(पिछले अंक से जारी…) सर्ग - 5 राजा की मृत्यु हुई, शोक ग्रस्त सब राज। बिन राजा कैसे चलें, लोक तंत्र के काज।। चेन्नम्मा चिंतित बड़ी, मंत्री...
सर्ग - 5
राजा की मृत्यु हुई, शोक ग्रस्त सब राज।
बिन राजा कैसे चलें, लोक तंत्र के काज।।
चेन्नम्मा चिंतित बड़ी, मंत्री भी बेचैन।
अब रक्षा कित्तूर की, सता रही दिन-रैन।।
बनें राज कित्तूर के, उचित नहीं युवराज।
लेकिन, रानी जानती, युग के रीति-रिवाज।।
दिया नहीं युवराज को, राजतिलक सम्मान।
तो जनता कित्तूर की, सहे नहीं अपमान।।
भड़क उठेगा राज्य में, फिर सीधा विद्रोह।
गुटबन्दी पैदा करे, अन्दर-बाहर द्रोह।।
खाली सिंहासन रहे, उचित नहीं है सोच।
दुश्मन की हर दृष्टि में, राज्य बनेगा पोच।।
सिंहासन खाली पड़ा, थे युवराज विकल्प।
अब राजा के रूप में, शिवलिंग लें संकल्प।।
दूर दृष्टि निर्णय किया, किन्तु नहीं आसान।
मानो रानी ने रखा, हृदय पर पाषाण।।
महाराजा कित्तूर के, अब होंगे युवराज।
‘शिवलिंग रूद्रसर्ज’ को चेन्नम्मा दे ताज।।
रानी ने की मंत्रणा, बैठ साथ दीवान।
राजतिलक युवराज का, शीघ्र करें श्रीमान।।
गाँव-गाँव कित्तूर के, चला गया सन्देश।
राजतिलक युवराज का, रानी करें विशेष।।
समय, दिवस, तिथि शोध कर, ग्रहकर लिये मिलान।
राजतिलक युवराज का, तनने लगा वितान।।
नगर सजा कित्तूर का, सजे सभी बाजार।
राजमहल-दरबार-पथ, सजते तोरण - द्वार।।
भवन पताका उड़ रहीं, फैली बन्दनवार।
बेशकीमती सज रहे, दान हेतु उपहार।।
विधि विधान से हो गया, राजतिलक युवराज।
शिवलिंग अब कित्तूर के, बने महा अधिराज।।
सन्त-साधुओं ने किया, राजतिलक का काज।
मंत्रपाठ, विधि कर्म से, पहनाया फिर ताज।।
दिया दीन-असहाय को, वस्त्र-भोज का दान।
रचनाकारों का किया, विविध भाँति सम्मान।।
राजपंडितों को दिये, मनचाहे उपहार।
साधु-सन्त-सरदार सब, मान रहे उपकार।।
चेन्नम्मा ने सब किये, भली-भाँति सन्तुष्ट।
मिला न कोई राज्य में, रहा जो असन्तुष्ट।।
जय रानी! कित्तूर की, जय राजा! कित्तूर।
धरती से आकाश तक, गूँजी जय कित्तूर।।
शंख, ढोल, तुरही बजें, शहनाई औ’ चंग।
भजन-कीर्तन हो रहे, बाजें - साज मृदंग।।
घर-घर मंगलगीत की, ध्वनि गूँजी आकाश।
फैल रहा सब ओर था, दीपों का प्रकाश।।
झूम रहा कित्तूर था, हो खुशियों में चूर।
इधर चेन्नम्मा महल में, थी कितनी मजबूर।।
राजा के ग़म ने किया, उसे बड़ा असहाय।
अब रक्षा कित्तूर की, करती कौन उपाय?
क्या होगा कित्तूर का, उठते मनो विचार।
कुछ घर की कमजोरियाँ, पैदा करें विकार।।
चेन्नम्मा थी जानती, कैसे हैं युवराज?
पर, घर की मजबूरियाँ, दिया राज औ’ ताज।।
रानी को युवराज से, अधिक नहीं थी आस।
राज-धर्म-निष्ठा नहीं, जुड़ता क्यों विश्वास।।
रानी-मन शंका पली, सहज नहीं निर्मूल।
सब लक्षण युवराज के, थे कितने प्रतिकूल।।
कहाँ पिता की वीरता? कहाँ प्रजा की क्षेम।
मद्यपान-शतरंज से, करते हरपल प्रेम।।
सुरा-सुन्दरी का नशा, चढ़ा रहे दिन-रात।
राज काज की बात से, लगता था आघात।।
चाटुकार-मक्कार जो, कहते लेते मान।
उनके ही संकेत पर, राजा लें संज्ञान।।
मल्लप्पा सेट्टी बना, राजा का दीवान।
साथ वेंकटराय को, बना दिया प्रधान।।
ये दोनों युवराज के, चाटुकार-मक्कार।
अँग्रेज़ों से जुड़े थे, इनके सीधे तार।।
वप़फादार अंग्रेज के, पाते पैसा-भोज।
हर घटना की सूचना, पहुँचाते थे रोज।।
दोनों अतिशय स्वार्थी, धूर्त और ग़द्दार।
लेकिन, राजा के बने, विश्वासी सरदार।।
सिद्दप्पा दीवान की, चुगली करते नित्य।
झूंठी-सच्ची बात गढ़, बतलाते दुष्कृत्य।।
इनके ही संकेत पर, राजा करते काम।
जनता में छवि हो गयी, राजा की बदनाम।।
चेन्नम्मा यह देखकर, करती थी अफसोस।
किंकर्तव्यविमूढ़-सी, हृदय रहें मसोस।।
महाराज से एक दिन, रानी ने की बात।
जनता की मन-भावना, समझायी कह तात।।
उन दोनों दीवान की, बतलायी करतूत।
चेन्नम्मा ने दे दिये, साक्ष्य सभी मजबूत।।
बुरे दिनों के फेर में, सही न लगती बात।
सीधी हित की बात भी, करती मन पर घात।।
रानी के आरोप सब, राजा किये निरस्त।
मनो राज कित्तूर का, हुआ सूर्य अस्त।।
उलट-पुलट होने लगे, जनता के सब काम।
शनैः-शनैः राजा हुये, जनता में बदनाम।।
जनता में पैदा हुये, भाँति-भाँति मन-रोग।
राजा के आदेश सुन, मुस्काते सब लोग।।
कब राजा ने खो दिया, जनता का विश्वास।
राजा मनो अबोध था, समझ रहा मधुमास।।
मल्लप्पा औ’ वेंकट, चलें नित्य ही चाल।
राजा की छवि कर रहे, जनता में बदहाल।।
रानी की हर योजना, दोनों करते फेल।
राजा-जनता में नहीं, होने देते मेल।।
सत्ता बनकर रह गयी, मानो क्रूर मजाक।
रानी हतप्रभ सोचती, देखें सभी अवाक।।
राजा की दुर्नीति का, ऐसा पड़ा प्रभाव।
राजकोष घटने लगा, होने लगा अभाव।।
जनता, व्यापारी, श्रमिक, नौकर और किसान।
लगा सभी पर कर दिये, दुगुना किया लगान।।
रानी से पूछे बिना, लगा दिये अधिभार।
त्राहि-त्राहि करने लगी, जनता दर्द पुकार।।
इधर मल्लप्पा कर रहा, फेल राज का तंत्र।
उधर वेंकट रच रहा, गोरों से षड्यंत्र।।
भेज दिया कित्तूर को, गोरों ने प्रस्ताव।
चेन्नम्मा ने जब सुना, आया सुनकर ताब।।
भेज सेविका को दिया, गुरूसिद्दप्पा पास।
बुला लिया दीवान को, दिया सन्देशा खास।।
अँग्रेज़ों ने पत्र लिख, दिया राज-संदेश।
सुनो! राज-कित्तूर के, सरकारी आदेश।।
हुई राज कित्तूर की, सीमायें कमजोर।
बढ़ी सुरक्षा माँग है, जनता की पुरजोर।।
हम जनता की माँग का, करते हैं सम्मान।
व्यापक हित में देश के, भेजा है फरमान।।
गोरों की सेना रहे, रक्षा हित कित्तूर।
खर्च वहन कित्तूर को, करना पड़े जरूर।।
साथ-साथ प्रतिवर्ष ही, विपुल राशि अधिभार।
राज - कोष - कित्तूर से, ले गोरी-सरकार।।
खानापुर पर रहेगा, गोरों का अधिकार।
अँग्रेज़ों की शर्त ये, करनी सब स्वीकार।।
चेन्नम्मा ने पढ़ लिया, अंग्रेजी फरमान।
रोम-रोम में देह की, भड़क उठे अरमान।।
उधर मल्लप्पा ने भरे, राजा जी के कान।
अँग्रेज़ों की शर्त सब, लीं राजा ने मान।।
चेन्नम्मा से राज हित, किया न तनिक विमर्श।
भेज कमिश्नर को दिया, उत्तर लिखित सहर्ष।।
मल्लप्पा और वेंकट, मन में अति प्रसन्न।
सफल योजना सब हुई, कूट चाल सम्पन्न।।
मल्लप्पा की चाल में, फँसा राज कित्तूर।
अँग्रेज़ों ने कर दिया, राजा को मजबूर।।
वेंकट ने पहुँचा दिया, लिखित कूट सन्देश।
मान लिया कित्तूर ने, गोरों का आदेश।।
रानी को चलता पता, इससे पहले काम।
मल्लप्पा और वेंकट, गुपचुप किये तमाम।।
बुला मल्लप्पा को लिया, साथ वेंकट राय।
चेन्नम्मा ने डांटकर, बतला दी निजराय।।
रानी बोली गरजकर, सुनो! धूर्त-मक्कार।
अंग्रेजी-सत्ता मुझे, कभी न हो स्वीकार।।
जब तक ताकत देह में, रोम-रोम में प्रान।
‘भारत माता की क़सम’, लूँ गोरों की जान।।
अपने आका से कहो, रानी का सन्देश।
कुशल चाहते हैं अगर, भागें अपने देश।।
भभक उठीं चिंगारियाँ, निकले तीखे बोल।
पड़े चुकाना एक दिन, गद्दारों को मोल।।
जनता ही कित्तूर की, देगी तुमको दण्ड।
देश द्रोह की सजा है, केवल मृत्यु प्रचण्ड।।
तुम जैसे ग़द्दार ही, करते नहीं विरोध।
देश-विरोधी चाल का, रानी ले प्रतिशोध।।
चेन्नम्मा बोली कड़क, डूब मरो मक्कार।
अँग्रेज़ों के पिट्ठुओं! भारत के ग़द्दार।।
क्रोधित रानी देखकर, खिसक गये चुपचाप।
कहीं क्रोध की ज्वाल ही, निगल न जाये आप।।
गुरूसिद्दप्पा को सभी, बता दिया मन्तव्य।
रानी ने मन की व्यथा, कही नीति, गन्तव्य।।
डूबा भोग-विलास में, राजा औ’ परिवार।
देश भक्ति की भावना, मनो गयी थी हार।।
बात राज-हित की रहे, अथवा जन-कल्यान।
चेन्नम्मा की बात पर, राजा देय न ध्यान।।
आये दिन बढ़ता गया, अंग्रेजी-हस्तक्षेप।
आखिर राजा कब तलक, रह पाते निरपेक्ष।।
स्वाभिमान कित्तूर का, करता खड़ा विलाप।
हाय! स्वातंत्र्य-भावना, किससे करे मिलाप।।
अँग्रेज़ों के पक्षधर, थे मुट्ठी भर लोग।
शुद्ध देह कित्तूर की, बने यही थे रोग।।
उमड़ कल्पना में रहा, ख़तरों का तालाब।
रानी शंकित थी बड़ी, आ न जाय सैलाब।।
मन में चिन्ता थी भरी, सूझे नहीं विकल्प।
हाय! राम कैसी करी, टूट रहा संकल्प।।
चाटुकार-ग़द्दार को, होता तनिक न खेद।
भले-बुरे में ये नहीं, करें तनिक भी भेद।।
नहीं मान-अपमान का, इनको रहता ध्यान।
श्वान-सरीखी जिन्दगी, इनकी करे गुमान।।
गद्दारों की भूमिका, पैदा करती खोट।
घर या देश-समाज हो, कर देती विस्फोट।।
देश भक्त कितने मिटे, हुए शहीद अनाम।
गद्दारों की भूमिका, पीड़ित देश-अवाम।।
आज राज कित्तूर को, कैसा मिला मुकाम?
गद्दारों की चाल से, होने चला गुलाम।।
दोनों नित जाकर भरें, राजा जी के कान।
बढ़ा-चढ़ाकर बात की, राजा लेते मान।।
बात-घात करते रहें, चेन्नम्मा के विरुद्ध।
राजा को लगती बड़ी, हित-सी बात विशुद्ध।।
दोनों ने चाहा बहुत, खण्डित हो विश्वास।
वह राजा क्या कर सके, जो अक्षम-अय्याश।।
पानी से पानी मिले, मिले कींच से कींच।
शीत युद्ध-सा चल रहा, राजमहल के बीच।।
घर में जब अनबन रहे, वैचारिक टकराव।
तो निश्चित यह जान लो, होना है बिखराव।।
हाय! संकट राज पर
परतंत्रता का छा गया।
लीलने अंग्रेज भारत
राहु बनकर आ गया।
युक्ति रानी सोचती,
लेकिन, विवश, असहाय थी।
परिजनों की मूर्खता
रह गयी निरूपाय थी।
नियति ले आयी उसे
हाय! अन्धे मोड़ पर।
प्रश्न का अम्बार था
उस अनूठे छोर पर।।
भाग्य औ’ भगवान केवल
सोच के आधार थे।
उपहास करती बेबसी।
प्राण बस संचार थे।
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सर्ग - 6
राजा को चिन्ता नहीं, वह क्यों बदले सोच?
रानी चेन्नम्मा उन्हें, कहे भले ही पोच।।
समय बीतता जा रहा, संकट बढ़ता जाय।
अंग्रेजी-साम्राज्य का, राहू ग्रसता आय।।
शिवलिंग रूद्रसर्ज को, मिली एक सन्तान।
देख अलौकिक पुत्र को, कहें धन्य! भगवान।।
फ्रुल्लित होते बड़े, देख सुत महाराज।
क्योंकि मिला कित्तूर को, यथा समय युवराज।।
सब लक्षण नवजात के, लगते देव समान।
निश्चित ही कित्तूर की, थामे यही कमान।।
पहनाया कित्तूर का, जब राजा को ताज।
रानी तब से थी दुखी, देख दुर्दशा राज।।
पति-बेटा की मृत्यु से, रानी रहीं उदास।
रूद्रसर्ज के पुत्र से, पुनः बँध गयी आस।।
देख बाल युवराज को, होते सभी विभोर।
बच्चे की किलकारियाँ, मन में भरें हिलोर।।
करता बाल मराल था, तुतली-तुतली बात।
होनहार विरबान के, ज्यों हों चिकने पात।।
छाया था कित्तूर में, घर बाहर आमोद।
मात-पिता-परिवार के, मन में भरा प्रमोद।।
लेकिन, होता है वही, जो रच राखा राम।
काल-चक्र चलता रहे, करता अपना काम।।
एक वर्ष कुछ माह का, अभी हुआ था लाल।
हाय! राज-कित्तूर को, डंसने आया काल।।
ज्वर से पीड़ित हो गया, नन्हा बाल मराल।
शिशु को लेने आ गया, मानो काल कराल।।
वैद्य-चिकित्सा शास्त्र भी, असफल हुये तमाम।
ज्वर से पीड़ित बाल के, आये तनिक न काम।।
घोर आस्था-प्रार्थना, व्यर्थ हुये उपचार।
दवा-दुआ-उपवास-जप, गये अन्ततः हार।।
प्रात काल में एक दिन, मृत्यु उठी हुंकार।
आँख न खोली लाल ने, परिजन रहे पुकार।।
चिर निद्रा में सो गया, रूद्रसर्ज का लाल।
एक बार कित्तूर को, जीत गया फिर काल।।
राजमहल में छा गया, क्रंदन चारों ओर।
टूट गया वह आखिरी, हा! ममता का छोर।।
हाय! हाय! दुर्दैव रे! कहाँ छुप गया भोर।
धरती से आकाश तक, मचा हुआ था शोर।।
डूब आँसुओं में गया, शिवलिंग का परिवार।
मूर्च्छित चेन्नम्मा गिरी, दुख के पारावार।।
सारे परिजन रो रहे, रोता था कित्तूर।
पलक झपकते हो गयी, खुशियाँ सब काफूर।।
राजा-रानी को सभी, ढाढ़स रहे बंधाय।
नियति-काल-प्रारब्ध के, करूण प्रसंग-सुनाय।।
धीरे-धीरे मृत्यु को, बीत गये कुछ माह।
शनैः-शनैः कम हो रही, उर में बैठी आह।।
पुत्र-निधन के बाद से, राजा थे बदहाल।
डूबे रहते शोक में, बिगड़ गया तन-हाल।।
ज्यों लकड़ी में घुन लगे, अन्दर करता काट।
त्यों चिन्ता महाराज का, बदन रही थी चाट।।
धीरे-धीरे हो रहे, रूद्रसर्ज कृश्काय।
मानो उन पर काल की, छाया ज्यों मंडराय।।
बदले राज-विचार सब, पुत्र-निधन के बाद।
परिवर्तित व्यवहार अब, पड़ती धूमिल याद।।
खोया-खोया-सा लगे, राजा का व्यवहार।
राज महल-दरबार का, भूल गये आचार।।
पल-पल राजा को करे, जड़ता अब बेचैन।
राजमहल-दरबार हो, पड़ता कहीं न चैन।।
बिना पुत्र के जिन्दगी, हाय! हो गयी व्यर्थ।
बिना पुत्र-युवराज के, राजा का क्या अर्थ??
राजा के मन में उठें, रह-रह कई विचार।
क्या होगा कित्तूर का, कहता मनो विकार??
भला-बुरा सोचा कहाँ, किये नित्य ही पाप।
अपने हाथों काट ली, अपनी गर्दन आप।।
राजा बन कित्तूर का, भूल गये आचार।
जनता-परिजन का कभी, माना क्या आभार??
समय-चूक होती अगर, मिलती नहीं सहाय।
चुका-समय आता नहीं, कर लो लाख उपाय।।
पछताते राजा बहुत, सोच-सोच निज कृत्य।
घूम रहे मस्तिष्क में, एक-एक दुष्कृत्य।।
सोच-सोच नृप हारते, लेती नींद उचाट।
कर्मों का फल क्यों रूके, पीड़ा बड़ी सपाट।।
लाख भुलाना चाहते, विगत हुये दुष्कर्म।
पर, देता संचेतना, रह-रह मानव-धर्म।।
राजा दृढ़ निश्चय किया, करें प्रायश्चित अन्त।
यश फैले कित्तूर का, फिर से दिशा-दिगन्त।।
गोरों की आधीनता, करें नहीं स्वीकार।
जाय भले यह जिन्दगी, जीत मिले या हार।।
पता नहीं, यह जिन्दगी, कब हो जाये अन्त?
हाय! राज कित्तूर को, कौन बचाये सन्त??
इसीलिए, कित्तूर हित, लें बालक को गोद।
बना उसे युवराज ही, दें प्रजा को मोद।।
अब तो केवल शेष है, अन्तिम यही उपाय।
बाल किसी का गोद लें, लें कित्तूर बचाय।।
राजा ने मन में किया, दृढ़ निश्चय चुपचाप।
बालक लेकर गोद अब, दूर करें अभिशाप।।
राजा-रानी ने किया, निर्णय यही पवित्र।
बुला चेन्नम्मा से कहा, मन का भाव विचित्र।।
आँखों में आँसू भरे, कहा चेन्नम्मा मात!
रूद्रसर्ज की कीजिए, क्षमा बाल-सी घात।।
माता! जो अच्छा लगे, करिये वही उपाय।
चंगुल से अंग्रेज के, लो कित्तूर छुड़ाय।।
क्षमा चेन्नम्मा ने किये, शिवलिंग के दुष्कर्म।
निभा आँसुओं ने दिया, राज मात का धर्म।।
तीनों ने की मंत्रणा, सुदृढ़ किये विचार।
कार्य रूप परिणत करें, कैसे भली प्रकार।।
रखें योजना गुप्त सब, जब तक पूर्ण न होय।
राज महल की मंत्रणा, जान सके नहिं कोय।।
महाराज के सखा थे, राजा गौंड नरेश।
लेंगे उनके पुत्र को, दत्तक बना विशेष।।
विधि विधान के साथ में, लिया बाल को गोद।
पुत्र मान युवराज-पद, उसको दिया समोद।।
कई दिनों तक महल में, उत्सव चला विशेष।
रहा विशिष्ट का आगमन, प्रतिबंधित प्रवेश।।
खुशियाँ छायीं महल में, हुये मंगलाचार।
किया पंडितों का सभी, राजा ने आभार।।
दीन-दुखी-असहाय को, दिये वस्त्र-आहार।
साधु-सन्त-विद्वान सब, दिये दान उपहार।।
राज सहित कित्तूर के, हर्षित थे सब लोग।
करते मंगल कामना, लगा ईश को भोग।।
मल्लप्पा और वेंकट, रचें उधर षड़यंत्र।
अँग्रेज़ों के कान में, फूँक दिया जा मंत्र।।
अँग्रेज़ों की कम्पनी, करे कमिश्नर राज।
देख रहा था थैकरे, सब सरकारी काज।।
भेज दिया कित्तूर को, उसने लिखकर तार।
दत्तक-सुत-युवराज यह, उन्हें नहीं स्वीकार।।
बिन अनुमति कित्तूर ने, दत्तक ली सन्तान।
इसे हुकूमत मानती, गोरों का अपमान।।
रूद्रसर्ज कित्तूर के, अभी तक महाराज।
पुत्र निधन के बाद में, कहाँ रहा युवराज??
रूद्रसर्ज के बाद में, कौन करेगा राज?
यह निर्णय अंग्रेज का, है सरकारी काज।।
रहा नहीं कित्तूर को, निर्णय का अधिकार।
राजा ले सकते नहीं, दत्तक-सुत-उपहार।।
यदि राजा मानें नहीं, पैदा करें जुनून।
तो, गोरी सरकार फिर, दण्ड देय कानून।।
जिस क्षण राजा को मिला, अंग्रेजी-फरमान।
मुखपर उड़ीं हवाइयाँ, लुप्त हुई मुस्कान।।
राजमहल को आ गये, छोड़ बीच दरबार।
आकर शैय्या पर गिरे, पर्वत ज्यों साकार।।
राजा के मन पर हुआ, मनो कुठाराघात।
पुत्र शोक भूले नहीं, प्रखर हुआ आघात।।
हुआ भयानक भूल का, राजा को अहसास।
चेन्नम्मा की मानता, होता क्यों उपहास??
सजा मिले कित्तूर को, हाय! हुई जो भूल।
युगों-युगों तक चुभेंगे, ना समझी के शूल।।
घोर ग्लानि नृप को हुई, करते पश्चाताप।
पता नहीं कब बढ़ गया, उच्च रक्त का चाप।।
भेज सेविका को दिया, कह चेन्नम्मा पास।
बुला रहे नृप आपको, शैय्या पड़े उदास।।
राजा हैं चिन्तित बड़े, शिथिल पड़े पर्यंक।
कोस रहे हैं भाग्य के, एक-एक कर अंक।।
राज मात! जल्दी चलो, राजा हुये निढ़ाल।
हाय! राज कित्तूर का, आज हुआ बदहाल।।
सुना सेविका ने दिया, राजा का सन्देश।
चेन्नम्मा पहुँची वहाँ, नृप के कक्ष विशेष।।
राजा के कानों पड़े, चेन्नम्मा के बोल।
धार आँसुओं की बही, पट हृदय के खोल।।
हाथ जोड़ कुछ बोलते, बोल हुये अवरूद्ध।
कही आँसुओं ने सभी, उर की व्यथा विशुद्ध।।
रानी को संकेत से, सौंप दिया वह तार।
नैनों से बहने लगी, अविरल आँसू-धार।।
इधर तार पढ़कर हुई, चेन्नम्मा अति मौन।
उधर किये महाराज के, प्राण-पखेरू गौन।।
गोरों की अति नीचता, समझ गयी वह चाल।
बदन-क्रोध से हो गया, चेन्नम्मा का लाल।।
टुकड़े-टुकड़े कर दिया, चेन्नम्मा ने तार।
भला सिंहिनी मानती, कब गीदड़ से हार।।
सभी शेर के सामने, रहे झुकाते माथ।
गीदड़ की औकात क्या, डाले उस पर हाथ।।
किसको लेना गोद है, कौन बने युवराज?
गोरे होते कौन है? पहने कोई ताज।।
गोरों से हम क्यों डरें, क्या कित्तूर गुलाम?
शूर वीर कित्तूर के, जनता वीर तमाम।।
भारत में कित्तूर का, गौरवमय इतिहास।
जन-जन में कित्तूर के, आजादी का वास।।
तन-मन से कित्तूर को, जनता करती प्यार।
आजादी कित्तूर की, जनता का शृंगार।।
झुके नहीं, मिटना भला, स्वाभिमान की पुँज।
जनता को कित्तूर है, ज्यों नन्दन वन-कुँज।।
जन-जन की रग में भरा, आजादी का खून।
जनता में कित्तूर की, रहता सदा जुनून।।
अँग्रेज़ों के सामने, झुके नहीं कित्तूर।
चेन्नम्मा को झुकादे, पैदा हुआ न शूर।।
अँग्रेज़ों की नीति का, रानी में आक्रोश।
प्रतिक्रिया कर तार पर, चेन्नम्मा ख़ामोश।।
ध्यान अचानक ही गया, फिर राजा की ओर।
मौन पड़े पर्यंक पर, हिले न तन का छोर।।
रही सोचती देर तक, राजा क्यों खामोश?
वाणी ओजस्वी सुनी, लेश न आया जोश।।
रानी-मन शंका हुई, कहीं हुआ आघात।
‘राजा’ कह आवाज दी, सुनो हमारी बात।।
राजा कुछ बोले नहीं, रहे फड़कते ओठ।
मानो हृदय पर लगी, उनको भारी चोट।।
राजा को देखा-हुई, चेन्नम्मा बेचैन।
बदन पड़ा निश्चेष्ट था, रहे अधखुले नैन।।
निकल तनिक पाये नहीं, अधरों से दो बोल।
मनो तड़पकर रह गये, प्राण गये ज्यों डोल।।
‘हाय राम!’ के साथ ही, मुख से निकली चीख।
सुन ‘वीरब्बा’ आ गयी, शयन कक्ष के बीच।।
बुला चेन्नम्मा ने लिए, राज वैद्य-दीवान।
देख दशा महाराज की, वैद्य हुये हैरान।।
नाड़ी-हृदय का किया, वैद्य-परीक्षण साथ।
देखीं आँखें खोलकर, रखा भाल पर हाथ।।
राज वैद्य कहने लगे, ‘अब क्या होय सुधार?
राजा सबको छोड़कर, गये स्वर्ग सिधार।।
राजा जी की देह में, प्राण नहीं हैं शेष।
राजा अब कित्तूर के, हुए हैं स्मृति शेष।।
रानी धरती पर गिरीं, सुनी वैद्य की बात।
हा! महलों में छा गयी, पल में ग़म की रात।।
महलों में मचने लगी, पल में चीख-पुकार।
परिजन सारे रो रहे, छाया हा-हाकार।।
चेन्नम्मा समझा रहीं, वीरब्बा को मौन।
जीवन के अभिलेख को, बदल सका है कौन??
देख पुत्र की लाश को, ‘रूद्रब्बा’ निरूपाय।
आँखों से आँसू झरें, हा! कितनी असहाय।।
महलों में छाया रहा, अतिशय घोर विलाप।
हा! जीवन की त्रासदी, हा! कितना संताप।।
राजा को अन्तिम विदा, दिया राज-सम्मान।
पंच तत्व में मिल गया, रूद्र सर्ज-दिनमान।।
हुई दिवंगत आत्मा, पूर्ण हुये सब काम।
हवन-जाप-गृह-स्वच्छता, पूरे किये तमाम।।
आने पर खुशियाँ मनें, जाने पर हो शोक।
सुख-दुख जीवन की नियति, कोई सके न रोक।।
आने पर संसार में, भाँति-भाँति के चित्र।
मन मोहक लगते बड़े, रिश्ते सभी विचित्र।।
आता खाली हाथ है, जाता खाली हाथ।
थोड़ा-सा वैभव मिला, उच्च समझता माथ।।
सब बंदे भगवान के, सबका एक रसूल।
सिंहासन पर बैठकर, आते याद उसूल।।
वैभव पा भगवान को, पल में जाता भूल।
दुख के जंगल में फँसे, चुभने लगते शूल।।
सुख-दुख हैं परमात्म के, दायें-बायें हाथ।
हाथ कभी क्या छोड़ते, कहीं मनुज का साथ।।
हाय! मनुज ही हाथ को, दे संकट में डाल।
कटें-फटें जब हाथ तो, झुक जाता है भाल।।
हम-सब ईश्वर अंश हैं, उसकी हैं सन्तान।
वैभव पा कहता मनुज, स्वयं को भगवान।।
मात-पिता इस सृष्टि का, जड़-चेतन का प्राण।
उसे न भूले आदमी, बन जाता संप्राण।।
मनुज भूलकर ईश को, बनता माई-बाप।
जीवन-भर फिर भोगता, रिश्तों का अभिशाप।।
सुख-दुख दोनों में रहे, परमेश्वर की टेक।
रूप भले ही कुछ रहे, लक्ष्य रहे पर एक।।
भला-बुरा जो कुछ करो, करो उसी के नाम।
सुख-दुख जो कुछ भी मिले, रहे समर्पण राम।।
स्वामी-सेवक का रहे, ईश्वर से सम्बन्ध।
शिथिल न होने दे कभी, जीवन भर अनुबन्ध।।
सुख-दुख दोनों की रहे, ईश्वर हाथ कमान।
सुख-दुख दोनों में रहे, मानव एक समान।।
हमको भेजा ईश ने, दिया प्रयोजन साथ।
पूर्ण प्रयोजन जब हुआ, ईश खींचता हाथ।।
राजा का भी हो गया, पूर्ण प्रयोजन काल।
चिरनिद्रा में सो गया, मल्लसर्ज का लाल।।
चलते-चलते लिख गये, रूद्रसर्ज संदेश।
चेन्नम्मा कित्तूर की, रानी बनें विशेष।।
बागडोर कित्तूर की, लें चेन्नम्मा हाथ।
अन्तिम इच्छा राज की, सब दें उनका साथ।।
गोद लिया जो बाल है, होगा वह युवराज।
तब तक तो कित्तूर का, करें चेन्नम्मा काज।।
राजा की मृत्यु हुई, पैदा हुआ विवाद।
क्या होगा कित्तूर का, घर-घर चला प्रवाद।।
सिंहासन कित्तूर का, रानी लिया संभाल।
जनता के विश्वास को, फिर से किया बहाल।।
रानी ने जोड़े सभी, फिर से टूटे तार।
ओढ़ लिया कित्तूर का, चेन्नम्मा ने भार।।
बुला लिये कित्तूर के, सभी प्रमुख सरदार।
रक्षा-हित कित्तूर की, करने हेतु विचार।।
बालण्णा व रायण्णा, रहे उपस्थित साथ।
रक्षा राज दरबार की, दी दोनों के हाथ।।
चेन्नम्मा कहने लगी, सुनो! सभी रणवीर।
हरनी है कित्तूर की, सबको मिलकर पीर।।
अँग्रेज़ों की दृष्टि अब
कित्तूर पर है लगी।
हड़पने को राज्य यह,
कूट चाल है चली।।
इसलिए, रहना पड़ेगा
हर समय हमको सचेत।
धूर्त्त सब अंग्रेज हैं
रहते नहीं हैं वे अचेत।।
राज्य में ग़द्दार कुछ
दे रहे गोरों का साथ।
रोकना उनको पड़ेगा,
काटने उनके भी हाथ।।
वांछित तैयारियाँ भी
युद्ध की करनी पड़ें।
सम्मान को कित्तूर की,
हम समर्पण से लड़ें।।
विदा किया, सबको दिये, आवश्यक निर्देश।
चेन्नम्मा तैयारियाँ, करने लगी विशेष।।
जनता में कित्तूर की, फूँक दिया यह मंत्र।
नहीं चाहते देखना, गोरे हमें स्वतंत्र।।
इसीलिए, करना पड़े, अब गोरों से युद्ध।
करें सभी तैयारियाँ, रक्षा हेतु विशुद्ध।।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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