और सकल घरेलू उत्पाद एक टिलियन डॉलर तक पहुंच गया था। यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक ही बनाए रखना है तो एक अध्ययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से चार गुना अधिक पानी की जरूरत होगी, तभी सकल घरेलू उत्पादन बढ़कर 2031 तक चार टिलियन डॉलर तक पहुंच सकेगा। अब सवाल उठता है कि बीस साल बाद इतना पानी आएगा कहां से? क्योंकि लगातार गिरते भू-जल स्तर और सूखते जल स्रोतों के कारण जलाभाव तो अभी से मुंह बाये खड़ा है? इन हालातों में हम 20-21 साल बाद कहां खड़े होंगे यह एक गंभीर सवाल है।
पानी भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक समस्या के रूप में उभर चुका है। भूमंडलीकरण और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में बड़ी चतुराई से विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई है। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल योरोपीय संघ के दबाव में शुरू हो चुका है। पानी को ‘मुद्रा' में तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया। जिससे पूंजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशील देशों के पानी का असीमित दोहन कर फलती-फूलती रहे। अमेरिकी वर्चस्व के चलते इराक में मीठे पेयजल की आपूर्ति करने वाली दो नदियों यूपरेट्स और टाइग्रिस पर तुर्की नाजायज अधिकार जमा रहा है। दूसरी तरफ योरोपीय देश कनाडा इसलिए परेशान है क्योंकि वहां के समृद्ध तालाबों पर नियंत्रण की मुहिम एक षड्यंत्र के तहत अमेरिका ने चलाई हुई है। ये कुचक्र इस बात की सनद हैं कि पानी को लेकर संघर्ष की पृष्ठभूमि रची जा चुकी है। इसी पृष्ठभूमि में तीसरे विश्वयुद्ध की नींव अंतर्निहित है।
भारत विश्वस्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। दुनिया के जल का 13 फीसदी उपयोग भारत करता है। भारत के बाद चीन 12 फीसदी और अमेरिका 9 फीसदी जल का उपयोग करते हैं। पानी के उपभोग की बड़ी मात्रा के कारण ही भू-जल स्रोत, नदियां और तालाब संकटग्रस्त हैं। वैज्ञानिक तकनीकों ने भू-जल दोहन को आसान बनाने के साथ खतरे में डालने का काम भी किया। लिहाजा नलकूप क्रांति के शुरुआती दौर 1985 में जहां देश भर के भू-जल भंडारों में मामूली स्तर पर कमी आना शुरू हुई थी, वहीं अंधाधुंध दोहन के चलते ये दो-तिहाई से ज्यादा खाली हो गए हैं। नतीजतन 20 साल पहले 15 प्रतिशत भू-जल भंडार समस्याग्रस्त थे, आज ये हालात बढ़कर 70 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। ऐसे ही कारणों के चलते देश में पानी की कमी प्रतिवर्ष 104 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच गई है। जल सूचकांक एक मनुष्य की सामान्य दैनिक जीवन-चर्या के लिए प्रति व्यक्ति एक-चौथाई रह गया है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कम होती चली जाए तो इसे आसन्न संकट माना जाता है। इसके विपरीत विडंबना यह है कि देश में स्वच्छ पेयजल के स्थान पर शराब व अन्य नशीले पेयों की खपत के लिए हमारे देश के ही कई प्रांतों में वातावरण निर्मित किया जा रहा है। शराब की दुकानों के साथ अहाते होना अनिवार्य कर दिए गए हैं, जिससे ग्राहक को जगह न तलाशनी पड़े। मध्यप्रदेश सरकार का तो अर्थव्यवस्था सुचारु रखने के लिए शराब से आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा है। इस तरह से देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था चलाने में पानी का योगदान 20 हजार प्रति डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक है।
लेकिन आधुनिक दुनिया पानी की अन्यायपूर्ण आपूर्ति की ओर लगातार बढ़ती जा रही है। एक तरफ घनी आबादी अपना वैभव बनाए रखने के लिए पाश्चात्य शौचालयों, बॉथ टबों और पंचतारा तालाबों में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा रही है, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक आबादी ऐसी है जो तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, यानी करीब 38 लीटर पानी बमुश्किल जुटा पाती है। पानी के इसी अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने बड़ी तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले अमीर लोग शौचालय में एक बार फलश चलाकर इतना पानी बहा देते हैं जितना किसान के एक पूरे परिवार को पूरे दिन के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता है। पानी के इस असमान दोहन के कारण ही भारत, चीन और अमेरिका पानी की समस्या की गिरफ्त में हैं। इन देशों में पानी की मात्रा 160 अरब क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष की दर से घटती चली जा रही है। इन्हीं हालातों के नतीजतन अनुमान लगाया जा रहा है कि 2031 तक विश्व की दो-तिहाई आबादी, मसलन साढ़े पांच अरब लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होंगे।
जल वितरण के इन असमान हालातों के चलते ही भारत में हर साल पांच लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों का जल की उपलब्धता के लिए जद्दोजहद दिनचर्या में तब्दील हो गई है। और 30 करोड़ से ज्यादा लोगों की आबादी के लिए निस्तारी के लिए पर्याप्त जल की सुविधाएं हासिल नहीं हैं।
बहरहाल भारत को सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के स्तर पर पेयजल सबसे बड़ी व भयावह चुनौती बनने जा रहा है। यहां यह ध्यान रखने की जरूरत है कि प्राकृतिक संसाधनों का इस बेलगाम गति से दोहन जारी रहा तो भविष्य में भारत की आर्थिक विकास दर की औसत गति क्या होगी? और आम आदमी का औसत स्वास्थ्य किस हाल में होगा?
मौजूदा हालातों में हम भले ही आर्थिक विकास दर को औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकन यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना कोई आधुनिक विकास संभव नहीं है। यहां यह भी तय है कि विज्ञान के आधुनिक प्रयोग प्राकृतिक संपदा को रूपांतरित कर उसे मानव समुदायों के लिए सहज सुलभ तो बना सकते हैं लेकिन प्रकृति के किसी भी तत्व का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकते? क्योंकि इनका निर्माण तो निरंतर परिवर्तनशील जलवायु पर निर्भर है। इसलिए जल के सीमित उपयोग के लिए यथाशीघ्र कोई कारगर जल नीति अस्तित्व में नहीं लाई जाती है तो भारत का आर्थिक विकास जबरदस्त ढंग से प्रभावित होना तय है।
वनों को संकट में डालते वन कानून
प्राकृतिक संपदा को खतरे में डालने वाले कानून वजूद में लाना भारत में ही संभव है। हाल ही में लोकसभा में एक ऐसा विधेयक पारित हुआ है, जिसकी इबारत कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने की मकसद पूर्ति के लिए तैयार की गई है। जबकि इस ‘क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेयक 2008' को गैर जरूरी मानते हुए संसद की उस स्थायी समिति ने भी इसे खारिज कर दिया था, जिसे जांच-पड़ताल के बाद विधेयक को पारित किए जाने की सिफारिश करनी थी। इसे विडंबना ही कहिए कि इसके बावजूद आनन-फानन में मानव आबादी, जल, जंगल ओर जमीन को भयावह संकट में डाल देने वाले इस विधेयक को कानूनी स्वरूप दे दियागया।बीते साल मध्य प्रदेश सरकार भी कुछ ऐसे ही वन-विनाश के कानून अमल में लाई है।
इस एक विधेयक से कारपोरेट जगत को दो तरह से आर्थिक हित साधने की छूट दी गई है। पहली छूट के अंतर्गत यदि किसी कारपोरेट घराने को जंगल की जमीन औद्योगिक इकाई स्थापित करने के दृष्टिगत उपयोग में लानी है तो वह इस गारंटी के साथ जमीन का उपयोग कर सकता है कि उपयोग में लाई गई जमीन के बराबर कहीं और उतनी ही जमीन में वनरोपण करे? अब यहां सवाल यह उठता है कि कोई भी औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए हजारों हेक्टेयर जमीन की जरूरत पड़ती है, अब यदि जंगलों का विनाश कर औद्योगिक इकाई लगाने की छूट इस शर्त पर दी जा रही है कि वह उतनी ही जमीन में किसी भू-खंड पर पौधारोपण करेगी, तो फिर इस इकाई को स्थापित पौधारोपण करने वाली खाली जमीन पर ही क्यों नहीं किया जा रहा है? दरअसल अब हमारे देश में सरकारी आधिपत्य की खाली जमीन रह ही नहीं गई हैं। और कुछ थोड़ी बहुत शेष हैं भी तो वे उद्योगपतियों के लिए औद्योगिक इकाई लगाई जाने की दृष्टि से अनुपयोगी व संसाधनों की दृष्टि से प्रतिकूल हैं। इसीलिए टाटा की नैनो कार संयंत्र के लिए पश्चिम बंगाल की साम्यवादी सरकार को नंदीग्राम के किसानों को बेदखल कर कृषि भूमि के अधिग्रहण का कदम उठाना पड़ा। स्थानीय किसान संगठनों एवं तृणमूल कांग्रेस के जबरदस्त विरोध के चलते सरकार और टाटा के मंसूबों पर पानी फिर गया और यह औद्योगिक संयंत्र गुजरात स्थानांतरित हो गया। लेकिन गुजरात सरकार के पास नैनो उद्योग को जरूरत के मुताबिक देने को खाली पड़ी सरकारी भूमि नहीं थी, नतीजतन उस कृषि विश्वविद्यालय की कृषि भूमि नैनो कार के निर्माण के लिए दे दी गई जो खेती की नई किस्मों के आविष्कार के प्रयोग हेतु सुरक्षित थी। बहरहाल यह औद्योगिक पहल इस बात की प्रतीक है कि हम जीने की शर्त ‘रोटी' के बुनियादी महत्व को नकारकर एंद्रिय सुख एवं विलास संबंधी भौतिक उपकरण नैनों के लिए ज्यादा चिंतित हैं।
यहां एक विचारणीय पहलू यह भी है कि औद्योगिक घराने जंगली क्षेत्रों में ही क्यों उद्योग लगाना चाहते हैं? दरअसल हमारे देश में जो भी शेष प्राकृतिक संपदा है वह शेष बचे वनाच्छादित भू-खंडों में ही है। जिसके आसान दोहन से करोड़ों-अरबों के बारे न्यारे किए जा सकते हैं। इसी प्राकृतिक संपदा के भंडारों के इर्दगिर्द सरल व सहज प्रकृति की आदिवासी कही जाने वाली मानव प्रजातियां रहती हैं। जिन्हें आसानी से बेदखल तो किया ही जा सके सस्ते मानव श्रम के रूप में उनका शारीरिक और आर्थिक दोहन भी किया जा सके? ये कुटिल चालाकियां ही कारपोरेट जगत को जंगल में मंगल के लिए उद्योग स्थापना हेतु बाध्य करती हैं। लेकिन कल्याणकारी सरकारें भी जब गलत मंसूबों को साध्य बनाए जाने के दृष्टिगत लचर कानून वजूद में लाने लगती हैं तो सरकार की मंशा में भी स्वार्थ की संदिग्धता दृष्टिगोचर होने लगती है।
इस विधेयक से दूसरा हित उस संस्था को अस्तित्व में लाकर साधा जा रहा है जिसके सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। ‘हरित-भारत' (ग्रीन इंडिया) नाम की यह संस्था करोड़ों पेड़ देश की खाली पड़ी जमीन पर लगाने का एक कार्यक्रम बनाकर उस पर अमल करने जा रही है। ‘क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेकय 2008' में यह प्रावधान रखा गया है कि पूरे देश की अनेक वनरोपण समीतियों में जो आठ हजार करोड़ रुपये की धनराशि जमा है उसे स्थानांतरित कर ‘ग्रीन इंडिया' में एकत्रित किया जाएगा और फिर वन लगाने की जवाबदारी इस धनराशि से कारपोरेट घरानों को सौंपी जाएगी। लोकतंत्र में धन एवं अधिकारों का विकेंद्रीकरण कर बहुसंख्यक आबादी को लाभ पहुंचाने की उदात्त परंपराएं रही हैं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री वन समितियों में बंटे धन का ध्रुवीकरण कर कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए आमादा दिखाई दे रहे हैं। इस विधेयक में निहित स्वहितों का कूट परीक्षण करने के बाद ही संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष डॉ. वी. मैत्रोयन एवं अन्य सदस्यों ने इस विधेयक को ‘गैर जरूरी मानते हुए' संसद से स्पष्ट शब्दों में अपील की थी कि इस विधेयक को खारिज कर दिया जाए। लेकिन इसके बावजूद यह हैरानी की बात रही कि किसी विधेयक को सिरे से निरस्त करने की अनुशंसा करने के बाद भी इस विधेयक को लोकसभा में आनन-फानन में पारित कर दिया गया। जल्दबाजी में विधेयक पारित किए जाने पर सरकार के इरादे कठघरे में हैं, आखिर उसने कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के नजरिए से ही इस विधेयक को हड़बड़ी में पारित किया? बीते साल मध्य प्रदेश सरकार ने भी औद्योगिक इकाइयों को लाभ पहुंचाने के दृष्टिगत वृक्षों की 15 प्रजातियां छोड़ बाकी वृक्ष काटने के नियमों में ढिलाई दे दी। इससे वन माफिया वन विनाश में बढ़-चढ़कर लग गया है। इसी प्रकार 1988 में संसद में एक वन अधिनियम पारित हुआ था जिसके तहत उद्योगों को वन भूमि लीज पर देने के नियमों में शिथिलता बरती गई थी। फलस्वरूप उद्योग समूहों ने लाखों हेक्टेयर वन भूमि लीज पर लेकर लकड़ी के विनाश से जुड़े कारोबार स्थापित कर लिए।
सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो हमारे देश में 3200 लाख हेक्टेयर में फैले भू-क्षेत्र में जंगल हैं। 1987-89 के दौरान उपग्रह से लिए छायाचित्रों के अनुसार 19.5 प्रतिशत भू-भाग में जंगल थे। लेकिन उपग्रह से ही 2008 में लिए चित्रों से जो आंकड़े सामने आए हैं, वे बताते हैं कि लगातार वनों की कटाई के चलते अब 8 प्रतिशत भू-भाग में ही शेष जंगल बचे हैं। विडंबना यह है कि जंगलों से संबंधित सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन 19.5 प्रतिशत जंगलों के हिसाब से ही किया जा रहा हे। फिलहाल की स्थिति में भारत में 4 हजार वर्ग किमी. प्रतिवर्ष के हिसाब से जंगलों का विनाश हो रहा है। इस नये कानून के अस्तित्व में आने के बाद वनों के विनाश में और तेजी आना स्वाभाविक है। वैसे भी हमारे देश में औद्योगीकरण की सुरसामुखी भूख, खदानों में वैध-अवैध उत्खनन, जंगलों का सफाया और व्यापार के लिए जल-स्रोतों पर कब्जे की हवस बढ़ जाने के कारण वनवासियों के हालात भयावह व दयनीय हुए हैं। पिछले 35-40 साल के भीतर करीब 4 करोड़ आदिवासी समूह आधुनिक विकास की परियोजनाएं खड़ी करने के लिए अपने पुश्तैनी अधिकार क्षेत्रों जल, जंगल और जमीन से खदेड़े गए हैं। इन समूहों की आर्थिक आय और जीवन स्तर का आकलन किया गया तो पाया गया कि इनकी आमदनी 50 से 90 प्रतिशत तक घट गई है। ऐसे ही दुर्भाग्यशाली लोग ‘भारत की राष्ट्रीय प्रतिदर्श' रिपोर्ट में शामिल हैं जिनकी आमदनी प्रतिदिन मात्रा नौ रुपये आंकी गई है। ऐसे चिंताजनक हालातों में वन कानूनों को शिथिल किया जाना एक बड़ी मानव आबादी और वनों के अस्तित्व के लिए नये संकट खड़ा करेंगे।
लोक लुभावन नारा और सस्ता अनाज
ताजा घोषण-पत्रा के साथ कांग्रेस कथित आर्थिक सुधारों से मुंह मोड़ती दिखाई दे रही है। दो दशक पहले भारत की जो अर्थव्यवस्था अंतर्मुखी थी उसे उदारवादी नीतियों के तहत बहिर्मुखी करने के तमाम उपक्रम करते हुए बाजार को जन-उत्थान का माई-बाप मान लिया गया था। अब इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस अर्थशास्त्री और आर्थिक सुधारों के प्रणेता मनमोहन सिंह ने भूमंडलीकरण को बढ़ावा दिया, वही अब लोक-लुभावन नारों के साथ गरीब को सस्ता अनाज देने का वादा कर रहे हैं। सच पूछा जाए तो कांगेस आम-आदमी को समृद्ध बनाने की दृष्टि से कोई रचनात्मक उपाय करने की बजाय एक बड़ी आबादी के हाथ में मध्याह्न भोजन की तरह भीख का कटोरा थमाने का काम कर रही है। कुछ ऐसी ही नीतियों की अनुगामी बनती हुई भाजपा ने भी अपने घोषणा-पत्रा में दो रुपये प्रति किलो अनाज देने का लोक लुभावन वादा गरीब जनता से किया है। जबकि इन घोषणा-पत्रों में गरीब को प्राकृतिक संपदा से जोड़कर उसकी क्रय शक्ति बढ़ाने और स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों के उपाय संबंधी वादों की प्रतिच्छाया होनी चाहिए थी।
कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्रा में जनता से वादा किया है कि वह गरीबों को तीन रुपये किलो अनाज देगी। सच पूछा जाए तो वे वादे वोट की राजनीति के चलते लोक लुभावने जरूर हैं गरीब के स्थायी रूप से हित साधने वाले नहीं हैं। कांग्रेस ने यह भ्रम जरूर बनाने की कोशिश की है कि उसका हाथ आम-आदमी के साथ है। इस चुनावी इरादे के साथ वह गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाली आबादी को तीन रुपये किलो अनाज तो देगी ही, आर्थिक अनुदान के बूते सस्ते सामुदायिक भोजनालय, गरीब परिवारों को सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा की सुविधा और ग्रामीण रोजगार गारंटी में जरूरी सुधार किए जाने के लुभावने वादे भी कर रही है।
दरअसल इस तरह के फौरी लाभ पहुंचाने वाले वादों की शुरुआत आठवें दशक में आन्ध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव ने की थी। उन्होंने राज्य में दो रुपये किलो के भाव चावल उपलब्ध भी कराया। लेकिन देखते-देखते प्रदेश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। आखिरकार पांच साल वादा निभाने के वायदे से रामाराव मुकर गए और उन्होंने इस लोक हितकारी फैसले को उलट दिया। वोट बटोरने के तात्कालिक लाभ के लिए कुछ अन्य नेता भी ऐसी योजनाएं अमल में लाए लेकिन उनका हश्र भी आंध्र प्रदेश की तरह ही हुआ। अब आंध्र में फिर से चंद्रबाबू नायडू सस्ता चावल मुहैया कराने की शर्त पर चुनाव समर में हैं। हालांकि पांच साल पहले जब नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने भी आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी। जन कल्याणकारी योजनाओं को दी जाने वाली छूट (सबसिडी) भी प्रतिबंधित कर दी थी। इस कार्यवाही पर विश्व बैंक ने उनकी पीठ भी खूब थपथपाई थी। उनके आधुनिक विकास कार्यों को एक मिशाल भी माना जाने लगा था। लेकिन असानता बढ़ाने वाली ये योजनाएं आम आदमी को पसंद नहीं आईं, नतीजतन उनके दल को पराजित होना पड़ा। तमिलनाडु में करुणानिधि ओर उड़ीसा में नवीन पटनायक भी सस्ते चावल के वादे के साथ पांच साल पहले सत्ता में आए थे। लेकिन यह चावल गरीब के पेट में गया अथवा कालाबाजारी का शिकार होकर पूंजीपतियों की तिजोरी में, इसका जवाब तो जनता आने वाले विधानसभा चुनाव में देगी।
ये योजनाएं निश्चित रूप से अच्छी हैं लेकिन उनका अमल उस सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर है जो देशव्यापी भ्रष्टाचार की गुंजलक में जकड़ी है और इसे दुरुस्त बनाने में न राजनीतिक दलों की रुचि है और न ही सरकारी अमले की? हां, गरीब की भूख के हिस्से का गेहूं-चावल की कालाबाजारी कर काले धन की बंदरबाट में सब शामिल हैं।
दरअसल, आर्थक सुधारों के अब तक जितने भी उपाय सामने आए, उनसे गरीब के हित कतई नहीं सधे। इसीलिए उनमें इन उपायों के प्रति कोई उत्साह दिखाई नहीं देता। गरीब उत्साहित, उत्प्रेरित होकर मुख्यधारा में शामिल हों इसके लिए दरअसल ऐसे बुनियादी उपायों की जरूरत है, जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े। विकास की अवधारणा न्यायसंगत होने के साथ समावेशी साबित हो। शायद इसीलिए सस्ते अनाज के साथ नौकरियों में आर्थिक आधार पर आरक्षण के साथ विधानमंडलों में महिलाओं के 33 फीसदी और पंचायतों व नगरपालिकाओं में युवाओं के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने की बात कही गई है। हालांकि इस तरह के वादे मायावती के साथ अन्य दल भी कर रहे हैं। लेकिन ये वादे खयाली पुलाव पकाने की दृष्टि से वोट बटोरने के तात्कालिक उपाय भर हैं क्योंकि वाकई राजनीतिक दल महिलाओं व युवाओं के इतने ही हितैषी हैं तो वे इनकी मदद कानून में प्रावधान लागू होने के बाद ही क्यों करना चाहते हैं, अपने-अपने दलो में तत्काल महिलाओं और युवाओं को टिकट देने की प्रक्रिया के साथ शुरू क्यों नहीं कर देते? महिला आरक्षण विधेयक को पास कराने मे कांग्रेस सरकार ने उतनी दृढ़ता व दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाई जितनी परमाणु करार की शर्तों को अमल में लाने के लिए लोकसभा में दिखाई। इससे जाहिर होता है कि महिला आरक्षण राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है।
न्यायसंगत व समावेशी विकास की अवधारणा के तहत ही कांग्रेस ने किसानों को लुभाने के लिए तीन प्रमुख वादे किए हैं। एक, भूमि अधिग्रहण के तहत जो जमीन ली जाए, उसकी बाजार दर से कीमत तय हो। दो, जो किसान बैंक कर्ज चुका रहे हैं, उन्हें ब्याज में राहत दी जाएगी। तीन, खेती को लाभकारी बनाया जाएगा।
लेकिन जिस भ्रामक भाषा में कांग्रेस ने वादे किए हैं उनसे यह जाहिर होता है कि वह वर्तमान नीतियों और प्राथमिकताओं को आगे भी जारी रखने के लिए हकीकत पर पर्दा डालने का काम कर रही है। क्योंकि भूमि अधिग्रहण संबंधी शर्त में बाजार मूल्य से भूमि की कीमत चुकाने की बात तो कही गई है लेकिन किसान को न तो कारखाने में शेयर धारक बनाए जाने की बात कही गई है और न ही किसान परिवार के किसी सदस्य को कारखाने में नौकरी देने की शर्त रखी गई है। खेती को लाभकारी बनाने का वायदा भी कांग्रेस ने किया है, लेकिन कृषि में आर्थिक सुधारों के चलते जो 2.2 प्रतिशत की गिरावट आई है उसमें कैसे उभार लाया जाएगा इसका कोई संकेत नहीं है। दरअसल लघु व कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिए बिना खेती को न तो लाभकारी बनाया जा सकता और न ही किसान को समृद्ध? लेकिन इन उद्योगों के लिए कांग्रेस के वादे साफ नहीं हैं। उनके अर्थ मनोनुकूल लगाए जा सकते हैं। क्योंकि किसान को जब तक डेयरी और फसल के प्रसंस्करण संबंधी उद्योगों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक न किसान का भलाहोनेवाला है और न खेती का? आदिवासी व अन्य प्रकृति पर निर्भर जनजातियों कोप्राकृतिक संपदा से जोड़े जाने का कोई इरादा भी इस घोषणा-पत्रा में नजर नहीं आता।
देश के करीब बयालीस करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। यह हमारे देश की कुल श्रमशक्ति का 92 फीसदी हैं। इनमें से करीब 90 प्रतिशत लोग अक्सर सरकार की ओर से निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करते हैं। इस विशाल आबादी की आय बढ़ाकर इनकी क्रयशक्ति बढ़े इस ओर भी घोषणा-पत्रा में कोई ध्यान नहीं दिया गया है। इससे लगता है कांग्रेस समावेशी विकास का केवल बहाना गढ़ रही है, गरीब को गरीबी से उबरने के लिए कोई रचनात्मक उपाय नहीं तलाश रही? इसीलिए कांग्रेस का लोक लुभावन घोषणाओं व वायदों का पिटारा मतदाता को फौरी तौर से भुलावे डालकर छलने का थोथा उपाय भर है।
सुरसामुख बनती भूख
दुनिया में भूख का दायरा सुरसामुख की तरह फैल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यू.एफ.पी.) की एक रिपोर्ट से जाहिर हुआ है कि दक्षिण एशिया में भूखमरी के हालात पिछले 40 साल में इतने बद्तर कभी नहीं रहे, जितने मौजूदा हाल में हैं। बीते दो साल के भीतर भूखों की तादात में 10 करोड़ लोगों का इजाफा हुआ है। दुनिया के तमाम मुल्कों में हालात इतने बेहाल हो गए हैं कि इन देशों में सकल घरेलू उत्पाद पर भूख का दबाव 11 प्रतिशत तक बढ़ गया है। ये हालात पैदा तो उस आभिजातय वर्ग ने किए हैं जिसने निजी भोग-विलास की जीवन पद्धति अपनाकर पानी, खाद्य, ऊर्जा और पर्यावरण को संकट में डाला, लेकिन इसके दुष्परिणाम उस वर्ग को भोगने पड़ रहे हैं जिनकी बद्तर-हालात के निर्माण में कोई भूमिका कभी नहीं रही।
इस प्रतिवेदन के आने से पहले तक भूख से जूझ रहे लाचार लोगों की संख्या 96 करोड़ थी। भूखों की संख्या घटाने के दृष्टिगत नौ साल पहले दुनिया के तमाम देशों ने मिलकर यह लक्ष्य सुनिश्चित किया था कि 2015 तक यह संख्या घटकर आधी रह जाए। लेकिन तमाम प्रयासों और अनुदान के उपक्रमों के बाद जो तसबीर सामने आई है वह और बदरंग ही रही। विश्वग्राम, बाजारवाद और उदारीकरण का जो हल्ला 1990 से तेज हुआ था, उसने 12 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को और अपनी गिरफ्त में ले लिया। नतीजतन प्रत्येक पन्द्रह व्यक्तियों में से एक भूखा है।
भूख से भयभीत ये चेहरे उन नेतृत्वकर्ताओं के गाल पर तमाचा हैं जो गरीबी दूर करने और समतामूलक समाज की स्थापना के नारों के साथ सत्ताताओं पर काबिज बने रहते हैं। दरअसल उनकी जो भी नीतियां अस्तित्व में आती हैं वे गरीब को और गरीब बनाने में कारगर हथियार साबित होती है। फलस्वरूप प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आमदनी में कमी होती जाती है और विडम्बना यह कि खाद्यानों की कीमतें बढ़ती जाती हैं। लिहाज गरीब की ‘रोटी' से दूरी बढ़ती जाती है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र चेतावनी दे रहा है कि वर्तमान आर्थिक संकट से गरीब देश सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं। इनमें से पचास देश तो ऐसे हैं जिनकी खाद्यान्न-निर्भरता निर्यात पर ही टिकी है। ऐसे देशों में अंगोला, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, सूडान और इक्वेटोरियल गिनी जैसे देशों की गिनती की जा सकती है।
वैसे भी फिलवक्त दुनिया दो तरह के देशों में विभाजित है एक वे जिनके पास तेल व गैस के अक्षय भंडार हैं और दूसरे वे जो ऊर्जा के इन स्रोतों से अछूते हैं। शायद इसीलिए हेनरी किसिंगर ने बहुत पहले कहा था कि यदि अमेरिका तेल- उत्पादन वाले देशों को नियंत्रित कर लेता है तो वह पूरी दुनिया को काबू कर लेगा और यदि केवल खाद्यान्नों पर नियंत्रण कर पाता है तो एक निश्चित जनसंख्या वाले देश ही उसके मातहत होंगे। गौरतलब है कि अमेरिका ने जैविक हथियारों के बहाने इसी मकसद के दृष्टिगत इराक पर हमला बोला और उसे नेस्तनाबूद कर उसके तेल भंडारों को अपने आधिपत्य में ले लिया। फलस्वरूप आज अमेरिका के कब्जे में तेल भी है और खाद्यान्न भी। और इसीलिए वह जबरदस्त आर्थिक मंदी के बावजूद दुनिया का सिरमौर देश बना बैठा है। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था की वलगाएं तो उसके हाथों में हैं ही वह दुनिया के रक्षा मामलों में भी दखल देना चाहता है। इस सिलसिले में हाल ही में अमेरिकी विदेश उपमंत्री बिलियम जे बर्न्स भारत पर एक ऐसे समझौते का दबाव बना रहे हैं जिसके तहत वह भारत को बेचे गए हथियारों की हर स्तर पर जांच कर सकें। आर्थिक मंदी के पूर्व दुनिया में ऊर्जा के स्रोत और खाद्यान्न महंगे होते जाने का कारण था, अमेरिका का इन स्रोतों पर एकाधिपत्य।
बढ़ती कीमतों और घटती आमदनी के कारण ही होती, फिलीपिंस और इथोपिया जैसे देशों में आहार जन्य वस्तुओं को लेकर दंगे हुए। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अनाज के भंडार लूटे गए। भारत ने अपनी आबादी को भूखमरी से निजात दिलाने की दृष्टि से ही खाद्यान्न निर्यातों पर रोक लगाई जो आज तक कई देशों में महंगाई का कारण बनी हुई है। इसके बावजूद भारत के इक्कीस करोड़ से भी अधिक लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता। जबकि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दो वक्त की रोटी को मूल मानव अधिकार में शामिल किया गया है। भारत की राष्ट्रीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि सात करोड़ तीस लाख से भी ज्यादा लोगों का दैनिक खर्च नौ रुपये से भी कम है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुसार गरीब का खर्च प्रतिदिन एक डॉलर मसलन, चालीस रुपये होना चाहिए। ऐसे में गरीब पहने क्या क्या निचोड़े क्या?
दुनिया के करोड़ों लोग भूख के सुरसामुख का आहार बनने के लिए विवश हो रहे हैं, इसके लिए औद्योगिक विकास भी दोषी है। आस्ट्रेलिया में पड़े अकाल के पीछे औद्योगिक विकास के चलते जलवायु परिवर्तन की खास भूमिका जताई गई है। इस कारण यहां गेहूं के उत्पादन में 60 फीसदी की बेतहाशा कमी आई और दुनिया को एक समय बड़ी मात्रा में गेहूं निर्यात करने वाला देश खुद भूख की चपेट में आ गया। भारत और चीन में भी औद्योगिक विकास ने जलवायु परिवर्तन की गति तेज कर दी। इस रफ्तार ने पश्चिम की उपभोक्तावादी और एंद्रिय सुख वाली भोग-विलाशी जीवन-शैली को हवा दी। इस कारण क्रय शक्ति में इजाफा और धनी तबकों में उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ी। साथ ही खाद्यान्नों की खपत में भी वृद्धि हुई। नतीजतन मांसाहारों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई। जानकारों की मानें तो सौ कैलोरी के बराबर बीफ (गोमांस) तैयार करने के लिए सात सौ कैलोरी के बराबर का अनाज खर्च करना पड़ता है। इसी तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे आहार बनाना हो तो वह कहीं ज्यादा लोगों की भूख मिटा सकता है। एक आम चीनी नागरिक अब प्रति वर्ष औसतन 50 किग्रा मांस खा रहा है, जबकि 90 के दशक के मध्य में यह खपत महज 20 कि.ग्रा. थी। कुछ ऐसी ही वजहों से चीन में करीब 15 प्रतिशत और भारत में 20 प्रतिशत लोग भूखमरी का अभिशाप झेल रहे हैं। लेकिन पश्चिमी जीवन-शैली बाधित हो ऐसा मौजूदा हालातों में तो लगता नहीं?
भुखमरी का दायरा बढ़ने की विडंबना यह भी रही कि जब बीते कुछ सालों के भीतर खाद्य संकट गहरा रहा था तब अमेरिका और अन्य विकसित देश गेहूं, चावल, मक्का, गन्ना, सोयाबीन आदि फसलों से वाहनों का ईंधन जुटाने में लगे थे। ऊर्जा के इन वैकल्पिक स्रोतों को ईंधन में रूपांतरण की वजह से भी खाद्यान्न संकट गहराया और भूखों की संख्या बढ़ी। यहां यह निष्पक्ष आकलन करना भी थोड़ा मुश्किल होता है कि दुनिया में गेहूं की कमी के कारण भूख का दायरा बढ़ा अथवा अमेरिका द्वारा लाखों टन अनाज को जैविक ईंधन में रासायनिक परिवर्तन से?
अनाज के बेजा इस्तेमाल और उत्पादन में कमी के कारण ही भूख के पहले लक्षण कुपोषण का दायरा बढ़ रहा है। भारत सरकार खरीद से आधे मूल्य पर पेट्रोल- डीजल उपभोक्ता को उपलब्ध कराकर डेढ़ लाख करोड़ का सालाना घाटा उठा रही है। मसलन प्रतिदिन साढ़े चार सौ करोड़ का घाटा? जिससे महंगाई काबू में रहे और बेशर्म उपभोक्तावादियों की मौज-मस्ती की जीवन-शैली का रंग, भंग न हो? अर्थव्यवस्था का यह समीकरण किसके लिए है? बहरहाल भारत में वर्तमान स्थिति में विकास की जो दर छह से सात प्रतिशत है भुखमरी की चाल की गति भी कमोवेश यही है। जबकि धनाढ्य देशों में इनकी संख्या ढाई करोड़ और औद्योगिक देशों में करीब एक करोड़ है।
1996 में हुए विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन के 12 वर्ष बाद भी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है जिन्हें अल्प पोषण पाकर ही संतोष करना पड़ता है। ऐसे सर्वाधिक 82 करोड़ लोग विकासशील देशो में रहते हैं। विश्व के करीब 15 करोड़ कुपोषित बच्चों में से 70 फीसदी सिर्फ 10 देशों में रहते हैं और उनमें से भी आधे से अधिक केवल दक्षिण एशिया में। बढ़ती आर्थिक विकास दर पर गर्व करने वाले भारत में भी 20 करोड़ से ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार जैसे राज्यों में कुपोषण के हालात कमोवेश अफ्रीका के इथोपिया, सोमालिया और चांड जैसे ही है।
प्रकृतिजन्य स्वभाव के कारण औरतों को ज्यादा भूख सहनी पड़ती है। दुनियाभर में भूख के शिकार हो रहे लोगों में से 60 फीसदी महिलाएं ही होती हैं। क्योंकि उन्हें स्वयं की क्षुधा-पूर्ति से ज्यादा अपनी संतान की भूख मिटाने की चिंता होती है। कुछ ऐसी ही वजहों के चलते भूख, कुपोषण व अल्प पोषण से उपजी बीमारियों के कारण हर रोज 24 हजार लोग मौत की गोद में समा जाते हैं। मसलन महज साढ़े तीन सेकेंड में एक इंसान!
यदि भुखमरी व कुपोषण की समस्या के निदान में जाना है तो दुनिया को व्यापक मानवीय दृष्टिकोण अपनाना होगा। वैश्विक आर्थिकी के चलते जिस भोगवादी संस्कृति के कारण जो सामाजिक असमानता बढ़ी है उसके लिए सबसे पहले अनाज को जैविक ईंधन में बदलने की प्रवृत्ति और अंधाधुंध औद्योगिक विकास पर अंकुश लगाते हुए मानव का रिश्ता प्रकृति से जोड़ने के उपक्रम करने होंगे? क्योंकि भोगवादी लोगों के जीवन में समृद्धि प्राकृतिक संपदा के बेतहाशा दोहन और प्रकृति पर निर्भर लोगों की बेदखली की नीतियों से ही आई है और प्रकृति पर निर्भर यही लोग भूख व कुपोषण के दायरे में हैं।
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