आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में - 21. अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां 22. विकासशील देशो...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में -
21. अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां
22. विकासशील देशों का कूड़ाघर बनता भारत
23. पेट्रोलियम पदार्थ बने पर्यावरणीय संकट
24. सेहत के लिए संकट बनती दवाएं
25. शिक्षा में समानता की पहल
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अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां
जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती दुनियां ऐसे देशों में है, जहां बड़ी तादात में आबादी होने के बावजूद उसी अनुपात में विपुल जल के भंडार अमूल्य धरोहर के रूप में उपलव्ध हैं। जल के जिन अजस्त्र स्रोतों को हमारे पूर्वजों व मनीषियों ने पवित्राता और शुद्धता के पर्याय मानते हुये पूजनीय बनाकर सुरक्षित कर दिया था, आज वहीं स्रोत हमारे अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, आर्थिक दोहन की उद्दामलालसा, औद्योगिक लापरवाही, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनैतिक अदूरदर्शिता के चलते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। गंगा और यमुना जैसी सांस्कृतिक व एतिहासिक महत्व की नदियों की बात तो छोड़िये, प्रादेशिक स्तर की क्षेत्रिय नदियां भी गंदे नालों में तब्दील होने लगी हैं। स्टील प्लांटों से निकले तेजाब ने मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की नदियों के जल को प्रदूषित कर अम्लीय बना दिया है। वहीं छत्तीसगढ़ की नदियों को खदानों से उगल रहे मलवे लील रहे हैं। उत्तर प्रदेश की गोमती का पानी जहरीला हो जाने के कारण उसकी कोख में मछलियोें की संख्या निरंतर घटती जा रही है।
भारत में औषत वर्षा का अधिकतम अनुपात उत्तर-पूर्वी चेरापूँजी में
11,400 मिमी और उसके ठीक विपरीत रेगिस्तान के अंतिम छोर जैसलमेर में न्यूनतम 210 मिमी के आसपास है। यही वर्षा जल हमारे जल भण्डार नदियां, तालाब, बांध, कुओं और नलकूपों को बारह महीने लबालव भरा रखते हैं।प्राकृतिक वर्षा की यह देन हमारे लिये एक तरह से वरदान है। लेकिन हम अपने तात्कालिक लाभ के चलते इस वरदान को अभिशाप में बदलने में लगे हुये हैं। औद्योगिक क्षेत्र की अर्थ दोहन की ऐसी ही लापरवाहियों के चलते मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयंत्र रोजाना करीब 60 टन दूषित मलवा नदियों में बहाकर उन्हें जहरीला तो बना ही रहे हैं, मनुष्य-मवेशी व अन्य जलीय जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा भी साबित हो रहे हैं। दरअसल इन स्टील संयंत्रों में लोह के तार व चद्दरों को जंग से छुटकारा दिलाने के लिये 32 प्रतिशत सान्द्रता वाले हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का इस्तेमाल किया जाता है। तारों और चद्दरों को तेजाब से भरी बड़ी-बड़ी होदियों में जब तक बार-बार डुबोया जाता है तब तक ये जंग से मुक्त नहीं हो जातीं? बाद में बेकार हो चुके तेजाब को चामला नदी से जुड़े नालों में बहा दिया जाता है। इस कारण नदी का पानी लाल होकर प्रदूषित हो जाता है, जो जीव-जन्तुओं को हानि तो पहुंचाता ही है यदि इस जल का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता है तो यह जल फसलों को भी पर्याप्त नुकसान पहुंचाता है। पूरे मध्यप्रदेश में इस तरह की पंद्रह औद्योगिक इकाईयां हैं। लेकिन अकेले मालवा क्षेत्र और इंदौर के आसपास ऐसी दस इकाईयां है, जो खराब तेजाब आजू-बाजू की नदियों में बहा रही हैं।
नियमानुसार इस दूषित तेजाब को साफ करने के लिये रिकवरी यूनिट लगाये जाने का प्रावधान उद्योगों में हैे, पर प्रदेश की किसी भी इकाई में ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगे हैं। दरअसल एक ट्रीटमेंट प्लांट की कीमत करीब आठ करोड़ रूपये है। कोई भी उद्योगपति इतनी बड़ी धनराशि व्यर्थ खर्च कर अपने संयंत्र को प्रदूषण मुक्त रखना नहीं चाहता? कभी-कभी जनता की मांग पर प्राशसनिक दबाव बढ़ने के बाद औद्योगिक इकाईयां इतना जरूर करती हैं कि इस अम्लीय रसायन को टेंकरों में भरवाकर दूर फिकवाने लगती हैं। इसे नदियों और आम आदमियों का दुर्भाग्य ही कहिये कि इसी मालवा अंचल में चंबल, क्षिप्रा और गंभीर नदियां हैं, टेंकर चालक इस मलवे को ग्रामीणों की विद्रोही नजरों से बचाकर इन्ही नदियों में जहां तहां बहा आते हैं। नतीजतन औद्योगिक अभिशाप अंततः नदियों और मानव जाति को ही झेलना पड़ता है। ग्रामीण यदि जब कभी इन टेंकरों से रसायन नदियों में बहाते हुये चालकों को पकड़ भी लेते हैं तो पुलिस और प्रशासन न तो कोई ठोस कार्यवाही करता है और न ही इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई पहल करता है। ऐसे में अंततः ग्रामीण अभिशाप भोगने के लिये मजबूर ही बने रहते हैं।
इसी तरह गुना जिले के विजयपुर में स्थित खाद कारखाने का मलवा उसके पीछे बहने वाले नाले में बहा देने से हर साल इस नाले का पानी पीकर दर्जनों मवेशी मर जाते हैं। मलवे से नाले का पानी लाल होकर जहरीला हो जाता है। सिंचाई के लिये इस्तेमाल करने पर यह पानी फसलों की जहां पैदावार कम करता है, वहीं इन फसलों से निकले अनाज का सेवन करने पर शरीर में बीमारियां भी घर करने लगती हैं। ग्रामीण हर साल नाले में दूषित मलवा नहीं बहाने के लिये अपनी जुबान खोलते हैं लेकिन खाद कारखाने एवं जिले के आला प्रशासनिक अधिकारियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती? शिवपुरी जिले की जीवन-रेखा सिंध नदी के किनारे बेशकीमती इमारती पत्थर की खदानें हैं। इन खदानों से एक ओर पत्थर का दोहन करने के लिये हजारों हैक्टेयर जंगल नष्ट किये जाते हैं, वहीं दूसरी ओर पत्थर के उत्खनन के बाद जो मलवा निकलता है उसे सिंध में बेरोकटोक बहा दिया जाता है। इससे एक ओर सिंध उथली हो रही है वहीं दूसरी ओर प्रदूषित भी हो रही है और इसकी जल ग्रहण क्षमता भी निरंतर प्रभावित हो रही है।
छत्तीसगढ़ में कच्चे लोहे की परियोजना बेलाडिला से लोहे अयस्क के अवैज्ञानिक दोहन ने शंखिनी नदी को ही पूरी तरह प्रदूषित करके रख दिया है। बेलाडिला से जो लोहे तत्व अवशेष के रूप में निकलते हैं, वे किरींदल नाले के जरिये शंखिनी नदी में मिलते है, इस कारण नदी और नाले का पानी अम्लीय होकर लाल हो जाता है, जो न तो पीने लायक रह गया है और न ही सिंचाई के लायक। इस जल प्रदूषण से छत्तीसगढ़ के 51 गांवों के करीब 50,000 आदिवासी प्रभावित हुये हैं। लेकिन वे आदिवासी हैं इसीलिये उनकी गुहार की कहीं कोई सुनवायी नहीं है । ं
लखनऊ की जीवन रेखा बनी गोमती नदी का पानी में गटर खोल दिए जाने के कारण इतना जहरीला हो गया है कि गोमती की कोख में मछलियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। उत्तर प्रदेश के ही बलिया से लेकर पश्चिम बंगाल तक जाने वाली गंगा किनारे की तराई पट्टी का पानी संखिया (आर्सेनिक) की मात्रा ज्यादा होने के कारण इतना जहरीला हो गया है कि इस क्षेत्र के बहुसंख्यक लोगों के लीवर खराब होने लगे हैं व त्वचा कैंसर के रोगियों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। ये दोनों ही बीमारियां जानलेवा हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार भारत, बंगलादेश, नेपाल और चीन में पीने के पानी में .05 मिली ग्राम प्रतिलीटर से अधिक संखिया स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दुर्भाग्य से गंगा में उद्योगों के गटर खुले होने के कारण तराई पट्टी में संखिया का मानक पांच-सात गुना अधिक है। संखिया अत्याधिक उभयधर्मी (लवण और क्षार युक्त तत्व है) इसका उपयोग पेंट, कपड़े की छपाई, शीशा उद्योग और कीटनाशक चूहे मारने की दवा में किया जाता है। मानव शरीर में इसकी मात्रा सीमा से अधिक पहुंचने पर रक्त वाहिनियों , दिल और दिमाग को घातक रूप से ग्रस्त करती हैं। संखिया से त्वचा, फेंफड़े और मूत्राशय का भी कैंसर हो सकता है। यह स्थिति गंगा नदी में अम्लीयता बढ़ने के कारण निर्मित हुई है।
उद्योगों से निकला यह तेजाब ग्रामीणों में बीमारियों का कारण भी बन रहा है। पेट में कुपच, त्वचा संबंधी रोग और अल्सर जैसी बीमारियां इन उद्योग क्षेत्रों में आम-फहम हो गयी हैं। इसके बावजूद इन अभिशप्त लोगों को जहरीले पानी से अभिशाप मुक्त करने के कोई उपाय न तो प्रशासन कर रहा है और न ही प्रदूषण फैलाकर प्राकृतिक धरोहर स्वरूप नदियों के अस्तित्व को खतरा बने औद्योगिक संयंत्रों पर नियंत्रण के लिये उद्योग विभाग सार्थक कदम उठा रहा है। जो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्रदूषण मुक्ति के लिये वजूद में लाये गये हैं उनके द्वारा की जाने वाली कार्यवाही इन इकाईयों के लिये मुफीद ही साबित होती है? जबकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ईमानदारी से प्रदूषण मुक्ति के अभियान को अंजाम देने के लिये सार्थक पहल करनी चाहिये। सफेद हाथी बने ये कार्यालय कागजी कार्यवाही कर जेबें भरने में लगे हैं। बहरहाल स्थिति भयावह है?
विकासशील देशों का कूड़ाघर बनता भारत
हाल ही में अमेरिका के न्यूयार्क शहर से 65 टन वजनी तीन कंटेनरों में भारत आए अघुलनशील कचरे से यह स्पष्ट हो गया है कि विकसित देश भारत को कूड़ाघर बनाए जाने पर आमादा हैं। न्यूज प्रिंट को रिसाइकिलिंग किए जाने के बहाने कोचीन के बंदरगाह पर आए इन कंटेनरों में कागज की ओट में जो सामग्री भेजी गई है उसमें सीसा, प्लास्टिक, उपयोग के लायक नहीं रह गए उपकरणों के अलावा अस्पतालों में उपयोग में लाए जाने वाले सेनेट्री पैड, हाथों में पहनने वाले दस्तानों के साथ तमाम ऐसा कचरा है जिसे गलाया नहीं जा सकता। प्रदूषण फैलाने वाला यह कचरा प्रतिबंधित भी है। बावजूद इसके यह कचरा भारत भेजा गया। ऐसे कचरे से कागज का निर्माण कौनसी रासायनिक प्रक्रिया के तहत हो सकता है, इसका जवाब विकसित देशों से ही मांगा जाए? विकसित देशों से कचरा भेजे जाने का सिलसिला कोई नया नहीं है। पर्यावरणविदों के तमाम विरोध के बावजूद यह सिलसिला लगातार जारी है।
भारत में इसी तरह के जहरीले और घातक कचरे को भेजे जाने का सिलसिला अर्से से जारी है। कुछ साल पहले कोट्टयम की ही कागज बनाने वाली कंपनी हिन्दुस्तान न्यूज प्रिंट लिमिटेड ने कागज निर्माण संबंधी सामग्री का आयात किया था। इस सामग्री में मतलब का सामान तो कम आया लेकिन खतरनाक और प्रतिबंधित कचरे का ढेर आ गया। इस पर ऐतराज जताते हुए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सख्त रवैया अपनाया और कंटेनर वापस भेजे गए। इसी तरह करीब 3 साल पहले गाजियाबाद के इस्पात कारखाने द्वारा जब विकसित देशों से लोहे के कचरे का आयात किया तो उसमें ऐसे हथियार भी डाल दिए गए जो विकसित देशों के लिए अनुपयोगी थे। लेकिन जब इस कचरे को रिसाइकिलिंग करने के लिए ताप भटि्टयों में डाला गया तो उन हथियारों से भयंकर विस्फोट हुए। नतीजतन 10 निर्दोष मजदूरों की मौत भी हुई। इस दुर्घटना के बाद खूब हल्ला मचा। लेकिन सीमा-शुल्क विभाग की लापरवाही खत्म नहीं हुई। इसी का नतीजा है कि अनचाहा जहरीला कबाड़खाना लगातार दूसरे देशों द्वारा भारत के पर्यावरण को नष्ट करने के लिए भेजा जा रहा है। इसके तात्कालिक दुष्परिणाम भले ही भारत में दिखें लेकिन कालांतर में पूरी दुनिया को पारिस्थितिकी असंतुलन का संकट झेलना होगा।
दरअसल भूमण्डलीकरण के बहाने बाजारीकरण का जो रवैया भारत ने अपनाया है उसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ रहा है। इसी कारण आयात-निर्यात में तेजी आई है और जांच की शर्तें भी शिथिल हुई हैं। इसी ओट में विकसित देश अपने यहां के बेकार हो चुके जहरीले कचरे को विकासशील देशों को किसी न किसी बहाने थोपते रहते हैं। इसी क्रम में ब्लू लेडी जहाज को नष्ट किए जाने का मामला है। यह जहाज पिछले एक साल से गुजरात के अलंग तट पर खड़ा था। नार्वे के इस जहाज एस.एस. नार्वे ब्लू लेडी को तोड़े जाने की अनुमति हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दी है। 1960 में निर्मित इस जहाज को भारत की तटीय सीमा में तोड़े जाने का विरोध पर्यावरण संगठन कर रहे थे। इस सिलसिले में ‘ रिसर्च फाउन्डेशन फॉर साइंस टेक्नोलॉजी एण्ड नेचुरल रिसोर्स पॉलिसी ' नामक स्वयं सेवी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तोड़े जाने पर रोक लगाने की मांग भी की थी। इस संगठन की आपत्ति थी कि यह जहाज जहरीले पदार्थों से भरा हुआ है और इसके तोड़े जाने से देश के मानव जीवन और पर्यावरण को भयंकर हानि उठानी होगी। किन्तु न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए जहाज को तोड़े जाने की अनुमति दे दी। जबकि किसी भी जहाज को उसके मूल देश में ही प्रदूषण मुक्त (डिकंटामिनेट) किया जाना जरूरी है। ब्लू लेडी में रेडियोधर्मी पदार्थ पीसीबी और जहरीले रंग वाले इलेक्ट्रिक वायरों के अलावा बड़ी मात्रा में जहरीला एसबस्टस लगा हुआ था।
शायद दुनिया में भारत एक मात्रा ऐसा देश है जिसे दुनिया के दूसरे देश कूड़ेदान में तब्दील करने में लगे हुए हैं। ऐसे देशों की संख्या 105 तक पहुंच गई है। वैसे तो भारत के ग्रामीण अंचलों में घर के बाहर ‘घूरे' में कूड़े को प्रसंस्कृत कर खाद बनाने की प्राचीन पंरपरा रही है। उपयोगिता और ज्ञान की यह ऐसी परंपरा है जिसके अंतर्गत कूड़ा महामारी का रूप धारण कर जानलेवा बीमारियों का पर्याय न बनते हुए खेत की जरूरत के लिए ऐसी खाद में रूपांतरित होता है, जो फसल की उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ उसकी पौष्टिकता भी बढ़ाता है। परंतु हमारे देश में दुनिया के दूसरे देश निर्यात के बहाने अनुपयोगी कचरा भेज रहे हैं। उससे एक ओर तो जानलेवा बीमारियां बढ़ रही हैं वहीं दूसरी ओर समुद्र तटीय इलाकों और नदियों का जल तेजी से दूषित हो रहा है। कूड़े के आयात के इस सिलसिले पर अंकुश नहीं लगाया जाता तो यह तय है कि इस कचरे की भारी कीमत भारत को अपनी प्राकृतिक संपदा ध्वस्त करके गंवानी होगी, जिसकी भरपाई कालांतर में कई दशकों तक संभव नहीं हो सकेगी?
भारत दुनिया का कूडे़दान (डंपिंग ग्राउण्ड) बनता जा रहा है। अनुपयोगी हो गए जहाज और जहाजों से आने वाले इस कचरे में खनिज, धातु, प्लास्टिक, मोटर कारों की इस्तेमाल की गई बैटरियां, काला चूरा, इलेक्ट्रिक वायर, रेडियोधर्मी पदार्थ, पीसीबी आदि शामिल होता है। हमारा पड़ौसी देश चीन तो तिब्बत के कई क्षेत्रों में अपने परमाणु कचरे को कूड़ेदान की तरह प्रयोग करके भारत की पवित्रा नदियों में बहा देता है। हांलाकि इनमें से बहुत सा कचरा निःशुल्क भी आता है और इस कचरे के कारोबार से कई सैकड़ा लोगों को रोजगार भी मिलता है। जहाजों से भेजने का खर्च भी नहीं वसूला जाता। भारत सरकार भी बंदरगाहों पर उतरने वाले इस कचरे पर कोई कर आदि वसूल नहीं करती। इस कचरे के उतरने के बाद देश भर के व्यापारी इस कचरे का मोलभाव कर इसे व्यावसायिक दर्जा दे देते हैं। बाद में ये व्यापारी इस कचरे को अपनी लघु व मध्यम इकाईयों में ले जाकर गहरा ताप देकर इस औद्योगिक अवशेष से लोहा, पीतल, तांबा, जस्ता, शीशा आदि धातुएं प्राप्त कर कुछ लाभ जरूर कमा लेते हैं लेकिन जो बचा-खुचा कचरा बचता है उसे जल स्रोतों में बहा अथवा इधर-उधर फेंककर जबरदस्त पार्यावरण को हानि पहुंचाते हैं। इस कचरे में मोटर कारों की बैटरियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है इनसे शीशा और जस्ता निकालकर नई बैटरियां बनाई जाती हैं। कई कार बनाने वाली कम्पनियां इन्हीं बैटरियों का इस्तेमाल नई बैटरियों के रूप में करती हैं। बैटरियों के निर्माण का कार्य कोलकत्ता, मुंबई और मद्रास में पर्यावरण की बिना कोई फिक्र किये धड़ल्ले से चल रहा है।
भारत में प्रमुख रूप से चीन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, नार्वे और ब्रिटेन कचरे का निर्यात बड़ी मात्रा में करते हैं। इन देशों में अनुपयोगी हो गए जहाजों को नष्ट करने, औद्योगिक अवशेषों व प्रदूषित कूड़े कचरे से धातुएं निकाले जाने पर कानूनी रोक है। इसलिए उनकी इस कचरे को ठिकाने लगाना मजबूरी भी है। दरअसल पहले इन्हीं देशों में इस कचरे को धरती में गड्डे खोदकर दफना देने की छूट थी। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दबाया गया, उन-उन क्षेत्रों में पर्यावरण बूरी तरह प्रभावित होकर बीमारियों को जन्म देने लगा। इन बीमारियों में लाइलाज त्वचा रोग, महामारी की तरह फैलते चले गये। तमाम लोग व पशु-पक्षी काल-कवलित भी हुए। इन घटनाओं के बाद इन देशों का शासन-प्रशासन जाग्रत हुआ और उसने कानून बनाकर जहाजों एवं औद्योगिक कूड़े-कचरे को अपने-अपने देशों में किसी भी पद्धति से नष्ट करने पर सख्ती से प्रतिबंध लगा दिया। अंततः इन देशों ने अपने कचरे को ठिकाने लगाने का आसान ठिकाना भारत खोज लिया।
नेशनल एनवायरमेंन्ट इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) के एक रिसर्च पेपर के अनुसार वर्ष 1997 से 2005 के बीच भारत में प्लास्टिक कचरे के आयात में 62 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। यह आयात देश में पुनर्शोधन व्यापार को बढ़ावा देने के बहाने किया गया है। इस क्रम में सोचनीय पहलू यह है कि इस आयातित कचरे में खतरनाक माने जाने वाले आर्गेनो-मरक्यूरी यौगिक निर्धारित मात्रा से 1500 गुणा तक अधिक पाये गए हैं, जो कैंंसर एवं डायबिटीज जैसी भयानक और लाइलाज बीमारियों को जन्म दे रहे हैं। विकसित देशों द्वारा कचरे की निर्बाध चली आ रही निर्यात की मंशा के पीछे भारत को बीमार देश बनाये रखने की दुर्भावना भी लगती है। जिससे ये देश भारत में घातक बीमारियों के उपचार हेतु औषधियां, वैक्सीन, टीके और एन्टीबॉयोटिक दवाएं निर्यात कर मुनाफा कमाते रहें। बहरहाल इस कचरे पर रोक लगाने के लिए सख्त कदम भारत सरकार को ही उठाने होंगे।
पेट्रोलियम पदार्थ बने पर्यावरणीय संकट
पेट्रोलियम पदार्थ, कोयला और प्राकृतिक गैसों के लगातार बढ़ते उपयोग से पैदा हो रहा प्रदूषण पर्यावरण के लिए बढ़ा खतरा साबित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार इससे भारत को लगभग 200 खरब रुपये की वार्षिर्क हानि उठानी पड़ रही है। यही नहीं वायु में विलोपशील हो जाने वाले इस प्रदूषण से सांस, फेफडों, कैंसर हृदय व त्वचा रोग संबंधी बीमारियों में इजाफा हो रहा है। पेट्रोलियम पदार्थो का समुद्री जल में रिसाव होने से जल प्रदूषण का अलग से सामना करना पड़ रहा है। गोया पेट्रोलियम पदार्थ एक साथ मिट्टी, पानी और हवा को दूषित करते हुए मानव जीवन के लिए वरदान की बजाय अभिशाप साबित हो रहे हैं।
देश ही नहीं दुनिया के समुद्री तटों पर पेट्रोलियम पदार्थों और औद्योगिक कचरे से भयावह पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहे हैं। तेल के रिसाव, तेल टैंकों के टूटने व धोने से समुद्र का पर्यावरणीय पारिस्थितिक- तंत्र (इको सिस्टम) बेतरह प्रभावित हो रहा है। आए दिन समुद्री तल पर 2000 मीट्रिक टन से भी ज्यादा तेल फैलने व आग लगने के समाचार प्रति पखवाड़े आते रहते हैं।
यदि राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट पर गौर करें तो केरल के तटीय क्षेत्रों में तेल से उत्पन्न प्रदूषण के कारण झींगा और चिंगट मछलियों का उत्पादन 25 फीसदी कम हो गया है। हाल ही में डेनमार्क के बाल्टिक बंदरगाह पर 1900 टन तेल के फैलाव के कारण प्रदूषण संबंधी एक बड़ी चुनौती उत्पन्न हुई थी। इक्वाडोर के गैलापेगोस द्वीप समूह के पास समुद्र के पानी में लगभग साढ़े छह लाख लीटर डीजल और भारी तेल के रिसाव से मिट्टी, समुद्री जीव और पक्षी खतरे में पड़ गए थे। गुजरात में आए भूकम्प के बाद कांडला बंदरगाह पर भंडारण टैंक से लगभग 2000 हजार मीट्रिक टन हानिकारक रसायन एकोनाइटिल एसीएन फैल जाने से क्षेत्रवासियों का जीवन संकट में पड़ गया था। इसके ठीक पहले कांडला बंदरगाह पर ही समुद्र में फैले लगभग तीन लाख लीटर तेल से जामनगर के पास कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में स्थित समुद्री राष्ट्रीय उद्यान में दुर्लभ जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां मारी गई थीं। जापान के टोकियों के पश्चिमी तट पर 317 किमी की पट्टी पर तेल के फैलाव से जापान के तटवर्ती शहरों में हाहाकार मच गया था। रूस में बेलाय नदी के किनारे बिछी तेल पाइप लाइन से 150 मीट्रिक टन के रिसाव ने यूराल पर्वत पर बसे ग्रामवासियों को पेय जल का संकट खड़ा कर दिया था। सैनजुआन जहाज के कोरल चट्टानों से टकरा जाने के कारण अटलांटिक तट पर करीब तीस लाख लीटर तेल का रिसाव होने से समुद्री जीव प्रभावित हुए। मुंबई हाई से लगभग 1600 मीट्रिक टन तेल का रिसाव हुआ। इसी तरह बंगााल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त तेल से फैले टैंकर ने निकोबार द्वीप समूह में तबाही मचाई। जिससे यहां रहने वाली जनजातियों और समुद्री जीवन को भारी हानि हुई। लाइबेरिया के एक टैंकर से 85000 मीट्रिक टन रिसे तेल ने स्कॉटलैण्ड में पक्षी- समूहों को बड़ी तादात में हानि पहुंचाई।
सबसे भयंकर तेल का फैलाव यूएसए के अलास्का में हुआ था। यह रिसाव प्रिंस विलियम साउण्ड टेंकर से हुआ था। इस तेल के फैलाव का असर छह माह तक रहा। इस अवधि के दौरान इस क्षेत्र में 35000 पक्षी, 10000 ओस्टर शेलफिस और 15 व्हेल मछली मरी पाए गए थे। इसके बावजूद इस घटना का असर इराक द्वारा खाड़ी युद्ध में सद्दाम हुसैन द्वारा समुद्र में छोड़े तेल से कम था। यह तेल इसलिए छोड़ा गया था कि कहीं यह अमेरिका के हाथ न लग जाए। अमेरिका द्वारा इराक तेल टेंकरों पर की गई बमबारी से भी लाखों टन तेल समुद्री सतह पर फैला। एक अनुमान के मुताबिक इस कच्चे तेल की मात्रा 110 लाख बैरल थी। इस तेल के बहाव ने फारस की खाड़ी में घुसकर जीव जगत के लिए भारी हानि पहुंचाई। इस प्रदूषण का असर मिट्टी, पानी और हवा तीनों पर रहा। जानकारों का मानना है कि इराक युद्ध का पर्यावरण पर पड़ा दुष्प्रभाव हिरोशिमा-नागाशाकी पर हुए परमाणु हमले, भोपाल गैस त्रासदी और चेरनोबिल दुर्घटनासे भी ज्यादा था। इस कारण इराक का एक क्षेत्र जहरीले रेगिस्तान में तब्दील हो गया और वहां महामारी का प्रकोप भी अर्से तक रहा।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस में गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय के वरिष्ठ सलाहकार डाँ. एस. के. चौपड़ा ने चौंकाने वाली जानकारी दी है। उनके मुताबिक 200 खरब रुपये की पर्यावरणीय क्षति अकेले पेट्रोलियम पदार्थो के इस्तेमाल के कारण उठानी पड़ रही है। इस बजह से 42.6 प्रतिशत, कोयले से 37.4 और प्राकृतिक गैसों के प्रयोग से 20 प्रतिशत पर्यावरण को हानि हो रही है। तेल के रिसाव से जो मिट्टी का क्षरण होता है वह हानि करीब 200 अरब रुपयों की है, जो कुल कृषि उत्पाद का 11 से 26 फीसदी है।
ईंधन उपयोग में विश्व में भारत का पांचवां स्थान है और 1981 से 2002 के बीच इसमें सालाना 6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। पेट्रोलियम पदार्थों से होने वाली पर्यावरणीय हानि इन्हें आयात करने में खर्च होने वाली करोड़ों डालर की विदेशी मुद्रा के अलावा है। गौरतलब है कि भारत अपनी कुल पेट्रोलियम जरुरतों की आपूर्ती का 70 प्रतिशत तेल आयात करके करता है। भारत प्रति वर्ष खरीद से आधे मूल्य पर पेट्रोल डीजल उपभोक्ता को उपलब्ध कराकर डेढ़ लाख करोड़ का सालाना घाटा उठाता है। मसलन प्रति दिन साढ़े चार सौ करोड़ का घाटा? यह घाटा महज इसलिए उठाया जाता है जिससे मंहगाई काबू में रहे और बेशर्म उपभोक्ता की मौज मस्ती की जीवन शैली में कोई खलल न पड़े।
टाटा द्वारा नैनो मॉडल केे रुप में सस्ती कार को तोहफा मानकर हम इतरा रहे हैं। लेकिन यह कार सस्ती होने के कारण 20 हजार की मासिक आमदनी वाले व्यक्ति की क्रय शक्ति में होगी, इसलिए पेट्रोल आयात की मात्रा बढ़ानी होगी, जो पर्यावरणीय संकटों को बढ़ावा देंगे।
दुनिया में करीब 63 करोड़ वाहन मार्गों पर गतिशील हैं। जिनमें लगाया जा रहा डीजल-पेट्रोल का उपयोग प्रदूषण का मुख्य कारण है। प्रदूषण रोकने के तमाम उपायों के बावजूद 150 लाख टन कार्बन मोनोआक्साइड, 10 लाख टन नाइट्रोजनआक्साइड और 15 लाख टन हाइडोकार्बन हरेक साल वायुमण्डल में बढ़ जाते हैं। जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से सालाना करोड़ों टन कार्बनडाइऑक्साइड पैदा होती है जो ओजोन-परत को खतरा बन रही है। विकसित देश वायुमण्डल प्रदूषण के लिए 70 फीसदी दोषी हैं जबकि विकासशील देश 30 फीसदी।
पेट्रोलियम पदार्थो के जलने से उत्पन्न प्रदूषण फेंफड़ों का कैंसर, दमा, ब्रोकाइटिस, टीबी, हृदय रोग और अनेक त्वचा संबंधी रोगों का कारक बना हुआ है। कैंसर के मरीजों की संख्या में 80 फीसदी रोगी वायुमण्डल में फैले विषैले रसायनों के कारण ही होते हैं। दिल्ली में फेफड़ों के मरीजों की संख्या कुल आबादी की 30 प्रतिशत है, जो दूषित वायु के शिकार हैं। दिल्ली में अन्य इलाकों की तुलना में सांस और गले की बीमारियों के रोगियों की संख्या 12 गुना अधिक है। इन बीमारियों से निजात पाने के लिए भारत के प्रत्येक नगरीय व्यक्ति को 1500 रुपये खर्चने होते हैं। विश्व बैंक ने जल प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की कीमत 110 रु. प्रति व्यक्ति आंकी है, जो समुद्रतटीय क्षेत्रों में रहते हैं। समुद्री खाद्य पदार्थो पर पेट्रोलियम अपशिष्टों का असर भी पड़ता है। इस दूषित जल से ओस्टर शेल फिश कैंसर से पीड़ित हो जाती हैं। अनजाने में मांसाहारी लोग इन्हीं रोगालु जीवों को आहार भी बना लेते हैं। इस कारण मांसाहारियों में त्वचा संबंधी रोग व अन्य लाइलाज बीमारियां घर कर जाती हैं। बहरहाल लगातार बढ़ती पेट्रोलियम पदाथोंर् की खपत वायुमण्डल और मानव जीवन को संकट में डालने वाले साबित हो रहे हैं।
सेहत के लिए संकट बनती दवाएं
यह भारत वर्ष में ही संभव है जहां दवाओं का एक बड़ा अनुपात मर्ज को कम या खत्म करने की बजाय मर्ज को बढ़ाने का काम करता हो। सेहत के लिए दो तरह की दवाएं खतरनाक साबित हो रही हैं। एक वे जो या तो नकली दवाएं हैं, या निम्न स्तर की हैं, दूसरी दवाएं ओटीसी मसलन ‘ओवर दि काउण्टर' दवाएं हैं, जिनके उपयोग के लिए न तो चिकित्सक के पर्चे की जरूरत पड़ती है और न ही विक्रय के लिए ड्रग लायसेंस की आवश्यकता रहती है। ऐसी दवाएं बडी संख्या में रोगी की सेहत सुधारने की बजाय बिगाड़ने का ही काम ज्यादा कर रही हैं।
नकली और मिलावटी दवाओं का कारोबार का देश में निरंतर विस्तार हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन मेडीकल ऐसोसियेशन की माने तो नकली और मिलावटी दवाओं का व्यवसाय कुल दवाओं के कारोबार का 35 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस समय देश में दवाओं का कुल कारोबार 22 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है। जिसमें से 7 हजार करोड़ की नकली दवाएं होती हैं। इसके बावजूद दुनियां में दवाओं के निर्माण में भारत का प्रमुख दस देशों में स्थान है। लेकिन नए क्षेत्रों में जिस तेजी से यह व्यवसाय फैल रहा है, वह चिंता का कारण है। वर्तमान में इस कारोबार ने उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र को अपने चंगुल में फांस लिया है।
दरअसल सुरसामुख की तरह फैलते इस कारोबार पर अंकुश लगाने की मंशा, सरकार में दिखाई नहीं देती है। न तो जानलेवा कारोबार को रोकने के लिए पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह कोई सख्त कानून बनाये जाने की पहल की जा रही है और न ही दवाओं की जांच के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाओं की उपलब्धता है। दवाओं की गुणवत्ता की जांच के लिए देशभर में कुल 37 प्रयोगशालाएं हैं। जो पूरे साल में बमुश्किल लगभग ढ़ाई हजार नमूनों की जांच कर पाती हैं। नमूने की जांच का प्रतिवेदन देने में भी उन्हें छह से नौ माह का समय लग जाता है। दवा निरीक्षकों की कमी और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से नकली दवा निर्माता व विक्रेताओं का कारोबार खूब फल फूल रहा है। इसी कारण नकली दवाओं के कारोबारियों की दिलचस्पी अब केवल मामूली बुखार, सर्दी, जुकाम, हाथ पैरों में दर्द की दवाएं बनाने तक सीमित नहीं रह गई है, वे टीबी, मधुमेह, रक्तचाप और हृदयरोगों की भी दवाएं बनाने लगे हैं।
आईएमए इस पर नियंत्रण के लिए मादक पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह एक कड़ा कानून बनाये जाने की अपील सरकार से कई मर्तबा कर चुका है। लेकिन सरकार व्यक्ति की सेहत और जीवन से जुड़ा मामला होने के बावजूद इस कारोबार पर लगाम लगाने की दृष्टि से कोई कड़ा कानून नहीं बना रही। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने इस संदर्भ में पहल जरूर की थी, लेकिन आरोपियों को मौत की सजा देने का प्रावधान रखा जाने के कारण कुछ मानवाधिकार संगठनों ने इसके विरूद्ध आवाज उठाई और कानून को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। हैरानी होती है कि जो कारोबारी दवा के रूप में जहर बेचकर लाखों लोगों की सेहत और जान से खिलवाड़ कर रहे हैं उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाने में हिचक क्यों? इसे हम राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी भी कह सकते हैं।
दूसरी तरफ सेहत के लिए ओ.टी.सी. दवाएं खतरनाक साबित हो रही हैं। तकनीक की भाषा में ऐसी दवाओं को ओवर दि काउण्टर दवाएं कहा जाता है। इनके उपयोग के लिए न तो चिकित्सक के पर्चे की और न ही बेचने वालों के लिए लायसेंस की जरूरत होती है। इसलिए परचून, जनरल स्टोर और पान की दुकानों पर ये दवाएं आसानी से सुलभ हैं। अब तो आधुनिक कहे जाने वाले मॉलों में भी ये दवाएं धड़ल्ले से बेची जाकर सेहत बिगाड़ने का काम कर रही हैं। लिहाजा ये दवायें इस्तेमाल की तय अवधि समाप्त हो जाने के बावजूद बेच दी जाती हैं। उपभोक्ताओं को गलत सलाह देने से ऐसी दवाएं स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाने की बजाय नुकसान पहुंचाती हैं।
ऐसी दवाएं जिनकी बाजार में सुलभता है वे उपचार कम विकार ज्यादा पैदा करती हैं। जैसे गोरे बनने या त्वचा चिकनी बनाये जाने की चाहत में क्रीम पावडर लगाएं तो चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाएं और त्वचा खुश्क हो जाए। काया को सुडौल व गठीली बनाने की दवा खाई तो शरीर थुल-थुल व शिथिल हो गया। गंजापन दूर करने की दवा खाई हो तो बाल शेष थे, वे और झड़ जाएं। बाल काले करने की दवाओं तक तो फिर भी ठीक है, मधुमेह, हृदयरोग, पेट दर्द और भूख व कामवर्धक दवाएं भी खुलेआम बेची जा रही हैं। उपभोक्ता या रोगी को गुमराह कर बेची जा रही ये दवाएं सेहत बिगाड़ने का ही काम ज्यादा कर रही हैं।
दरअसल दवा निर्माता, विक्रेता और कानून निर्माताओं का गठजोड़ ओटीसी बाजार को बढ़ावा देने की दृष्टि से अनेक दवाएं पेटेंट और ड्रग लायसेंस के दायरे से निकालता जा रहा है। इन दवाओं का विज्ञापन भी किया जाता है। होम्योपैथी की मेंसोलेक्स जो महिलाओं के मासिक चक्र में आई खराबी को दुरूस्त करने के नाम पर बेची जा रही है, लेकिन इसके विज्ञापन में दिया जाता है कि गर्भवती महिला इस दवा का इस्तेमाल न करें वरना गर्भपात हो सकता है। नतीजतन गर्भवती महिलाएं इस दवा का इस्तेमाल गर्भपात करने में करती हैं। अविवाहित यौन संपर्कों को भी ये दवाएं बढ़ावा देने का कारण बनी हुई हैं।
ड्रग एंड कास्मेटिक्स एक्ट के मुताबिक शेड्यूल ‘के' में शामिल दवाओं के लिए चिकित्सकों के नुस्खे की जरूरत नहीं होती है। इनमें सामान्य रूप से बुखार ठीक करने की दवा क्रोसिन से लेकर कफ और सीरप के अलावा तमाम आयुर्वेदिक व हौम्योपैथी दवायें शामिल हैं। इन्हें विक्रय की छूट है। शेड्यूल ‘‘एच'' में शामिल दवाओं के लिए चिकित्सक के पर्चे का होना लाजिमी है। इन दवाओं की बिक्री ड्रग लायसेंस प्राप्त दुकानों पर ही की जा सकती है।
बाजारबाद की अवधारणा ने भी ओटीसी दवाओं के बाजार को विस्तार दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद इस बाजार में तेजी तो आई ही है, भयमुक्त भी हुआ है। दवा कंपनियों के बीच ऐसी दवाओं की बिक्री को लेकर प्रतिस्पर्धा भी बड़ी है। कुछ दवा संगठनों ने तो ओटीसी दवाओं की सूची में और दवाएं शामिल करने की दृष्टि से स्वास्थ्य मंत्रालय को ज्ञापन देकर गुहार भी लगाई है। अनेक दवाओं को पेटेंट के दायरे से बाहर कर दिये जाने के कारण भी ओटीसी कारोबार में इजाफा हुआ है। बहरहाल हमारे देश में सेहत के साथ खिलवाड़ भी मुनाफे के कारोबार में तब्दील किये जाने का षडयंत्र धड़ल्ले से चल रहा है और केन्द्र व राज्य सरकारें हैं कि चुप्पी साधे हैं।
शिक्षा में समानता की पहल
हमारे देश में समान शिक्षा लागू करने की मंशा तो आजादी हासिल होने के तत्काल बाद से ही जताई जाती रही है। इस बावत उत्कृष्ट, रोजगारमूलक और बालकों की आयु के अनुपात में मानसिक विकास व बदलती स्थितियों के अनुरूप शिक्षा के लिए गठित आयोग व शिक्षाविद समान शिक्षा लागू किए जाने की वकालत भी करते रहे हैं, लेकिन नौकरशाहों और पब्लिक स्कूल के निजी हितों को बरकरार रखने के कुटिल नजरिए के चलते आयेागों के प्रतिवेदनों व शिक्षाविदों की सलाहों को ठण्डे बस्ते में डाला जाता रहा है। अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार इस व्यावहारिक पहलू को अमल में लाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते नजर आ रहे हैं।
अपने बचपन में ”राष्ट्रपति हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा हो एक समान“ का नारा लगाते हुए मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही समान शिक्षा के प्रबल पैरोकार भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में समान शिक्षा प्रणाली आयोग का गठन किया और इस आयोग ने भी इस राष्ट्रीय दायित्व का ईमानदारी से निर्वाह करते हुए निर्धारित समय सीमा से एक दिन पूर्व अपनी विस्तृत रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी। इस अनुशंसा पर क्रियान्वयन की तैयारी अगले वित्तीय वर्ष 2008-09 से किए जाने की जोर-शोर से शुरू कर दी गई है।
भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को सामाजिक न्याय व अन्य सामाजिक स्तरों, जैसे बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए समान अवसर प्रदान करने का भरोसा देता है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति को निजी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रगति व स्थापना के लिए ताकतवर बनाता है। इसलिए सत्ता संचालकों का यह उत्तरदायित्व बढ़ जाता है कि वे हर नागरिक को शिक्षा प्रणाली के माध्यम से सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने के समान अवसर सुलभ करें ताकि दलित, पिछड़े एवं अभावग्रस्त वर्गों के बच्चों को शिक्षा हासिल करने के एक समान अवसर मिल सकें। समाज के इसी मकसद के लिए संविधान की धारा 45 में दर्ज नीति निर्देशक सिद्धांत सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता तय करने का प्रावधान प्रकट करते हैं। इसी उद्देश्य से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बालक बालिकाओं को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की बात भी संविधान करता है। लेकिन संविधान के 86 वें संशोधन में संविधान के अनुच्छेद 21 ए में शिक्षा को मौलिक अधिकार मान लिया गया और इसी मौलिक अधिकार के चलते एक ओर तो शिक्षा में असमानता का दायरा बढ़ता चला गया, दूसरे निजी व अंग्रेजी स्कूलों के हित पोषित होते रहे। हालांकि 1966 में ही कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली लागू करने की अनुशंसा कर दी थी। इसके बाद 1985-86 की नई शिक्षा नीति में भी समान शिक्षा प्रणाली को मान्यता दी गई, लेकिन यह प्रणाली लागू आज तक नहीं हो पाई और यही बुनियादी कारण है कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली से भेदभाव का दायरा लगातार बढता जा़ रहा हैै। इसी असमानता ने एक ऐसे प्रभुवर्ग को जन्म कर मजबूत कर दिया है, जिसने उपभोग, लूट व हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देते हुए सरकारी व गैर सरकारी हर स्तर पर जबरदस्त दोहन का सिलसिला जारी रखा हुआ है।
मैकाले ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की बुनियाद रखी। मैकाले ने अपना मकसद दो टूक शब्दों में रेखांकित करते हुए कहा था, आज हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करने के लिए सब कुछ करना होगा जो हमारे और हमारे करोड़ों प्रजाजनों के बीच दुभाषियों का काम करें। ऐसे व्यक्तियों का वर्ग जो खून और रंग से भारतीय हों, मगर रूचियों, मतों, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हों। मैकाले की इस घोषणा को ब्रिटिश हुकुमत ने शिक्षा नीति का स्वरूप देकर अमल में ला दिया। इस शिक्षा नीति ने अंग्रेजी को सर्वोच्च महत्ता देते हुए अभिजात वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा देने पर जोर दिया और प्रथक से अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना की। नतीजतन आमजन की शिक्षा और लोक परंपरा में विद्यमान ज्ञान की परंपरा की उपेक्षा हुई। इसी कारण समाज के गरीब, दलित व पिछड़े शिक्षा से बंचित बने रहे। महंगी कॉन्वेंटी अंग्रेजी शिक्षा एक तरह से ऊंची जातियों की विशेषाधिकार बन गई और असमान शिक्षा की बुनियाद इतनी मजबूत होती चली गई। हालात यहां तक पहुंच गए कि अब शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी ने न सिर्फ प्रभुवर्ग के लोगों पर बल्कि मध्य व पिछड़े वर्ग के एक खास आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग पर भी पारिवारिक विजय पताका फहरा दी है।
यदि शिक्षाविदों एवं बाल मनोवैज्ञानिकों की कसौटी पर पब्लिक स्कूलों की शिक्षा को परखें तो इन स्कूलों में प्रतियोगी वातावरण प्रगतिशील शिक्षा के एकदम विपरीत है। प्रसिद्ध शिक्षाविद्ध कृष्णकुमार का मानना है कि विद्यार्थी को नित नई उपलब्धि की ओर धकेलने वाले ये स्कूल समय को एक यांत्रिक दृष्टि से देखते हैं। इस दृष्टि से समय एक ऐसी वस्तु है जो दबाकर छोटी की जा सकती है, यानि बच्चे की ज्ञान अर्जन करने की स्वाभाविक गति को जबरन बढ़ाया जा सकता है, जिससे वह कम से कम समय मेें अधिक से अधिक चीजें सीख सके। प्रतियोगी छात्रा को पछाड़ने की इसी होड़ के चलते बालक के मन पर इतना दबाव डाला जाता है कि उसके सीखने की स्वतः स्फूर्त प्रेरणा मर जाती है। सिर्फ अध्यापक और अभिभावकको खुश करने की इसी लालसा के चलते शहरों के नामी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्रा प्राथमिक कक्षाएं पार करते-करते बौद्धिक रूप से राख हो चुके होते हैं। प्रगतिशील शिक्षण के द्वार बंद कर दिए जाने की ऐसी ही प्रवृत्तियों के चलते पब्लिक स्कूल से विश्व स्तरीय प्रतिभाएं निकलकर नहीं आ रही हैं। इन स्कूलों ने नौकरशाहों, प्रबंधकों, क्लर्कों और व्यवसायियों की ही फौज खड़ी की है जबकि हमें राष्ट्रीय उत्थान और गरिमा के लिए विज्ञान, तकनीक, खेल, साहित्य और कला के विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रतिभाओं की जरूरत है, जो कॉन्वेंटी शिक्षा ने हमें नहीं दिए। इस शिक्षा से न तो गरीबी और पिछड़ापन दूर हुआ और न ही मौलिक व नये विचारों को हासिल करने के लिए विकसित देशों पर हमारी निर्भरता घटी? सही मायनों में आज हमारी प्रतिभाएं विकसित देशों की तकनीक की नकल करने को लाचार हैं।
आज हमारे देश में तेरह प्रकार की शिक्षा देने वाले विद्यालय क्रियाशील हैं। यदि देश को हम समान रूप से विकसित करना चाहते हैं तो शिक्षा के क्षेत्र में असमानता समाप्त कर समाज को आपस में जोड़ने के प्रयास करने होंगे। जातीय और आर्थिक रूप से विभाजित विभिन्न वर्गों के बच्चे जब एक साथ पढ़ेंगे तो आपसी समन्वय, समझदारी व संवेदना के सूत्रा मजबूत होंगे और आत्मीयता भी बढ़ेगी? आरक्षण नीति अमल में लाने का भी यही लक्ष्य था कि भारतीय समाज में सदियों से व्याप्त सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक असमानता दूर होकर सामाजिक न्याय की स्थापना हो? लेकिन असामनता और प्रगाढ़ हुई, इसके भौतिक कारकों में गरीबी के साथ असमान व अंग्रेजी शिक्षा भी एक कारक है।
पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा के चलते हमने व्यावहारिक उपयोग में लाए जाने वाले ज्ञान की भी उपेक्षा की? यहां तक की ज्ञान के अक्षुण भण्डार रहे प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य को भी हेय दृष्टि से देखा और नैतिक शिक्षा के मामले में तो हम सर्वथा चूक ही गए? सवाल यहां यह भी उठता है कि अभिजात वर्ग को शिक्षा देने वाले पब्लिक स्कूलों में सुसंस्कार और राष्ट्रीय चरित्रा निर्माण हेतु शालीन नागरिक का निर्माण हो रहा है? यही हमारी धरोहर हैं जो हमें आत्मसम्मान देती हैं और इसीलिए भारत दुनिया के लिए अनुकरणीय माना जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में चुका दिए गए इन अवसरों को समान शिक्षा से हासिल किया जा सकता है। नीतिश कुमार की समान शिक्षा की पहल स्वागत योग्य कदम है।
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