अवनीश सिंह चौहान की समीक्षा : दादा गिरिधर से कपिल कुमार तकः ‘कहें कपिल कविराय‘ के संदर्भ से

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‘‘बा त और विचार (यदि वह है तो) और कहने का ढंग-सब एक ही है। उसी में सब ‘निज-निज मति अनुसार‘ कोई नया बिंब, कोई नयी उदासी, कोई नया लघुम...

‘‘बात और विचार (यदि वह है तो) और कहने का ढंग-सब एक ही है। उसी में सब ‘निज-निज मति अनुसार‘ कोई नया बिंब, कोई नयी उदासी, कोई नया लघुमानवत्‍व, कोई अजूबी गरीबी, कोई नया संत्रास, कोई नयी अस्‍मिता और कुंठा का खेल रच रहे हैं। लेकिन अगर कवि का नाम हटा दिया जाय तो वह उनमें से किसी की भी काव्‍य सम्‍पत्ति या विपत्‍ति हो सकती है‘‘-हिन्‍दी कविता के ‘अदभुत रीतिकाल‘ पर प्रख्‍यात रचनाकार श्री दूधनाथ सिंह की उपर्युक्‍त टिप्‍पणी सोचने पर विवश करती है। उनकी ये पंक्‍तियां कई कवियों पर ‘सूट‘ भी करती हैं। लेकिन जब मैं कपिल कुमार की कुण्‍डलियों से होकर गुजरता हूं तो मुझे कई बार महसूस होता है कि यदि इन कुण्‍डलियों से इस कवि का नाम हटा दिया जाए, तब भी उनके पाठक उनकी रचनाओं को पहचान लेंगे। इस दृष्टि से कपिल कुमार भी एक कैलाष गौतम जी की तरह ही ‘जमात से बाहर का कवि‘ (दूधनाथ सिंह) लगते हैं।

सच है कि कुण्‍डली छंद में बहुत ही कम रचनाकार अपनी अनुभूतियां व्‍यक्‍त कर रहे हैं। कपिल कुमार इस बात को जानते हुए भी कुण्‍डली छंद को गढ़ ही नहीं रहे हैं, शायद उसे जी भी रहे हैं....स्‍याही के रूप में सामने आये या स्‍वर के रूप में यह छंद ही अक्‍सर आकार लेता है उनके सृजन में, चिंतन में, संप्रेषण में।

छप्‍पय की तरह छह चरणों का यह छंद दोहा और रोला को मिलाने से बनता है, सो यतियां दोहे और रोले वाली ही होंगी-स्‍वाभाविक है। दोहा और रोला के सम्‍मिलन से उपजे कुण्‍डली छंद का सृजन गिरिधर कविराय से लेकर कपिल कुमार तक जिस ‘स्‍पीड‘ से चलकर पहुंचा है, वह चिंतनीय है। दोहा और रोला की युगलबंदी टूटी, समय बदला और दोहा अपनी पृथक चाल से चलने लगा। लोकप्रिय भी हुआ। कुण्‍डलियां वह गति नहीं पकड़ सकीं और पीछे रह गयीं या बिसरा दी गयीं तभी यह कवि इस ओर संकेत करता हुआ अपनी रचनाओं को प्रस्‍तुत करता है-

दोहा हो या कुण्‍डली छंद-मात्रा एक

हर दोहे की पंक्‍तियां पैदा करें विवेक

पैदा करें विवेक, कुण्‍डली के दो रोला

‘काका‘ का हथियार बना गिरिधर का डोला

कहें ‘कपिल‘ कविराय-कुण्‍डली ने मन मोहा

प्रचलित लेकिन हुआ जमाने भर में दोहा।

यानि कि प्रचलन में है दोहा और कपिल जी लिख रहे हैं कुण्‍डलियां। लेकिन बखूबी। कविराय गिरिधर जी से उन्‍हें अच्‍छी सीख मिली है-‘‘लिखना हो यदि कुण्‍डली गिरिधर से लो सीख‘‘ और दिया है उन्‍होंने अपनी संवेदना एवं शब्दों से इस शिल्प को नया आयाम। काका की लोकभाषा के स्‍थान पर खड़ी बोली का प्रयोग कर जन-मन की समस्‍याओं चिंताओं और आशाओं का संजीव चित्रण उनकी रचनाओं में ऐसे होता है कि मानो किसी चित्रकार ने किसी आकृति में रंग भर दिये हों, ऐसा रंग जो हमारे चित्‍त को बांधे रखता है और चित्‍त भंग होने पर मानस पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। इस कवि की सराहना इसलिए भी होनी चाहिए कि इसने कुण्‍डली छंद को जगाया है, उसको चर्चा में लाया है और जोड़ रहा है हमें कविता के इस रूप से, अपने आपसे, समाज एवं राष्ट्र से, अपने ढंग से और अपनी शर्तों पर-

जोड़ो अपने देश की सभी दिशाएं आज

कौन पराया है यहां सारा एक समाज

सारा एक समाज, खिलाओ इडली-डोसा

लस्‍सी-ऊसल-पाव-पराठा और समोसा

कहें ‘कपिल‘ कविराय-भेद के धागे तोड़ो

भाषाओं के साथ प्रांत के रिश्ते जोड़ो।

‘भेद के धागे तोड़ने‘ और ‘रिश्ते जोड़ने‘ की बात इसलिए भी महत्‍वपूर्ण हो जाती है कि आज का आदमी जितना ‘अप टु डेट‘ है, उतना ही कभी-कभी वह पाषाणयुग में खड़ा हुआ अपनी अलग छवि के साथ दिखाई पड़ता है। और कभी-कभी तो उसकी समझ पर भी तरस आने लगता है जब वह असली-नकली का भेद नहीं कर पाता-

गुनिया ही करता रहे हीरे की पहचान

हीरा लेकिन क्‍या करे जब हो बंद दुकान

जब हो बंद दुकान, नहीं खुलता हो ताला

जिस पर बारंबार लगा मकड़ी का जाला

कहें ‘कपिल‘ कविराय नहीं पहचाने दुनिया

हीरा देखे मगर बताए नकली गुनिया।

यह जो पहचान का मुद्‌दा है, आदमी के साथ शुरू से जुड़ा रहा है और निकट भविष्य में भी इसमें कोई विशेष परिवर्तन आ जायेगा-ऐसा कहना मुश्किल है। लेकिन कपिल जी की इन महत्‍वपूर्ण रचनाओं को पढ़ने के बाद विवेक जरूर जागने लगता है हमारे मन में और अच्‍छे-बुरे की पहचान करने में कुछ सहूलियत भी होने लगती है, हौसला भी बढ़ता है-‘‘हारे मन तो हार है जीते मन तो जीत‘‘। और इस मन के जीतने के लिए उनके संकेतों को समझना भी जरूरी है। यथा-

मैली अब हर चीज है बुरा देश का हाल

सुर से सुर मिलता नहीं ताल हुई बेताल

ताल हुई बेताल, चाल भी सबकी बदली

नकली असली लगे, लग रहा असली नकली।

कहें ‘कपिल‘ कविराय-दलों की दलदल फैली

हर कुर्सी पर दाग यहां हर चादर मैली।

यह मैलापन इस कवि को इतना आहत करता है कि उसका अर्न्‍तमन आशंकित है किसी होनी-अनहोनी के प्रति-‘‘करती विचलित जब कभी अंदर की आवाज/हो जाता है उस घड़ी होनी का अंदाज/होनी का अंदाज, परीक्षा मन की लेता/कभी अर्श पर कभी फर्श पर पहुंचा देता‘‘। लेकिन इस स्‍थिति में भी कवि की आस्‍था डिगती नहीं, वह उसी भाव-समर्पण के साथ अपने उत्‍तरदायित्‍व का निर्वहन करने के लिए कृत-संकल्‍प रहता है यह सोचकर कि-‘‘सीमा है हर चीज की, नफरत हो या प्‍यार,/कभी हार कर जीत है कभी जीत कर हार‘‘।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कुछ विशेष व्‍यक्‍तियों पर लिखीं कुण्‍डलियों को छोड़कर देखें तो कवि कपिल कुमार ने जीवन की तमाम तहों को सावधानी से उधेड़ कर तथा समोकर अपनी रचनाओं को जो स्‍वरूप प्रदान किया है वह अनुपम है। उनकी यह प्रस्‍तुति समय के पृष्ठों पर अपनी अलग पहचान बनाती है और देती हैं हिन्‍दी भाषी समाज को अदभुत संदेश-

जोड़ो दिल के तार से सबके दिल का तार

प्‍यारे-प्‍यारे प्‍यार से महके सब संसार।

महके सब संसार घरों में हो उजियारा

सातों सुर हों एक गीत गाए ध्रुव-तारा

कहें ‘कपिल‘ कविराय नारियल मीठा तोड़ो

दसों दिशाएं आज चांद-सूरज से जोड़ो।

सम्‍पर्क-

ग्रा. व पो.-चन्‍दपुरा (निहाल सिंह)

जिला-इटावा (उ.प्र.)

मो.-09456011560

(समीक्षित कृति-‘‘कहें कपिलकविराय‘, रचयिता-कपिल कुमार, रचना साहित्‍य प्रकाशन, 413-जी, वसंतवाड़ी, कालबादेवी रोड, मुंबई-400002 (फोनः 022-22033526), प्रकाशन वर्ष-2009, पृष्ठ-90, मूल्‍य-रु.111/-)

 

 

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परिचय-

अवनीश सिंह चौहान

जन्म: 4 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश) में
पिता का नाम: श्री प्रहलाद सिंह चौहान
माताका नाम: श्रीमती उमा चौहान
शिक्षा: अंग्रेज़ी में एम०ए०, एम०फिल० एवं पीएच०डी० (शोधरत्) और बी०एड०
प्रकाशन: अमर उजाला, देशधर्म, डी एल ए, उत्तर केसरी, प्रेस-मेन, नये-पुराने, गोलकोण्डा दर्पण, संकल्प रथ, अभिनव प्रसंगवश, साहित्यायन, युग हलचल, यदि, साहित्य दर्पण, परमार्थ, आनंदरेखा, आनंदयुग, कविता कोश डॉट कॉम, हिन्द-युग्म डॉट कॉम, पी4पोएट्री डॉट कॉम, पोयमहण्टर डॉट कॉम, पोएटफ्रीक डॉट कॉम, पोयम्सएबाउट डॉट कॉम, आदि हिन्दी व अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, कहानियाँ, कविताओं एवं नवगीतों का निरंतर प्रकाशन। साप्ताहिक पत्र ‘प्रेस मेन’, भोपाल, म०प्र० के ‘युवा गीतकार अंक’ (30 मई, 2009) तथा ‘मुरादाबाद के प्रतिनिधि रचनाकार’ (2010) में गीत संकलित। मेरी शाइन (आयरलेंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह ' ए स्ट्रिंग ऑफ वर्ड्स' में रचनाएँ संकलित
प्रकाशित कृतियाँ: स्वामी विवेकानन्द: सिलेक्ट स्पीचेज, किंग लियर: ए क्रिटिकल स्टडी, स्पीचेज आफ स्वामी विवेकानन्द एण्ड सुभाषचन्द्र बोस: ए कॅम्परेटिव स्टडी, ए क्विन्टेसेन्स आफ इंग्लिश प्रोज (को-आथर), साइलेंस द कोर्ट इज इन सेशन: ए क्रिटिकल स्टडी (को-आथर), फंक्शनल स्किल्स इन लैंग्वेज एण्ड लिट्रेचर, ए पैसेज टु इण्डिया: ए क्रिटिकल स्टडी (को-आथर)
अप्रकाशित कृतियाँ: एक नवगीत संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक गीत, कविता और कहानी से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि
अनुवाद: अंग्रेजी के महान नाटककार विलियम शेक्सपियर द्वारा विरचित दुखान्त नाटक ‘किंग लियर’ का हिन्दी अनुवाद भवदीय प्रकाशन, अयोध्या से प्रकाशित ।
संपादन:
प्रख्यात गीतकार, आलोचक, संपादक श्री दिनेश सिंहजी (रायबरेली, उ०प्र०) की चर्चित एवं स्थापित कविता-पत्रिका ‘नये-पुराने’ (अनियतकालिक) के कार्यकारी संपादक पद पर अवैतनिक कार्यरत।
प्रबुद्ध गीतकार डॉ०बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) की रचनाधर्मिता पर आधारित उक्त पत्रिका का आगामी अंक शीघ्र ही प्रकाश्य। वेब पत्रिका ‘गीत-पहल’ के समन्वयक एवं सम्पादक ।
सह-संपादन: कवि ब्रजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’ अभिनंदन ग्रंथ (2009) के सह-संपादक ।
संपादन मण्डल: प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ (नॉर्वे) अभिनंदन ग्रंथ (2009) के सम्पादक मण्डल के सदस्य ।
सम्मान :
अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, मुरादाबाद (उ०प्र०) से ब्रजेश शुक्ल स्मृति साहित्य साधक सम्मान, वर्ष 2009
संप्रति:
प्राध्यापक (अंग्रेज़ी), तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद, उ.प्र
स्थायी पता: ग्राम व पो.- चन्दपुरा (निहाल सिंह), जनपद-इटावा (उ.प्र.)-२०६१२७, भारत ।
मोबा० व ई-मेल: abnishsinghchauhan@gmail.com

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Abnish Singh Chauhan
Lecturer
Department of English
Teerthanker Mahaveer University
Moradabad (U.P.)-244001
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Web Info: www.printsasia.com/BookDetails.aspx?Id=882727714
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  1. दोहा और रोला की युगलबंदी टूटी, समय बदला और दोहा अपनी पृथक चाल से चलने लगा। लोकप्रिय भी हुआ। कुण्‍डलियां वह गति नहीं पकड़ सकीं और पीछे रह गयीं या बिसरा दी गयीं तभी यह कवि इस ओर संकेत करता हुआ अपनी रचनाओं को प्रस्‍तुत करता है-

    ---- एक भ्रामक तथ्य प्रस्तुत है..यहाँ पर---वास्तव में तो दोहा व रोला पृथक-पृथक मूल छंद हैं ...कुण्डली छंद उनके बाद की बनाई गयी संयुक्त छंद कृति है ...अतः दोहा तो प्रसिद्द रहेगा ही कुण्डली की अपेक्षा ...

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: अवनीश सिंह चौहान की समीक्षा : दादा गिरिधर से कपिल कुमार तकः ‘कहें कपिल कविराय‘ के संदर्भ से
अवनीश सिंह चौहान की समीक्षा : दादा गिरिधर से कपिल कुमार तकः ‘कहें कपिल कविराय‘ के संदर्भ से
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