( पिछले अंक से जारी …) आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव इस अंक में - 1. कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं 9 2. वैश्विक बाजार...
आम आदमी और आर्थिक विकास
प्रमोद भार्गव
इस अंक में -
1. कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं 9
2. वैश्विक बाजार में चरखा 13
3. रोटी को खतरे में डालता आर्थिक विकास 17
4. विदेशी पूंजी का कसता शिकंजा 20
5. बाजारवाद की मंडी में राष्ट्र 24
कृषि से जुड़ा बाल श्रम मजदूरी नहीं
महात्मा गांधी ने श्रम आधारित शिक्षा की वकालत की थी लेकिन हमारे बाल श्रम अथवा बाल मजदूरी उन्मूलन के वर्तमान प्रयास और भावी उपक्रम श्रम को अभिशाप के दायरे में समेट देने की कोशिशें भर रह गये हैं। हाल ही में बचपन की चिंता करने वाली संस्था राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने खेती और पशुपालन से जुड़े बालक-बालिकाओं को इनसे वंचित कर देने का शिगूफा छोड़ा है। यदि कृषि और पशुपालन से जुड़े दैनंदिन बाल श्रम को बाल मजदूरी के बहाने इन कार्यो से वंचित किया जाता है तो यह कार्यवाही दिनचर्या में शामिल श्रम और ज्ञान परंपरा से खेलते-खेलते बहुत कुछ सीख व समझ लेने की स्वभाविक और व्यावहारिक जीवन के लिए जरूरी प्रक्रियाओं में बाधक सिद्ध होगी। दरअसल व्यावहारिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ बचपन बचाने के लिए उस संवेदनशीलता की जरूरत है जो अंर्तमन में दया-भाव उपजाती है। मौजूदा हालातों में आर्थिक समृद्धि का दंभ और कानून के रखवालों द्वारा ही कानून से खिलवाड़, बाल शोषण एवं अत्याचार के सबसे बड़े कारण बन रहे हैं।
आधुनिक विकास, पाश्चात्य जीवनशैली, आर्थिक समृद्धि और पारिवारिक इकाई का विघटन बाल श्रम के विस्तार और वित्तीय शोषण का कारण बने हुये हैं। महंगी अंग्रेजी शिक्षा और गरीब का सरकारी स्वास्थ्य लाभ से वंचित होते जाने के हालातों से भी बाल मजदूरी बढ़ रही है। ऐसे विपरीत हालातों में कृषि ग्रामीण विकास व संरचना से जुड़े कार्यों से बालकों को श्रम की कानूनी जद में लाकर बाल समस्या को और भयावह ही बनाएंगे? दरअसल बाल श्रम संबंधी जो भी कानून अब तक सामने आये हैं वे गरीब व लाचार के लिए संकट और अमल में ईमानदारी न बरती जाने के कारण सफेद हाथी बनी सरकारी व्यवस्था के लिए शोषण व भ्रष्टाचार के कारगर व लाभकारी हथियार ही साबित हुये हैं। ये कानून बाल श्रम की बुनियाद पर कुठाराघात के औजार कभी साबित नहीं हुये। इन कानूनों के संदर्भ में प्रचार-प्रसार से यह अवधारणा जरूर विकसित हुई है कि पहले जिस बाल श्रम को हम कल्याण का कारक मानते थे उसे अब शोषण का कारक मानने लगे हैं। लेकिन शब्दावली की इस विभाजक मानसिकता से बाल श्रम की स्थितियों में कोई वस्तुपरक परिवर्तन नहीं आया है।
बाल श्रम उन्मूलन संबंधी विधि संहिताएं बाल श्रम को भेद की दृष्टि से देखती हैं। 10 अक्टूबर 2006 से प्रभावी हुये बाल श्रम निवारण कानून के जरिये 14 साल से कम उम्र के बच्चे को घरेलू नौकर के रूप में काम करने के अलावा ढावों, रेस्तरां, होटलों, दुकानों, कारखानों, पत्थर या कोयला खदानों, ईट भट्टों और रेल श्रमिकों पर रोक लगाई हुई है। बावजूद इसके इन सभी संस्थानों में बाल श्रम जारी है। हम शिक्षा को जागरूकता का मूल कारण व आधार बताते हैं, लेकिन बतौर घरेलू नौकर जितने भी बाल श्रमिक हैं वे ऐसे ही उच्च शिक्षित घरों में हैं, जिन्होंने शिक्षा से प्रतिष्ठा, ओहदा और आर्थिक समृद्धि हासिल की है। इस सिलसिले में विरोधाभास यहां तक है कि जिन सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों का दायित्व बाल श्रमिकों को बाल श्रम से मुक्ति दिलाने का है उनके घरों में भी बाल-गोपाल नौकर हैं। बाल श्रमिकों का यौन शोषण घरेलू नौकर के रूप में सबसे ज्यादा है। ऐसे बाल श्रम उन्मूलन के उपचार थोथे और कागजी साबित हो रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार समूचे देश में 5 से 14 आयु वर्ग के 1 करोड़20 लाख से ज्यादा बच्चे बतौर मजदूर काम करते हैं। इनमें से 18 लाख 50 हजार 595 बच्चे ऐसे हैंं जो घरेलू नौकर का अभिशाप झेलने के लिए अभिशप्त हैं।
इधर नई कोशिशों में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बाल मजदूरी की अधिकतम आयु 14 साल से बढ़ाकर 15 साल किये जाने की वकालत भी की है। 14 साल या उससे कम उम्र के ऐसे बच्चे जो जीविकोपार्जन के लिए मजदूरी करते हैं बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं संविधान में निर्धारित मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 23 में यह प्रावधान है कि वेगार तथा जबरिया बाल श्रम निषेध होने के साथ दंडनीय अपराध भी है। कोई भी बाल गोपाल स्वेच्छा से बाल श्रम नहीं करना चाहता। आर्थिक तंगी और संसाधनों के अभाव से उसे बाल श्रम करना पड़ता है। लघु व सीमांत किसान और खेतीहर सर्वहारा वर्ग की मजबूरी हो जाती है कि कृषिजन्य जरूरतों के अलावा अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति वे मजदूरी से करें। ऐसे बच्चों को कृषि संबंधी मजदूरी से जोड़ने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। कृषि कार्य में भी ग्रामीण बालक इसलिए दक्ष हो जाता है क्योंकि वह खेल-खेल में अभिभावकों के साथ हल चलाना , बीज बोना, गुड़ाई करना, हरिया तोतों से फसल की सुरक्षा करना और पकने पर फसल काटना, जैसे कार्य सीख लेता है। खेती से जुड़ा श्रम एक ऐसा श्रम है जो आत्मविश्वास बढ़ाता है। बालक से किशोर और फिर युवा हो रहे इन बाल-गोपालों में खेती का हुनर सीखते हुए यह भाव भी घर करता जाता है कि पढ़ लिख कर नौकरी नहीं मिली तो खेती बाड़ी से ही पेट पाल लेंगे। ग्रामीणों के लिए यह जिजीविषा संजीवनी भी देती रहती है।
यह सही है कि बाल श्रम मनुष्यता के विकास को बाधित करने वाला एक प्रमुख कारण है, लेकिन खेती से जुड़ा श्रम विकास में बाधा नहीं बनाता। यदि ऐसा हुआ तो किसान का बेटा और कृषक होने का दावा करने वाले लालू, मुलायम और नीतिश कुमार जैसे नेता हमारे पास नहीं होते। दरअसल बाल संरक्षण संस्थाएं वहां चोट नहीं कर पा रही हैं जहां उन्हें चोट करनी चाहिए। इन संस्थाओं को इस पड़ताल की जरूरत है कि आर्थिक विकास से जुड़े ग्रामीणों के हक कौन मार रहा है? मध्यान्ह भोजन की राशि कौन डकार रहा है? ग्राम पाठशालाओं में शिक्षक नियमित क्यों नहीं जा रहे और शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए क्या-क्या जरूरतें हैं। शिक्षा में समानता की पहल पर अमल क्यों नहीं हो पा रहा है। रोजगार गारंटी योजना भ्रष्टाचार की गारंटी क्यों बनी हुई है? यदि उपरोक्त योजनाओं में विश्वसनीयता कायम होती है तो बाल श्रम भी कम होगा। आज ग्रामीण अंचल में आर्थिक दरिद्रता, शिक्षा अथवा जागरूकता में कमी के बजाय सरकारी भ्रष्टाचार व कर्तव्यहीनता के कारण बनी हुई है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अव्यावहारिक गर्वोक्ति है कि बाल श्रम के संबंध में जितने भी कानून बने हैं उनमें से कोई भी बच्चों को कृषि क्षेत्र में काम करने से रोकने वाला नहीं है। बच्चे खेती और पशु पालन के काम में लगे रहते हैं इसलिए उनकी पढ़ाई प्रभावित होती है। वर्तमान स्थितियों में हमने शिक्षा को जिस तरह से शिक्षा के व्यवसाय में तब्दील कर दिया है उस प्रतिस्पर्धा में कमजोर आर्थिक पक्ष वाला तबका भागीदारी से ही वंचित हो गया है। वैसे भी जबसे शिक्षा अंकों के होड़ का मूल्यांकन बनी हुई है तबसे रोजगारमूलक और आत्मबल को सशक्त बनाये रखने का दायित्व शिक्षा कहां संभाल पा रही है। परीक्षा परिणामों के बाद बढ़ती आत्महत्याएं इस खोखली शिक्षा व्यवस्था के आत्मघाती दुष्परिणामों की साक्षी है। अब शैक्षिक स्तर पर कोशिशें होनी चाहिए कि हम शिक्षा को रोजगार तक सीमित रखने की बजाय उसे व्यक्ति के सशक्तीकरण का माध्यम बनाएं।
बाल श्रम को जिस दृष्टि से हम देखते हैं उसमें भेद है। हम वंचितों के बच्चों को तो बाल श्रम अथवा बाल श्रमिक के रूप में देखते हैं, लेकिन टी.वी. धारावाहिकों, विज्ञापनों और गीत संगीत की प्रतिस्पर्धा में लगे बच्चों के श्रम को श्रम के नजरिये से नहीं देखते? क्योंकि ये बच्चे आर्थिक रूप से संपन्न घरानों से आते हैं और इनके साथ ग्लैमर का वैभव जुड़ा होता है लेकिन भूमिका के अभ्यास के लिए बच्चे लगातार जो 10-15 घंटे व्यस्त व ध्यानस्थ रहते हैं। वह भी परोक्ष रूप से शोषण का ही एक लक्षण है। अभ्यास में यह निरंतरता बाल स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और बालक की स्वस्थ्य चेतना कुंठित होती है। नियमित शिक्षा से भी वे वंचित हो जाते हैंं। संभवतः इसलिए ज्यादातर बाल कलाकार बड़े होने पर अपनी प्रतिभा अनवरत नहीं रख पाते और उनकी पहचान लुप्त हो जाती है। यह भी बाल अधिकारों का हनन है और इसे भी बाल अधिकार संरक्षण के दायरे में लाना चाहिए।
वैसे तो हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि में किसान और कृषि नदारत हैं, ऐसे में खेती से बाल श्रम को कानूनन वंचित कर देंगे तो एक बड़ी आबादी को हम भगवान भरोसे छोड़ देंगे। बाल अधिकारों के संबंध में हमारी चुनौती भ्रष्टाचार मुक्त शासन प्रणाली और संवेदनशील जाबवदेही होनी चाहिए। कानून तो वैसे भी हमारे देश में कागजी खानापूर्ति भर रह गये हैं।
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वैश्विक बाजार में चरखा
वैश्वीकरण के दौर में चरखे के व्यवसाय में उछाल के आंकड़े हास्यापद लगते हैं। लेकिन हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। माहात्मा गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के विचार का प्रतीक चरखा प्रौद्योगीकीय तकनीक और पाश्चात्य जीवनशैली अपनाने की होड़ में मुक्त अर्थ व्यवस्था में हस्तक्षेप कर अपनीउपस्थिति दर्ज करा रहा है, यह हैरानी में डालने वाली बात है। बाजार में चरखे की कामयाब दखल की खबर अहमदाबाद से है। यहां के खादी ग्रामोद्योग मंडल ने 2007-2008 में पौने दो करोड़ रूपये के चरखे बेचकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। पिछले साल के आंकडों (72 लाख) की तुलना में यह बिक्री दोगुनी से भी ज्यादा है। कुल मिलाकर तीन साल में चरखों की बिक्री तीन गुना बड़ी है। वह भी बिना किसी आधुनिक व्यावसायिक प्रबंधन के। ठेठ देशी संसाधनों से निर्मित इस उपकरण को माल बनाकर बेचने के लिए सुगठित अधढकी स्त्री देह का भी उपयोग नहीं किया गया। चरखे द्वारा खादी उत्पादन के सरोकार से जुड़ी यह खबर प्राकृतिक संपदा के यांत्रिक दोहन से लगातार असंतुलित हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को कायम रखने की दिशा में एक कारगर संकेत है। कयोंकि यांत्रिकीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद से उपजी भोगवादी प्रवृत्तियों ने सृष्टि को ही आसन्न संकटों के हवाले छोड़ दिया है। बढ़ते औद्योगिक उत्पादन के चलते जलवायु परिवर्तन और दुनिया में बढ़ते तापमान जैसे विनाशकारी जो अनर्थ पृथ्वी को प्रलय में बदलने के कारण गिनाये जा रहे हैं, उनसे निपटने में चरखा की अहं भूमिका सामने आ सकती है।
गांधीजी ने केंद्रीय उद्योग समूहों के विरूद्ध चरखे को बीच में रखकर लोगों के लिए उत्पादन की जगह, उत्पादन लोगो द्वारा हो, का आंदोलन चलाया था। जिससे एक बढ़ी आबादी वाले देश में बहुसंख्यक लोग रोजगार से जुडें़ और बढ़े उद्योगों का विस्तार सीमित रहे। इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा का उद्देश्य यांत्रिकीकरण से मानव मात्रा को छुटकारा दिलाकर उसे सीधे स्वरोजगार से जोड़ना था। क्योंकि दूरदृष्टा गांधी की अंर्तदुष्टि ने तभी अनुमान लगा लिया था कि औद्योगिक उत्पादन और प्रौद्योगिकी विस्तार में सृष्टि के विनाश के कारण अंतनिर्हित हैं। आज दुनिया के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों से जल, थल और नभ को एक साथ दूषित कर देने के कारणों में यही कारण गिनाते हुए, प्रलय की ओर कदम बढ़ा रहे इंसान को औद्योगीकरण घटाने के लिए पुरजोरी से आगाह कर रहे हैं। लेकिन अभी इंसान की मानसिकता गलतियां सुधारने के लिए तैयार नहीं हो पाई है।
गांधी गरीब की गरीबी से कटु यर्थाथ के रूप में परिचित थे। इस निवर्सन गरीबी से उनका साक्षात्कार उड़ीसा के एक गांव में हुआ। यहां एक बूढ़़ी औरत ने गांधी से मुलाकात की थी। जिसके पैंबद लगे वस्त्र बेहद मैले-कुचेले थे। गांधी ने शायद साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना महिला की आदत समझी। इसलिए उसे हिदायत देते हुए बोले, ‘अम्मां क्यों नहीं कपड़ों को धो लेती हो?' बुढ़िया बेवाकी से बोली, ‘बेटा जब बदलने को दूसरे कपड़े हों, तब न धो पहनूं।' महात्मा आपादमस्तक सन्न व निरूत्तर रह गए। इस घटना ने उनके अंर्तमन में गरीब की दिगंबर देह, वस्त्र से ढकने के उपाय के रूप में ‘चरखा' का विचार कौंधा। साथ ही उन्होंने स्वयं एक वस्त्र पहनने व ओढ़ने का संकल्प लिया। देखते-देखते उन्होंने ‘वस्त्र के स्वावलंबन' का एक पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया। लोगों को तकली-चरखे से सूत कातने को उत्प्रेरित किया। सुखद परिणामों के चलते चरखा स्वनिर्मित वस्त्रों से देह ढकने का एक कारगर अस्त्र ही बन गया।
इधर वैश्विक अर्थव्यवस्था के पैरोकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कर्ज में डूबे और आत्महत्या कर रहे किसानों को उद्योग लगाने की सलाह देते हैं। यहां व्यावहारिक ज्ञान का संकट है। अब भला मनमोहन सिंह से कौन पूछे कि बदतर माली हालत के चलते आजीविका का संकट झेल रहा किसान बिना पूंजी और बिना किसी औद्योगिक स्थापना संबंधी ज्ञानाभाव में उद्योग कैसे लगाएगा? हां चरखा चलाकर सूत कात सकता है। बशर्ते सरकार उसे खरीदने की गारंटी ले? मगर मनमोहन तो जवाहरलाल नेहरू के अनुआयी हैं जो इंडिया के पैरोकार थे। बेचारे, गांधी तो ‘भारत' में रहने वाले लाचारों के नेता और प्रणेता थे, ऐसे गांधी का अनुसरण एक अंग्रेजीदां नौकरशाह कैसे करे? वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के सापेक्ष आमजन के हित साधन की?
पिछले डेढ़-पौने दो दशक के भीतर उद्योगों की स्थापना के सिलसिले में हमारी जो नीतियां सामने आयी हैं उनमें अकुशल मानव श्रम की उपेक्षा उसी तर्ज पर है जिस तर्ज पर अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने ब्रिटेन में मशीनों से निर्मित कपड़ों को बेचने के लिए ढांका (बांगलादेश) के मलमल बुनकरों के हस्त उद्योग को हुकूमत के बल पर नेस्तनाबूद ही नहीं किया, उन्हें भूखों मरने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया। आज स्वतंत्र भारत में पूंजीवादी अभियान के चलते रिलांयस फ्रेस और वालमार्ट के हित साधन को दृष्टिगत रखते हुए खुदरा व्यापार से मानवश्रम को बेदखल किया जा रहा है, वहीं सेज के लिए कृषि भूमि हथिया कर किसानों को खेती से खदेड़ देने की मुहिम चल पड़ी है। जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपने देश के समग्र कुशल-अकुशल मानव समुदायों के हित साधनों के दृष्टिकोण सामने लाएं। हमारी अर्थव्यवस्था गांधी की सोच वाली आर्थिक प्रक्रिया की स्थापना और विस्तार में न मनुष्य के हितों पर कुठाराघात होता है और न ही प्राकृतिक संपदा के हितों के सरोकार पूंजीवादियों के हितों पर? जबकि मौजूदा आर्थिक हितों के सरोकार पूंजीवादियों के हित तो साधते हैं, इसके विपरीत मानवश्रम से जुड़े हितों को तिरष्कृत करते हैं और प्राकृतिक संपदा को नष्ट करते हैं। मानव समुदायों के बीच असमानता की खाई इन्हीं से उत्तरोतर बढ़ती चली जा रही है।
चरखा और खादी परस्पर एक दूसरे के पर्याय हैं। गांधी की शिष्या निर्मला देशपाण्डे ने अपने एक संस्मरण का उद्घाटन करते हुए कहा था, नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप तैयार करने से पहले आचार्य विनोबा भावे को मार्गदर्शन हेतु आमंत्रित किया। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के दौरान आचार्य ने कहा कि ऐसी योजनाएं बननी चाहिए जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। क्योंकि गरीब इंतजार नहीं कर सकता। उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। आप गरीब को काम नहीं दे सकते, लेकिन मेरा चरखा ऐसा कर सकता है। वाकई यदि पहली पंचवर्षीय योजना को अमल में लाने के प्रावधानों में चरखा और खादी को रखा जाता तो मौसम की मार और कर्ज का संकट झेल रहा किसान आत्महत्या करने को विवश नहीं होता।
दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरबपतियों-खरबपतियों की फोर्ब्स पत्रिका में छप रही सूचियों से निकालने लगे हैं। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोग वादी संस्कृति से जुड़ा है। जबकि हमारे परंपरावादी आदर्श किसी भी प्रकार के भोग में अतिवादिता को अस्वीकार तो करते ही हैं, भोग की दुष्परिणति पतन में भी देखते हैं। अनेक प्राचीन संस्कृतियां जब उच्चता के चरम पर पहुंचकर विलासिता में लिप्त हो गईं तो उनके पतन का सिलसिला शुरू हो गया। रक्ष, मिश्र, रोमन, नंद और मुगल संस्कृतियों का यही हश्र हुआ। भगवान कृष्ण के सगे-संबंधी जब दुराचार और भोगविलास में संलग्न हो गए तो स्वयं भगवान कृष्ण ने उनका अंत कर दिया। इतिहास दृष्टि से सबक लेते हुए गांधी ने कहा था, ‘किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। बेशक किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं बल्कि जनसाधारण का कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है, यह होनी चाहिए।' यह कितनी विडंबना कि बात है आज हम अंबानी बंधुओं की आय की तुलना उस आम आदमी की मासिक आय से करते हैं जो 20 और 9 रूपये रोज कमाता है। औसत आय का यह पैमाना क्या आर्थिक दरिद्रता पर पर्दा डालने का उपक्रम नहीं है?
गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के चिंतन और समाधन की जो धाराएं चरखे की गतिशीलता से फूटती थीं, उस गांधी के अनुआयी वैश्विक बाजार में समस्त बेरोजगारों के रोजगार का हल ढूढ़ रहे हैं। यह मृग-मारीचिका नहीं तो और क्या है? अब तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के चलते रोजगार और औद्योगिक उत्पादन दोनों के ही घटने के आंकड़े सामने आने लगे हैं। इन नतीजों से साफ हो गया है कि भू-मण्डलीकरण ने रोजगार के अवसर बढ़ाने की बजाय घटाये हैं। ऐसे में चरखे से खादी का निर्माण एक बढ़ी आबादी को रोजगार से जोड़ने का काम कर सकता है। वर्तमान में भी सात हजार खादी आउटलेट्स हैं। इनसे सालाना पचास करोड़ रूपये की खादी का निर्यात कर विदेशी पूंजी कमाई जाती है। यदि घरेलू स्तर पर ही बुनकारों को समुचित कच्चा माल और बाजार मुहैया कराए जाएं तो खादी का उत्पादन और विपणन दोनों में ही आशातीत वृद्धि हो सकती है और बेरोजगारी की समस्या को एक हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इस संदर्भ में गांधी कह चुके हैं कि भारत के किसान की रक्षा खादी के बिना नहीं की जा सकती है। गांधी की इस सार्थक दृष्टि का आकलन हम विदर्भ, आंधप्रदेश और बुन्देलखण्ड में आत्महत्या कर रहे किसानों के प्रसंग से जोड़कर देख सकते हैं। भारत की विशाल आबादी पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था से समृद्धशाली नहीं हो सकती, बल्कि वैश्विक आर्थिकी से मुक्ति दिलाकर, विकास को समतामूलक कारकों से जोड़कर इसे सुखी और संपन्न बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से चरखा एक सार्थक औजार के रूप में खासतौर से ग्रामीण परिवेश में ग्रामीणों के लिए एक नया अर्थशास्त्र रच सकता है।
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रोटी को खतरे में डालता आर्थिक विकास
हाल ही में कथित विकास और व्यवस्था से जुड़ी तीन ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिसके गर्भ से उपजा आक्रोश बढ़ते रोटी के संकट की भयावहता को प्रकट करता है। बहुराष्ट्रीय कंपनी सार्लिकॉ-ग्रेजियानो ट्रांसमिशन इंडिया विदेशी कंपनी के कार्यकारी अधिकारी ललित किशोर चौधरी की पीट-पीटकर हत्या उन तीन सौ बर्खास्त कर्मचारियों ने कर दी जिन्हें तीन माह पहले बिना किसी ठोस कारण के कंपनी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इसी समय टाटा की लखटकिया नैनो के लिए झारखण्ड में जमीन तलाशने गए तीन अधिकारियों को ग्रामीणों ने इतना मारा-पीटा और बेइज्जत किया कि ये भविष्य में शायद ही कभी गांव की ओर रूख करें। इनसे दांतों में इन्हीं के जूते दबवाए गए। गले में जूतों की माला पहनाई। मदारी के जमूरे की तरह इनके हाथ-पैरों में रस्सियां बांध कर इन्हें पूरे गांव में घंटों घुमाया गया । जूते -चप्पलों से महिलाओं ने पीटा और बच्चों ने तालियां बजाईं। तीसरी घटना मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के कूनो पालपुर अभ्यारण्य की है, जहां के चौदह साल पहले विस्थपित किए गए आदिवासियों को आज तक मुआवजा नहीं मिला। फलस्वरूप रोटी के संकट से घिरे इन हजारों आदिवासी महिला-बच्चों ने जंगल की ओर कूच कर दिया। रोकने पर पुलिस, वनकर्मियों और वनवासियों के बीच संघर्ष छिड़ा। पुलिस ने फयारिंग की। वनवासियों ने पत्थर बरसाये। समाजशास्त्री और दिग्गज कलमकार घटनाओं में हुए हिंसात्मक उभार में कानून व्यवस्था की निष्क्रियता जता रहे हैं, जबकि यह हिंसा असुरक्षित होती रोटी की परिणति है। किसी भी बड़े समाज की रोटी को संकट में डाल देंगे तो कानून व्यवस्था दूर-दूर तक दूरबीन से भी दिखाई देने वाली नहीं हैं।
नोएडा की घटना के मामले में यूपीए सरकार के श्रम मंत्री ऑसकर फर्नांडीज ने तत्काल प्रतिक्रिया के बहाने जो बयान दिया कि यह घटना कारपोरेट प्रबंधन के लिए एक चेतावनी है कि वे इस तरह से पेश नहीं आएं कि श्रमिक ऐसा कदम उठाएं। दरअसल एक संवेदनशील मंत्री की यह प्रतिक्रिया अंतर्रात्मा की स्वाभाविक आवाज थी, जो श्रमिक के मूल्य और पीड़ा को एक साथ महसूस रहा था। लेकिन न तो इटली-मूल की ग्रेजियानो कंपनी मामूली थी और न ही उसके सीईओ मामूली नौकर पेशा! लिहाजा हल्ला मचना जरूरी था। मचा भी। अमेरिका की यात्रा पर बने रहने के बावजूद आर्थिक विकास के पैरोकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वीडियों कांफ्रेंस के जरिये एक उच्चस्तरीय बैठक फौरन बुलाई ताकि अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं में उबाल न आए और बहुराष्ट्रीय कंपनियां असुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में सामूहिक ताकत के रूप में पेश न हो पाएं? लेकिन यही तत्परता प्रधानमंत्री ने तब क्यों नहीं दिखाई जब मोटर पार्ट्स निर्माता इस कंपनी ने लगभग तीन महीने पहले तीन सौ कर्मचारियों को अनुशासन हीनता के आरोप में कंपनी से निकाल दिया था। क्या तीन सौ कर्मचारी एक साथ अनुशासन हीनता कर सकते हैं? इन कर्मचारियों को निकालने का कारण तो कंपनी ने स्पष्ट नहीं किया लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में कहीं विश्वव्यापार में आ रही आर्थिक मंदी तो नहीं? यदि इस मंदी की आंच बहुराष्ट्रीय कंपनियां भांप रही हैं तो इन कंपनियों से कर्मचारियों को अनुशासन हीनता नत्थी कर ही निकाला जाएगा। जिससे कर्मचारियों को सेवा-शर्ताें के अनुसार लाभांश में से वेतन, भत्ते व भविष्य निधि नहीं दी जानी पड़े? अमेरिका के वित्तीय संस्थान लीमेन ब्रदर्स, मेरिल लिंच और गोलमैन सैक्स जैसी बैंकिंग कंपनियों का दिवाला निकलने की वजह से उक्त आशंकाएं और प्रबल हो गई हैं? अमेरिकी अर्थव्यस्था का पिछलग्गू होने के कारण भारत का शेयर बाजार भी गोते खाने में लगा है। नतीजतन कई शेयर कारोबरियों ने आर्थिक असुरक्षा के दायरे में आ जाने के कारण अपनी जीवन-लीला तक खत्म कर डाली। आंकड़ों की बाजीगरी से उछाल मारते रहे सेंसैक्स की अब भयावह हकीकत सामने आने लगी है।
दरअसल भूमण्डलीकरण के बाद हमने अपने संपूर्ण औद्योगिक-प्रौद्योगिक विकास को अमेरिकी पूंजी निवेश के बूते आगे बढ़ाया। ब्रिटिश पूंजी निवेश तो हमारे यहां आजादी के पहले से ही था और आजादी के बाद भी बना रहा। गोया तय है कि बाहर की पूंजी से आर्थिक शक्ति बनने का महास्वप्न तब कभी भी ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर ढह सकता है जब भारत में पूंजी निवेश वाले किसी भी एक देश की वित्तीय हालत गड़बड़ा जाए? वित्तीय अस्थिरता के इस दौर से उबरने के लिए कंपनियां मानव-श्रम को सीमित करेंगी। मसलन लागों को नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। नौकरी जाएगी तो अर्थिक असुरक्षा के हालात निर्मित होंगे जो भूख और रोटी का संकट सामने लाएंगे। जब यह संकट भयावह होगा तो इससे पैदा आक्रोश अराजकता का माहौल रचेगा। यह अराजकता नोएडा के ग्रेजियानों कंपनी जैसे काण्डों को दोहरा सकती है? क्योंकि भूमण्डलीकरण के साथ आर्थिक उदारीकरण के विस्तार को दृष्टिगत रखते हुए जिस तरह हमने संसद में कानून लाकर श्रम के अधिकारों को कमजोर किया है उसके चलते निजी संसथानों में काम करने वाले श्रमिकों की नौकरी की गारंटी तो असुरक्षित हुई ही है कम वेतन पर ज्यादा काम लेने की स्थितियां भी मजबूत हुई हैं। कामगर के दिमाग में यह विरोधाभास अराजकता के संशय को उपजता रहता है। तीन सौ लोगों को एक साथ नौकरी से बेदखल कर दिए जाने के बावजूद दिल्ली में बैठे श्रम विभाग की कोई सार्थक पहल सामने नहीं आई। यह इस बात की तसदीक है कि श्रम कानूनों में कंपनियों को बाध्य करने की अंतर्निहित शक्ति रह ही नहीं गई है। रोटी के इसी संकट का विस्तार हमने झारखंड में टाटा की नैनो के लिए जमीन तलाश रहे तीन अधिकारियों की निर्मम पिटाई और म.प्र. के कूनो-पालपुर में पुलिस, वनकर्मियों व वनवासियों के टकराव के सिलसिले में देखा।
दरअसल अब आर्थिक सुरक्षा और रोटी का संकट ग्रामीण अंचलों में संगठित उग्रवाद के रूप में विस्तार पाता जा रहा है। सिंगुर एक साल से भी ज्यादा समय से वेकाबू है। नक्सलबाद एक बड़े भू-क्षेत्र में औद्योगिक इकाई और प्रशासनिक तंत्र के लिए संकट बना हुआ है। उड़ीसा, बिहार और झारखंड में माओवादियों की लाल बिग्रेड गरीबी की मार झेल रहे ग्रामीणों में मजबूत पैठ बनाने के बाद पश्चिम बंगाल के कटवा और बर्द्धमान में खुफिया सूत्रों के अनुसार अपनी सक्रियता को विस्तार देने की राह में है। क्योंकि यहां थर्मल प्लान्ट और एक हवाई अड्डा प्रस्तावित हैं जिनके वजूद के लिए ग्रमीणों के जल जंगल और जमीन छीने जाने हैं। गरीबों की रोटी की ये बुनियादी जरूरतें औद्योगिक विकास कि जरूरतें पूरी करने के लिए छीने जाएंगे तो उनके समक्ष रोटी का संकट मुंहबाए खड़ा होगा? और संकट से उबरने का कोई समाधान सामने नहीं होगा तो लाचार, आक्रोश, अराजकता और उग्रवाद का रास्ता नहीं अपनाएगें तो क्या करेंगे? क्योंकि आर्थिक मंदियों और विस्थापन जैसी मानव उत्सर्जित आपदाओं का जितना भी प्रतिकूल असर पड़ता है वह गरीब पर ही पड़ता है? अब सरकार इस त्रासदी पर मलहम लगाने की परवाह न करे तो रोटी के संकट से जूझता लाचार क्या करे? कहां जाए?
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विदेशी पूंजी का कसता शिकंजा
कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने निर्धारित हदों व नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर विश्वास मत हासिल किया उससे तय हो गया है कि भारतीय राजनीति के मूल व सैद्धांतिक आधार का विचारधारा से कोई वास्ता नहीं रह गया है। सत्ता में बने रहने के गणित ने सत्ताधारियों और सत्ता को टिकाये रखने वालों को इतना दिग्भ्रिमित कर दिया है कि उन्होंने देश पर निरंतर कसते जा रहे अमेरिकी पूंजी के शिकंजे की तरफ से आंखें ही मूंद ली हैं। परमाणु करार के परिणाम तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन वामपंथियों का अंकुश हट जाने से विदेशी पूंजी भारतीय बाजार पर जिस आक्रमकता से हमला बोलने वाली है, उसके नतीजे बहुसंख्यक आबादी के हित कतई साधने वाले नहीं हैं। उसके लिए तो जल, जमीन और जंगल के संकट गहराते ही जा रहे हैं।
कुछ भूलें हमने देश विभाजन की शर्त पर मिली आजादी के समय की थीं, जिनका खामियाजा आज तक भुगतने को हम विवश हैं। दूसरी बड़ी भूल बाजारवाद और भूमण्डलीकरण के साथ आर्थिक विकास के बहाने अमेरिकी मॉडल अपना कर की। लिहाजा अमेरिकी पूंजी का प्रवाह भी बढ़ गया है। नतीजतन आजादी के पहले जहां भारतीय जनमानस पर ब्रितानी प्रभाव था, वही अब अमेरिकी प्रभाव कायम हो गया है। इन पूंजीवादी नीतियों के विस्तार की निरंतरता से उत्तरोतर असमानता की खाई प्रशस्त होती जाने से असंतोष भी बढ़ता रहा। आज यही असंतोष भयानक अराजकता की स्थिति में है। आग, लूटजनी, हिंसा और बलात्कार की घटनाएं जिस तरह से रोजमर्रा की चीज हो गई हैं, उससे जाहिर है कि देश में प्रशासन, अनुशासन और कानून व्यवस्था जैसे कोई इंतजामात ही नहीं हैं। देश भर में आतंकवादियों द्वारा किए जा रहे विस्फोटों ने लोकतंत्र की चूलें हिला दी हैं। सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस बलों के खुफिया तंत्र बेमानी साबित हो रहे हैं। हर आतंकवादी गतिविधि के बाद कुछ आतंकवादियों के काल्फनिक रेखाचित्रा जारी करने के अलावा हमारी हाईटेक टेक्नोलॉजी किसी सार्थक नतीजे पर पहुंचने के सिलसिले में पश्त ही नजर आती है।
देश में जिस तेजी से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पूंजी निवेश बड़ा, उतनी ही तेजी से सांप्रदायिक सदभाव और सामाजिक न्याय के हित हाशिये पर चले गए। खुद को राष्ट्रवादी राजनीतिक शक्ति कहने वाले संप्रदायवाद की गिरफ्त में आ गए। सामाजिक न्याय के समाजवादी पुरोधा अवैधानिक तरीकों से हाथ में लगी पूंजी के मार्फत राजनीतिक हथकंडों के खिलाड़ी बन गए। ऐसी ही दूषित मानसिकता के चलते लालूप्रसाद यादव जब मुसलिम बहुल इलाकों में प्रचार के लिए निकलते हैं तो एक ऐसे शख्स को साथ लेकर चलते हैं जिसकी शक्ल और कद-कांठी ओसामा बिन लादेन से मेल खाती है। आखिर लादेन को रोल मॉडल के रूप में मुसलिमों के बीच प्रस्तुत कर आप क्या संदेश देना चाहते है? लादेन की नजर में तो इस्लाम को नहीं मानने वाले सब काफिर हैं। बामियान में चट्टानों पर उत्खचित मूर्तियों को विस्फोट से उड़ा देने में उसे कोई संकोच नहीं होता? आखिर लादेन किस वैचारिक निष्ठा का प्रतिरूप है, जो आप उसके हमशक्ल को साथ लेकर चल रहे हैं। क्या यह हथकंडा मुसलिम मानसिकता के दोहन का प्रतीक नहीं हैं? लालू का यह हथकंडा मुसलिमों की राष्ट्रीयता पर भी सवाल खड़े करता है?
आजादी के साथ ब्रिटिश पूंजी बनी रहने के कारण ही हमें मुसलिम सांप्रदायिकता विरासत में मिली। जबकि पाकिस्तान ने तो सांप्रदायकि संकट का हल पाकिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बनाकर निकाल लिया और भारत आज भी हिन्दु-मुस्लिम सांप्रदायिता का दंड भोग रहा है। स्वतंत्रता के समय कश्मीर में मुस्लिम संप्रदायवाद नहीं था, लेकिन अस्सी के दशक में इतनी शक्तिशाली ताकत के रूप में उभरा कि आज भारत के नक्शे पर कश्मीर सिर्फ सुरक्षा बलों की दम पर ही है। सिख-संप्रदायवाद और पंजाब को खालिस्तान के रूप में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग ब्रिटिश पूंजी और देश विभाजन के कारण ही संकट के रूप में उपजे और देश को इस समस्या से निजात पाने के लिए इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री असमय राष्ट्र की अखण्डता की बलिवेदी पर भेंट चढानी पड़ी। यूरोप के अनेक देशों और सोवियत संघ का विघटन विदेशी पूंजी के कारण ही हुए। और हम हैं कि विदेशी पूंजी के आगमन के लिए नीति दर नीति बनाए जा रहे हैं।
1991 में वर्तमान प्रधानमंत्री और तात्कालिक वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भूमण्डलीकरण और मुक्त बाजारवादी व्यवस्था संबंधी नीतियों की शुरूआत की थी। इन्हीं नीतियों के चलते एक ओर तो देश के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेचने के लिए पूंजी विनिमेश का सिलसिला शुरू किया गया वहीं दूसरी ओर सरकारी नौकरियों में भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया गया। शिक्षित बेरोजगारों को नए अवसर न मिलें इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों के सेवारत कर्मचारियों की सेवानिवृति की उम्र बढ़ाई गई। विदेशी पूंजी के प्रभाव में ही एक ओर तो हम दयालुता बरतते हुए केन्द्र व राज्य सरकारों के पेंशनधारियों की पेंशन में वृद्धि के साथ अन्य सुविधाओं पर खर्च बढ़ाते जा रहे हैं दूसरी ओर युवा शक्ति को बेरोजगार बनाए रखते हुए अराजक पृष्ठभूमि तैयार करने में लगे हैं। किसी भी राष्ट्र का भविष्य बेवजह बुजुर्गों पर अर्थ और ऊर्जा खर्चने से नहीं संवरता, भविष्य युवा ऊर्जा को ही देश के विकास में सकारात्मक ढंग से जोड़ने से संवरता है। बुर्जगों के तारतम्य में संवेदनशीलता बरतना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन अनुकंपा के आधार पर कोई नीति ही बना ली जाए, तो उससे हमारे समाज का नैतिक ताना-बाना तिर्र-बिर्र होता चला जाएगा। चहुंओर फैली अराजकता यही संकेत दे रही है।
जब हम जल, जंगल और जमीन विदेशी शक्तियों और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करते जा रहे हैं तो परमाणु ताकत चाहे वह बम के रूप में हो अथवा बिजली के रूप में किसके लिए उपयोगी साबित होगी? और फिर इस परमाणु ऊर्जा से हमारी कितनी जरूरत की पूर्ति हो पाएगी? वह भी तब जब बीस साल बाद परमाणु ऊर्जा को उपयोग में लाए जाने का सिलसिला शुरू होगा। इस नाभिकीय ऊर्जा से उत्पन्न होने वाले खतरों की भी हम अनदेखी कर रहे हैं। जिन क्षेत्रों में यूरेनियम संबर्धन का काम होता है और जहां परमाणु सयंत्र लगाए जाएंगे, वहां के निवासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु विकिरण का क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा? परमाणु भट्टियों से निकलने वाले लाखों टन कचरे के शोधन अथवा विनष्टीकरण का कोई उपाय है हमारे पास? फिलहाल तो हम प्लास्टिक, कम्प्यूटर और इलेक्ट्रोनिक कचरे को ही ठिकाने लगाने का कोई कारगर उपाय नहीं खोज पा रहे, तब परमाणु कचरे का क्या तलाश पाएंगे? परमाणु ऊर्जा के लिए युरेनियम के भण्डार क्या अक्षय स्रोत बने रहेंगे? यह सवाल भी विचारनीय है।
विदेशी पूंजी के बहाने जो उदारवादी बाजार सुरसामुख की तरह फैल रहा है वह हमारी स्वदेशी शक्तियों और आत्मनिर्भरता के मंत्रा को लगातार निगलता जा रहा है। इन्हें बचाना वक्त की जरूरत और नीति नियंताओं के समक्ष सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं। आर्थिक उपलब्धियों की चकाचौंध ने देश की आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटा दिया है। इनके हल समय रहते नहीं ढूंढ़े गए तो सोवियत संध जैसे शक्तिशाली देश के विखण्डन का हश्र हमारे सामने है। किसी भी देश का तकनीकी विकास राष्ट्र की नैतिक व सांस्कृतिक हश्र की शर्त पर नहीं किया जाता? लेकिन तकनीकी होड़ के विस्तार के चलते देश पर आर्थिक पूंजी का शिकंजा इसी तरह से कसता चला गया, तो युवा पीढ़ी को दो तरह के खतरे झेलने होंगे, एक तो वह इस विकास का हिस्सा बनकर वैयक्तिक उपभोग में लग जाएगी और दूसरी वह जो इस विकास से न जुड़ पाने के रंज में कुंठित हेाती चली जायेगी। दोनों ही खतरे युवा पीढ़ी को अकेलेपन का शिकार बना देने के रास्ते पर डालने वाले हैं। और किसी भी देश का राष्ट्रीय व समग्र विकास एकाकीपन से नहीं सामूहिक सामुदायिकता से होता है? इस सामुदायिक भावना को हम अपने ही बीच में विलोपित करते जा रहे हैं।
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बाजारबाद की मंडी में राष्ट्र
जब राजनीति का मकसद धन कमाना हो जाये तब सवाल संसद में प्रश्न पूछने का हो अथवा विश्वास मत के दौरान मत देने का, राष्ट्र और जनहित गौण हो जाते हैं। हमारी लोकसभा और विधानसभाओं में जो परिदृश्य सामने आ रहे हैं उनसे तो यही स्पष्ट होता है कि राष्ट्र को बाजारवाद की भेंट चढ़ाया जा रहा है। पीवी नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार से लेकर विश्वास मत के जरिये मनमोहनसिंह सरकार को बचाये जाने तक सांसदों का मोलभाव होता है, यह अवधारणा पुख्ता होती चली जा रही है। गैर राजनीतिक, व्यवसायी और अपराधियों का राजनीति में दखल और प्रबंधन का हल्ला एवं विस्तार राष्ट्र को बाजार में लाकर खड़ा नहीं करेगा तो और क्या करेगा? डील संस्कृति के गणित और प्रबंधकीय कौशल की महिमा ने राष्ट्र के प्रति दायित्व, संविधान की गरिमा, परमाणु करार मुद्दे की समझ और राष्ट्र में अनेक स्तरों पर फैली असमानताओं जैसे मामलों को रसातल में पहुंचा देने की जैसे मुहिम ही चला दी है।
असंवैधानिक, अनैतिक, अराजतांत्रिक और भ्रष्ट राजनीतिक सक्रियता का उभार भारतीय राजनीति में हिमालयी होता जा रहा है। सोनियां गांधी ने विदेशी मूल के मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में जब प्रधानमंत्री पद की परोसी हुई थाली एक ओर सरका दी थी तब एकाएक नैतिक साहस के प्रदर्शन की चर्चा चल निकली थी और उन्हें त्याग की प्रतिमूूर्ति से नवाजा जाने लगा था। मनमोहनसिंह पर कठपुतली प्रधानमंत्री, अमेरिका का पिट्ठू विश्वबैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हितसाधक के आरोप प्रत्यारोप भले ही लगते रहे हों, लेकिन उनकी मानसिक एवं शारीरिक शुचिता पर अंगुली कभी नहीं उठाई गई। काजल की कोठरी में जिम्मेदार पदों पर दशकों पदारूढ़ रहने के बावजूद उनकी स्वच्छ छवि बेदाग ही रही है। लेकिन 22 जुलाई को नेपथ्य में रहकर जिस तरह से उन्होंने राजनीति के अग्रिम मोर्चे पर शिखण्डी और बृहन्नलाओं को खड़ा करके विश्वास मत पर विजय हासिल की उससे कांग्रेस की सत्ता में बने रहने की विवशता तो सामने आई ही संविधान में स्थापित पवित्राता, मर्यादा और गरिमा की चूलें हिला दीं। भारतीय राजनीति के भविष्य के झण्डाबरदार कौन होते हैं यह तो वक्त के चंगुल में है लेकिन डील संस्कृति का चलन और विस्तार 22 जुलाई की तर्ज पर ही बना रहता है तो इसके परिणाम राष्ट्र और राजनीति को ले जाकर बाजारवाद की मंडी में ही खड़ा करेंगे।
यह गौरतलब है कि यदि 1996 में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को अमरसिंह और मुलायम जैसे प्रबंधक मिल गये होते तो एक वोट से उनकी सरकार गिर न गई होती? लेकिन प्रमोद महाजन और अरूण जेटली जैसे प्रबंधकों की जोडी तो उनके यहां भी थी। प्रमोद महाजन को इसलिए याद भी किया गया कि यदि उनकी अकाल मृत्यु न हुई होती तो वे भाजपा के लिए संकट मोचक तो साबित होते ही कांग्रेस को भी ''काल'' (यमराज) बन गये होते? नोट, पद और टिकिट के लालच में जिस तादात में उनके सांसदों की निष्ठा डोली शायद वह भी न डोल पाती? लेकिन अमेरिकी हित साधने में अटल सरकार भी कोई पीछे नहीं थी। अटल सरकार का वजूद 1996 में जब मात्रा तेरह दिन का था तब केन्द्र की इस सरकार ने मात्रा अमेरिकी कंपनी एनरॉन की फाईल निपटाई थी, जिसमें महाराष्ट्र विद्युत संयंत्र लगाकर देश को बिजली संकट से छुटकारा दिलाने का दावा किया था। राजनीतिक खबरों पर नजर रखने वालों को यह भी स्मरण होगा कि तब इस कंपनी ने राजनीतिकों को प्रबंधकीय रूप से शिक्षित करने के बहाने दो सौ करोड़ रूपये खर्च भी किये थे, लेकिन बाद में एनरॉन का दिवाला निकल गया। एनरॉन का हश्र जो भी हुआ हो लेकिन यह कैसी राजनीतिक बिडंबना रही थी कि राजनेता बाजारबाद की पाठशाला में सबक सीखने चले गये। एनरॉन अब महाराष्ट्र के लिए संकट बनी हुई है।
अल्पमत सरकारों को सांसदों की खरीद फरोख्त की सौदेबाजी के जरिये बचाये जाने का सिलसिला 1991 में शुरू हुआ था। तब शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों को पैसा देकर खरीदा गया था। अल्पमत सरकार इस सौदेबाजी से बहुमत में तो आ गई थी लेकिन मामला उजागर हो जाने से संसद की गरिमा को ठेस पहुंची। बाद में प्रधानमंत्री राव समेत सांसदों पर भी मामला चला। लेकिन संसद के विशेषाधिकार के दायरे में इस राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले के आ जाने के कारण न्यायालय ने लाचारी प्रकट कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपियों को संविधान के इस प्रावधान के अंतर्गत छूट दे दी थी कि सांसद को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। ये प्रावधान संभवतः संविधान निर्माताओं ने इसलिए रखे होंगे जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को पूरी निर्भीकता से अंजाम दें। उन्हें अपनी अवाम पर इतना भरोसा था कि इस अवाम के बीच से निर्वाचित प्रतिनिधि नैतिक दृष्टि से इतना मजबूत तो होगा ही कि रिश्वत लेकर न तो अपने मत का प्रयोग करेगा और न ही प्रश्न पूछेगा? आज संविधान निर्माताओं की आत्माऐं अपनी भूल का पश्चाताप संसद भवन की दीवारों से सिर पीटकर कर रही होंगी? इन गलियों से बच निकलने के रास्ते जब मुखर होकर प्रचलन में आ गए तो 22 जुलाई को खुद को नीलाम कर देने वाले सांसदों की संख्या भी बढ़ गई।
प्रधानमंत्री सांसदों की खरीद हुई है तो प्रमाण देने की मांग करते हैं। अब खुश्क रहने वाले मनमोहनसिंह को कौन बताये कि रिश्वत का लेन देन संपत्ति के क्रय विक्रय की तरह स्टांप पेपर पर नहीं होता? प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व भी इतना प्रखर वाक्पटु और लोक लुभावन नहीं है कि घाट-घाट का पानी पीने वाले सांसद उनसे सम्मोहित हो गए हों? इससे तय है कि सत्ता को बचाये रखने और गिराये जाने की कसरत में लगे कर्णधारों ने वे सभी हथकंडे अपनाए जो बाजारवाद को प्रश्रय देते हैं। मसलन जमीन बदलने के लिए धन बंटा, टिकट और मंत्री पद से नवाज देने के मौखिक अनुबंध हुए। वरना सरकार बचाने में प्रमुख भूमिका अभिनीत करने वाली अमर-मुलायम की जो जोड़ी परमाणु समझौते का संसद में ही जबरदस्त विरोध दर्ज करा चुकी थी, वह परमाणु करार के मसौदे में बिना कोई तब्दीली किए सहमत कैसे हो गई? इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि मायावती के प्रेत ने भी अमर-मुलायम को केन्द्रीय सत्ता तंत्र के समक्ष शरणागत होने को विवश किया। लेकिन इस पूरी कवायद में राष्ट्रहित कहां था? धर्म निरपेक्षता कहां थी? क्या अमेरिकी हितों को मजबूत करने से ही सच्चर कमेटी अमल में आकर मुसलिम हित साधेगी?
अजीत सिंह इस-उस पाले में इसलिए डोलते रहे कि भाव कहां ज्यादा मिलता है। इस बीच कांग्रेस से कोई वादा किए बिना ही लखनऊ हवाई अड्डे का नामाकरण अपने पिता चौधरी चरणसिंह के नाम पर करा ही लिया। फिर भी मायावती व वामदलों से कुछ ज्यादा निचोड़ लेने के फेर में वे चूक ही गए। अब पश्चाताप कर रहे होंगे। देवगौड़ा का राष्ट्रीय दायरा तो इतना संकीर्ण हो गया है कि उनका सोच प्रधानमंत्री जैस पद पर रह चुकने के बावजूद पारिवारिक हित की संकीर्णता से मुक्त नहीं हो पा रहा है। इसलिए कर्नाटक सरकार गिराने का दण्ड इन्हे जनता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत देकर दिया। अब वैयक्तिक हित-साधन में लगे देवगौड़ा और अजीत सिंह जैसे मंडी में जिंस बनकर खड़े न हों तो क्या करें?
वामदलों की प्रतिबद्धता को तो हम सलाम करते हैं लेकिन परमाणु करार के मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण निर्विवाद था या चीन प्रभावित, यह कहना जरा मुश्किल ही है। क्योंकि चीन भारत की संप्रभुता व सामरिक शक्ति से इसलिए चिंतित रहता है क्योंकि उनकी सीमाएं सटी हैं और तनाव बना रहता है। ऐसे में यदि परमाणु करार के चलते भारत परमाणु शक्ति से मजबूत होता है तो उसकी चिंता जायज है। वैसे भी मनमोहन सरकार ने वामपंथियों को करार के दस्तावेज यह बहाना बनाकर नहीं दिखाए कि उन्होंने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है? क्या बाजारवाद के माहौल में गोपनीयता को बनाए रखने के लिए शपथ पर्याप्त है? वैसे भी वामपंथी देश के संविधान से बड़ा पार्टी के संविधान को मानते हैं इसलिए उन्होंने लोकतांत्रिक और संवैधानिक गरिमा को बनाए रखने वाले सोमथान चटर्जी को पार्टी से निष्कासित करने में कोई देर नहीं लगाई।
नैतिक मापदण्डों के पैमाने पर भाजपा भी खरी नहीं उतरी। जिस शिबू सोरेन की लालकृष्ण आडवाणी ने मनमोहनसिंह द्वारा मंत्री बनाए जाने पर मंत्रीमण्डल में अपराधीकरण की बात कही थी वही आडवाणी विश्वासमत के दौरान शिबू को अपने पक्ष में लेने के लिए झारखण्ड का मुख्यमंत्री बना देने का प्रलोभन दे रहे थे। क्या भाजपा की यही राजनीतिक शुचिता है?
बहरहाल वामपंथियों के अंकुश से मुक्त होने के बाद सरकार का गठबंधन मनमोहनसिंह, पी. चिदंबरम् और मोंटेंकसिंह अहलुवालिया जैसे नव उदारवादियों के हाथ है जो राष्ट्र को बाजारवाद की मंडी बना देने में लगे हैं। कृषि व किसान, खुदरा व्यापार व व्यापारी और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के हित कैसे सधेंगे इस पर अनिश्चिता के बादल मंडराने लगे हैं। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी और मध्यान्ह भोजन जैसी जन कल्याणकारी योजनाएं किस करवट बैठती हैं, सवाल उठने लगे हैं। मंहगाई तो अभी और परवान चढ़ेगी। सबकुल मिलाकर बाजारवाद का शिकंजा मजबूत होता लग रहा है।
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(अगले अंकों में जारी…)
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