आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी.. इस अंक में: 26. पाठ्यक्रम में मानवाधिकार शिक्षा के औचित्य 27. नस्लभेद बढ...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में:
26. पाठ्यक्रम में मानवाधिकार शिक्षा के औचित्य
27. नस्लभेद बढ़ाता शिक्षा का अर्थशास्त्र
28. खेती को खतरे में डालती आनुवंशिक फसलें
29. विदर्भ की राह पर बुंदेलखंड
30. पानी की उपलब्धता का अधिकार
पाठ्यक्रम में मानवाधिकार शिक्षा के औचित्य
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने प्राथमिक से लेकर स्नात्कोत्तर शिक्षा तक मानवाधिकार को एक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल करने की अनुशंसा की है। इसका खुलासा अर्जुन सिंह ने एक सार्वजनिक सभा में किया है। उन्होंने मानवाधिकार शिक्षा को कमजोर वर्ग के सशक्तिकरण एवं संवेदनशीलता का महत्वपूर्ण हिस्सा निरूपित किया। लेकिन इस शिक्षा का स्वरूप कैसा हो और इसे लागू कैसे किया जाए इसका कहीं कोई उल्लेख की गई सिफारिशों में नहीं है। दरअसल ऐसे प्रयोगों के बजाय सभी स्तर की कक्षाओं में साहित्य और समाजशास्त्र जैसे विषयों को पढ़़ाए जाने की अनिवार्यता की जाए तो विद्यार्थी मानवाधिकारों को ज्यादा अच्छे से ग्राह्य करेगा। क्योंकि सभी भाषाओं के साहित्य में वर्ग, जातीय, नस्लीय एवं साम्प्रदायिक भेदों से ऊपर उठकर समतामूलक समाज की स्थापना की ही वकालत की जाती है, जो सही मायने में मानवीय मूल्यों की ही स्थापना है और यही स्थापना मानवाधिकार के ठोस सरोकार हैं।
वैसे मानवाधिकार संबंधी जो मूल अवधारणाएं हैं, वे सभी हमारे आधुनिक और प्रगतिशील माने जाने वाले संविधान में परिभाषित हैं। उनका उल्लंघन होने पर एक कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद दण्ड का समुचित विधान भी है। बावजूद इसके बीते 60 सालों में हम एक समान समाज की संरचना करने की बजाय विषमता और वैमनस्यतापूर्ण समाज को कुटिल चतुराई से स्थापित करने में लगे हैं। जबकि नागरिक शास्त्र में हमें संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को 60 साल से लगातार पढ़ाया जाता रहा है। आज यदि हम इस कथित नागरिक संहिता द्वारा निर्मित पीढ़ी का तटस्थ मूल्यांकन करें तो हमें यह पूरी की पूरी पीढ़ी संकीर्ण जातीय संस्कार, हीन भावना, बेवजह गुस्से का जुनून और साम्प्रदायिक संस्कारों में जकड़ी नजर आती है। त्याग, संवेदनशीलता, अपरिग्रह और परोपकार की बजाय यह पीढ़ी संवेदनशून्यता, स्वार्थ और लिप्सा में ज्यादा जकड़ी है। दरअसल कल्याणकारी संस्कार पाठ्यक्रमों में निहित सूचनात्मक संदेशों, न्यायउपदेशों और घटनाओं की जानकारी के बजाय समाज में मौजूद उदात्त वातावरण से ग्रहण किए जाते हैं, जिसकी व्यावहरिक शिक्षा सुगमतापूर्वक से गांधी साहित्य से ली जा सकती है।
जरूरी नहीं कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जो पाठ्यक्रम तैयार कर विद्यालय और महाविद्यालयों में लागू करे, उसे राज्य सरकारें अपने राज्यों में लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हों? हमारे संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल है, इसलिए किसी भी पाठ्यक्रम को अपने राज्य में लागू करने अथवा न करने के लिए राज्य सरकारें स्वतंत्र हैं। इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से जो पाठ्यक्रम तैयार कराकर राज्य सरकारों से उसे अपने राज्यों में लागू करने के लिए आग्रह करेगा,उस आग्रह को मानने या न मानने का अंतिम निर्णय राज्य सरकारों के पास सुरक्षित है। ऐसे में आयोग से सैद्धांतिक एवं वैचारिक भिन्नता रखने वाली राज्य सरकारें इस पाठ्यक्रम को कूड़ेदान में पटक देने अथवा ठण्डे बस्ते में बांधकर रख देने के अलावा कोई दूसरा सार्थक कदम नहीं उठाएंगी। इससे इस पाठ्यक्रम के औचित्य पर ही सवाल उठते हैं।
शिक्षा में पाठ्यक्रमों के बहाने राजनीतिक विचारधारा ठूंसने और वोट बैंक तैयार करने के कुटिल कारनामें भी सामने आते रहे हैं। कुछ साल पहले भाजपा शासित राज्यों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शैक्षणिक संस्था विद्या भारती ने गहन हिन्दू विचारधारा से महिमामण्डित पाठ्यक्रम तैयार कर अपने विद्यालयों में चलाने की शुरूआत की तो उत्तर प्रदेश में अपदस्थ मुलायम सरकार ने मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के तहत इस्लाम से संचालित मदरसों को धन और सुविधाएं देकर बढ़ावा दिया। ये मदरसे मस्जिदों में भी चल रहे हैं। इस तरह की कठमुल्लई और सीधे-सीधे वोट बैंक की राजनीति से जुड़ी शिक्षा से कैसे संभव है मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाया जाना?
इस तरह की नादानीपूर्ण खामियों का बीज रोपने का सिलसिला कोई नया नहीं है। स्वतंत्रता के तत्काल बाद जब धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की पूरे देश में वकालत की जा रही थी और सरकार ने यह भी शर्त रखी थी कि उन्हीं शैक्षणिक संस्थाओं को सरकारी मान्यता और आर्थिक मदद दी जाएगी, जो अपनी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं देंगे, लेकिन इस शर्त से अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को मुक्त रखा गया, बल्कि भारतीय संविधान बनने से पूर्व ही कानून में यह प्रावधान रख दिया गया था कि ये विश्वविद्यालय धार्मिक शिक्षा देने के लिए स्वतंत्र रहेंगे। इसी कारण शिक्षा में इन सब खामियों और वैकल्पिक सुविधाओं के चलते मानव मूल्यों को दरकिनार कर जमाते इस्लामी, मुस्लिम लीग, सरस्वती शिशु मंदिर जैसी संस्थाएं राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकीकरण तथा मानवीय भावनाओं में साझा संस्कार पैदा करने के विपरीत शैक्षक्षिक मूल्यों का अवमूल्यन करती नजर आती हैंं।
जिस शिक्षा के माध्यम से हम मानवाधिकारों के उल्लंघन की वकालत कर रहे हैं, वहीं शिक्षा छात्रों में मानवाधिकारों के हनन का एक प्रमुख कारण बनी हुई है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा में विभाजक रेखा निरंतर मजबूत होती जा रही है। अंग्रेजी का प्रयोग करने वाली बहुत छोटी आबादी ज्ञान और आधुनिक चिंतन का भरपूर लाभ उठा रही है। अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखते हुए एक विशिष्ट वर्ग ने भारत जैसे प्रगतिशील लोकतांत्रिक देश में शिक्षा, संस्कृति, राजनीति और आर्थिक क्षेत्रों में एक पश्चिमोन्मुख औपनिवेशिक दासता की मजबूत स्थिति निर्मित कर दी है। जब तक इस अंग्रेजी भाषाई तिलिस्म को तोड़कर भारतीय भाषाओं के माध्यम से समान शिक्षा की अनिवार्यता सुनिश्चित नहीं की जाएगी, तब तक सही मायनों में मनुष्य को मानवाधिकारों के प्रति जागरूक व संवेदनशील बनाए जाने की नींव ही नहीं पड़ सकती।
जायज-नाजायज तरीकों से लोगों के पास पैसे की जो बेतहाशा आमद हुई है, उससे आर्थिक निरंकुशता को जबर्दस्त बढ़ावा मिला है। आर्थिक, यौन और दहेज हत्या जैसे अपराधों के पीछे यही निरंकुशता काम कर रही है। अब प्रत्येक समाज अथवा समुदाय में जातीय और नस्लीय भेद की तरह आर्थिक हालात विभाजन का कारण बन गए हैैं। महिला और बाल मजदूरी को बढ़ावा व प्रश्रय देने में भी आर्थिक निरंकुशता काम कर रही है। इस विभाजक रेखा के दूसरी तरफ जो लोग हैं, वे इस आर्थिक अपमान बोध से हीनताबोध व कुण्ठा का शिकार हो रहे हैं। आत्महत्या करने वाले लोगों के औसत में ऐसे ही लोगों का अनुपात ज्यादा है। जिन यूरोपीय देशों में मानवाधिकारों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, वही यूरोपीय देश अपने यहां आई क्यू जैसे परीक्षण कराकर बुद्धि और योग्यता के औचित्य को जातीय और नस्लीय आधार पर सिद्ध करने की पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। अब तो इन देशों के वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी अपने वंशजों का प्रभुत्व स्थायी तौर से बनाए रखने के लिए यह भी मांग करने लगे हैं कि गरीबों के उत्थान, संवर्द्धन, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जो आर्थिक मदद और सुविधाएं यूरोपीय देशों द्वारा मुहैया कराई जा रही हैं, उन्हें बंद किया जाए, क्योंकि बुद्धि का संबंध तो वंशानुगत जीनों से है। कुछ ऐसे ही परीक्षणों के चलते अमेरिका में दूसरे देशों के रहने वाले लोगों पर अत्याचार बढ़ने लगे हैं। पाठ्यक्रमों में मानवाधिकार जैसे संवेदनशील विषय को अनर्गल तरीके से स्थान दिया गया और उसे पढ़ाने के लिए अनिवार्यता थोपी गई तो बालमनों में मानवाधिकारों के प्रति चेतना अथवा संवेदना की जगह विकृति और घृणा पैदा होगी। मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए किसी हद तक राजनीतिक, प्रशासनिक निरंकुशता को खत्म अथवा प्रतिबंधित करने के लिए आज की स्थिति में भारतीय परिवेश में न तो कोई पाठ्यक्रम का सुझाव है और न कोई कानून? अदालतें भी इस निरंकुशता को दण्डित करने के लिए लाचार नजर आती हैं।
नस्लभेद बढ़ाता शिक्षा का अर्थशास्त्र
आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ थमने का नाम नहीं लेने वाली हिंसक घटनाएं इस बात का प्रतीक हैं कि किसी भी देश की स्थानीय राष्ट्रीयता विश्व ग्राम के व्यापारिक मॉडल को स्वीकारने को तैयार नहीं है। दरअसल जाति, नस्ल, संप्रदाय, भाषा और देश के भूगोल से जुड़े सवाल मानवीय संरचना की उस जटिलता में गुंथे होते हैं, जिनकी जड़ें मानव-मन के अवचेन में जन्मजात संस्कारों से सींची गई होती हैं। इसलिए भूमंडलीकरण का यह मुगलता टूट रहा है कि दुनिया को विश्वग्राम में तब्दील कर देने वाले उपक्रम वाकई दुनिया को उदारवादी एवं परस्पर सहभागी कौटुंबिक ढांचे में बदल देंगे। भूमंडलीय अर्थशास्त्र में तो यह इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि अर्थ और प्राकृतिक संपदा के दोहन का यह अर्थशास्त्र केवल चंद पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुनाफा देने के लिए गढ़ा गया है। यह अर्थशास्त्र असमानता को भी बढ़ावा देने वाला है।
दरअसल आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ पिछले एक साल से जारी नस्लभेदी बर्ताव वैश्वीकृत पूंजीवाद की वह भयावह हकीकत है जो राष्ट्रीय नागरिक हितों की अवहेलना के चलते केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाभ की संभावनाएं तलाशते हुए मुनाफे का कारोबार चलाए रखना चाहती है। इसी मानसिकता के चलते आस्ट्रेलिया सरकार ने चंद लोगों को मुनाफा मुहैया कराए जाने के नजरिए से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी नीतियां अपनायीं जिससे शिक्षा का बाजारीकरण हुआ और शिक्षा केन्द्रित अर्थव्यवस्था आस्ट्रेलिया की धुरी बन गई। इसलिए वहां के शिक्षा संस्थान भारत में शिविर लगाकर विश्वस्तरीय शिक्षा देने का लालच देकर भारतीय छात्रों को आकर्षित करते हैं। विज्ञापनों के जरिए भी वहां के अध्यापन को महिमा मंडित करते हैं। बीते साल विज्ञापन मद में आस्ट्रेलिया के विद्यापीठों ने भारत में 25 लाख डॉलर खर्च किए। वहां की सरकार इस शिक्षा तंत्र को इसलिए भी प्रोत्साहित कर रही है क्योंकि जबरदस्त आर्थिक मंदी से जूझ रहे आस्ट्रेलिया में आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के दृष्टिगत यह उपाय कारगर एवं आसान है। इसीलिए आस्ट्रेलिया जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने का आकर्षण भारतीय छात्रों में उफान पर है।
वर्तमान में आस्ट्रेलिया में तकरीबन एक लाख भारतीय छात्रा विद्यार्जन कर रहे हैं। अकेले मेलबोर्न नगर में 38 हजार भारतीय छात्रा अध्ययनरत हैं। यही वह शहर है जहां सबसे अधिक रंगभेदी घटनाएं सामने आई हैं। आस्ट्रेलिया सरकार ने छह माह के भीतर भारतीय छात्रों के साथ 500 हिंसक वारदातों को अंजाम दिए जाने की बात मंजूर की है। हालांकि वहां की पुलिस इन हमलों को नस्लवाद करार देने से सकुचा रही है। लेकिन छात्रों के आवास स्थलों पर पहुंचकर जिस बेफिक्री से हमलावर हमलों की पुनरावृत्ति कर रहे हैं उससे जाहिर है कि ये हमले नस्लवादी मानसिकता के ही उदाहरण हैं।
शिक्षा का व्यापार कई देशों की अर्थव्यवस्था के लिए वर्तमान में मूल्यवान बना हुआ है। करीब 20 लाख विद्यार्थी दूसरे देशों में ज्ञानार्जन कर रहे हैं। विकसित देश तो व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने के नजरिए से अपनी नीतियों में भी बदलाव ला रहे हैं, जिससे इन देशों में ज्यादा से ज्यादा विकासशील देशों के विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और आस्ट्रेलिया प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ में शामिल हैं। इसलिए ये देश इन कोशिशों में भी लगे हैं कि सीमापारीय शिक्षा व्यापार में ‘सेवा व्यापार सामान्य समझौता' ;ळ।ज्ैद्ध के अंतर्गत और भी छूट मिले, जिससे अल्पशिक्षित व अपने देशों में मेरिट में स्थान प्राप्त करने में असफल रहे छात्रा पूंजी के बूते इन देशों में शिक्षा तो हासिल करें ही उनकी अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने में भी सहभागी बनें।
हालांकि अभी भी भारतीय व अन्य विकासशील देशों के छात्रों की पहली पसंद अमेरिका में रहकर शिक्षा प्राप्त करना है। लेकिन अमेरिका में आई जबरदस्त आर्थिक मंदी के बाद यहां रहकर विद्यार्जन करने के रुझान में कमी आई है। नतीजतन अब छात्रा आस्ट्रेलिया व कनाडा का रुख कर रहे हैं। सन् 2000 में विदेशी छात्रों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 11 अरब डॉलर और आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था में 4.2 अरब डॉलर का महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इसके बाद से इस पूंजी निवेश में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इसी कारण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में इस बाजार को हड़प लेने की जबरदस्त होड़ मची है।
आस्ट्रेलिया में नस्लवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। वहां के मूल निवासियों के साथ गोरों ने अर्से तक अमानुषिक अत्याचार किए। यही नहीं कुछ जर्मन मानव विज्ञानियों ने 1938 में अपने शोध-पत्रों में यह अवधारणा भी गढ़ी कि आनुवंशिक मानसिक प्रजातीय लक्षणों का अस्तित्व होता है। इसी वजह से आस्ट्रेलियाई आदिवासी अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण विलोपशील हो रहे हैं। हालांकि कालांतर में यह दावा झूठा साबित हुआ। आदिवासियों की प्रजाति जिसके लुप्त होने की आशंका जताई गई थी, वह विलुप्त नहीं हुई है और उनके वंशों की धीमी गति से ही सही वृद्धि हो रही है।
दरअसल आस्ट्रेलिया में अध्यनरत तमाम भारतीय छात्रा ऐसे भी हैं जो अध्यन करने के साथ धनार्जन के लिए रात की पालियों में कोई न काम भी कर रहे होते हैं। इसलिए स्थानीय आस्ट्रेलियाई नागरिकों के रोजगार के अवसर प्रभावित हो रहे हैं। यह आर्थिक व सामाजिक जटिल परिस्थिति आस्ट्रेलियाई युवाओं में कुंठा व हीनता बोध का कारण बन रही है। नतीजतन भारतीय छात्रों पर बेदखली के लिए सुनियोजित हमले हो रहे हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में भी किसी न किसी बहाने नस्लभेदी हमले भारत व पाकिस्तान के लोगों पर होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया में तो भारतीय क्रिकेट टीम भी नस्लभेद हमले की शिकार बनी है। आस्ट्रेलिया सरकार ने जनता को नस्लवादी मानसिकता से उबरने के लिए अनेक सार्थक प्रयास किए हैं इसके बावजूद जनता-जनार्दन के अवचेतन में जड़ें जमा चुकी रंगभेद की यह भावना समाप्त नहीं हो रही है। आस्ट्रेलिया की बात छोड़िए, खुद हमारे देश में कश्मीर, महाराष्ट्र, असम और मणिपुर में घट रही हिंसक घटनाओं की पृष्ठभूमि में कमोबेश क्या ऐसा ही जातीय, सांप्रदायिक व भाषाई वैमनस्य अंतर्निहित नहीं है? हमारे देश में तो राजनीतिक संगठन भेदभाव के ऐसे ही बर्तावों को सार्वजनिक मंचों से हवा दे रहे हैं। और हमारी केंद्र व राज्य सरकारें राष्ट्र की संप्रभुता के विरुद्ध जाने वाले तत्वों के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई करने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठी रह जाती हैं।
हमारे देश में भी राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी है जो विश्वस्तरीय शिक्षा के बहाने कुलीन व उच्चस्तरीय मध्यवर्ग को धन के बूते उत्कृष्ठ व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदाय करने का माध्यम बनने जा रहे हैं। जबकि राष्ट्रीय व बुनियादी शिक्षा का संवैधानिक आधार समान शिक्षा होना चाहिए? समतामूलक विकास के लिए सभी वर्गों, जातियों और किसी भी धर्म से जुड़ी आबादी के लिए एक समान धर्मनिरपेक्ष, उदार, प्रजातांत्रिक वे गण्ुावत्तापूर्ण शिक्षा देने की जरूरत है, जिससे गरीब, लाचार व आर्थिक रूप से कमजोर तबके को भी उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर सुलभ हों? अन्यथा पूंजी आधारित शिक्षा के चलते जो असमानता बढ़ रही है उसके नतीजे भविष्य में अराजक व हिंसक घटनाओं के रूप में ही सामने आएंगे?
खेती को खतरे में डालती आनुवंशिक फसलें
जिस देश की अर्थव्यवस्था का आधार खेती हो उस देश की खेती उजड़ रही है और किसान कंगाल होकर आत्मघाती कदम उठा रहा है। ऐसे विरोधाभासी हालात का निर्माण किसके लिए शुभ फलदायी है? एक कृषि प्रधान देश की कृषि पर निर्भर बहुसंख्यक आबादी के लिए तो कतई नहीं? हां, चंद राजनेता, नौकरशाह और आनुवंशिक बीज निर्माता कंपनियों के लिए जरूर ये लक्षण फलदायी हैं। शायद इसीलिए केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे फैसले ले रही हैं जो पारंपरिक खेती के समस्त नुस्खों की उपेक्षा करते हुए खेती और किसान को आनुवंशिक बीजों के लिए परावलंबी बनाए जाने की पृष्ठभूमि रचने में लगी हैं। जब से इस धरती पर खेती की शुरुआत हुई तभी से दुनिया के किसान विभिन्न फसलों के बीजों की अनेक किस्मों को धरातल पर लाकर मानव-जाति के लिए पोष्टिक आहार की आपूर्ति करने में लगे रहे हैं! लेकिन मुनाफाखोर कंपनियों ने जब से बीज-निर्माण का काम अपने हाथों में लिया है तब से आनुवंशिक बीजों के जरिए खेती को सिलसिलेवार उजाड़े जाने का सिलसिला तो शुरू हुआ ही मानव स्वास्थ्य की भी व्यापारिक हितों के दृष्टिगत परवाह नहीं की जा रही है? ऐसा लगता है मानो भारतीय खेती को उजाड़ने की साजिश चल रही है।
मोलेक्यूलर वैज्ञानिक और ज्ञान आयोग के पूर्व सदस्य प्रो. पी. एम. भार्गव ने बेवाकी से खुलासा किया है कि आनुवंशिक अभियांत्राकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) के निरंतर और बहुतायत प्रयोग से कृषि उत्पादों को गंभीर खतरा पैदा हो रहा है। मानव स्वास्थ्य पर ये फसलें प्रतिकूल असर डाल रही हैं। राजनेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर भारतीय कृषि संरचना को ही ध्वस्त करने में लगी हैं। निष्पक्ष और निर्लिप्त दृष्टि से भारतीय कृषि के पारंपरिक तरीकों पर कुठाराघात करने वाली नीतियों का अवलोकन व मूल्यांकन करने वाले प्रो. भार्गव ही नहीं कई वैज्ञानिक आनुवंशिक खेती की हानियां गिना चुके हैं लेकिन निजी स्वार्थ सिद्धियों के चलते हमारे नीति-नियंताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती? भारत में पहली बार आनुवंशिक बीजों से बी.टी. कपास का उत्पादन महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर किसानों ने इस शर्त पर किया था कि इससे बेहतर लाभ होगा। लेकिन सात-आठ साल से इसके प्रयोग को प्रचलन में लाए जाने के बावजूद किसानों को अपेक्षित लाभ तो मिला ही नहीं उल्टे भूमि की उर्वरता व उत्पादन क्षमता और प्रभावित हुई। कई किसानों ने तो इतनी हानि उठाई कि इससे उबरने का जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो उन्हें आत्मघाती कदम तक उठाने को विवश होना पड़ा।
मानव स्वास्थ्य के लिए आनुवंशिक बीज कितने हानिकारक हैं इसका वैज्ञानिक ढंग से खुलासा करते हुए प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक जेफ्री स्मिथ ने तो पूरी एक किताब ही लिख दी। इन बीजों से तैयार फसल किडनी, फेफड़े, हृदय और आंतों को नुकसान पहुंचाकर शरीर की आंतरिक संरचना में परिवर्तन लाती हैं। स्मिथ ने अपनी किताब में 65 तरह की बीमारियों का उल्लेख किया है। प्रो. स्मिथ ने तो यहां तक कहा कि मैं जैनेटिक वैज्ञानिक होने के नाते यह दावे के साथ कह सकता हूं कि इससे आज तक किसी भी देश को फायदा नहीं हुआ। जीई फसल विनाश लेकर खेतों में उतर रही है, इसे रोकिए।
आनुवंशिक बीजों के मार्फत कपास की खेती को बर्बाद किए जाने का सिलसिला महाराष्ट्र में तो आठ साल पहले हो ही चुका है अब उत्तरी भारत व बासमती चावल की पट्टी और कर्नाटक में बैंगन की मट्टूगुल्ला किस्म को बीटी बीजों के जरिए नष्ट करने की व्यूहरचना की जा रही है। हालांकि स्वदेशी संस्थाएं व राष्ट्रीय सोच के जागरूक वैज्ञानिक इन प्रयोगों का अपने-अपने स्तर पर विरोध करने में लगे हैं लेकिन मुनाफाखोर बहराुष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के चलते केंद्र व राज्य सरकारें इन बीजों के प्रयोग पर कोई अंकुश नहीं लगा पा रही हैं।
जेनेटिक मोडिफाइड बैंगन के बीज तैयारी की प्रक्रिया धारवाड़ के कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय में चल रही है। इस परियोजना के लिए वित्तीय पोषण का काम अमेरिका कर रहा है। इसके तहत बीटी बैंगन यानी बेसिलस थुरिनजिनसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया जा रहा है। इसकी विभिन्न किस्मों पर काम किया जा रहा है। इस प्रयोग के लिए बहाना यह बनाया जा रहा है कि बीटी बैंगन कीटों के हमले से बचा रहेगा। किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल खेतों में नहीं करना पड़ेगा।
जबकि राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के ख्यातिलब्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी है कि बीटी जीन की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म मट्टूगुल्ला बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग समाप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टूगुल्ला बीज से पैदावार प्रचलन की शुरुआत पंद्रहवीं सदी में संत वदीराज के कहने से मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था। इस तथ्य की जानकारी करंट साइंस नामक पत्रिका में वैज्ञानिक रमेश भट्ट ने ही दी है।
कर्नाटक में मट्टू किस्म का उपयोग हर साल किया जाता है। स्थानीय पर्वों के अवसर पर इस बैंगन को पूजा जाता है व विशेष तौर से सब्जी बनाकर खाया जाता है। इसके विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विशिष्टता के कारण हरे रंग के इस भटे को अच्छा माना जाता है। खाली पेट इसे खाने से यकृत (लीवर) के विकार प्राकृतिक रूप से ठीक होते हैं।
परतंत्रता से मुक्ति के बाद हमने विभिन्न प्रगतिशील योजनाओं की मदद से हरित क्रांति की। फसल उत्पादन और उसके उचित भंडारण में हम इतने आत्मनिर्भर हो गए कि गेहूं व अन्य फसलों का आयात बंद कर हम एक निर्यातक राष्ट्र बन गए। आज भी हम अपनी अनाज, दाल, तिलहन, फल व सब्जियों की जरूरत के मुताबिक आपूर्ति करने के साथ हमें एक निर्यातक देश का गौरव हासिल है। यहां सवाल यह उठता है कि बिना आनुवंशिक बीजों के प्रयोग के जब हम अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर व निर्यातक देश हैं फिर हमें आनुवंशिक बीजों से फसल उत्पादन के लिए क्यो बाध्य किया जा रहा है? क्यों बौद्धिक संपदा कानून के जरिए हमारे पारंपरिक बीजों को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पेटेंट किया? इन कंपनियों की लाभ कमाने की कुटिल चालों के पीछे इन कंपनियों द्वारा उत्पादित घटिया माल को महंगी दर पर खफाने का मकसद तो था ही और निजी हित साधन के लिए बड़ा मकसद यह भी था कि औद्योगिक और प्रौद्योगिक क्षेत्रो में पिछड़े भारत समेत तीसरी दुनिया के अन्य देश कहीं खेती-किसानी में अग्रणी न बने रहें? इसलिए अमेरिका ने गैट के जरिए बौद्धिक संपदा कानून के दायरे में भारत को लाकर बीजों का पेटेंट किया और आनुवंशिक बीजों के जरिए वह खेती की पारंपरिक व आधुनिक संरचना को ही खत्म करने में लगा है।
हमारी पारंपरिक खेती की भौगोलिक स्थिति ओर परिवर्तनशील जलवायु के मद्देनजर संरचना बड़ी मजबूत थी। देश का 82 फीसदी बीज किसान खुद ही बचाता था। उसका पारंपरिक तरीकों से संरक्षण करता था। लेकिन अब कंपनियों के इशारे पर सरकार बता रही है कि यह नहीं वह फसल उपजाओ। जीई बीजों का प्रयोग करो। नौकरशाह जानबूझकर और नेता अनजाने में देश के कृषि और किसान को काल के मुंह में धकेल रहे हैं। जो लोग इस गठजोड़ में जानते हुए भी शामिल हैं उन पर क्यों न देशद्रोह का मुकदमा चले?
विदर्भ की राह पर बुंदेलखंड
खेती की बदहाली और किसान की त्रासद मनःस्थिति की जो भयावहता विदर्भ में पसरी है उसका विस्तार अब बुंदेलखंड में पसर रहा है। कृषि ऋण राहत योजनाओं के तमाम राहत पैकेजों की व्यवस्था के बावजूद अक्टूबर 2008 में पांच किसानों ने खेती के अभिशाप से मुक्ति के लिए मौत का फंदा गले में डालकर स्थायी राहत पाई। मौजूदा दौर में कृषि और किसान इतनी बद्तर हालत में हैं कि 46 किसान रोजाना आत्महत्या कर रहे हैं।मसलन एक साल में करीब 16 हजार 790 किसान? इसके बावजूद भारत सरकार ने आर्थिक मंदी से उबारने के लिए उन सट्टेबाजों अरब- खरबपतियों के प्रति तत्काल तत्परता व उदारता दिखाई लेकिन अन्नदाता किसान की अभी भी बाजिव चिंता नहीं है। जबकि वैश्विक मुक्त बाजार के जिस उदारवादी रवैये की अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया में आर्थिक मंदी का कारण बनी भारतीय किसान को पारंपरिक खेती से विमुख और कर्ज में डूबने में अहम् भूमिका भी इसी अर्थव्यवस्था और मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रही।
राष्ट्रीय अपराध आंकड़े ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में झकझोर देने वाला खुलासा किया है। रिपोर्ट की मानें तो 2007 में देशभर में एक लाख 22 हजार 637 किसानों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों की संख्या में किसानों का प्रतिशत 14.4 रहा। जबकि 2006 में यह आंकड़ा 17 हजार 60 थी। 1997 में 1 लाख 82 हजार 936 किसानों ने आत्महत्या की थी। कृषि प्रधान इस देश में किसानों की दयनीय हालत दर्शाने वाली इस रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में 4238, कर्नाटक में 2135, आंध्र प्रदेश में 1797, छत्तीसगढ़ में 1593, मध्य प्रदेश में 1263, केरल में 1263 और पश्चिम बंगाल में 1102 किसानों ने आत्महत्या की। बाकी किसानों ने देश के अन्य क्षेत्रों में मौत को गले लगाया। देश की राजधानी दिल्ली में 23 और महानगर चेन्नई में 17 किसानों ने आत्महत्या की। गोवा, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा ऐसे राज्य हैं, जहां एक किसान भी नहीं मरा। वैसे तो कृषि और किसान के बद्तर हाल के संदर्भ में विदर्भ का विस्तार पूरे देश में हुआ है लेकिन बुंदेलखंड में इसकी प्रतिच्छाया बेहद घनीभूत है और केंद्र सरकार द्वारा जाारी 60 हजार करोड़ का ऋण माफी पैकेज बेअसर रहा है। क्योंकि महोबा जिले में अक्टूबर 2008 में उन पांच किसानों ने आत्महत्या की है, जिनके कर्ज माफ हो गए थे। इस जिले के ग्राम श्रीनगर के 45 वर्षीय परमानंद कुशवाह ने आग लगाकर, चंदोली गांव के 40 वर्षीय नरेन्द्र कुमार ने कीटनाशक पीकर, पंवारी के 55 वर्षीय मुन्ना लाल रिछारिया ने ओर महोबा के 45 वर्षीय प्यारेलाल ने जहरीली दवा खाकर आत्महत्याएं कीं। पिछले चार साल से सूखे की मार झेल रहे इन किसानों को ऋण से मुक्ति तो मिल गई थी लेकिन इस साल पर्याप्त बारिश होने के कारण अपने खेतों में बोने के लिए न तो उनके पास बीज के लिए पैसे थे और न ही खाद के लिए। उधार देने के लिए न बैंक तैयार थे और न ही साहूकार। दरअसल ज्यादातर बैंकों ने कर्ज माफ कर देने के बावजूद किसानों को ऋण मुक्ति के प्रमाण-पत्रा जारी नहीं किए हैं। इस प्रमाण-पत्रा को दिखाए बगैर अन्य बैंक किसान को नया कर्ज देने को तैयार नहीं हैं। निदेशक रॉबिन रॉय निजी बैंकों को सलाह दे रहे हैं कि ऋण माफी से ऋण संस्कृति से विकृति आएगी और ऋण वसूली में परेशानियां खड़ी होंगी। यह अजीब विडंबना है कि जब गरीब के हित में ऋण माफी अथवा अनुदान की पहल की जाती है तो इसे विकार की संस्कृति या फिजूलखर्च कहकर नकारा जाता है लेकिन मंदी की मार झेल रहे कॉर्पोरेट सेक्टर की बात आई तो केंद्र सरकार ने आनन-फानन में राहत का खजना खोल दिया। बैंकों की ब्याज दरें घटा दीं। करों में छूट दे दी। यही मुनाफाखोर कंपनियों जब बेहतर लाभ में थीं तब इन्हें कोई सरकारी दखल बरदाश्त नहीं था? लेकिन जब सट्टे के कारोबार और बेलगाम फिजूलखर्ची के चलते यह औद्योगिक क्षेत्र मंदी के शिकंजे में आगया तो इस मार से उबरने के लिए इन्हें सरकार की आर्थिक मदद की दरकार जरूरी हो गई।
जब नवउदारवाद की अवधारणा को पुष्ट करने के दृष्टिगत सामाजिक सुरक्षा को मजबूत बनाए रखने वाले राज्यों की कल्याणकारी अवधारणाओं पर कुठाराघात कर उन्हें सीमित कर ऐलान किया गया कि आर्थिक मामलों में बाजार की शक्तियों को निर्बाध काम करने के अवसर मुहैया कराने चाहिए। वैश्विक बाजारवाद के विस्तार के समय पेट्रो और यूरो डॉलर की चमक सातवें आसमान पर थी और भंडार भरपूर थे। लिहाजा पूंजीवादी देशों ने विकासशील देशों की सरकारों को ऋण की संस्कृति अपनाने के लिए उत्प्रेरित किया। मुनाफे के इन हितों की मकसदपूर्ति के लिए संसद में वैधानिक प्रावधान लाकर राजय की कल्याणकारी अवधारणा की बुनियाद ही हिलाकर रख दी। फिर क्या था औद्योगिक व प्रोद्यौगिक क्षेत्र और वित्तीय कंपनियां बेलगाम होकर धन बटोरने की होड़ में शामिल हो गईं। फिजूलखर्ची और भोग की प्रवृत्तियों की हवाई उड़ानों के चलते भू-मंडलीय प्रतिदर्श की तो कमर डेढ़ दशक में ही टूट गई, लेकिन इसने असमानता की खाई को इतना चौड़ा कर दिया कि भारत का मजदूर और किसान दो वक्त की रोटी तक जुटाने में असमर्थ हो गया।
अब से सौ साल पहले भारत की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों का आकलन करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था यदि व्यक्तिगत उपभोग के योरोपीय मानदंडों को भारत ने स्वीकार कर लिया तो भीषण संकट की स्थिति निर्मित होगी। लेकिन गांधी के अनुयायियों ने जिस तरह से पूंजीवाद के विस्तार को मान्यता दी और इन पूंजीपतियों ने जिस बेहूदा ढंग से व्यक्तिगत उपभोग को बढ़ावा दिया उसी के चलते समाज में हर स्तर पर असमानता और विसंगतियों का दायरा बढ़ने लगा। नतीजतन जिस किसान या मजदूर को 1967 में 100 किलो गेहूं में 121 लीटर डीजल मिलता था, अब उसे मात्रा 21 लीटर मिलता है। 1967 में ही 100 किलो गेहूं में 1800 ईंटें और साढ़े नौ बोरी सीमेंट आ जाती थी। और 206 किलो गेहूं में एक तोला सोना आ जाता था। फलस्वरूप किसान का सामाजिक स्तर बरकरार रहता था और वह हीन भावना से मुक्त रहता था।
आज किसान और उद्योग जगत को जो भी आर्थिक पैकेज मुहैया कराए जा रहे हैं वह राशि पूंजिपतियों के कर से सुरक्षित राशि नहीं है बल्कि वह विभिन्न बैंकों की निजी खातों की वह दस अरब धन राशि है जिनका कोई दावेदार नहीं हे। यह राशि भी पूंजीपतियों की नहीं है। इस राशि का एक बड़ा हिस्सा उन भ्रष्ट सरकारी अधिकारी व कर्मचारियों का है, जिन्होंने सरकारी योजनाओं को पलीता लगाकर बेइंतहा धन इकट्ठा किया। दूसरा बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो कंजूसी की प्रवृत्ति के चलते जीवनभर धन-संग्रह करते रहे और फिर अचानक चल बसे। इसलिए इस पूंजी को कर्ज में डूबे किसान को उबारने से लगाया जा रहा है तो इसमें हर्ज क्या है? अन्नदाता को चारों ओर से मदद मिलनी चाहिए। क्योंकि आखिरकार समृद्धि की मूल फसल अपने खून-पसीने से सींचकर वही उपजाता है। अन्नदाता को प्रोत्साहन देने से ही विदर्भ का दायरा सिमटेगा?
पानी की उपलब्धता का अधिकार
जल प्रबंधन की समृद्ध व उपयोगी प्राचीन परंपराओं वाला देश भयावह व प्राणलेवा जल संकट से जूझ रहा है। दरअसल हमारे नीति नियंताओं ने जीवनदायी जल के अनावश्यक दोहन ओर उसके बाजारीकरण होते जाने की कभी परवाह ही नहीं की। नतीजतन जिस जल पर मानव मात्रा का मूलभूत अधिकार है इस परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक तरीके से विधायिका व कार्यपालिका की सोच ही विकसित नहीं हुई। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पानी के अधिकार को जीने के अधिकार का अनिवार्य हिस्सा मानते हुए नीति-नियंताओं को यह जताने के लिए भी बाध्य होना पड़ा कि जो सरकार पानी जैसी मूलभूत जरूरत पूरी नहीं कर सकती उसे सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद हमारे यहां ऐसी कोई जल नीति ही नहीं है जो जल के बेलगाम दोहन पर अंकुश लगाती हो और वर्षा जल के प्रबंधन के कोई दिशा-निर्देश सुनिश्चित करती हो? यह स्थिति राजनीतिक व प्रशासनिक अदूरदर्शिता की पर्याय है।
संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को जीने के अधिकार की मान्यता दी गई है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाएं क्या हों इनके औचित्य को तय करने वाले न तो बिंदु तय किए गए और न ही उनहें बिंदुवार परिभाषित किया गया। इसलिए जल की तरह भोजन, आवास और शिक्षा जेसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक हक हासिल कर लेने से वंचित हैं, इसी कारण न्यायालय के पास भी सत्ता को लताड़ने के अलावा किसी सरकार या अधिकारी को दंड देने का कोई प्रावधान नहीं है।
किसी भी सरकार ने शायद जीने के अधिकार को इसलिए भी वर्गीकरण कर परिभाषित नहीं किया, क्योंकि इसे यदि जीने के अधिकार के व्यापक संदर्भ में देखा जाता है तो पानी, भोजन, शिक्षा और आवास जैसी जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों को संवैधानिक अधिकारों में शामिल कर दिया जाएगा। फलस्वरूप सत्ता संचालकों की नीतियां बदलने की वैधानिक मजबूरी हो जाएगी ओर विपक्ष भी प्राथमिकताएं बदलने की दृष्टि से सरकार को विवश करेगा। लिहाजा ऐसे दौर में भूख, कुपोषण और पानी मानवाधिकार संगठनों और समाज सेवी संस्थाओं की निगाह में हैं, तब भी केन्द्र और प्रदेश की सरकारें संविधान के अनुच्छेद इक्कीस पर कोई बहस-मुवाहिशा करने की बजाय कुंडली मारे बैठी हैं।
इस सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि हवा की तरह प्रकृति की देने पानी पर हमारे नीति-नियंताओं ने कभी सोचा ही न हो। 2002 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में एनडीए की सरकार केंद्र में थी तब तथाकथित जल नीति के अंतर्गत इस सरकार ने पानी के बेलगाम दोहन करने के कारोबार की छूट निजी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देकर पानी से मानव-समूहों के साझा हक से बेदखल कर देने का रास्ता खोल दिया। भारत में निजी स्तर पर पानी के कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ में बहने वाली शिवना नदी पर संयंत्र लगाकर शुरू हुई थी। इसी आधार पर हीराकुंड बांध का पानी किसानों से छीनकर बड़े कारखानों को देने की चाल उड़ीसा सरकार ने चली। लेकिन किसानों व आम आदमी के प्रबल विरोध के कारण यह चाल फलीभूत नहीं हो सकी।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पानी का व्यापार करने की छूट योरोपीय यूनियन के दबाव में दी गई। पानी को विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाकर पिछले सात-आठ साल के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जलस्रोत उन्मुक्त दोहन के लिए इन कंपनियों के सुपुर्द कर दिए गए। पश्चिमी देशों के लिए इसी योरोपीय यूनियनने पक्षपातपूर्ण मापदंड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि विश्व के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार न कर सकें। यह यूनियन विकासशील देशो के जल को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में बढ़ावा देकर दोहन कर लेना चाहती है, जिससे इन देशों की अनमोल विरासत से अर्थ लाभ सहजता से कमाया जा सके। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यूरोपियन संघ विकासशील देशों में जल दोहन संयंत्र स्थापना के लिए आर्थिक छूट भी देता है। यह छूट 1.4 बिलियन यूरो प्रतिवर्ष है। तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक संपदा को नकदीकरण में बदलने का यह विचित्रा खेल आखिर किसके हित साध रहा है? भारतीय जल को वैश्विक बाजार के हवाले कर देने का मतलब है, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। क्योंकि पानी अब केवल साधारण पेयजल न रहकर विश्व बाजार में नीला सोना बन चुका है। दुनिया में जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है और जल स्रोत घटने के साथ उनका निजीकरण भी होता जा रहा है, ऐसे में पानी को लाभ के बाजार में तब्दील करके एक बड़ी गरीब व लाचार आबादी का जीवनदायी जल से वंचित हो जाना तय है। विश्व स्तर पर पानी पर अधिकार के अभियान के पीछे फिलहाल तो अमेरिका और ब्रिटेन हैं लेकिन डेढ़-दो दशक के भीतर इस कुचक्र में अनेक योरोपीय और एशियाई देशों का जुड़ना तय है।
यह विडंबना हमारे ही देश में संभव है कि हम व्यापार के लिए तो पानी के असीमित दोहन का अधिकार निजी कंपनियों को सहजता से दे देते हैं, लेकिन प्रकृति प्रदत्त जल पर समस्त मानव-समुदाय व जीव-जगत का समान अधिकार है उसके तईं अनुच्छेद इक्कीस के अंतर्गत हमारी संसद और विधानसभाओं ने आज तक तय नहीं किया कि पानी का असमान दोहन प्रतिबंधित हो और आम आदमी को उपयोग के लिए आसानी से पानी सुलभ हो। यह तय करना अब लाजिमी हो गया है कि सृष्टि की अनमोल विरासत पानी निजी कंपनियों का नहीं मानव समाज की थाती है। क्योंकि भारत समेत दुनिया के अन्य देश पानी के वास्तविक संकट से नहीं बल्कि छद्म संकट और जल प्रबंधन की गलत नीतियों के कारण जलाभाव से जूझ रहे हैं। वैसे भी जल, हवा और भोजन की उपलब्धता प्रत्येक नागरिक के जीने के बुनियादी अधिकार के नैसर्गिक दायरे में है इसलिए इसके व्यापार पर तो अंकुश लगना ही चाहिए?
गवेषणापूर्ण ।
जवाब देंहटाएं