( पिछले अंक से जारी… ) सर्ग -2 सुबह-सुबह थी बह रही, शीतल-मन्द बयार। चली किशोरी झूमती, मानो जाय बहार।। हँसते-गाते-नाचते, निकल गये कुछ दूर...
सर्ग-2
सुबह-सुबह थी बह रही, शीतल-मन्द बयार।
चली किशोरी झूमती, मानो जाय बहार।।
हँसते-गाते-नाचते, निकल गये कुछ दूर।
अम्बर में बादल उठें, देख हुये मजबूर।।
मौसम की मजबूरियाँ, लिया यही संज्ञान।
तीनों घर वापस चलें, इसमें ही कल्यान।।
घर को वापस चल पड़े, पहुँचे उपवन पास।
देखा उपवन के निकट, अश्व चर रहे घास।।
अज़ब-ग़ज़ब के अश्व थे, सुन्दर स्वस्थ शरीर।
चेन्नू उनको देखकर, विस्मित हुई अधीर।।
दोनों से कहने लगी, सुनो हमारी बात।
इन घोड़ों की पीठ पर, करें सवारी तात।।
चढ़ घोड़ों की पीठ पर, तीनों होय सवार।
शर्त लगाकर दौड़ लें, जीत मिले या हार।।
बालण्णा सबसे बड़ा, बोला- ‘करो न गर्व।
अश्व दौड़ में जीतकर, कहलाऊँ गन्धर्व’।।
बालण्णा की बात सुन, रायण्णा मुस्काय।
कहने लगा विचार कर, ‘करो प्रशंसा नाय।।
तुम दोनों से श्रेष्ठ हूँ, मैं ही अश्व सवार।
शर्त लगाकर दौड़ लो, दोनों जाओ हार’।।
बात-बात में छिड़ गयी, दोनों में तकरार।
चुप रहने को एक भी, होय नहीं तैयार।।
चेन्नू उनकी सुन रही, बहस खड़ी चुपचाप।
दोनों से कहने लगी, ‘क्यों लड़ते हो आप।।
पता नहीं क्यों कर रहे, उलटी-पुलटी बात।
अपना-अपना अश्व चुन, दौड़ लगाओ तात।।
किसमें कितनी शक्ति है, किसमें कितना ज्ञान।
अश्व कला की दक्षता, बतलाये मैदान।।
व्यर्थ बहस अब मत करो, चलो करो घुड़दौर।
निर्णय हो मैदान में, कौन यहाँ सिरमौर’।।
‘कर कंगन को आरसी, क्या तुमको स्वीकार।
चेन्नू! तुम भी दौड़ लो, हो जाओ तैयार।।
अश्व कला संग शस्त्र का, और अस्त्र का ज्ञान।
तुमको हमने ही दिया, कुशल तुम्हें संज्ञान।।
चेन्नू! चुनौती दे रहीं, तुम ही हमको आज।
तुम भी घोड़े खोल लो, और उड़ा लो बाज’।।
चेन्नू ने हँसकर कहा, ‘हाँ-हाँ बिल्कुल ठीक।
पता चले मैदान में, भैया! दी जो सीख’।।
मौसम बड़ा सुहावना, सूरज करता खेल।
कभी बादलों में छुपे, कभी धरा से मेल।।
आँख-मिचौनी चल रही, सूरज-अम्बर बीच।
कभी पहाड़ी चोटियाँ, कभी धरा दे सींच।।
उपवन के बिल्कुल निकट, बनी थी चराग़ाह।
उसमें चरते अश्व थे, श्वेत-श्याम अति स्याह।।
एक-एक घोड़ा पकड़, उन पर हुये सवार।
तीनों ने मैदान पर, घोड़े दिये उतार।।
लगे दौड़ने अश्व फिर, तनिक लगायी ऐड़।
चले-कूदते-फाँदते, करते ज्यों मुठभेड़।।
विद्युत गति से दौड़ते, तीनों अश्व समान।
सरपट दौड़े जा रहे, मानो वायु विमान।।
बालण्णा के अश्व ने, पहले मानी हार।
रायण्णा का अश्व भी, गिरा दूसरी बार।।
चेन्नम्मा का अश्व तो, ऐसा था मुँह जोर।
अरबी घोड़ा हवा से, लगा रहा ज्यों होड़।।
श्वेत वर्ण का अश्व वह, कितना था शैतान।
कई बार उसने किया, चेन्नू को हैरान।।
समझ शुरू में ही गयी, चेन्नू उसकी चाल।
ज्यों ही बैठी पीठ पर, उसने किया कमाल।।
दौड़ रहा था कूदता, और चलाता लात।
रोके से रूकता नहीं, करे हवा से बात।।
चेन्नू ने भी अश्व का, किया अनूठा हाल।
अपनी बदली अश्व ने, झाग उगलते चाल।।
बेदम-सा होकर रूका, आखिर वह शैतान।
चेन्नम्मा ने तब तलक, जीत लिया मैदान।।
बालण्णा व रायण्णा, आये तब तक पास।
चेन्नम्मा को देखकर, सहज हो गयी सांस।।
कभी अश्व को देखते, कभी चेन्नू की ओर।
साधारण यह है नहीं, लड़की बड़ी कठोर।।
आयी धरकर सृष्टि पर, मानो दुर्गा रूप।
निश्चित बदलेगी धरा, अपने ही अनुरूप।।
‘वाह! चेन्नू कर दिया, सचमुच बड़ा कमाल।
वह भी अड़ियल अश्व से, ऐसा किया धमाल।।
आख़िर इस शैतान ने, मानी अपनी हार’।
डाल गले में ही दिया, ‘विजय श्री’ का हार।।
अपने-अपने अश्व तब, दिये कुँज में छोड़।
घर को अपने चल दिये, ख़त्म हो गयी होड़।।
काले-काले मेघ ने, घेर लिया आकाश।
पुरवैया थी बह रही, कम हो गया प्रकाश।।
दूर-दूर तक एक भी, दिखा नहीं इंसान।
अँधियारा-सा हो गया, पथ कितना सुनसान।।
इसी बीच ही आ गये, पथ में दो बदमाश।
देख किशोरी साथ में, शुरू किया उपहास।।
चेन्नू ने अन्दर छुपी, खुकरी धरी निकाल।
फिर दोनों बदमाश पर, झपटी दिया उछाल।।
सिर धड़ से होकर विलग, गिरा एक बदमाश।
देख हाल तब दूसरा, भगा रोककर सांस।।
बालण्णा को देख यह, अचरज हुआ अपार।
‘चेन्नू! तुमने क्या किया, दिया मनुज को मार।।
राजा का यदि आदमी, हमको देखे आय।
मृत्यु दण्ड निश्चित मिले, कोई नहीं बचाय’।।
चेन्नू बोली चीख जब, बालण्णा चुपचाप।
‘अपनी रक्षा के लिए, कहाँ मारना पाप’।।
चेन्नू की निर्भीक अति, सुनकर इतनी बात।
बाल सखा चुप रह गये, आगे कही न बात।।
इसी बीच प्रकट हुआ, प्रौढ़ आदमी एक।
‘वाह! वाह!’ कहने लगा, वह चेन्नू को देख।।
‘बेटी! तुम डरना नहीं, ठीक किया है काम।
वीर, निडर तुम हो बड़ी, तनिक बताओ नाम’।।
चेन्नू बोली तुनककर, ‘क्या है मुझसे काम।
किसी व्यक्ति अनजान को, क्यों बतलाऊँ नाम’।।
हँसकर बोला आदमी, ‘धन्य तुम्हारी मात।
नीति-निपुण तुम कर रहीं, बेटी! मुझसे बात।।
युद्ध कला औ’, ज्ञान की, बेटी! तुम भण्डार।
साक्षात, दुर्गा सदृश, अद्भुत अश्व सवार।।
अस्त्र-शस्त्र औ’ युद्ध का, लिया अपरिमित ज्ञान।
कन्या होकर क्यों लिया, पुरूषों-सा संज्ञान’।।
चेन्नू बोली ‘युद्ध का, काश! न हेाता ज्ञान।
आज यहाँ बदमाश से, कौन बचाता जान।।
अपनी रक्षा के लिए, लड़ना कैसा पाप?
इन बदमाशों से मुझे, कौन बचाते आप?।
युद्ध कला औ’ ज्ञान के, नर क्या ठेकेदार?
क्या नारी को है नहीं, निज रक्षा अधिकार?।
जब तक नारी देश की, पढ़े न लेती ज्ञान।
तब तक उसको विश्व में, मिले नहीं सम्मान।।
अपनी रक्षा का उसे, लेना है अधिकार।
वरना, तो पिटती रहे, बिना बात हर द्वार।।
यों तो विद्या-ज्ञान के, विविध आज आयाम।
युद्ध कला सीखे बिना, टूटें-गिरें धड़ाम।।
नारी को अनिवार्य हो, युद्ध कला का ज्ञान।
जीवन-यापन के लिए, पढ़े समाज विज्ञान।।
पुरूष विधाता सृष्टि का, निश्चित है दिनमान।
लेकिन, नारी के बिना, बना कहाँ उपमान?।
नर-नारी को सृष्टि में, मिले हैं सम अधिकार।
चालाकी से पुरूष ने, बदला निज संसार।।
नारी का करने लगा, नर पग-पग अपमान।
मुखिया बनकर विश्व में, लूट रहा सम्मान।।
नर ने तो अपने लिये, खुले रखे सब द्वार।
पर, नारी की सोच पर, लगा दिया अधिभार।।
सीता-राधा-द्रौपदी, या मीरा-सी नार।
रूप-नाम कुछ भी रहे, शोषित थी युगवार।।
पराकाष्ठा हो गयी, नारी शोषण खूब।
भगिनी-पत्नी-प्रेमिका, मात गयीं सब ऊब।।
लड़की-लड़का में किये, पैदा जन्म विभेद।
लड़का मानो ‘हर्ष’ है, लड़की माने ‘खेद’।।
आख़िर चलता कब तलक, नर का अत्याचार।
नारी ने भी ज्ञान का, उठा लिया हथियार।।
युद्ध-कला, विज्ञान हो, या दर्शन अनुभाग।
कहाँ न नारी ने किया, दर्शित निज अनुराग।।
पुरूषों से पीछे नहीं, अब भारत की नार।
उसे नहीं स्वीकार है, अब जीवन में हार।।
नर-नारी परब्रह्म के, दो हैं कला विधान।
विधना की इस सृष्टि में, दोनों रूप महान।।
मानव रूपी विटप की, मैं भी शाखा एक।
नर-नारी के बीच मत, बाबा! अन्तर देख।।
माँ मेरी ‘पद्मावती’, ‘चेन्नू’ मेरा नाम।
ग्राम ‘काकती’ के पिता, बना स्वर्ग में धाम।।
‘धूलप्पा’ कित्तूर की, सेना में सरदार।
अँग्रेज़ों से युद्ध में, उनका हुआ संहार।।
बालण्णा व रायण्णा, बाल सखा-से भ्रात।
वीर-निडर ये साहसी, युद्ध कला निष्णात।।
अँग्रेज़ों ने देश को, बाबा! किया गुलाम।
दुर्गा की सौगन्ध है, कर दूँ काम-तमाम।।
चेन्नम्मा ने क्रोध से, खंजर लिया निकाल।
बाल सखा दोनों खड़े, अपना खड्ग संभाल।।
चेन्नू ने हँसकर कहा, बतलाओ अब नाम।
यहाँ छुपे थे किसलिए, क्या है हमसे काम?’।
‘बेटी! मैं कित्तूर का, राज-काज-दीवान।
‘गुरूसिद्दप्पा’ नाम का, मिला मुझे उपमान’।।
पिता तुल्य दीवान को, तत्क्षण किया प्रणाम।
‘पूरी होवे कामना’, आशिष दिया तमाम।।
‘चेन्नू’ के सिर हाथ रख, बोले फिर दीवान।
‘विजय श्री’ बेटी मिले, बढ़े बहुत ही मान।।
अपने घोड़े पर हुये, फिर दीवान सवार।
संगोल्ली को चल दिये, करते हुये विचार।।
दोनों भाई भी गये, चेन्नू को घर छोड़।
सदा रहेगी याद यह, अश्वदौड़ की होड़।।
घटनाएँ घटती सदा
जीवन इनका दास
हर घटना के मूल में,
कुछ तो रहता वास।।
घटनाएँ घटती नहीं,
होता नहीं विनाश।
जीवन बिना विनाश के,
पाता कहाँ विकास।।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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