( पिछले अंक से जारी…) सर्ग - 8 रात्री का प्रथम प्रहर, श्वेत श्याम आकाश। मेघ साथ अठखेलियाँ, करता चन्द्र प्रकाश।। लुक-छिप फिरता चन्द्रमा, ...
सर्ग - 8
रात्री का प्रथम प्रहर, श्वेत श्याम आकाश।
मेघ साथ अठखेलियाँ, करता चन्द्र प्रकाश।।
लुक-छिप फिरता चन्द्रमा, लिये चाँदनी साथ।
धरा-वधू अँधियार का, पकड़ सो गयी हाथ।।
धरती से अम्बर तलक, मचा रहा तम धूम।
हाथ न दीखे हाथ को, रहे निशाचर घूम।।
निकल वनों से आ गये, पशु-पक्षी-बेताल।
उल्लू भरते हूक हैं, ‘हुवा’ करें शृगाल।।
अज़ब तरह का शोर है, जंगल ज्यों शमसान।
भूत-नाच सब ओर है, करें चुड़ैंलें गान।।
दूर-दूर तक गूँजता, झींगुर का संगीत।
ले जुगनू को साथ में, निशा खोजती मीत।।
सोया गहरी नींद में, मानों सब कित्तूर।
गोरों को विश्वास था, जगे न कोई शूर।।
पर, रानी की योजना, मिला हुआ निर्देश।
जुगनू जैसे घूमते, सारे वीर विशेष।।
लक्ष्य लिये कित्तूर था, सावधान सब लोग।
काटें भारत भूमि से, अँग्रेज़ों का रोग।।
रोम-रोम में ओज था, दृढ़ता व विश्वास।
आजादी-हित युद्ध को, समझ रहे मधुमास।।
इधर नगर कित्तूर की, रानी बड़ी सतर्क।
उधर थैकरे कर रहा, मल्लप्पा से तर्क।।
सेना लेकर थैकरे, घोर अन्धेरी रात।
पहुँच गया कित्तूर में, करने गहरी घात।।
घूम रहे कित्तूर के, गोरे चारों ओर।
साथ थैकरे-वेंकट, बता रहा सब छोर।।
रुककर बोला थैकरे, ‘घेरो यों कित्तूर’।
जाय न बचकर एक भी, चेन्नम्मा का शूर।।
बना किला कित्तूर का, चार प्रवेशी द्वार।
रानी के हर द्वार पर, सैनिक अश्व हजार।।
सिखा रहा था थैकरे, सेना को हर दाँव।
तोपें लगनी हैं वहीं, नियत किया जो ठाँव।।
रानी पहुँची दुर्ग पर, सबको किया सचेत।
आ पहुँचे अंग्रेज हैं, रहना नहीं अचेत।।
चेन्नम्मा फिर दुर्ग के, पहुँची चारों द्वार।
कहा ‘मिलें संकेत जब, बढ़ो खोलकर द्वार’।।
इधर वीर कित्तूर के, युद्ध हेतु तैयार।
उधर थैकरे कर रहा, प्रमुख संग विचार।।
गोरों की सेना पड़ी, अभी सुस्त-खामोश।
थकन यात्रा की मनो, उड़ा रही थी होश।।
घोर अँधेरी रात में, डूबा सकल जहाँन।
थकन मिटाने के लिए, किया सुरा का पान।।
सुरापान तो कर लिया, तन-मन हुआ विकार।
यही आक्रमण का समय, रानी किया विचार।।
पहुँच गयी फिर दुर्ग पर, जाँच लिये सब द्वार।
रानी दृढ़ आश्वस्त थी, असफल जाय न वार।।
गुरुसिद्दप्पा - बालण्णा, रायण्णा, गजवीर।
अलग-अलग हर द्वार पर, डटे हुये रणवीर।।
अंगरक्षक के रूप में, रानी संग दिलेर।
युद्ध - कला औ’ वीरता, उसमें मनो कुबेर।।
अर्द्धरात्रि का था समय, जाग रहा कित्तूर।
देश भक्ति की भावना, भरी हुई भरपूर।।
उधर अभी तो थैकरे, सजा रहा था साज।
अन्दर क्या कित्तूर में, उसे नहीं आगाज़।।
चेन्नम्मा ने दुर्ग का, घंटा दिया बजाय।
मुख्य द्वार सब खोलकर, पड़े वीर अर्राय।।
‘बम-बम, हर-हर देव’ कह, टूट पड़े रणवीर।
अँग्रेज़ों की फौज का, छूट गया सब धीर।।
बरछी-भाले चल रहे, भभक उठी तलवार।
मारकाट होने लगी, मचती चीख पुकार।।
हुआ थैकरे को नहीं, बहुत देर विश्वास।
चेन्नम्मा की नीति का, हुआ नहीं आभास।।
गोरों की सेना हुई, किंकर्तव्यविमूढ़।
हाथी रुके न रोकते, भगे उठाकर
सूंड़।।
तलवारें-भाले-छुरे, खड़क रहे हथियार।
प्राण बचा सैनिक भगे, होकर अश्व सवार।।
वीरों ने कित्तूर के, पाट दिया मैदान।
दूर-दूर तक शव पड़े, बचे नहीं खलियान।।
वीरों ने कित्तूर के, खूब मचायी मार।
दो घण्टे से भी अधिक, चले खड्ग-तलवार।।
प्राण बचाकर थैकरे, छोड़ भगा मैदान।
बचे-खुचे सैनिक भागे, ले-ले अपने प्रान।।
हुआ थैकरे देखकर, मन में बड़ा हताश।
पटी-पड़ी मैदान में, गोरों की ही लाश।।
विद्युत्गति, पहने कवच, हाथ ढाल तलवार।
अस्त्र-शस्त्र से युक्त थी, रानी अश्व सवार।।
जिधर अश्व मुड़ता उधर, मच जाता कुहराम।
गाजर-मूली की तरह, गोरे कटें तमाम।।
चकित थैकरे रह गया, चेन्नम्मा को देख।
वाह! कुशलता युद्ध की, वाह! चपलता रेख।।
मातृशक्ति के सामने, झुका थैकरे शीश।
चेन्नम्मा को दे दिया, हृदय से आशीश।।
‘धन्य! धन्य! यह देश है, धन्य! यहाँ की नारि।’
कहा थैकरे ‘धन्य है! चेन्नम्मा सुकुमारि’।।
मल्लप्पा और वेंकट, हुए कैद कित्तूर।
भगा थैकरे बच गया, जाता रहा गुरूर।।
डाल दिया कित्तूर की, दोनों को ही जेल।
ख़त्म हुआ अंग्रेज का, षड्यन्त्रों का खेल।।
गोरे जो पकड़े गये, नहीं किया अपमान।
सुविधाएँ दी जेल में, दिया सभी सामान।।
विजय मिली कित्तूर को, हुआ सभी को हर्ष।
चेन्नम्मा की योजना, पहुँच गयी उत्कर्ष।।
भाग गये अंग्रेज सब, छोड़ युद्ध-मैदान।
तोपें-बन्दूकें सभी, जब्त किया सामान।।
जीत मिली कित्तूर को, बजें नगाड़े-ढोल।
गूँज रहा कित्तूर में, ‘बम-बम, हर-हर’ बोल।।
रानी की जयकार थी, रानी का गुणगान।
चेन्नम्मा को कह रहे, दुर्गा-देवि महान।।
अँग्रेज़ों पर जीत का, इधर मन रहा जश्न।
रानी के मस्तिष्क में, उधर कौंधते प्रश्न।।
हरा दिया कित्तूर ने, अँग्रेज़ों को आज।
पर, चुप बैठेगा नहीं, अब गोरों का राज।।
अब गोरे हमला करें, जुटा शक्ति को साथ।
क्या करना अब चाहिए, झुके नहीं जो माथ।।
यह कुछ दिन की है खुशी, फिर होगा अवरोध।
भूले कभी न थैकरे, निश्चित ले प्रतिशोध।।
ऊपर से इस देश में, पलें बड़े ग़द्दार।
स्वार्थ सधे तो देश का, करदें बंटाधार।।
मल्लप्पा और वेंकट, जैसे हैं नासूर।
गद्दारी की क्या सजा, इनको दे कित्तूर।।
ख़त्म एक होता नहीं, पैदा होते चार।
गद्दारी है कैन्सर, क्या इसका उपचार??
बड़े विषम ये प्रश्न हैं, कहीं न इनका अन्त!
समाधान इसका कभी, बता न पाये सन्त।।
बहुत बड़ा यह देश है, बहुत बड़े हैं लोग।
पता नहीं किसके पले, कब मन में यह रोग।।
उथल-पुथल मछली करे, गन्दा करती नीर।
त्यों करता ग़द्दार है, गन्दा देश-शरीर।।
देश भले कोई रहे, कोई हो सरकार।
मिले क्रूरतम मृत्यु ही, देश-द्रोह ग़द्दार।।
बुला चेन्नम्मा ने कहा, जनता के दरबार।
मल्लप्पा और वेंकट, दोनों हैं ग़द्दार।।
रानी ने दरबार में, कहा जोड़कर हाथ।
आभारी कित्तूर की, झुका नहीं यह माथ।।
खड़े बीच दरबार में, ये दोनों ग़द्दार।
देश-द्रोह की क्या सजा, जनता करे विचार।।
इन गद्दारों ने किया, भारत का अपमान।
युग-युग तक अब देश यह, भोगेगा नुकसान।।
‘चेन्नम्मा की जय’ कहें, होती जय-जयकार।
‘गद्दारों को मृत्यु दो’, जनता कहे पुकार।।
मल्लप्पा और वेंकट, भारत के अभियुक्त।
इनको फांसी की सजा, देना ही उपयुक्त।।
जनता का निर्णय हुआ, लिया चेन्नम्मा मान।
‘देश द्रोह ग़द्दार के, जनता लेगी प्रान’।।
फांसी की सुनकर सजा, सहम गये ग़द्दार।
बिलख-बिलख कहने लगे, ‘फांसी दो सरकार’।।
निश्चित अपने देश से, धोखा करना पाप।
जनता युग-युग भोगती, देश-द्रोह-अभिशाप।।
देश द्रोह हमने किया, है अक्षम अपराध।
स्वार्थ भावना ने किया, पैदा मन उन्माद।।
बने नहीं कित्तूर में, फिर कोई ग़द्दार।
फांसी दे दो इसलिए, रानी माँ! सरकार।।
मल्लप्पा और वेंकट, करते रहे विलाप।
लेकिन, जनता दे चुकी, उनको मृत्यु मिलाप।।
जनता का निर्णय लिया, रानी ने संज्ञान।
जारी दोनों का किया, क्रूर मृत्यु फरमान।।
‘एक बजे कित्तूर में, कल दोनों उद्दण्ड।
बीच भरे मैदान में, पायें मृत्यु प्रचण्ड।।’
अगले दिन कित्तूर का, भरा सकल मैदान।
दूर-दूर से राज के, गये आ मेहमान।।
बीच बना मैदान में, गोलाकार प्रखण्ड।
उसमें हाथी घूमता, खूनी बड़ा प्रचण्ड।।
मल्लप्पा और वेंकट, बँधे हुये जंजीर।
गोलाकार प्रखण्ड में, बैठे बड़े अधीर।।
सोच-सोच निज कृत्य को, बहे नैन से नीर।
हाथी ने संकेत पा, दिया निमिष में चीर।।
देशद्रोहियों को मिली, मृत्यु बड़ी ही क्रूर।
रहा शान्त सब देखता, रानी का कित्तूर।।
कई दिवस कित्तूर में, रहा जीत का पर्व।
रानी को किंचित् नहीं, हुआ जीत पर गर्व।।
गया थैकरे हारकर, चुप बैठेगा नाय।
चेन्नम्मा थी जानती, युद्ध हेतु फिर आय।।
हार थैकरे की नहीं, यह गोरों की हार।
बदला लेने हार का, अब होगा संहार।।
कूद पड़ेगी युद्ध में, अब गोरी सरकार।
अस्त्र-शस्त्र के साथ हो, तोपों की भरमार।।
एक बार कित्तूर तो, गया युद्ध में जीत।
सफल चेन्नम्मा की हुई, बनी युद्ध की नीत।।
अब आयेगा थैकरे, विपुल सैन्य के साथ।
पहुँचेगा कित्तूर में, करने दो-दो हाथ।।
कहाँ चलेगा युद्ध में, भाला औ’ तलवार।
तोप और बन्दूक से, करे थैकरे वार।।
परम्परागत रीति से, गया थैकरे हार।
खुलकर अस्त्र प्रयोग वह, करे युद्ध इस बार।।
अँग्रेज़ों से युद्ध अब, रहा नहीं आसान।
भूल जाय कित्तूर सब, अपने ही औसान।।
होगा यह कित्तूर का, निर्णयात्मक युद्ध।
यह भारत के भाग्य का, लेखा करे विशुद्ध।।
अन्धकार प्रकाशवत् हार-जीत का खेल।
जीत-हार जो भी मिले, रहे न वैसा मेल।।
रानी के उर-सिन्धु में, उठें भाव के ज्वार।
शान्ति तनिक होती नहीं, लहरें उठें अपार।।
गुरूसिद्दप्पा को बुला, सोचा दिया बताय।
करने होंगे तात! अब, हमको ठोस उपाय।।
गुरूसिद्दप्पा ने कहा, ‘मेरा एक सुझाव’।
अस्त्र-शस्त्र रणनीति का, दिया ठोस प्रस्ताव।।
तोप और बन्दूक का, प्रचुर करें प्रबन्ध।
बम, गोली, बारूद का, करें शीघ्र अनुबन्ध।।
रखें दुर्ग - दीवार पर, तोप दिशा अनुसार।
जिधर करे अरि आक्रमण, करें उधर हम मार।।
कूट नीति के साथ हम, करें तोप से वार।
यह तोपों का आक्रमण, गोरों को दे हार।।
तोपों से क्रमशः करें, अलग-अलग विस्फोट।
चकमा देकर हम करें, नित दुश्मन पर चोट।।
ऊपर से तोपें चलें, नीचे अश्व सवार।
भाले, बरछी, खडग से, करें वार पर वार।।
पैदल सैनिक हाथ में, लिये चलें बन्दूक।
करें निशाना साधकर, जाकर लगे अचूक।।
अलग-अलग हों टुकड़ियाँ, हों प्रमुख सरदार।
सेनापति के रूप में, रानी अश्व सवार।।
बालण्णा व रायण्णा, रानी के दो हाथ।
अंगरक्षक के रूप में, रहें बराबर साथ।।
गुरूसिद्दप्पा को दिया, प्रमुख सुरक्षा भार।
अलग-अलग सब टुकड़ियाँ, बना दिये सरदार।।
चेन्नम्मा ने युद्ध के, व्यापक किये प्रबन्ध।
बुला लिये कित्तूर में, वीर राज-सम्बन्ध।।
चेन्नम्मा ने हाल सब, सबको दिया बताय।
क्या गोरों की भावना, सबको दी समझाय।।
इधर युद्ध-तैयारियाँ, करे राज कित्तूर।
उधर हार से थैकरे, था बेहद मजबूर।।
मल्लप्पा और वेंकट, फांसी दिये चढ़ाय।
पता थैकरे को चला, कुछ भी नहीं बसाय।।
सोच-सोच सब थैकरे, हाथ मसल रह जाय।
कैसे बन्दी मुक्त हों, सूझे नहीं उपाय।।
भूल न पाया थैकरे, रानी अश्व सवार।
रौद्र रूप तलवार का, बहे रक्त की धार।।
अगर चेन्नम्मा देखती, मिलती कहाँ सहाय?
पल में गर्दन थैकरे! देती वहाँ उड़ाय।।
निश्चित रानी शक्ति का, है कोई प्रतिरूप।
देखी कहीं न थैकरे! महिला कहीं अनूप।।
प्रभु ईशू! तेरी दया, बचा लिया इस बार।
प्राण बचाकर हार दी, खूब शुक्रिया यार।।
धारवाड़ में पहुँच कर, करता रहा विचार।
सहम गया था थैकरे, देख युद्ध में हार।।
रानी के उस रूप से, मन रहता भयभीत।
सात समुन्दर पार घर, याद आ गयी प्रीत।।
सोचा-भारत छोड़कर, जाऊँ अपने देश।
मुझे कम्पनी से नहीं, लेना-देना शेष।।
सोच-समझकर थैकरे, किये सभी को तार।
कारण सब बतला दिये, गये युद्ध क्यों हार??
तार थैकरे का मिला, मनो गये बौराय।
उच्च प्रबंधन कम्पनी, सोच-सोच रह जाय।।
दक्षिण भारत का रहा, सेनापति-प्रभार।
किये कमिश्नर चैपलिन, कप्तानों को तार।।
‘अपनी-अपनी सेन ले, आयें, करें न देर।
धारवाड़ पहुँचें सभी, अँग्रेज़ों के शेर’।।
पहुँच चैपलिन के गये, कप्तानों को तार।
धारवाड़ जाकर रुके, प्रमुख अश्व सवार।।
दूर-दूर तक दीखते, अगणित अश्व सवार।
धारवाड़ में उफनता, सैनिक सिन्धु अपार।।
दिया चैपलिन ने सभी, सेना को आदेश।
कल तक सब कित्तूर में, पहुँचें सैन्य विशेष।।
रात्री के द्वितीय प्रहर, करें आज प्रस्थान।
कल संध्या कित्तूर में, होंगे सभी जवान।।
धीरे-धीरे धरा पर, पसर गयी फिर शाम।
अस्ताचल गामी हुए, पहुँच गये रविधाम।।
इधर चली कित्तूर को, गोरों की सब सैन।
उधर मिला कित्तूर में, समाचार सब रैन।।
सीमा पर कित्तूर की, वन में जलें अलाव।
डाल चैपलिन ने दिये, पूरे सैन्य पड़ाव।।
बुला चैपलिन ने लिये, सभी सैन्य कप्तान।
साथ थैकरे को लिया, रचने ब्यूह वितान।।
इधर चैपलिन कर रहा, प्रमुखों साथ विचार।
उधर चेन्नम्मा दुर्ग में, करें सैन्य तैयार।।
घेर लिया कित्तूर को, गोरों ने चुपचाप।
युद्ध शुरू-सा हो गया, कूटनीति का आप।।
अभी प्रभाती सो रही, अपना घूंघट तान।
निशा देख करने लगी, जगते-जगते मान।।
खिली न प्रातः रश्मि की, अभी गुलाबी कोर।
बाल अरुण मुस्कान को, चली लपकने भोर।।
अँग्रेज़ों ने तोप में, दिया पलीता दाग।
अम्बर में उड़ने लगी, दूर-दूर तक आग।।
हुआ तोप की आग से, अम्बर ऐसा लाल।
मानो होली खून की, खेल रहा हो काल।।
गरज उठा कित्तूर की, तोपों पर गजवीर।
काल-ज्वाल बनकर उठीं, तोपें सभी अधीर।।
धरती से आकाश तक, हुआ लाल ही लाल।
आग-आग चारों तरफ, बुना आग ने जाल।।
तोपों ने कित्तूर की, जो फैलायी आग।
गोरे उसमें कूदते, मनो खेलते फाग।।
हुआ थैकरे-चैपलिन, मन में बहुत निराश।
दूर-दूर तक जीत की, रही न मन में आस।।
बोल चैपलिन-थैकरे, बढ़ा रहे थे जोश।
तोपों ने कित्तूर की, भुला दिये सब होश।।
साथ जैम्सन खड़े थे, पास स्पिलर कप्तान।
बाँट रहा था थैकरे कुटिल नीति का ज्ञान।।
इसी बीच गजवीर ने, करी भयंकर चोट।
गोला गिरकर तोप का, किया महाविस्फोट।।
उड़े मांस के लोथड़े, टुकड़े हुआ शरीर।
पता न तीनों का चला, कहाँ गये रणवीर।।
देख चैपलिन रह गया, खड़ा-खड़ा ही दंग।
टुकड़े-टुकड़े मांस के, रक्त सने सब अंग।।
इधर दिवस भी ढल गया, वीर किये प्रस्थान।
किया चैपलिन युद्ध का, प्रथम दिवस अवसान।।
हुआ आज के युद्ध में,
थैकरे का अवसान।
कल क्या होगा, क्या पता?
सोच चैपलिन हैरान।
दिवस ढला तो रूक गया,
प्रथम दिवस का युद्ध।
किया चैपलिन युद्ध को
कूटनीति अवरूद्ध।
कर्नल वाकर औ’ डिंकन
मेजर पामर थे शैतान।
महारानी की तोपें चलती,
गोरी सेना थी हैरान।
प्रथम दिवस अंग्रेजी तोपें,
कर न सकी कुछ ऐसी मार।
जिससे सब कित्तूर की सेना,
पलक झपकते जाती हार।
सोच-युद्ध की बातें सब।
हुआ चैपलिन था खामोश।
महारानी की तोपें चलती,
गोरों ने खोये थे होश।
शिविर बीच बैठा हुआ,
निमिष-निमिष एकान्त।
सोच-रहा था चैपलिन,
हृदय बहुत अशान्त।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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