आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में - 6. आर्थिक मंदी के लाभ 7. फसलों के घटते मूल्य और दम तोड़ता किसा...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में -
6. आर्थिक मंदी के लाभ
7. फसलों के घटते मूल्य और दम तोड़ता किसान
8. नमक में नुक्स और न्यायालय
9. प्राकृतिक आपदाओं में आदमी
10. मानवाधिकारों का हनन और भ्रष्टाचार
आर्थिक मंदी के लाभ
आम नागरिक किसान और मजदूर को मौजूदा आर्थिक मंदी से चिंंतित होने की जरूरत नहीं है। सरकार यदि इस मंदी के चलते डूबने वाली कंपनियों को उबारे जाने वाले उपयों के तहत करोड़ों -अरबों रूपयों के राहत पैकेज नहीं देती है तो बहुसंख्यक आबादी के हित इन कंपनियों के डूबने में ही निहित हैं। क्योंकि ये कंपनियां निजी पूंजी और कंपनियों को हो रहे मुनाफे पर इतराने की बजाय राष्ट्रीयकृत बैंकों से ऋण पर उठाये धन, शेयरों के जरिये आम जनता द्वारा किए गए पूंजी निवेश और बाजारबाद की देन आवारा धन पर इतरा रही थीं। खोल में पोल की इस हकीकत के उजागर होने का सिलसिला अब शुरू हुआ है, इसलिए इन कंपनियों का डूबना ही देश व जनता के हित में है।
जिस जेट ऐअरवेज ने घाटे के बहाने के चलते उन्नीस सौ कर्मचारियों को निकाले जाने की शुरूआत आठ सौ कर्मचारियों की बर्खास्तगी के साथ की थी, ऐन दीवाली के वक्त यह नाटक एक सोची समझी योजना थी, जिसके क्रियान्वयन में कंपनी कामयाब रही। दरअसल जेट एअरवेज पर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी इंडियन ऑयल द्वारा दिए ईंधन के देयकों के 259 करोड़ रूपये अर्से से बकाया चले आ रहे हैं। कुछ समय पूर्व एक समझौते के तहत साठ दिन के भीतर इस धन राशि को चुका देने का वादा नरेश गोयल ने इंडियन ऑयल के अध्यक्ष सार्थक बेहुरिया से किया भी था, लेकिन धन चुकाया नहीं गया। इस रहस्य का खुलासा खुद पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने किया। देवड़ा ने कई मर्तबा नरेश गोयल की मदद करने की दलील भी दी।
इंडियन ऑयल का दबाव धन वसूली के लिए जेट पर बढ़ा तो कंपनी ने प्रोबेशनरी और प्रशिक्षु आठ सौ कर्मचारियों को एक साथ बर्खास्त कर दिया। हडकंप मचना लाजिमी था। मचा भी। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और अगले साल आम चुनाव हैं। इसलिए केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके घटक दलों के हाथ पैर फूलना स्वाभाविक थे। लिहाजा रातोंरात फौरी उपाय तलाशे गए। इंडियन ऑयल का दबाव कम हुआ और छंटनी की कार्यवाई फिलहाल टाल दी गई। अब यहां सवाल यह उठता है कि 259 करोड़ रूपये की इस देनदारी का क्या हुआ? यदि यह राशि जेट से नहीं वसूली गई तो डीजल- पेट्रोल के दाम बढ़ाकर इस रकम की भरपाई आम जनता से ही की जाएगी? जब कंपनी घाटे में है, विमानों को ग्राहक नहीं मिल रहे हैं तो ईंधन फूंकने की जरूरत ही क्या है? क्या यह संसाधन और धन का दुरूपयोग नहीं है? प्राकृतिक संपदा और सरकारी संपत्ती को इस तरह से डुबोना ही मंहगाई के बड़े कारण बनते हैं। आखिर में इसकी मार जनता पर पड़ती है?
जेट एअरवेज के डूबने का खुलासा होने के बाद अब एअर इंडिया की बारी है। वित्तीय संकट का सामना कर रहे विमानन उद्योग में सार्वजनिक क्षेत्र की एअर इंडिया ने 15 हजार कर्मचारियों को तीन से पांच साल के लिए वेतनरहित अवकाश (लीव विद आउट पे) पर भेजने की योजना बना ली है। अन्यथा बद्तर हालातों से उबरने के दृष्टिगत सरकार 4750 करोड़ रूपये का राहत पैकेज विमानन उद्योग में लगी कंपनियों को दे।
दरअसल विमानन कंपनियां हों या अन्य कंपनियां एक डेढ़ दशक के भीतर इन कंपनियों में आर्थिक समृद्धि का जो उछाल देखा गया वह सरकारी धन व संसाधनों की अंधाधुंध लूट और पूंजी निवेश के बहाने आम जनता से ही उगाहा गया था। समृद्धि के इस उछाल को महिमामंडित करने में प्रबंधन-कौशल की कुटिल भागीदारी भी रही। मीडिया ने भी हकीकत पर पर्दा डाले रखा। लेकिन वास्तविकता को तो एक न एक दिन धरातल पर आकर उछाल के इस बुलबुले को फोड़ना ही था, सो फूट गया।
अब विमानन कंपनियां अपनी इस बदहाली के लिए इंर्धन की बढ़ती कीमतों को दोषी ठहराते हुए तेल के मूल्य में कमी व करों में छूट की तत्काल मदद चाहती हैं। 4750 करोड़ रूपये के राहत पैकेज की मांग तो लंबित है ही। इसी साल अगस्त में 16 फीसदी और सितंबर में पांच फीसदी एअर टरबाईन फ्यूल (एटीएफ) की कीमतें घटाई जा चुकी हैं। इन कंपनियों का कारण विश्व बाजार में लगातार बढ़ती तेल कीमतों की बजाय एक तो इनकी नीतियां फिजूलखर्ची और नेताओं के प्रति कृतज्ञता जताने की भावना है, दूसरे उड़ानों में मांग से ज्यादा आपूर्ति है।
यहां मैं नेताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के सिलसिले में एक उदाहरण देना चाहूंगा। 2005 में डेक्कन एअरवेज ने दिल्ली-ग्वालियर-भोपाल के लिए नई उड़ान सेवा शुरू की थी। यह सेवा तब के संचार एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रयास से शुरू की गई थी। सिंधिया ने ग्वलियर अंचल के प्रमुख पत्राकारों को हवाई उड़ान का मुफ्त में आनंद दिलाने के नजरिये से ग्वालियर से भोपाल तक की कई उड़ानें भरवाईं। यह लेखक भी इस उड़ान में शामिल था। परस्पर उपकृत करने के सिलसिले में यह फिजूलखर्ची नहीं तो और क्या है? अब डेक्कन एअरवेज लगभग डूब चुकी है। गोया कंपनियों के डूबने के कारणों में विश्व बाजार में आई आर्थिक मंदी एक कारण हो सकता है लेकिन इससे भी प्रमुख कारण फिजूलखर्ची और आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की भर्ती रहा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
यहां गौरतलब यह भी है कि वाणिज्यिक अखबार, आर्थिक सुधारों के पैरोकार और कार्पोरेट जगत का एक बड़ा गुट विमानन कंपनियों को घाटे से उबारने के लिए तो बड़े से बड़े राहत पैकेज की वकालत कर रहा है। लेकिन जब यही पैकेज गलत आर्थिक नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे किसानों को कर्ज से उबारने के लिए दिया जा रहा था तो इसकी उक्त कार्पोरेट जगत के रहनुमा मुखर आलोचना कर रहे थे। यहां तक की बैंकों के दिवालिया हो जाने तक का दावा किया गया था। जबकि बड़े कॉरपोरेट समूहों और औद्योगिक घरानों का बाकी कर्ज नॉन पर्फार्मिंग एसेट (एनपीए) बताकर माफ कर दिया जाता है। रिजर्ब बैंक की सूची के मुताबिक केवल राष्ट्रीयकृत बैंकों को दस लाख करोड़ से ज्यादा का चूना देश के उद्योगपति अब तक लगा चुके हैं। इस पर लब्बोलुआव यह है कि अब तक कार्पोरेट जगत के एक भी व्यक्ति को आत्महत्या करने की नौबत का सामना नहीं करना पड़ा, जबकि लाचार बना दिए गए दो लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
इसलिए सरकारी धन और प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते पैर पसारने वाली कंपनियां डूब रही हैं तो उन्हें डूब जाने दें। आम नागरिक तो इनके डूबने से अप्रत्यक्ष लाभ में ही रहेगा। शहरीकरण का दबाव कम होगा। शिक्षा के व्यवसायीकरण पर अंकुश लगेगा। प्राकृतिक संपदा का दोहन थमेगा। नतीजतन औद्योगिक विकास के बहाने जो आर्थिक विषमताएं और सामाजिक असमानताएं बढ़ रही हैं वह भी थमेगीं। इसलिए आर्थिक मंदी पर न तो विचलित होने की जरूरत है और न ही घड़ियाली आंसू बहाने की?
फसलों के घटते मूल्य और दम तोड़ता किसान
स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय जिस देश की छवी कृषि प्रधान देश और ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था की थी वह छवी नवें दशक की उदारवादी अर्थव्यवस्था एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दौर में आकर दम तोड़ रहे किसान और उसके द्वारा आत्महत्या कर लेने की विवशता पर आकर अटक गई है। अब सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का योगदान 52 प्रतिशत से घटकर 19 प्रतिशत और कृषि विकास की औसत दर 4.5 प्रतिशत से घटकर 3.3 प्रतिशत रह गई है। देश के कुल निर्यात में कृषि उत्पादों का मूल्य भी 60 प्रतिशत से घटकर 10 प्रतिशत से भी कम रह गया है। इस कठिन परिस्थति के चलते ही 2 लाख से भी ज्यादा किसान अब तक आत्महत्या कर चुके है। इसके बावजूद देश के प्रधानमंत्री गर्व से कह रहे हैं कि जल्दी ही आर्थिक विकास दर 9-10 फीसदी होने वाली है। बहरहाल विकास दर के बहाने जिस खुशहाली का दावा किया जा रहा है वह गरीब को दाल-रोटी सस्ती दरों में मुहैया कराने के लिए कारगर साबित नहीं हो पा रही है। फिर ऐसी विकास दर से आखिर किसे लाभ हो रहा है?
यह भारत देश में ही सम्भव है कि खेतों में हाड़-मांस गलाकर व खून-पसीना बहाकर जो किसान फसल का उत्पादन कर बाजार में लाकर बेचता है तो उसे अपनी उपज के उतने बाजिव दाम नहीं मिलते जितने कि व्यापारी के हाथ आने के बाद व्यापारी को मिलते हैं। यदि व्यापारी इसी उपज को पैकिंग कर ब्रांड में बदल दे तो इसके दाम कई गुना बढ़ जाते हैं। यह कड़वी सच्चाई है कि फसल के मूल्य पर नियंत्रण किसान का तो खैर कभी रहा ही नहीं, अब सरकार का भी नहीं रह गया है। सरकार का नियंत्रण मूल्यों पर नहीं रहा यह इस बात से भी प्रमाणित होता है कि महंगाई घटाने के नाम पर संसद में काफी हंगामे के बाद 28 जून 2006 को अनेक कृषि उत्पादों एवं उनसे निर्मित वस्तुओं के निर्यात पर रोक लगा दी गई थी, इसके बावजूद निर्यात पर रोक लगी वस्तुओं की कीमतों में मंदी आने की बजाए तेजी बनी हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ताकत के आगे संसद में पारित नीयम-अधिनियम उद्योगपतियों के समक्ष झुनझुना मात्रा रह गए हैं?
वर्तमान केन्द्र सरकार की पकड़ व दबाव न व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर है और न ही राज्य सरकारों पर। तभी तो 29 अगस्त 2006 को संसद ने आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित कर 6 माह तक लागू करने के लिए राज्य सरकारों के पास भेज दिया था। इसमें वस्तु की भण्डारण सीमा का भी निश्चित समय के लिए प्रावधान था। लेकिन इस अधिनियम को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के चलते देश की किसी भी राज्य सरकार ने लागू नहीं किया। यहाँ तक कि लाल और केसरिया झण्डे थामने वाली सरकारों ने भी नहीं? फलस्वरूप महँगाई अनियंत्रित होती चली जा रही है, जिस पर लगाम लगाने की इच्छाशक्ति फिलहाल केन्द्र व किसी भी राज्य सरकार में दिखाई नहीं देती?
दरअसल नई बाजार व्यवस्था में मांग और आपूर्ति का जो अर्थशास्त्र है और जिस उदारवादी अर्थशास्त्र के बाद भारत निर्माण का तथाकथित स्वप्निल नारा पिछले एक दशक के भीतर गढ़ा जाता रहा है उसने शहरी उद्योगपति को अमीर से और अमीर जरूर बनाया है लेकिन आम आदमी की कमर तोड़ देने के साथ उसकी जिज्ञासा व संभवनाओं को भी मार ही दिया है। आम आदमी एक तरफ कुदरत की अतिवृष्टि व अल्पवृष्टि जैसे अभिशाप झेल रहे हैं तो दूसरी तरफ चिकनगुनिया और डेंगू जैसी महामारियों का रूप ले चुकी बीमारियां उसे डेढ़-दो माह तक खाट ही नहीं छोड़ने दे रही हैं। दिखावा व आरामपरस्त की आदी हो चुकी नौकरशाही अब कर वसूली के ऐसे आसान तरीके खोज रही है जिनकी प्रक्रिया स्वमेव प्रणाली से संचालित हो। ऐसी खोजों में सेवा कर का दायरा बढ़ाना
समयावधि बैंक जमा योजनाओं पर कर लगाना, बिजली, पानी, डीजल-पेट्रोल की दरों में निरंतर बढ़ोत्तरी करते जाना इसके अलावा स्थानीय करों का बोझ पृथक से। जबकि यही नौकरशाह बड़े लोगों पर चढ़े बैंक कर्जों की वसूली न तो ठीक से करते है और न ही करों की वसूली ईमानदारी से कर पाते हैं। यहां तक की उद्योगपतियों को बिजली-पानी की चोरी तो अब सरकारी मशीनरी ही करा रही है। नौकरशाहों ने नीयम-कानूनों में इतनी तकनीकी कमियां और विकल्प छोड़ दिए हैं कि जिनका लाभ उद्योगपति व उद्योग धड़ल्ले से उठा रहे हैं। ऐसी खामियां व विकल्पोंकेचलते मिलावटी खाद्य वस्तुओं व नकली वस्तुओं के निर्माण का गोरखधंधा इतने जोरों पर है कि प्रशासनिक अमले का अब उस पर कोई काबू ही नहीं रह गया है।
हालांकि हरित क्रांति की शुरूआत के बाद देश का खाद्यान्न उत्पादन 5 करोड़ टन से बढ़कर 20 करोड़ टन हुआ है। लेकिन इसी अनुपात में देश की आबादी भी 33 करोड़ से बढ़कर एक अरब से ऊपर पहुँच गई है। इसीलिये आबादी के औसत अनुपात में पैदावार को पर्याप्त ही कहा जा सकता है। कम वर्षा, अवर्षा और लगातार घटते भूमिगत जलस्तर के चलते हरित क्रांति का दौर भी मुरझाने लगा है और कालांन्तर में खाद्यान्न उत्पादन तेजी से घटने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। वैसे भी इस दौर का सबसे ज्यादा लाभ बड़े किसानों को ही मिला। सीमांत व भूमिहीन कृषक की फटेहाली तो और बढ़ी ही है? इस किसान को इस बद्तर स्थिति से उबारने का भी कोई रास्ता शासन-प्रशासन को नहीं सूझ रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मोडीफाइड जैविक बीजों के बहाने जरूर किसानों के कामकाज में हाथ बंटाने की कोशिश की। मगर परिणाम सामने आने पर ये कोशिशें भयावह मायावी छलावा भर साबित हुईं। आनुवंशिक खेती के बहाने जो सब्जबाग किसानों को दिखाए थे, फसल पकने पर वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। दूसरे, कंपनियों ने अपनी धनराशि वसूलने के लिए बाहुबलि लठैत भेजना शुरू कर दिए। इन बदमाशों की निगाह लाचार किसान की बहु-बेटियों की इज्जत-आबरू से खेलने की भी रही। ऐसी विकट परिस्थति में किसान आत्महत्या न करे तो क्या करे?
केन्द्र सरकार द्वारा दिए जा रहे आर्थिक पैकेज भी किसान को इस दुर्गम स्थिति से नहीं उबार पाएंगे? क्योंकि कथित आर्थिक पैकेजों का भ्रष्ट नौकरशाही की बलि चढ़ना तय है। किसान को वाकई पूर्व स्थिति में लाने की मंशा है तो किसान की कथित रूप से हितैषी बनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही लगाम कसनी होगी। क्योंकि देश का गुलामी से लेकर आजाद भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पहले का इतिहास किसी भी दृष्टि से पढ़ डालिए उसमें कहीं भी किसान आत्महत्या करते नहीं मिलेगा? पूरा भारतीय साहित्य उठा लीजिए उसमें भी कहीं भी किसान ने ऐसी विषम स्थिति का सामना नहीं किया कि उसे आत्महत्या करने की सोचने की जरूरत भी कभी पड़ी हो । भारतीय किसान के चितेरे साहित्यकार प्रेमचंद्र का साहित्य भी किसान की आत्महत्या से पूरी तरह अछूता है? फिलहाल ऐसी इच्छाशक्ति केन्द्र सरकार में दिखाई नहीं देती कि वह इन कंपनियों पर लगाम लगा सके।
उदारीकरण के दौर में आम जनता सुखी होने की बजाए जिस बेरहमी से दुखी हुई है उसका सटीक उदाहरण भारतीय किसान यूनियन के नेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र सिंह मान ने देशी हिसाब लगाकर पेश किया है, उनके अनुसार 1967 में एक सौ किलो गेहूँ में 121 लीटर डीजल आता था, अब मिलता है मात्रा 21 लीटर। 1967 में ही इतने ही किलो गेहूँ में 1800 ईंटें और साढ़े नौ बोरी सीमेंट आ जाता था। 206 किलो गेहूँ में एक तोला सोना आ जाता था। बाजार में मूल्यों की ऐसी विषगंतियों के चलते किसान की पत्नी सोने का तो क्या चांदी का भी मंगलसूत्रा नहीं खरीद पा रही है। उसके शरीर से अन्य गहने भी उतरते जा रहे हैं। और हमारी सरकार है कि उदारवादी अर्थव्यवस्था के चलते देश का विकास होने के जयकारे लगाती जा रही है।
केन्द्र में सरकार, दीनदयाल उपाध्याय का अंत्योदयी नारा लगाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की रही हो चाहे पी.वी. नरसिम्हाराव के समय उदारवादी अर्थव्यवस्था के दृष्टिगत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत के दरवाजे खोलने वाले मनमोहन सिंह की। ये सभी सरकारें नारे तो समाजवाद के बहाने समाज में समरसता लाने के लगाती रही हैं लेकिन वास्तव में इन सरकारों ने पूँजीवादी विकास को ही पुख्ता कर समाज में विषमता बढ़ाई है। पूँजीवादी विकास के लक्ष्य की अवधारणा गढ़ने वाली सरकारों को न तो ईमानदारी से फसलों के घटते मूल्यों की चिंता है और न ही आत्महत्या कर रहे किसानों की?
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नमक में नुक्स और न्यायालय
हर थाली के लिये जरूरी नमक में नुक्स निकालकर नमक को आयोडीन से मुक्ति दिलाने के लिये जनहित याचिका के माध्यम से गरीबों की हितैषी एक संस्था अब न्यायालय की शरण में है। यदि नमक के स्वाद को आयोडीन से छुटकारा मिलता है तो यह तय है कि नमक के बढ़ते भाव भी नीचे आ जाएंगे और थाली में नमक नहीं होने पर देवदास मांझी जैसे गरीब को आत्महत्या करने के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा?
भारतीय नमक को सेवन करने से पहले आयोडीन युक्त होने की शर्त क्या जोड़ी है, नमक के भाव आसमान छूते जा रहे हैं। आसमान छूते भावों के चलते ही सदियों से गरीब की रोटी का स्वाद बना नमक जब ग्राम झरिया के मजदूर देवदास माझी की रोटी का स्वाद नहीं बन पाया तो बेचारे ने आत्महत्या कर ली। आयोडीन युक्त होने के बाद नमक जैसे गरीब के लिए हराम हो गया? आखिर कुदरत की देन इस नमक पर खाने से पहले आयोडीन युक्त होने की शर्त लगाने की क्या जरूरत थी? फकत कंपनियों के बारे-न्यारे करने के लिए ही? लेकिन अब पर्यावरण संरक्षण, अनुसंधान एवं विकास केन्द्र इन्दौर की संस्था द्वारा उच्च न्यायालय जबलपुर में लगाई गई जनहित याचिका में सवाल उठाए गए हैं कि आयोडीन युक्त नमक केवल घेंघा रोगियों के लिए जरूरी है न कि सामान्य व्यक्ति की निरोगी काया के लिए? याचिका में यह भी खुलासा किया गया है कि आयोडीन युक्त नमक उपभोक्तओं तक पहुंचते-पहुंचते 40 प्रतिशत कपूर की माफिक हवा में विलीन हो जाता है और चालीस फीसदी खाना पकाने और मुंह का स्वाद बनते-बनते अनंत में विलीन हो जाता है। जो बीस फीसदी बच रहता है उसका काया की माया पर बहुत ज्यादा असर नहीं रह जाता। लिहाजा देश की समूची आबादी को आयोडीन युक्त नमक जबरन खिलाने का क्या औचित्य रह जाता है?
हमारे देश में जिस नमक को गांधी ने आजादी की लड़ाई का हथियार बनाया, उसी नमक को राजनेता, उद्योगपति और नौकरशाहों के गठजोड़ ने महंगाई का खेल बनाकर व्यापारियों की तिजोरियां भरे जाने का साधन बना दिया है। शक्ति और बुद्धि का रक्षक नारा लगाकर यूनीसेफ आयोडिन युक्त नमक को खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के दायरे में लाकर बिक्री के लिए अनिवार्य किए जाने का दबाव भारत सरकार पर बनाए हुए है। समुद्र के किनारे जो नमक 25-30 पैसे प्रति किलो बिना मोल व तोल किये मारा-मारा फिरता था, वही नमक व्यापारियों के हाथ का हथियार बनते ही सात-आठ रूपये किलो के भाव तक जा पहुंचा है। जबकि नमक को आयोडीन युक्त बनाने की कैमेस्ट्री का खर्च मात्रा 5-10 पैसे प्रति किलोग्राम भर है। इसलिए आयोडिन युक्त नमक बनाने वाले जिन कारखानों की संख्या सन् 2000 में 886 थी, 2006 में उनकी संख्या बढ़कर 2375 हो गई। इनमें से कई कंपनियां बहुराष्ट्रीय हैं, जिनका पर्याप्त दबाव यूनीसेफ पर है और इसलिए यूनीसेफ केंद्र सरकार पर दबाव बनाए हुए है। अब नमक की महंगाई बढ़ाकर इस व्यापार के लाभ के खेल के खिलाड़ी कौन लोग हैं? निश्चित ही, मजदूर-किसान और घेंघा रोगी तो नहीं?
नमक की महिमा दुनिया में आम आदमी की तरह आम-फहम है। नमक मानव इतिहास की गाथा में बेहद महत्वपूर्ण वस्तु रहा है। कभी आदिमानव भी वन्य-प्राणियों की देखादेखी नमक की चट्टानें प्राणियों की तर्ज पर ही चाटकर स्वास्थ्य लाभ उठाया करते थे। छठवीं शताब्दी में नमक के व्यापार की शुरूआत हुई, तब एक तोला नमक के बदले एक तोला सोना आसानी से विनिमय करके मिल जाया करता था। तब नमक का सेवन खाद्य सामग्री में मिलाने के अलावा खाद्य सामग्री को खराब होने से बचाने के लिए भी किया जाता था। मसलन नमक पुरातन युग में फ्रिज का काम करता था।
आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेतन अथवा तनख्वाह का तर्जुमा ‘सेलरी‘ नामकरण एवं प्रचलन नमक के अन्य वस्तुओं से विनिमय के चलते ही हुआ। बताते हैं, रोम की ‘विया सलेरिया‘ नाम की सड़क पर नमक की बिक्री के लिए दुकानें लगा करती थीं और फौजी सिपाही तनख्वाह के बदले सलेरियम नमक ही ले लिया करते थे। यही सलेरियम कालान्तर में अपभ्रंश होकर ‘सेलरी‘ नाम से प्रचलन में आ गया। ईसाई शास्त्रों में भी चढ़ावे के रूप में नमक की महिमा का बखान है।
महात्मा गांधी ने आम आदमी की दाल-रोटी से जुड़े नमक की महिमा का भान आजादी की लड़ाई में कूदने के साथ ही कर लिया था। तभी तो उन्होंने ‘नमक कानून' के मार्फत अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित किये नमक को औजार बनाकर अंग्रेजी हुकुमत को बेदखल करने की जबरदस्त मुहिम ही छेड़ दी थी। नमक से केवल गरीब ही प्रभावित नहीं था, पूरा समाज प्रभावित हो रहा था। गांधी ने नमक कानून की अवज्ञा करने से पहले वायसराय को चेतावनी भी दी थी कि सरकारी नीतियां भारत का राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक शोषण कर रही हैं। लेकिन स्वतंत्र भारत में गांधी के ही निष्ठावान अनुयायिओं ने आयोडीन के बहाने कानून बनाकर सादा नमक के खाने पर ही कानूनी प्रतिबंध लगा, गरीब को नमक से महरूम कर दिया। और बेचारा देवदास माझी नमक नहीं मिलने पर खुद की जिंदगी से ही मौत का खेल, खेल गया? गांधी की आत्मा ने कहीं देवदास माझी को नमक के लिए मरते देख लिया होता और यदि उन्होंने सत्ताधीशों से जवाब तलव किया होता तो निश्चित ही हमारे उद्योग-हितैषी करिश्माई नेताओं ने ऐसी भाषा गढ़कर जवाब दिया होता कि नमक कि महंगाई को लेकर गांधी भी हैरान रह गये होते?
बहरहाल नमक के आभाव में देवदास माझी के आत्महत्या कर लेने पर भी केन्द्र व राज्य सरकारों के नुमाइंदोेंं के माथे पर कोई शिकन नहीं है। वे अपने को आम आदमी का हिमायती बताते हुये निरंतर नमक के महंगे होते जाने को भी आयोडीन नमक स्वास्थ्य के लिए अचूक नुस्खा जताकर भारतीय नमक की विश्व बाजार से तुलना करते हुए सस्ता ही बता रहे हैं। नतीजतन नमक गरीब के लिए हराम होता जा रहा है। लेकिन अब नमक में नुक्स निकालकर न्यायालय में जो जनहित याचिका लगाई गई है उससे जरूर गरीब को आशा की किरण दिखाई दे रही है। इन याचिकाकर्ताओं ने यह भी साबित किया है कि सरकार की संवेदनाओं का नमक भले ही मर गया हो लेकिन आम आदमी की लड़ाई लड़ने वाले गांधी अभी जिंदा है।
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प्राकृतिक आपदाओं में आदमी
वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् विश्व बंधुत्व की भारतीय अवधारण प्राकृतिक संपदा के सीमित उपभोग के साथ वैश्विक सामुदायिक हितों से जुड़ी थी लेकिन ग्लोबलाईजेशन अर्थात विश्व ग्राम की अमेरिकी अवधारणा औद्योगिक प्रोद्यौगिकी विस्तार के बहाने ऐसे हितों की नीतिगत पोषक बन गई जिसमें प्रकृति का व्यावसायिक दोहन वैयक्तिक व इंद्रिय सुखों के भोग विलास में निहित है। फलस्वरूप प्राकृतिक असंतुलन गड़बड़ाया, शहरीकरण के दबाब के साथ वैश्विक तापमान बढ़ा। इन कुदरती विकारों के साथ समाज में जिस तेजी से आवारा धन का प्रचलनआधुनिक जीवन शैली के लिए बढ़ा उसने पूरी दुनिया की मानव आबादी को प्राकृतिक आपदाओं के संकट में डाल दिया। यही कारण है कि बिहार मे कोसी का जल प्रलय बन गया। अमेरिका में गुस्ताव तूफान कहर बरपा रहा है और चीन में भूकंप से लेाग खौफजदा है प्रकृति का यह रौद्र रूप मानव आबादी को निगल लेने पर आमादा है। आर्थिक असुरक्षा के गंभीर हालात और मौत की अंधी सुरंगों में धकेल देने वाले इस कथित विकास पर लगाम लगाने का अब समय आ गया है।
देश की आजादी के तत्काल बाद दूरदृष्टि अपनाये जाने के बहाने जिन विशाल जलाशयों को सिंचाई, विद्युत, पेयजल और बड़े उद्योगों के जलापूर्ति की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और बस्तियों को उजाड़कर वजूद में लाया गया था वे अब या तो जलाभाव में दम तोड़ रहे है या कोसी का कहर बन मानव और बस्तियों को लील रहे हैं। अकेले भारत में बड़े बांधो के निर्माण के लिए चार करोड़ के करीब लोग विस्थपित किए जा चुके हैं। इनका समुचित विस्थापन कभी नहीं हो पाया। आधुनिक विकास की बुनियाद आदमी को आपदा में लाकर शुरू होती है और आपदा में डालकर ही खत्म होती है।
हाालांकि कोसी के तट बंध का निर्माण 1959 से 1963 के बीच बाढ़ नियंत्रण के लिए ही भारत और नेपाल के बीच द्विपक्षीय समझौते के तहत किया गया था। नदी के बहाव को पश्चिम की ओर जाने से रोकने की दृष्टि से 246 किलोमीटर लंबे किनारे भी बनाए गए थे लेकिन कोसी के इस प्राकृतिक बहाव को अवरूद्ध करने की परिणति ही बिहार में आपदा का कारण बनी। जलावेग के समक्ष मानव निर्मित तटबंध कहां टिक पाया? इसलिए अब सोचने की जरूरत है कि नदियों पर बनाए जाने वाले बांधों की नीतियां क्या कारगर है? अथवा इन्हें बदल कर छोटी-छोटी जल संरचनाओं को अपनाये जाने की जरूरत है?
वैसे बाढ़ भारत में कोई नई समस्या नहीं है। बिहार, असम और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और ब्रहमपुत्रा हर साल बाढ़ में तब्दील होकर लाखों लेागों का जीवन तबाह करती हैं। बाढ़ की इन घटनाओं से प्रभावित क्षेत्रों की मानव बस्तियां हर वर्ष सामना करती हैं इसलिए उन्होेने परंपरागत बाढ़ों से जानमाल को बचाये रखने के उपाय भी ढूंढ निकाले हैं, जिनके बूते उनके जीवन यापन की दिनचर्या बिना किसी अतिरिक्त मदद के फिर सामान्य हो जाती है। इस दृष्टि से भारत बांग्लादेश के बाद दूसरा ऐसा देश है जहां बाढ़ से सबसे ज्यादा लोग प्रभावित होते हैं और मारे भी जाते है। लेकिन कोसी की यह आपदा और दो साल पहले महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के बड़े शहरों में आई बाढ़ शहरीकरण का बढ़ते दबाव और पेयजल व विद्युत सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वजूद में लाए गए विशाल बांध रहे हैं। इन बांधों में जब जल भण्डारण की क्षमता पूरी हो गई और अतिवृष्टि के कारण पानी का दबाव लगातार बढ़ता रहा तो एकाएक बांधों के सभी जल द्वार खोल दिए गए। शहरों में आजकल वैसे भी जल निकासी के ज्यादातर मार्ग कूड़े-कचरे की अधिकता के कारण अवरूद्ध रहते हैं, नतीजतन मुंबई, सूरत, बड़ौदा और अहमदावाद जैसे आधुनिक कहे जाने वाले शहरों को बाढ़ का संकट झेलना पड़ा। करोड़ों की संपत्ति नष्ट हुई और सैकड़ों जानें गईं। ये त्रासदियां मानव उत्सर्जित त्रासदियां कही जा सकती है और इनकी संख्या पूरी दुनिया में बिना किसी दूरदृष्टि से काम न लेने के कारण बढ़ रही है। बेकाबू होने पर मानव आपदा में तब्दील हो जाने वाले ऐसे निर्माणों को मर्यादित करने की जरूरत का समय आ गया है।
कोसी का कहर जब भारत की एक करोड़ से भी ज्यादा आबादी पर टूट रहा था, ठीक उसी समय मैक्सिको की खाड़ी से अमेरिका के पांच तटवर्ती क्षेत्रों से गुजरने वाले ‘गुस्ताव' नाम के तूफान के चलते लुइसियाना और न्यू ओरलियांस के बीस लाख से भी ज्यादा लोगों को पलायन करना पड़ा। इन शहरों की 95 प्रतिशत आबादी को एक झटके में घर से बेघर होना तो पड़ा ही, जमैका में 80 लोग मारे भी गए। बताते हैं कि अमेरिका के इतिहास में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। इसके पूर्व अमेरिका में कैटरीना तूफान भी तबाही मचा चुका है। फिलहाल क्यूबा भी समुद्री तूफान की चपेट में आ गया है। जब भारत बाढ़ और अमेरिका समुद्री तूफान से जूझ रहे थे तभी चीन के सिचुआन और हुन्नान शहर भूकंप से थर्रा रहे थे। यहां करीब एक सैकड़ा लोग मारे गए। डेढ़ लाख घर क्षतिग्रस्त हुए। कुल मिलाकर दस लाख लोग प्रभावित हुए।
दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तार पाने वाली ये प्राकृतिक आपदाएं अनायास नहीं हैं? इनकी पृष्ठभूमि में औद्योगिकीकरण की प्रमुखता है। जिसकी वजह से कार्बनडाईऑक्साईड के उत्सर्जन की मात्रा में लगातार वृद्धि
हो रही है, जो तापमान में वृद्धि का करण बनी हुई है। ऊर्जा उत्पादन के कारण दुनिया में कार्बनडाईऑक्साईड का उत्सर्जन वर्ष में 11.4 अरब टन होने का अनुमान है। सन् 2000 में यह मात्रा 8.5 अरब टन से भी कम थी। इसमें चीन के ऊर्जा संयंत्र 3.1 अरब टन, अमेरिका के 2.8 तथा भारत के 63.8 करोड़ टन कार्बनडाईऑक्साईड का उत्सर्जन करते हैं। यह ऊर्जा वैश्विक तापमान को जबरदस्त तरीके से प्रभावित कर रही है। नतीजतन हिमालय के प्रमुख हिमनद इक्कीस फीसदी से भी ज्यादा संकुचित हेाकर समुद्र में समा गए हैं। इस कारण समुद्र का बढ़ता जल स्तर तटवर्ती आबादियों के लिए बढ़ा खतरा बनता जा रहा है। यदि इस बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के उपाय नहीं तलाशे गए तो करोड़ों की आबादी अपने रहवासों से पलायन करेगी, तब इस मानवीय आपदा को नियंत्रित करने की दृष्टि से शायद दुनिया की सारी वैज्ञानिक कही जाने वाली आधुनिक शक्तियां बेकाबू साबित हो जाएं। तब अकाल और महामारी का संकट भी सुरसा की तरह मुंह फैलायेगा, जिस पर पार पाना विश्व की महाशक्तियों को नमुमकिन ही होगा?
जो ऑस्टे्रलिया एक समय दुनिया में गेहूं का बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश था, उसी ऑस्टे्रलिया में पड़े अकाल के पीछे जलवायु परिवर्तन की अहम भूमिका आंकी गई है। चीन भारत और कई अन्य विकासशील देशों में औद्योगिक विकास ने जलवायु परिवर्तन की उस गति को बढ़ा दिया है, जेा की पहले ही यूरोप की उपभोक्तावादी जीवन शैली की वजह से संकट का सबब बन रही थी। आर्थिक संपन्नता ने यहां के लोगों में कुछ भी खरीद लेने की ताकत बढ़ाई। इस कारण यहां के लोगों में मांसाहार की आदत बढ़ती गई। अब यदि खान-पान की इस शैली का वैज्ञानिक ढंग से पड़ताल करें तो सौ कैलोरी के बराबर गौ मांस (बीफ) तैयार करने के लिए सात सौ कैलोरी के बराबर का अनाज खर्च करना पड़ता है। इसी प्रकार यदि बकरे और मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे खाना हो तो वह कहीं ज्यादा लोगों की भूख मिटा सकता है। ऐसी ही विसंगतियों के चलते भूख और उससे उपजी बीमारियों के कारण प्रतिदिन चौबीस हजार लोग अकाल मौत मारे जाते है। आधुनिक जीवन शैली की खानपान संबंधी ऐसे ही विरोधाभासों के चलते दुनिया में पन्द्रह करोड़ से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार रहते हुए तिल-तिलकर मर रहे है। बहरहाल प्राकृतिक आपदाओं में पड़े आदमी को उबारना है, प्रकृति का संतुलन बरकरार रखना है तो अमेरिकी भूमण्डलीकरण की अवधारणा से मुक्त होते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् की भारतीय अवधारणा को दुनिया के समाजों में स्थापित करने की मुहिम चलानी होगी, जो वैश्विक सामुदायिक हितों का ख्याल रखते हुए प्राकृतिक संपदाओं के सीमित उपभोग के मूल्य को स्थापित करती है क्योंकि प्रकृति और जीव जगत के सहअस्तित्व में ही पृथ्वी की सुरक्षा निहित है।
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मानवाधिकारों का हनन और भ्रष्टाचार
उच्च पदों पर विराजमान मेरे कुछ ऐसे नौकरशाह मित्रा हैं, जो अनौपचारिक बातचीत में बेहिचक स्वीकारते हैं कि उनकी माई-बाप तो मौजूदा सरकार है, इस कारण मुख्यमंत्री स्तर से जो भी हुक्म मिलेगा उस पर अमल करना ही उनका कर्तव्य है। मसलन प्रशासनिक बिरादरी की बुनियादी जवाबदेही राष्ट्र, जनता, संविधान और समाज के प्रति न होकर कथित राजनेता अथवा राजनीतिक दल के प्रति रहती है। प्रतिबद्धता की इस विभाजक रेखा को जातिवादी दृष्टिकोण और उसमें अंतर्निहित सुरक्षा भाव ने भी मजबूती दी है। जबकि हमारे संवैधानिक लोकतांत्रिक ढ़ाचे में सर्वोच्च संप्रभुता जनता-जर्नादन में निहित है। ऐसे ही प्रशासनिक दुराग्रहों और राजनीतिक सुरक्षा कवच के चलते नौकरशाही बेलगाम हुई और उसने पूरे समाज को भ्रष्टाचार के अभिशाप से जोड़ दिया। नतीजतन भारत में भ्रष्टाचार संबंधी जोअध्ययन, आंकड़े दे रहे हैंं, उनसे खुलासा हुआ कि देश की एक बड़ी आबादी ने बीते सालनौ सौ करोड़ की घूस सरकारी मशीनरी को दी। इस लिहाज से मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा एवं निर्ममता से हनन वह सरकारी अमला करने में लगाा है, जिसका दायित्व पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने का है।
‘ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फार मीडिया स्टडीज' ने ‘भारत में भ्रष्टाचार अध्ययन 2007' शीर्षक से जो प्रतिवेदन जारी किया है, उसमें कहा गया है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को पिछले एक साल में मूलभूत अनिवार्य व जनकल्याणकारी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपये की रिश्वत देनी पड़ी। यह दलील सांस्कृतिक रुप से सभ्य, मानसिक रुप से धार्मिक और भावनात्मक रुप से कमोवेश संवेदनशील समाज के लिए सिर पीट लेने वाली है। इस अध्ययन ने प्रकारांतर से यह तय कर दिया है कि हमारे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी, मध्यान भोजन, पोलियो उन्मूलन के साथ स्वास्थ्य लाभ व भोजन के अधिकार संबंधी योजनाएं किस हद तक जमीनी स्तर पर लूट व भ्रष्टाचार की हिस्सा बनी हुई हैं।
यही कारण है कि प्रशासनिक पारदर्शिता के जितने भी उपाय एक कारगर औजार के रुप में उठाए गए वे सब के सब प्रशासन की देहरी पर जाकर ठिठक जाते हैं। ई-प्रशासन के बहाने कंप्यूटर का अंतर्जाल प्रमुख सरकारी विभागों में इस दृष्टि से फैलाया गया था कि यह प्रणाली भ्रष्टाचार पर अंकुश तो लगाएगी ही ऑन लाइन के जरिये समस्याओं का समाधान भी तुरत-फिरत होगा। लेकिन इस नेट वर्किंग में करोड़ो-अरबों रुपये खर्च कर दिये जाने के बावजूद कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। कंप्यूटर सरकारी क्षेत्र में टायपराइटर का एक उम्दा विकल्प भर बनकर रह गया है।
सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार से मुक्ति का पर्याय माना जा रहा था। क्योंकि इसके जरिए आम नागरिक प्रत्येक सरकारी विभाग के कामकाज व नोटशीट पर अधिकारी की दर्ज टिप्पणी का लेखा-जोखा तलब कर सकता है। लेकिन सरकारी अमले की अनियमितताएं घटने की बजाए और बढ़ गईं, ताजा सर्वेक्षण इसका उदाहरण हैं। इससे जाहिर होता है कि सूचना का अधिकार भी भ्रष्टाचार से मुक्ति की कसौटी पर खरा नहीं उतरा? ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि हमारे जो श्रम कानून हैं वे इस हद तक प्रशासनिक तंत्र के इस्पाती रक्षा कवच बने हुए हैं कि वे पारदर्शिता और जबावदेही की कोई भी शर्त स्वीकारने को मजबूर नहीं होते? इस कारण इस तंत्र द्वारा सूचना के अधिकार के तहत जानकारी की मांग को नकारने के अनेक मामले सामने आ रहे हैं। दरअसल हमने औपनिवेशिक जमाने की नौकरशाही को स्वतंत्र भारत में जस की तस स्वीकार लेने की एक बड़ी भूल की थी। नतीजतन आज भी हमारे लोकसेवक उन्हीं दमनकारी परंपराओं से आचरण ग्रहण करने में लगे हैं, जो अंग्रेजी राज में विद्रोहियों के दमन की दृष्टि से जरूरी हुआ करती थीं। इसी दंभ के चलते सूचना के अधिकार की मांग को नकारने के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। और सूचना के उस अधिकार को हाशिये पर डाल दिया गया है जो भ्रष्टाचार से मुक्ति का एक सार्थक उपाय था।
इस सिलसिले में गौरतलब यह भी है कि सूचना कानून के दायरे से बाहर हमारे न्यायालय और न्यायधीश भी मुक्त रहना चाहते हैं। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकार संगठन पी.यू.सी.एल. की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें सूचना के अधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की पारिवारिक संपत्ती का ब्यौरा मांगा जा सके। न्यायामूर्ति बालकृष्णन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया कि उनका दफ्तर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर आसीन हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थाई संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह भी खुलासा किया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं। इसलिए सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। मगर यहां बिडंबना यह है कि संसद न्यायपालिका को कोई दिशा निर्देश नहीं दे सकती और न्यायपालिका का विवेक मानता है कि वह सूचना के अधिकार से परे है। अब यहां सोचनीय पहलू यह है कि जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं? यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वेसर्वा है तो नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में भी जानकारी मांगने का अधिकार मिलना चाहिए।
भ्रष्टाचार अध्यन संबंधी रिपोर्ट में ग्यारह सरकारी सेवाओं का अध्ययन किया गया। जिसमें पुलिस में सबसे अधिक भ्रष्टाचार पाया गया। बीते साल में पांच करोड़ 60 लाख परिवारों का बास्ता पुलिस से पड़ा, जिसमें ढाई करोड़ लोगों को 215 करोड़ रुपये रिश्वत में देने पड़े। ऐसा नहीं है कि इस निर्बाध चल रहे भष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए हमारे यहां कोई कानून नहीं हैं। भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम के तहत सीबीआई, पुलिस और लोकायुक्त पुलिस समय-समय पर छापे डालते हैं, भ्रष्टाचारियों को रंगे हाथ पकड़ते हैं, लेकिन श्रम कानून में उल्लेखित विकल्प जहां उन्हें तत्काल जमानत पर रिहा और निलंबन अवधि में भी 75 प्रतिशत वेतन देते रहने की सुविधाएं मुहैया कराते हैं, जिनकी वजह से छापामार कारवाइयों का कोई स्थायी असर सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों पर दिखाई नहीं देता। यही नहीं आपराधिक मामलों में प्राथमिकी दर्ज हो जाने के बावजूद विभागीय जांच का प्रावधान भ्रष्टाचारियों को पूर्ववत स्थिति में बहाल कर देने का सबसे बढ़ा आधार बना हुआ है। इस जांच में निर्दोष साबित होने पर इनके निलंबन अवधि के आर्थिक स्वत्व भी सध जाते हैं और इसी आधार पर अदालत से भी इन्हें कमोबेश राहत मिल जाती है। हालांकि अब खासतौर से भ्रष्टाचार के मामलों को जल्दी निपटाने की दृष्टि से विशेष अदालतें खोले जाने की मांग भी उठ रही है। इसके साथ ही इन मामलों का एक तय समय-सीमा में निराकरण किए जाने की मांग भी जोर पकड़ रही है।
सरकारी अमले के काम करने के ढंग में बदलाव लाना है तो इसके आकार को भी घटाने की जरुरत है। इस संर्दभ में हमें ब्रिटेन से सबक लेना चाहिए, जहां 1979 की तुलना में चालीस फीसदी सरकारी अमला कम किया गया है। इस अमले की जवाबदेही सुनिश्चित करने के साथ सरकारी सेवा में बने रहने की गांरटी भी खत्म करनी होगी। इसी गांरटी के चलते नौकरशाही कठोर और पतनशील बनी हुई है। ऐसे कुछ उपाय सामने आते हैं तो नौकरशाही के परिणामोन्मुखी बन जाने की उम्मीद की जा सकती है।
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