सहजगीतः रागवेशित आवेग का सहज संप्रेषण-आनंद कुमार गौरव · प्रश्नकर्ता-अवनीश सिंह चौहान ‘‘सहजगीत कोई आन्दोलन नहीं है, कोई नारा न...
सहजगीतः रागवेशित आवेग का सहज संप्रेषण-आनंद कुमार गौरव
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प्रश्नकर्ता-अवनीश सिंह चौहान
‘‘सहजगीत कोई आन्दोलन नहीं है, कोई नारा नहीं है, वह कविता की पहचान को समर्पित एक रचनात्मक प्रयास है। आज जब गीति कविता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है तब सहजगीत उस लड़ाई अग्रिम मोर्चे का दस्ता है (दैनिक जागरण, 3 अगस्त 2009)‘‘। माहेश्वर तिवारीजी की उपर्युक्त पंक्तियां जिस सहजगीत की ओर संकेत कर रहीं हैं और इतिहासकार के रूप में वह जिन ‘योद्धाओं-गीतकारों‘ की बात कर रहे हैं उनमें आते हैं निराला, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, यश मालवीय, आनंद कुमार ‘गौरव‘ तथा योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम‘। तिवारी जी का यह सूत्र समय की कसौटी पर कितना खरा उतरता है यह तो पाठक-विद्वान स्वयं जांच-परख लेंगे यहां पर मेरा प्रयास बस इतना है कि पाठकों-विद्वानों के सामने उस एक महत्पपूर्ण रचनाकार की वैचारिकी से परिचय कराऊं, जिसका नाम सहजगीतकारों में शामिल किया गया है। इसी क्रम में मेरी बातचीत हुई मुरादाबाद (उ․प्र․) के मूल्यवादी, पढाकू सहज एवं भावुक रचनाकार आनंद कुमार ‘गौरव‘ जी से, जिसे यहां पर जस का तस रखा जा रहा है।
-अवनीश सिंह चौहान”
अवनीशः आपने अपनी सृजन-यात्रा कब और कैसे प्रारंभ की?
आ․कु․‘गौ‘․ः यदि पूरी ईमानदारी से कहें तो यह सृजन-यात्रा कविता गढ़ने के उस प्रयास से प्रारंभ हुई जिसमें काव्यात्मकता की सूक्ष्म-समझ से परे केवल कवि नाम छपास का हेतु निहित रहा। संभवतः वर्ष 1972-73 में भारत हायर सेकेण्ड्री स्कूल भोजीपुरा (बरेली-हल्द्वानी मार्ग) की स्कूल वार्षिकी हेतु प्रेरक गणित अध्यापक के आग्रह पर यह रचना-कर्म अंकुरित हुआ। वार्षिकी में छप जाने पर मन में कुछ और लिखने की इच्छा हुई, परिणामतः कुछ गजलें ‘फिल्म रेखा‘, ‘रोमांटिक दुनियां‘ आदि में 1975-76 में प्रकाशित भी हुईं उस दौर में साहित्यिक समाज में स्थापित होने जैसी कोई ललक मन में नहीं थी, बस लिखना-छप जाने तक सीमित था।
वर्ष 1976 के अंत में मुरादाबाद आना हुआ और यहां के समृद्ध साहित्यिक समाज से जुड़ने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति के संस्थापक-सचिव डॉ․ मदनलाल वर्मा ‘क्रांत‘ (वर्तमान में ग्रेटर नोएडा में है) के संपर्क में आने पर मासिक गोष्ठी में और फिर अन्य संस्थाओं की कवि-गोष्ठियों में सम्मिलित होने का क्रम बना। यहीं से अंतर्मन की साहित्यिक सोच को अपना स्वरूप प्राप्त हुआ। वर्ष 1979 से अमर उजाला (बरेली), साप्ताहिक हिंदुस्तान, श्रमपत्रिका, युवाक, हमारा घर, अयन (दिल्ली), सहकारी युग (रामपुर), गौर दर्शन (सागर), कादम्बिनी, पालिका समाचार, पंजाब केसरी, खास खबर (दिल्ली), युवारश्मि (लखनऊ), राष्ट्रमाणिक्य (गाजियाबाद), पान्चजन्य (दिल्ली), युवा जनपक्ष, वीर अर्जुन (दिल्ली), युग मर्यादा (मण्डी), राष्ट्रधर्म (लखनऊ), विनायक (चंदौसी), दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहने से अन्दर के रचनाकार का मनोबल समृद्ध हुआ। वर्तमान में ‘मधुमती‘ (जयपुर), गोलकोण्डा दर्पण (हैदराबाद), सरस्वती सुमन (देहरादून), कवि सम्मेलन समाचार (जयपुर), प्रेसमेन (भोपाल), हंस आदि में रचनाओं का प्रकाशन जारी है।
अवनीशः बीसवी शताब्दी के अन्तिम दशकों में आपके दो महत्वपूर्ण उपन्यास ‘आंसुओं के उस पार‘ (1984) और ‘थका हारा सुख‘ (1997, अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली) पाठकों तक पहुंच चुके थे। मानवी रिश्तों का व्यापारीकरण, युवावस्था की उछृंखलता एवं स्वच्छंदता और स्त्री को उपभोग की वस्तु मान लेने वाली प्रवृत्ति जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बात करने वाला आपका मूल्यवादी रचनाकार 21वीं सदी में चुप जान पड़ता है?
आ․कु․गौ․ः ‘आंसुओं के उस पार‘ और ‘थका हारा सुख‘ दोनों उपन्यासों की विषय वस्तु पर आपका मत जो प्रश्न में व्यक्त हुआ, वह एक सुखद सत्य है। पर यहां एक बात अवश्य कहूंगा, कि इन दिनों कृतियों का जो सम्मान-आशीष साहित्यविदों द्वारा मुझे प्राप्त हुआ वह मेरे रचनाकार की अनमोल निधि है, ऐसी निधि जो रचनाकार को सही मानों में जीवंत रखती है। जहां तक पाठक-जनों की बात है तो वहां इस प्यार की कमी अखरी। वैसे भी इलैक्ट्रॉनिक युगों के मध्य उपन्यास जैसी रचना आम समाज को रास नहीं आ पा रही है। प्रमुख कारण घटती रुचि एवं समय का अभाव। पढ़े तो क्या पढ़ें? ऐसे में कई बार वे चीजें भी पढ़ी-सुनीं जाने लगती हैं जो समय बचाते हुए मनोरंजन प्रदान करती हों। सस्ता मनोरंजन, जो कि लोकप्रियता की ऊंचाइयों पर है? साहित्य का पाठक समाज भी सिमटा है। साहित्य की इस विधा को जीवन्त रखने और पाठक सामान्य से जोड़े रख पाने को कुछ प्रयास विशेष करने होंगे जो व्यावसायिक दौर में स्वयम् की सम्भावनाओं को स्थापित कर सकें ऐसे प्रयास सहकारिता से परहेज करते हुए कतई संभव नहीं है। इसकी प्रामाणिकता गीत, गजल, कविता, संकलनों की अदभुत संयोजना के रूप में देखी जा सकती है।
जहां तक इक्कीसवीं सदी में मेरे रचनाकार की चुप्पी की बात है, वह आपको साल रही है, इससे मेरे अन्दर का रचनाकार आपको साधुवाद देता है, क्योंकि यह प्रेरक-सदभावात्मक प्रेम ही कला क्षेत्र को सदैव प्रोत्साहित करता है। इसी पे्रम के वशीभूत मेरा एक और गीत संग्रह यथा शीघ्र आपके हाथों में आए, इस दिशा में प्रयासरत हूं।
अवनीशः अपका पहला गीत संग्रह ‘मेरा हिन्दुस्तान कहां है‘ शीर्ष से छपा था उसके बाद हिन्दी के समवेत् संकलनों, पत्र पत्रिकाओं में आपके गीत संकलित-प्रकाशित होते रहे हैं। आपका दूसरा कविता संग्रह ‘शून्य के मुखौटे‘ मुक्त छंद में है, जिसकी आलोचकों ने मुक्त कंठ से सराहना की है। साहित्य की कई विधाओं में लिखना और स्थापित होना क्या दुष्कर नहीं है?
आ․कु․‘गौ‘․ः ‘मेरा हिंन्दुस्तान कहां है‘ मेरी प्रारम्भिक गीत कृति है और ‘शून्य के मुखौटे‘ (कविताएं) नामधारी कृति भी सृजन के आठ-नौ वर्ष उपरांत प्रकाशित हो सकी। स्वागत हुआ मन प्रसन्न व प्रेरित हुआ। जहां तक साहित्य की कई विधाओं में लेखन व स्थापित होने की बात है, या सृजन की दुष्करता की बात है-कल्पना, भावना यथार्थ के दर्पण से उभरी संवेदनाएं जिस दिशा में स्वयमेव बह निकलीं, मन की नदी ने उसी दिशा को, उसी विधा को कलम से जोड़ लिया-पर इसके दुष्कर होने जैसी कोई अनुभूति कभी नहीं हुई। हां स्थापित होना, न होना-यह सब मेरी कल्पना में नहीं रहा। परिणाम जो भी हो शिरोधार्य।
अवनीशः मनोविश्लेषक भाषा तथा कुछ तल्खी के साथ जन-जीवन को व्यंजित करते आपके सहजगीत आपकी रागात्मक अभिव्यक्ति कोन केवल शब्दों में बल्कि स्वर में भी ऊंचाइयां प्रदान करते है। क्या आपको नहीं लगता कि अब आपका दूसरा गीत संग्रह भी प्रकाश में आ जाना चाहिए?
आ․कु․‘गौ‘․ः मानें तो मनोविश्लेषक होना और भावात्मक अभिव्यक्ति की सामर्थ्य रखना एक कवि और विशेषकर गीतकार की सार्थक सर्जना हेतु प्रथम व परम आवश्यकता है। मां वाणी के आशीष से रागात्मक अभिव्यक्ति की कला मिल पाई है, उसे सम्मान के साथ संजोए रखना मेरा परम कर्तव्य है। दूसरे गीत संग्रह का प्रकाशन कुछ विषम परिस्थितियों के कारण सम्भव नहीं हो पाया है, पर आगामी कुछ महीनों में (वर्ष से कम) एक और गीत संग्रह मां शारदे के आशीषवत् समाज को समर्पित होगा।
अवनीशः गीत, नवगीत एवं सहजगीत में मूलभूत अंतर क्या है? माहेश्वर तिवारी जी ने आपको सहजगीतकार कहा है। कहीं यह सब किसी आंदोलन की शुरूआत तो नहीं?
आ․कु․‘गौ‘․ः गीत, नवगीत एवं सहजगीत में मूलभूत अंतर बताने का आपका आग्रह महत्वपूर्ण है। गीत की आराध्य विशेषता यह है कि वह चाहे नवगीत हो सहजगीत हो या प्रगीत हो, वह अपनी मूलभूत पहचान और छंदात्मक मर्यादा के गेय स्वरूप से भूले से भी कहीं हुए भटकाव को नहीं जी पाता ह। गीत को कितने भी परिधान पहनाये गये हों, कितने ही नवीन, प्राचीन प्रतीकों, उपमानों की स्वच्छन्दता या बाध्यता में रहना रहा हो, गीत, गीतात्मकता से अलग-थलग नहीं किया जा सकता। गीत, नवगीत या सहजगीत होकर भी अपनी महक से, अपनी संजीदगी से पृथक कोई भी आभूषण स्वीकारने को कभी तत्पर नहीं रहा। यह स्थिर चरित्र गीत का विशेष प्राबल्य है। मेरी कामना है यह प्राबल्य, कविता के किसी भी दौर में लेश मात्र भी कम न हो सके।
नवगीत ने गीत की पहचान को बनाये रखकर जहां नये बिम्बों-प्रतीकों प्रतिमानों से अपने को संवारा, वहीं सहजगीत ने ‘‘छद्म बौद्धिकता, डगर-मगर करते बड़बोलेपन, फूटे हुए अण्डों की तरह खोखले शब्दजाल‘‘ (‘नये-पुराने‘ः कैलाश गौतम स्मृति अंक, पृ-205) से परे हटकर अपनी सहज संवेदनशीलता संप्रेषणीयता का परिचय दिया है। जो भी रचनाकार भाव संवेदन-संप्रेषण में सहज है और पाठकों से सार्थक संवाद कर रहा है, मेरी दृष्टि में वह गीतकार-नवगीतकार होते हुए भी सहजगीतकार है और सहजगीतकर होते हुए भी गीतकार नवगीतकार।
और जहां तक श्रद्धेय माहेश्वर तिवारी जी द्वारा मेरा नाम सहजगीतकार के रूप में उल्लिखित करने की बात है, यह मेरे लिए पुरस्कार जैसा है, इसमें किसी आन्दोलन की शुरूआत जैसा कुछ भी नहीं है। हां आपके मन में यह प्रश्न जगाना आपकी अतिरिक्त प्रबल जागरूकता का प्राण अवश्य है।
अवनीशः वास्तविक जीवन का दृश्य कलाकार के रचना-संसार में जब आकार लेता है तब उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन आ जाता है। ऐसी स्थिति में उसकी प्रस्तुति यथार्थ कैसे कहला सकती है?
आ․कु․‘गौ‘․ः जैसे कुम्हार के द्वारा मिट्टी को दिया गमला, घड़ा या मूर्ति आकार में परिवर्तित कर लेने से माटी का अस्तित्व यथावत रहता है, वैसे ही दृश्य में प्रतीक और बिम्ब विधान के साथ रागात्मकता भर देने से दृश्य का यथार्थ नहीं मिटता। हां इतना अवश्य है कि पाठक और श्रोता में वांछित चिंतनशीलता और यथार्थ को पहचानने की क्षमता तथा रागात्कता के अंतर्मन को अनुभूत करने की सामर्थ्य का होना भी पूरक तत्व के समान आवश्यक है। यथार्थ का स्वरूप ठीक वैसा ही जानना और अनुभूत करना पाठक और श्रोता पर छोड़ दिया जाना चाहिए। बस ईमानदारी से रचनाकार को पूर्णतः यथार्थ को जीना चाहिए रचना में, उस तरह से जैसे वह दृश्य की आत्मिक गंध को रचना के माध्यम से महसूस रहा हो। यहां बेतुके नारावाद से बचा जाना चाहिए।
अवनीशः आज मानव अपने भविष्य के प्रति बहुत चिन्तित है। इसके साथ ही भावी साहित्य की परिकल्पना भी जन्म ले लेती है। इस दृष्टि से भारत में साहित्यिक भविष्यशास्त्र में साहित्य का स्वरूप क्या होगा?
आ․कु․‘गौ‘․ः भविष्य के प्रति चिंतित होने से बेहतर होगा कि भविष्य को संवारने का चिंतन किया जाये। अन्यथा नंगी आंखों से जो भविष्य का स्वरूप वर्तमान दशा दृष्टिवत दिखाई दे रहा है वैसा ही साहित्य का स्वरूप हो जाना है-बाजारवादी, संवेदनहीन, उपभोगवादी, यांत्रिक और आततायी मनोवृत्ति की छाया सा। मंचों से तो यह स्वरूप परोसा भी जाने लगा है। मदिरा-संस्कृति, फूहड़ता और नितान्त बाजारू वृत्ति के चलते संस्कारवान रचनाकार को अपने पांव जमाये रखने के लिए आज भी खासी विषमताओं से दो चार होना ही पड़ता है। एक ओर चिंता की बात है-एक वरिष्ठ गीतकार ने मुझसे कहा ‘‘कम्प्यूटर युग में भी गीत वही पुरानी कुंठाएं और परंपराएं ढो रहा है-ऐसे गीत का भविष्य क्या होगा?‘‘ ऐसी सोच से गीत को सुरक्षित रखना होगा।
अवनीशः आज का आदमी व्यावसायिक हो गया है। अब वह कर्तव्यपरायणता और आस्था-भाव वाली भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करना नहीं चाहता ऐसे में हिन्दी साहित्यकारों का क्या दायित्व बनता है?
आ․कु․‘गौ‘․ः कर्तव्यपरायणता, भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था, निश्चित रूप से व्यावसायिकता से प्रभावित हुई है। पर भारतीय-संस्कृति को किसी प्रतिनिधित्व की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है अपितु प्रत्येक प्राणी को समृद्ध भारतीय संस्कृति की परम आवश्यकता है। हिन्दी साहित्यकारों का ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष की भाषाओं के साहित्यकारों का यह दायित्व बनता है कि वे भारतीय संस्कृति की समृद्धता को क्षीण करने वाले प्रयासों के विरुद्ध एकजुट होकर खड़े हों। मेरी तो सोच यही है कि भाषा अलग-अलग हों पर भाषाविद् अलग नहीं है क्योंकि सभी की संस्कृति भारतीय संस्कृति है, ओर इस प्राकृतिक सत्य को बांटने वाली विचारधाराओं का एक स्वर से विरोध होना आज परम आवश्यक है।
अलग-अलग झंडे लेकर अलग-अलग नारे बनाकर अपने निजी अस्तित्व की स्थापना को प्राथमिकता देने के लिए अनाप-शनाप बयानबाजी छोड़कर भारतीय संस्कृति की मूल विचारधारा और आचार संहिता को निरंतर प्रचारित-प्रसारित करने का दायित्व साहित्यविदों को लेना ही चाहिए। किसी भी अराजक या आयातित-वाद का अनुसरण करके अपने को सुर्खियों में लाने का प्रयास नितान्त निंदनीय है! ऐसे लोगों का साहित्यिक समाज से बहिष्कार होना चाहिए ताकि वे अपनी मूल सांस्कृतिक धारा में वापस लौटने को सहज ही विवश हो सकें।
अवनीशः ‘यावज्जीवमधीते विप्रःः (कुमारसम्भवम् महाकाव्य) अर्थात विद्वतजन जीवन-पर्यन्त सीखते रहते हैं। लेकिन ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो कहते हैं-‘जितना सीखना था, सीख लिया, अब तो बस‘। इन लोगों की सूची में कई साहित्यकार और पाठक भी आते हैं आपकी टिप्पणी-
आ․कु․‘गौ‘․ः इस रोचक प्रश्न का उत्तर बहुत संक्षेप में दिया जा सकता है-‘‘जो स्वयम् को कला के क्षेत्र में पूर्ण शिक्षित मान लें, अथवा सर्वज्ञाता कहें, उसकी मति के सुधार के लिए मां शारदे से प्रार्थना करनी चाहिए‘‘। विद्वान ऐसा मानते हैं।
हमारे नगर में ही क्या, हर नगर के साहित्यिक समाज में ऐसे स्वनाम धन्य साहित्यकारों की गिनने योग्य संख्या मिल जायेगी। वास्तव में जहां रचनाकार यह मान ले कि उसने सर्वश्रेष्ठ कर दिया, या कहे कि सब सीख लिया, ऐसी स्थिति में यह माना जाना चाहिए कि उसके अंदर का रचनाकार चुक गया ।
अवनीशः प्रतिक्रियाएं मिलती हैं कि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे‘, ऐसे में सफल एवं प्रभावी वैयक्तिक एवं सामाजिक परिवर्तन के लिए साहित्यकार को क्या करना होगा?
आ․कु․‘गौ‘․ः ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे‘ की वृत्ति से उबरकर, सफल, प्रभावी-वैयक्तिक एवम् सामाजिक परिवर्तन के लिए भारतीयता के स्वाभिमान को आत्मसात करने की महत्ता प्राथमिकता से साहित्यिक समाज स्वीकार करे और तत्पश्चात् सम्पूर्ण समाज से आत्मसात करने का अनुरोध करे, प्रेरणा दे। बाजारवाद से स्वयम् बचे और सम्पूर्ण समाज को ‘अर्थैव-कुटुम्बकम्‘ की अंधी राह से ‘बसुधैव कुटुम्बकम्‘ की पुनीत आत्मीयता की दिव्य प्रकाशित डगर पर वापस लाये। साहित्यकार का यह नैतिक दायित्व बनता है।
अवनीशः आपका संदेश․․․
आ․कु․‘गौ‘․ः संदेश क्या दूं! निवेदन करना चाहूंगा-
जोड़िये जोड़ने का चलन जोड़िये
जोड़िये प्रेम से अपना मन जोड़िये
जोड़िये सत्य से देश का बांकपन
बांकपन से धरा का अमन जोड़िये।
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अवनीश सिंह चौहान
4. परिचय:
अवनीश सिंह चौहान
जन्म : 4 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश) में
पिता का नाम : श्री प्रहलाद सिंह चौहान
माताका नाम : श्रीमती उमा चौहान
शिक्षा : अंग्रेज़ी में एम०ए०, एम०फिल० एवं पीएच०डी० (शोधरत्) और बी०एड०
प्रकाशन: अमर उजाला, देशधर्म, डी एल ए, उत्तर केसरी, प्रेस-मेन, नये-पुराने, गोलकोण्डा दर्पण, संकल्प रथ, अभिनव प्रसंगवश, साहित्यायन, युग हलचल, यदि, साहित्य दर्पण, परमार्थ, आनंदरेखा, आनंदयुग, हिन्द-युग्म डॉट कॉम, पी4पोएट्री डॉट कॉम, पोयमहण्टर डॉट कॉम, पोएटफ्रीक डॉट कॉम, पोयम्सएबाउट डॉट कॉम, आदि हिन्दी व अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, कहानियाँ, कविताओं एवं नवगीतों का निरंतर प्रकाशन। साप्ताहिक पत्र ‘प्रेस मेन’, भोपाल, म०प्र० के ‘युवा गीतकार अंक’ (30 मई, 2009) तथा ‘मुरादाबाद के प्रतिनिधि रचनाकार’ (2010) में गीत संकलित
प्रकाशित कृतियाँ: स्वामी विवेकानन्द: सिलेक्ट स्पीचेज, किंग लियर: ए क्रिटिकल स्टडी, स्पीचेज आफ स्वामी विवेकानन्द एण्ड सुभाषचन्द्र बोस: ए कॅम्परेटिव स्टडी, ए क्विन्टेसेन्स आफ इंग्लिश प्रोज (को-आथर), साइलेंस द कोर्ट इज इन सेशन: ए क्रिटिकल स्टडी (को-आथर), फंक्शनल स्किल्स इन लैंग्वेज एण्ड लिट्रेचर, ए पैसेज टु इण्डिया: ए क्रिटिकल स्टडी (को-आथर)
अप्रकाशित कृतियाँ : एक नवगीत संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक गीत, कविता और कहानी से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि
अनुवाद: अंग्रेजी के महान नाटककार विलियम शेक्सपियर द्वारा विरचित दुखान्त नाटक ‘किंग लियर’ का हिन्दी अनुवाद भवदीय प्रकाशन, अयोध्या से प्रकाशित ।
संपादन :
प्रख्यात गीतकार, आलोचक, संपादक श्री दिनेश सिंहजी (रायबरेली, उ०प्र०) की चर्चित एवं स्थापित कविता-पत्रिका ‘नये-पुराने’ (अनियतकालिक) के कार्यकारी संपादक पद पर अवैतनिक कार्यरत।
प्रबुद्ध गीतकार डॉ०बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) की रचनाधर्मिता पर आधारित उक्त पत्रिका का आगामी अंक शीघ्र ही प्रकाश्य। वेब पत्रिका ‘गीत-पहल’ के समन्वयक एवं सम्पादक ।
सह-संपादन: कवि ब्रजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’ अभिनंदन ग्रंथ (2009) के सह-संपादक ।
संपादन मण्डल: प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ (नॉर्वे) अभिनंदन ग्रंथ (2009) के सम्पादक मण्डल के सदस्य ।
सम्मान :
अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, मुरादाबाद (उ०प्र०) से ब्रजेश शुक्ल स्मृति साहित्य साधक सम्मान, वर्ष 2009
संप्रति :
प्राध्यापक (अंग्रेज़ी)
स्थायी पता: ग्राम व पो.- चन्दपुरा (निहाल सिंह), जनपद-इटावा (उ.प्र.)-२०६१२७, भारत ।
मोबा० व ई-मेल: 09456011560, abnishsinghchauhan@gmail.com
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आनंद कुमार ‘गौरव‘
जितने सुन्दर एवं सटीक प्रश्न पूछे है अवनीश सिंह ने उतने ही सुन्दर एवं गंभीर जवाब दिए हैं गौरवजी ने. बधाई.
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