(पिछले अंक 3 से जारी…) सर्ग - 4 चेन्नम्मा रानी बनी, हुआ सार्थक नाम। देवी सुख-समृद्धि की, मिला वीरता धाम।। चेन्नम्मा का आगमन, मनो बसंत बह...
सर्ग - 4
चेन्नम्मा रानी बनी, हुआ सार्थक नाम।
देवी सुख-समृद्धि की, मिला वीरता धाम।।
चेन्नम्मा का आगमन, मनो बसंत बहार।
खुशहाली कित्तूर की, वैभव बढ़ा अपार।।
चेन्नम्मा का राज में, बढ़ा बहुत सम्मान।
नर-नारी कित्तूर के, मानें मात समान।।
चेन्नम्मा ने राज का, बदला सहज प्रवाह।
जन-जन में भरने लगी, नव जीवन उत्साह।।
अँग्रेज़ों की शक्ति का, रानी को था ज्ञान।
पर, ताकत कित्तूर की, होना था संज्ञान।।
वाणी औ’ व्यवहार में, हैं अंग्रेज अशुद्ध।
करें राज कित्तूर से, निश्चित युद्ध विरूद्ध।।
चेन्नम्मा ने कर लिया, मन में दृढ़ संकल्प।
अँग्रेज़ों से युद्ध के, पैदा करें विकल्प।।
देश भक्ति की भावना, वीर समर्पित प्यार।
हों अनुपम कित्तूर में, गोरे जायें हार।।
युद्ध-युद्ध की कला का, राज बने इतिहास।
नर-नारी बालक सभी, नित्य करें अभ्यास।।
गुरूसिद्दप्पा दीवान संग, की राजा से बात।
घोर मंत्रणा कर कहा, अँग्रेज़ों की घात।।
उच्च लक्ष्य की प्राप्ति हित, राज्य सुरक्षा हेतु।
बनवाने कित्तूर को, तरह-तरह के सेतु।।
युद्ध कला का राज्य को, देना है संज्ञान।
इसीलिए कित्तूर में, बने बड़ा मैदान।।
हाथी-घोड़े-तोप सब, अस्त्र-शस्त्र हथियार।
कारतूस-बारूद का, हो अतुलित भण्डार।।
तलवारें-भाले-छुरा, बल्लम औ’ बन्दूक।
सभी उपकरण युद्ध के, संजो रखें सन्दूक।।
अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण, चले दिवस औ’ रात।
बिना किसी मतभेद के, सीखेंगी हर जात।।
दिन में सीखें नारियाँ, रात पुरूष की होय।
सफल प्रशिक्षण लें सभी, बालक बचे न कोय।।
रसद और आवास का, हो व्यापक अनुबंध।
भरें सभी आगार में, प्रचुर हों प्रबंध।।
देश द्रोह, ग़द्दार पर, राजा कसें लगाम।
मुखबिर औ’ जासूस पर, सख्ती करें तमाम।।
देश द्रोह की सजा हो, मिले मृत्यु का दण्ड।
चप्पे-चप्पे पर रहे, निगरानी प्रचण्ड।।
सीमाओं की चौकसी, करनी है मजबूत।
रहे ध्यान में देश हित, दुश्मन की करतूत।।
हमें चाहिए राज यदि, सुदृढ़ और स्वतंत्र।
तो विकसित करना पड़े, सही सूचना तंत्र।।
शासक भी करता रहे, भेष बदलकर जांच।
परखें अपनी आँख से, क्या है असली सांच।।
चाटुकार देता सदा, अपयश औ’ अपमान।
ये घातक हर तंत्र को, रखना इन पर ध्यान।।
गाँव-देश-परिवार हों, अथवा शासन तंत्र।
गरल उगलता रात-दिन, चुगलखोर का मंत्र।।
चाटुकार की राय या, चुगलखोर की बात।
वैभव-शासन तंत्र पर, करें मंत्र-सी घात।।
चाटुकार की जब सुनी, राजा हुये शिकस्त।
चुग़लखोर की मानकर, हुये सितारे अस्त।।
राजा-मंत्री राज के, होते नैन व कान।
सुदृढ़ राज-सुराज का, खुफिया तंत्र महान।।
घुसते - खुफिया - तंत्र में, चाटुकार-मक्कार।
चुग़लखोर सबसे बड़े, होते हैं ग़द्दार।।
इनके ही कारण हुये, देश-राज परतंत्र।
सावधान जो भी रहे, युग-युग रहे स्वतंत्र।।
गद्दारों की ख़ासकर, कसनी हमें नकेल।
चले राज कित्तूर-रथ, निकले नहीं चकेल।।
इसीलिए, रहना पड़े, पल-पल हमें सचेत।
तभी राज-कित्तूर का, अक्षुण्ण रहे निकेत।।
चेन्नम्मा की मंत्रणा, राजा हुये प्रसन्न।
गुरूसिद्दप्पा ने कहा, धन्य! धन्य! तुम धन्य!।
राजा का आदेश पा, गुरूसिद्दप्पा दीवान।
कार्य पूर्ण करने जुटे, देश-सुरक्षा जान।
सबसे पहले राज्य में, बना भव्य मैदान।
अन्दर क्या कुछ हो रहा, पड़े नहीं संज्ञान।
ऊँची औ’ मजबूत थी, मैदानी-दीवार।
हाथी पर यदि हो खड़ा, करे न फिर भी पार।।
यहाँ-वहाँ मैदान में, परिसर बने अनेक।
युद्ध कलाएँ सीखने, भव्य एक से एक।।
कहीं निशानेबाजियाँ, कहीं तीर - तलवार।
भाला-बल्लम-छुरा भी, सीखें अश्व - सवार।।
चेन्नू के निर्देश पर, बने सभी मैदान।
मानो ये कित्तूर के, जीवन का वरदान।।
महिलाओं की राज्य में, पलटन की तैयार।
चेन्नम्मा ने दे दिये, नए-नए उपहार।।
चेन्नम्मा ने रच दिया, एक नया इतिहास।
महिला-पलटन युद्ध ने, पाया यहाँ विकास।।
अस्त्र-शस्त्र औ’ अश्व की, पलटन बनीं विशेष।
रानी ने उनको दिये, युद्ध कला-निर्देश।।
सौंप दिया गजवीर को, तोपों का आगार।
किला सुरक्षा का दिया, उसको प्रमुख भार।।
अश्वों की पलटन करी, बालण्णा के नाम।
हाथी-पलटन का दिया, रायण्णा को काम।।
चुन-चुन वीरों को दिये, अलग-अलग संभार।
गुरूसिद्दप्पा को दिया, प्रमुख सुरक्षा भार।।
जनता की हर बात का, रानी रखती ध्यान।
कोई भूखा क्यों मरे? रखती थी संज्ञान।।
जहाँ युद्ध तैयारियाँ, रहीं शून्य को चूम।
वहीं युद्ध-संगीत भी, मचा रहा था धूम।।
युद्ध-कला-साहित्य औ’, ललित कला का ज्ञान।
नैतिक शिक्षा-स्वास्थ्य भी, किये चेन्नू ने दान।।
अबला-बालक-वृद्ध सब, सहें नहीं अपमान।
युवा-युवतियाँ देश का, सदा करें सम्मान।।
जनता में कित्तूर की, भरा त्याग-बलिदान।
सहज भाव पैदा किया, देश-प्रेम-अभिमान।।
मल्लसर्ज यह देखकर, विस्मित हुये तमाम।
रानी चेन्नम्मा उन्हें, लगती वीर ललाम।।
ईश्वर की कृपा बड़ी, सफल हुये सब काम।
रानी अब सन्तुष्ट थी, हुआ सुरक्षित धाम।।
रानी को राजा करें, मन से अतिशय प्यार।
समय-समय पर दें उसे, प्यार भरे उपहार।।
मल्लसर्ज ने किये थे, पहले तीन विवाह।
चौथी रानी रूप में, ‘चेन्नू’ बनी गवाह।।
प्रथम रानी ‘रूद्रव्वा’, जो अति शान्त स्वभाव।
द्वितीय ‘शिवलिंगव्वा’, रखें सन्त समभाव।।
तृतीय रानी ‘नीलम्मा’, गयीं स्वर्ग सिधार।
अब चेन्नम्मा बन गयीं, राजा का शृंगार।।
‘रूद्रव्वा’ मन-साधिका, ‘शिवलिंगव्वा’ सन्त।
जप-पूजा-उपवास में, दिन का होता अन्त।।
दोनों की रूचि थी नहीं, राज-काज में लेश।
धर्म और अध्यात्म में, जाय जिन्दगी शेष।।
दोनों ही साध्वी बड़ीं, अतिशय उच्च विचार।
धर्म-कर्म-स्वभाव में, दोनों रहित विकार।।
साथ-साथ दोनों रहें, निश्छल-सी निष्काम।
लगता रमा निवास था, मानो तीरथ धाम।।
चेन्नम्मा को देखकर, हुआ अमित विश्वास।
ज्यों राजा को मिल गया, ठीक-ठीक सहवास।।
चेन्नम्मा संग ब्याह से, हर्षित हुई अपार।
मानो अब कित्तूर को, मिला सही आधार।।
रूद्रव्वा से राज को, मिले पुत्र दो साथ।
एक काल कवलित हुआ, असमय छोड़ा हाथ।।
एक मात्र जो पुत्र था, रूद्रव्वा का शेष।
बना वही कित्तूर का, अब युवराज विशेष।।
रानी शिवलिंगब्बा थीं, सुन्दर-नेक-महान।
लेकिन माता रूप का, मिला नहीं वरदान।।
मल्लसर्ज कित्तूर के, राजा थे बलवान।
धीर-वीर-अति साहसी, निडर पिता सन्तान।।
दैवयोग बेटा मिला, ‘शिवलिंग सर्ज’ अयोग्य।
धूर्त-निकम्मा-तामसी, क्रोधी अति दुर्योग्य।।
बीस वर्ष की आयु से, गया व्यसन में डूब।
हुई राज-कित्तूर के, मन में भारी ऊब।।
डूबा भोग-विलास में, रात-दिवस भरपूर।
राजा-रानी के हुये, सपने चकनाचूर।।
गद्दारों का राज्य में, पलने लगा गिरोह।
घोर-निराशा-स्वार्थ में, करते यही विद्रोह।।
शिवलिंगरूद्रसर्ज के, ये ही भरते कान।
करते भोग-विलास भी, साथ-साथ मद्यपान।।
रानी चेन्नम्मा का सभी, करते थे गुणगान।
पर, उलटी युवराज की, चलती बड़ी जुवान।।
वह महलों में बैठकर, रचता था षड्यंत्र।
नहीं सुहाता था उसे, चेन्नम्मा का तंत्र।।
बुना जा रहा राज्य में, षड्यन्त्रों का जाल।
चेन्नम्मा सब जानती, गद्दारों की चाल।।
चेन्नम्मा ने राज्य में, फैलाये जासूस।
इसीलिए ग़द्दार सब, रहते थे मायूस।।
चेन्नम्मा को सूचना, मिलती अपने धाम।
कूटनीति के भेदिये, करते रहते काम।।
धर्म-जाति सौहार्द्र से, मिलकर रहते लोग।
अपने-अपने कर्मरत, अपने-अपने भोग।।
सभी धर्म कित्तूर में, पाते आदर भाव।
राज सभी के साथ में, करता सम बर्ताव।।
कई बार युवराज ने, असफल किया प्रयास।
धीरे-धीरे टूटकर, निष्फल हुआ निराश।।
देखराज कित्तूर के, राज-तंत्र की चाल।
चेन्नम्मा सन्तुष्ट थी, लोग सभी खुशहाल।।
खुशियाँ चारों ओर थीं, तृप्त जाति-समुदाय।
लोग फ्रुल्लित थे सभी, दीन-दुखी-असहाय।।
राज बना कित्तूर का, भारत में उपमान।
राजा मल्लसर्ज भी, बने राज दिनमान।।
सुन चर्चा कित्तूर की, चौंक उठे अंग्रेज।
चेन्नम्मा के काम भी, थे हैरत - अंग्रेज।।
कूटनीति रचने लगे, गोरे सब शैतान।
उनको भारत देश के, नृप लगते हैवान।।
पर कतरें कित्तूर के, रहे बहाने खोज।
मल्लसर्ज का देखलें, कितना उनमें ओज।।
रानी के भारी हुये, इसी बीच ही पाँव।
हुई राज-कित्तूर में, खुशियाँ घर-घर गाँव।।
गर्भवती रानी हुई, सुन राजा प्रसन्न।
प्रभु! करना कित्तूर में, वीर एक उत्पन्न।।
प्रभु से करते प्रार्थना, कर पूजा-उपवास।
लौटाना कित्तूर को, फिर उसका मधुमास।।
यों तो सब कित्तूर के, लोग बहुत सन्तुष्ट।
देख-देख युवराज को, रहते मन में रुष्ट।।
चेन्नम्मा से बँधी थी, सबके मन को आस।
करें नहीं कित्तूर को, रानी कभी निराश।।
गर्भवती रानी हुई, नाच उठा कित्तूर।
दूर राज-मन से हुआ, चिन्ता-दर्द जरूर।।
आखिर वह दिन आ गया, पल-पल करके पास।
हुई राज-कित्तूर की, मन की पूरी आस।।
रानी ने पैदा किया, सुन्दर बाल-मराल।
लहर हर्ष की राज्य में, फैल गयी तत्काल।।
राज महल में हो रहे, घर-घर मंगलाचार।
राजा-रानी का सभी, मान रहे आभार।।
कई दिनों तक महल में, उत्सव हुये विशेष।
बदल चुका था राज का, चिन्तामय परिवेश।।
नामकरण उत्सव हुआ, पंडित जुड़े तमाम।
दिया बाल नवजात को, ‘शिव बसवराज’ नाम।।
इधर राज चलता रहा, पलता राज-सुपुत्र।
मनमानी करता उधर, वह युवराज-कुपुत्र।।
कुढ़ता अति युवराज था, देख-देख नवजात।
रानी बड़ी सतर्क थी, चली न कोई घात।।
शनैः-शनैः ही हो गया, बीस वर्ष का लाल।
सुन्दर स्वस्थ शरीर था, उन्नत उसका भाल।।
मात-पिता की भाँति था, बालक राज कुमार।
चेन्नम्मा देती रहीं, शिक्षा का उपहार।।
युद्ध कला घुड़ दौड़ का, दिया उसे संज्ञान।
राजनीति-व्यवहार का, कुशल प्रबंधन ज्ञान।।
युद्ध कला में दक्षता, युवा धीर-गम्भीर।
चेन्नम्मा की भाँति था, निपुण-निडर-बलवीर।।
युवा-पुत्र का देखकर, चेन्नम्मा दिन-रैन।
बाहर से लगती मुदित, पर अन्तर बेचैन।।
शासन के दायित्व में, कट जाते दिन-रात।
सहज हुआ कित्तूर, पर, अन्दर चलती घात।।
आये दिन युवराज तो, करता था छल-छंद।
गद्दारों के रास्ते, किये चेन्नम्मा बंद।।
पुत्र-मोह में रूद्रब्बा, भूली सुत करतूत।
राजा मंत्री-चेन्नम्मा, लगते अब यमदूत।।
तरह-तरह के नित्य ही, करती खड़े प्रवाद।
पुत्र-मोह की भूमिका, पैदा करे विवाद।।
करती अनुजा की तरह, चेन्नम्मा से प्यार।
आज विरोधी हो गयी, भूल गयी मनुहार।।
चेन्नम्मा सब जानती, रानी का व्यवहार।
रूद्रब्बा क्यों कर रही, ऐसा दुर्व्यवहार।।
चेन्नम्मा नित सोचती, क्या विघटन आधार।
रहे समस्या भी नहीं, बना रहे आचार।।
विकट समस्या थी बड़ी, पर दीखा उपचार।
क्यों न बसे युवराज का, पुत्र सहित परिवार।।
परिणय-बंधन में बँधे, जब शिवलिंग युवराज।
तब, माँ-बेटा भूल सब, बदलें अपने काज।।
राजा से की मंत्रणा, खुलकर किया विचार।
करो ब्याह युवराज का, होगा दूर विकार।।
पुत्र सहित युवराज का, परिणय कर दो नाथ!
सुन्दर जीवन-संगिनी, इनके बाँधो साथ।।
मल्लसर्ज हर्षित हुये, किया कर्म निर्बाह।
चेन्नम्मा से कह दिया, कर दो शीघ्र विवाह।।
पुत्र और युवराज के, किये सुनिश्चित ब्याह।
राजा-रानी की हुई, पूरी मन की चाह।।
राजा ने निश्चित करी, सुत-विवाह की बात।
पता रानियों को चला, फूली नहीं अघात।।
यथा समय शुभ लग्न में, सुतद्वय रचे विवाह।
खुशियाँ थीं कित्तूर में, महलों नव उत्साह।।
‘वीरब्बा’ के साथ में, ब्याह हुआ ‘युवराज’।
हुआ ‘जानकी बाइ’ से, ब्याह ‘शिव बसबराज’।।
दोनों वधुएँ थीं सुघड़, स्वस्थ और गुणवान।
यथा नाम अनुरूप थीं, सुशिक्षित प्रज्ञावान।।
राज महल, परिवार सब, खुशियाँ रहा मनाय।
जीवन साथी देखकर, फूले नहीं समाय।।
डूब रहा सुख-सिन्धु में, ब्याह बाद परिवार।
पल भर की कुछ क्या पता, रहे नहीं घर-बार।।
सुख-दुख जीवन की नियति, दायें-बायें हाथ।
सुख की कभी प्रतीति हो, कभी रहे दुख साथ।।
छाया था कित्तूर में, सुख का ही साम्राज्य।
दुख की रेखा राज्य को, कर न सकी विभाज्य।।
रानी थी कित्तूर की, चेन्नम्मा शुभ नाम।
वह सुख-दुख को मानती, जैसे छाया-घाम।।
सबकी अपनी नियति है, अपना ही प्रारब्ध।
सुख-दुख क्रम चलता रहे, समय बद्ध उपलब्ध।।
बनते बिगड़े काम सब, जब होता सुख फेर।
रोटी छिनती हाथ से, तब दुख लेता घेर।।
जो जीवन को समझते, केवल सुख का खेल।
पग-पग जीवन में वही, होते रहते फेल।।
नहीं बपौती मनुज की, जीवन रूपी धाम।
खेल खेलती नियति है, मानव करता काम।।
जीवन का दर्शन यही, सच से मुँह मत फेर।
जो बन आये सहज में, उसे अरे! तू हेर।।
गोरों का था आगमन, इसी नियति का भाग।
हुआ देश पर आक्रमण, झुलस गये सब राग।।
मान नियति के खेल को, बैठो नहीं उदास।
हाथ कर्म-पाथेय रख, मंजिल मिले विकास।।
जो होना होकर रहे, सब विधि का है खेल।
इसकी चिन्ता क्यों करें, हम क्यों छोड़ें मेल।।
करता था अठखेलियाँ, पुत्रों का अनुराग।
हाय! न कोई जानता, पल में बदले राग।।
अभी-अभी बीते इधर, शादी को कुछ माह।
अरी नियति! तू बावरी, नहीं देखती चाह।।
राजमहल सोया हुआ, सुख की गहरी नींद।
तभी नियति ने तीर से, दिया उसे फिर बींध।।
राज महल में उठ गये, सब जन प्रातः काल।
हा! चिर निद्रा सो रहा, चेन्नम्मा का लाल।।
चेन्नम्मा की देखकर, निकल गयी थी चीख।
उलट-पुलट सब हो गया, हा! कित्तूर के बीच।।
खड़ी जानकी बाई थी, हा! विस्फारित नैन।
लूट लिया हा! नियति ने, उसका जीवन-चैन।।
डूब गये दुख-सिन्धु में, देख पुत्र की लाश।
राजा की धूमिल हुई, अब जीवन की आश।।
किंकर्त्तव्यविमूढ़ सब, था कित्तूर उदास।
राज महल-परिवार - जन, भारी सभी हताश।।
नहीं समझ कुछ आ रहा, उत्तरदायी कौन?
आँसू ही बतला रहे, दुखद कथा सब मौन।।
बिलख रही वधू सामने, हुआ सभी कुछ नाश।
चेन्नम्मा थी गिर पड़ी, देख पुत्र की लाश।।
आखिर तो होता वही, जो विधि रचा विधान।
मानव कुछ जाने नहीं, जाने दया निधान।।
चेनम्मा ने पुत्र को, विदा किया सुरधाम।
धर्म नीति-कुल रीति से, पूर्ण किये सब काम।।
पुत्र-निधन से अति दुखद, घटना और न होय।
रानी रोती रात दिन, आँसू रुके न कोय।।
राजा समझाते बहुत, धर्म-प्रसंग-चलाय।
लेकिन, नैन न मानते, आँसू रहे बहाय।।
बालण्णा व रायण्णा, समझाते भरपूर।
गुरूसिद्दप्पा हो गये, हाय! बहुत मजबूर।।
सुत-वियोग में रात-दिन, चेन्नम्मा लाचार।
पुत्र-वधू को देखकर, टूटे हृदय-तार।।
पुत्र-निधन के शोक से, सकता कौन उबार?
धीरे-धीरे काल ही, देता उसे पछार।।
पुत्र-निधन के साथ ही, हुये स्वप्न भी चूर।
कातर नैन निहारती, विवश हाय! कित्तूर।।
पुत्र-निर्धन के साथ ही, मनो लुटा कित्तूर।
अँग्रेज़ों की दृष्टि भी, घायल करे जरूर।।
सोच-सोच रोती रही, रानी बड़ी अधीर।
पुत्र आत्मा ले गया, केवल शेष शरीर।।
पुत्र-शोक ने कर दिया, राजा को बीमार।
लगता मानो जिन्दगी, गयी मौत से हार।।
अभी न बीते थे इधर, पुत्र शोक छः माह।
क्रूर काल ने जिन्दगी, ली राजा की आह!!
फैल गयी कित्तूर में, राज-निधन की बात।
मल्लसर्ज पर काल ने, किया कुठाराघात।।
पुत्र गया, पति भी गया, टूटा मनो पहाड़।
चेन्नम्मा मूर्च्छित हुई, खाकर गिरी पछाड़।।
आँख खुली तो सामने, पड़ी हुई थी लाश।
फूट-फूट कर रो पड़ी, देख समग्र विनाश।।
हे प्रभु! तुमने क्या किया, रूँठ गये क्यों नाथ?
प्राणनाथ चलते बने, छोड़ डगर में हाथ।।
रोती तीनों रानियाँ, खा-खा गिरीं पछाड़।
क्रूर काल की धृष्टता, सुनती नहीं दहाड़।।
राजा अब लौटें नहीं, गये सभी कुछ छोड़।
सोच रानियों ने यही, लिया वैधव्य ओढ़।।
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कई दिनों तक राज्य सब,
शोक से व्याकुल रहा।
देखा-सुना न आज तक
कित्तूर ने सब कुछ सहा।
राज्य यह कित्तूर का
किसके हवाले अब करें?
हा! शीश पर कित्तूर के,
राज मुकुट किसके धरें?
गुरूसिद्दप्पा दीवान को
बुला रानी ने लिया।
दीवान से कर मंत्रणा
युवराज को शासन दिया।।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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