विपश्यना द्वारा चित्तशुद्धि हेतु भगवान बुद्ध का अंतिम वैज्ञानिक उपदेश (वैज्ञानिक युग के सभी लोग इसे समझकर विपश्यना साधना का लाभ ले स...
विपश्यना द्वारा चित्तशुद्धि हेतु भगवान बुद्ध का अंतिम वैज्ञानिक उपदेश
(वैज्ञानिक युग के सभी लोग इसे समझकर विपश्यना साधना का लाभ ले सकते हैं)
द्वारा यु.एस.वावरे
(वरिष्ठ साधक एवं सेवा निवृत्ति बीएचईल अधिकारी)
1. विपश्यना क्या है? एक संक्षिप्त परिचय ः
संसार का हर कार्य ऊर्जा से ही सम्पन्न किया जाता है। बिना ऊर्जा के कुछ भी संभव नहीं है। हमारा जीवन ही नहीं संपूर्ण भवचक्र भी ऊर्जा पर ही चलता है। हम जानते है कि भौतिक जगत में ऊर्जा का उपयोग मानव के विकास के लिए किया जा रहा है। परन्तु साथ ही साथ कुछ नासमझ लोग ऊर्जा का उपयोग मानव की बरबादी के लिए भी कर रहे हैं। ऐसा ही कुछ कार्य आहार से प्राप्त ऊर्जा मनुष्य के लिए करती है। एक तरफ यह ऊर्जा हमें स्वास्थ्य हमें स्वस्थ रखती है और शरीर द्वारा किए गये भौतिक कार्य से व्यय होती है तो दूसरी तरफ हमारे प्रतिक्रिया करने वाले स्वभाव के कारण संस्कारों को ऊर्जा में बदलकर, चित्त पर संग्रहित होकर, हर मृत्यु के बाद नया भव देकर, जन्म-मृत्यु के दुःखदायी भवचक्र में हमेशा हमेशा के लिए फंसकर रखती है।
भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार चित्त पर संग्रहित संस्कार ही हमारे दुःख का कारण है। इसलिए उन्होंने संस्कारों के ऊर्जा की निर्जरा करने हेतु विपश्यना साधना ढूंढ निकाली। इस विद्या से वे स्वयं मुक्त हुए और जीवन भर यह विद्या दूसरों को बांटकर उनके मुक्ति में सहायक हुए। उन्होंने शरीर छोड़ते समय करुणामय चित्त से जो हमें अंतिम उपदेश दिया वह है ‘‘वय धम्मा संखारा अप्पमादेन सम्पादेथ'' अर्थात (चित्त पर संग्रहित) संस्कार (उनकी ऊर्जा) व्यय होने वाले स्वभाव की है, (विपश्यना साधना द्वारा) उनका व्यय करने का कार्य निरालय होकर करते रहिये (और चित्त शुद्ध करते रहिये जिससे मुक्ति प्राप्त होगी)।
ऊर्जा के आधार पर शरीर और चित्त की कार्य करने की पद्धति, मन की प्रतिक्रिया द्वारा संस्कारों का निर्माण एवं चित्त पर उनका संग्रह, विपश्यना साधना से संस्कारों की निर्जरा (व्यय) इत्यादि हम अधिक गहराईयों से जानने का प्रयत्न करेंगे। इससे हर व्यक्ति को विपश्यना साधना अपनाने में सुविधा होगी।
2. आहार की ऊर्जा से शरीर के अनु-अनु में कंपन ः
हमें आहार से ऊर्जा प्राप्त होती है। हृदय की धड़कन इसी ऊर्जा से होती है। मान लीजिए धड़कनों की यह गति 70 धड़कने प्रति मिनिट है। हृदय रक्त को इस गति से शरीर के अनु-अनु तक पहुंचाता है और शरीर के प्रत्येक अनु का कंपन होता रहता है। इस उदाहरण के अनुसार शरीर के अनु-अनु के कंपन की गति 70 कंपन प्रति मिनिट रहेगी। इस तरह आहार की ऊर्जा शरीर के अनु-अनु के कंपनों की ऊर्जा में बदलती है।
3. आहार की ऊर्जा का व्यय और उपयोग ः
3.1 शरीर के अनु-अनु के सामान्य कंपनों की ऊर्जा शरीर के अंदरुनी अवयवों के कार्य में तथा हमें स्वस्थ रखने में व्यय होती है। इस तरह शरीर के प्रत्येक अनु के 70 कंपनों की ऊर्जा प्रति मिनिट शरीर में व्यय होगी। शरीर के लिए होने वाला ऊर्जा का यह व्यय इलेक्ट्रीक ट्रांसफार्मर में होने वाले नो-लोड-लॉसेस के समान है।
3.2 भौतिक कार्य में ऊर्जा का व्यय ः
मान लो अब हम भौतिक कार्य करना (अपने शरीर द्वारा) आरंभ कर देते है। इसमें सबसे पहले हृदय की धड़कन बढ़ेगी। मान लो यह 75 धड़कनें प्रति मिनिट हो गयी याने 5 धड़कने प्रति मिनिट बढ़ गयी। शरीर के अनु-अनु का कंपन भी 75 कंपन प्रति मिनिट होगा। इन 5 कंपनों की (शरीर के हर अनु की) ऊर्जा प्रति मिनिट शरीर द्वारा किये गए भौतिक कार्य में व्यय होगी।
3.3 नये संस्कारों के निर्माण में ऊर्जा का उपयोग ः
मान लीजिए अब हम कोई भी भौतिक कार्य नहीं कर रहे हैं। परंतु जीवन में आने वाले मन चाहे प्रसंग पर या अनचाहे प्रसंग पर, चाहिये (राग) या नहीं चाहिये (द्वेष) की प्रतिक्रिया कर रहे हैं। इस समय भी हृदय की धड़कनें बढ़ती हैं। मान लीजिये अब हृदय 76 धड़कन प्रति मिनिट की गति से धड़क रहा है। याने 6 धड़कनें प्रति मिनिट की वृद्धि। शरीर के अनु-अनु का कंपन भी बढ़ जायेगा। शरीर के प्रत्येक अनु की 6 कंपनों की ऊर्जा प्रति मिनिट अब संस्कारों की ऊर्जा में परिवर्तित होगी और यह चित्त पर संग्रहीत होती रहेगी। इंद्रिय जगत के विषयों पर मन सतत प्रतिक्रिया करता ही रहता है और संस्कारों का निर्माण तथा चित्त पर उनका संग्रह होता ही रहता है। यह क्रिया भवचक्र के हर जीवन में जन्म से मृत्यु तक बिना रुके चलती ही रहती है और चित्त पर अनगिनत संस्कार संग्रहित होते रहते हैं।
4. भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार ये संस्कार ही हमारे दुःख का कारण हैं। ये हमें निम्नानुसार दो तरह से दुःख पहुंचाते हैं।
4.1 वर्तमान जीवन में दुःख ः
क्योंकि ये संस्कार केवल प्रतिक्रिया करने से ही निर्माण होते हैं, जितने अधिक संस्कार बनेंगे उतना ही अधिक हमारा स्वभाव, व्यक्तिगत जीवन में प्रतिक्रिया करने वाला होगा। शुरु-शुरु में मानसिक प्रतिक्रिया होती है और जब प्रतिक्रिया करने की तीव्रता बढ़ती है तब प्रतिक्रिया वाणी द्वारा और शारीरिक कार्य द्वारा भी प्रगट होने लगती है। इसी कारण गाली गलोच करना, झूठ बोलना, निंदा करना, हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना, शराब का सेवन करना इत्यादि दुर्गुण जीवन में अपने आप आने ही लगते हैं। इससे हम स्ययं तो दुःखी होते ही हैं और दूसरों के दुःख का कारण भी बनते हैं। वर्तमान का सदाचारी व्यक्ति, भविष्य का दुराचारी व्यक्ति है ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। इसलिये संस्कारों की निर्जरा करने की विद्या अतिशीघ्र हर व्यक्ति को सीखनी चाहिये।
4.2 भवचक्र में फंसे रहने का दुःख
मृत्यु के समय कोई एक संस्कार उभरकर चित्त से बाहर आता है और उसकी ऊर्जा निम्न तीन प्रकार से कार्य करके अगला नया भव प्रदान करती है तथा उस भव को मृत्यु तक चलाने में मदद करती है।
4.2.1 इस पुनर्भव के संस्कार की ऊर्जा का एक हिस्सा चित्त को मृत शरीर से अलग कर बचे हुए सभी संस्कारों के साथ नये शरीर प्राप्ति हेतु नये गर्भ में पहुंचाता है।
4.2.2 इस संस्कार की ऊर्जा का दूसरा हिस्सा नये शरीर का गर्भ में निर्माण एवं उसका पूर्ण विकास करना इस कार्य में उपयोग में आता है।
4.2.3 इस संस्कार की ऊर्जा का तीसरा हिस्सा चित्त पर ही संग्रहित रहता है और जन्म से मृत्यु तक उसकी थोड़ी-थोड़ी ऊर्जा समय के साथ बाहर आकर, चित्त का शरीर के साथ संपर्क बनाये रखने में खर्च होती रहती है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे स्कूटरचालक अपनी ऊर्जा खर्च करके, चलते हुए स्कूटर के साथ अपना संपर्क बनाये रखता है।
5. भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार विपश्यना साधना से संस्कारों की ऊर्जा का व्यय करके दुःख के कारण को जड़ों से समाप्त करने से, उससे होने वाला दुःख स्वतः समाप्त हो जाता है। इसे भी हम वैज्ञानिक पद्धति से समझेंगे।
5.1 विपश्यना साधना ः
इस साधना में प्रथम शरीर के अनु-अनुओं में निरंतर होने वाले कंपनों को, संवेदना के रूप में जानने की (अनुभव करने की) मन की शक्ति जगाई जाती है। बाद में इन संवेदनाओं को समता भाव से या तटस्थ भव से (मन अविचल रख कर) जानते रहना होता है। संवेदना सुखद, दुखद या न्यूट्रल होती है। समता का आधार होता है संवेदनाओं का उदय-व्यय वाला या अनित्य स्वभाव और उसके साथ यह समझ कि जो अनित्य है वह स्थायी नहीं है। और उसमें मैं-मैरा कहने वाली कोई चीज नहीं है। यह साधना पहली बार अनुभवी आचार्यों के पास रहकर, उनके विशिष्ट मार्गदर्शन में, साधना संबंधी सभी नियमों का पालन करते हुए सीखनी होती है। इसके बाद अपने दैनंदिन जीवन में नियमित रूप से इस साधना का अभ्यास करना होता है। इस साधना से नये संस्कार बनने की क्रिया बंद होती है और साथ ही साथ चित्त पर संग्रहित पुराने संस्कार एक-एक करके उखड़ने लगते है और उनकी ऊर्जा शरीर पर व्य य करके उनको जड़ों से समाप्त किया जाता है।
5.2 विपश्यना साधना से नये संस्कार बनना इस तरह बंद होते है।
5.2.1 शरीर की संवेदनाओं को जानते हुए मन प्रतिक्रिया नहीं करता। इसलिये (मन को समता में या तटस्थ भव में रखने से) हमारे हृदय की धड़कन सामान्य ही रहती है। इस स्थिति में शरीर के अनु-अनु का कंपन भी सामान्य भी रहता है और इनके कंपनों की ऊर्जा शरीर को स्वस्थ रखने में ही व्यय होती है। शरीर के अनु-अनु का कंपन नहीं बढ़ने से, संस्कारों की निर्मिती के लिए आहार से कोई भी ऊर्जा प्राप्त नहीं होती। नये संस्कार न बनने से उनकी चित्त पर संग्रहित होने की क्रिया भी रुक जाती है।
5.2.2 नये संस्कार न बनना और उनका चित्त पर संग्रहित न होना। यह स्थिति सामान्यतः मृत्यु के समय ही संभव होती है। इसलिये मृत्यु के समय चित्त से कोई एक संस्कार उभरकर ऊपर आता है और पैरा 4.2 के अनुसार कार्य करके नया भव प्राप्त करता है। विपश्यना साधना से ‘‘नये संस्कार का बनना और उनका चित्त पर संग्रहित होने का कार्य बंद होना'' यह स्थिति मृत्यु के समय की स्थिति से मेल खाती है। इसलिये कोई एक संस्कार उभरकर चित्त से बाहर आता है (जैसे मृत्यु के समय होता है) परंतु यह संस्कार पैरा के अनुसार कार्य करके नया भव प्रदान नहीं कर सकता, क्योंकि उसे ऐसा करने से आयु-संस्कार रोकता है। क्योंकि शरीर जीवित है और शरीर के अनु-अनु का सामान्य कंपन हो रहा है, इसलिये उभरकर बाहर आये हुए संस्कार की ऊर्जा अब शरीर के अनु-अनु के कंपनों की ऊर्जा बढ़ाने में उपयोग में आती है। मान लीजिए इस संस्कार के कारण शरीर के अनु-अनु के कंपन की ऊर्जा दस प्रतिशत बढ़ गयी। अब शरीर के समस्त अनुओं की 10 प्रतिशत बढ़ी हुई ऊर्जा शरीर पर व्यय होगी और शरीर का अंदरुनी तापमान बढ़ेगा। इसके कारण साधक गर्मी, दबाव, दुखाव, भारीपन, हल्कापन इत्यादि कुछ भी अनुभव कर सकता है। इसमें भी साधक को समता ही रखनी होती है। इस तरह कुछ समय में एक संस्कार पूरी तरह उखड़कर व्यय हो जायेगा। समता बनी रहने से साधना में अब दूसरा संस्कार चित्त से उभरकर बाहर आयेगा और वह भी पहले संस्कार की तरह व्यय हो जायेगा। लंबे समय तक साधना करते रहने से सारे संस्कार व्यय होते है और चित्त परिपूर्ण शुद्ध होता है।
5.2.3 चित्त को परिपूर्ण रूप से शुद्ध करना -यह इस साधना का उद्देश्य है।
5.2.4 निर्वाण का साक्षात्कार ः
इस साधना में पुनर्भव के संस्कारों की ऊर्जा और आयु संस्कारों की ऊर्जा दोनों एक साथ व्यय होती रहती है। पुर्नभव के संस्कारों की संवेदना शुरू में घनीभूत होती है और बाद में वह सूक्ष्मता की ओर बढ़ती है। आयु संस्कार के कारण निर्माण होने वाली संवेदनाएं करीब-करीब अति सूक्ष्म और एक ही सूक्ष्मता की याने स्थिर रहती है। लंबे समय के साधना के बाद एक क्षण ऐसा भी आता है जब पुर्नभव के कारण निर्माण होने वाली संवेदना की सूक्ष्मता और आयु-संस्कार के कारण निर्माण होने वाली संवेदना की सूक्ष्मता बिल्कुल बराबर होती है। परंतु इन दोनों संवेदनाओं को निर्माण करने वाले बल विरुद्ध दिशा में होने से इस क्षण साधक अनु-अनुओं में संवेदना रहित स्थिति अनुभव करता है-यह निर्माण का साक्षात्कार है। निर्वाण के साक्षात्कार के पहले पुनर्भव के संस्कारों की संवेदनाएं प्रभावी होती है। निर्वाण के साक्षात्कार के बाद से आयु-संस्कार की संवेदनाएं प्रभावी होती है। परंतु निर्वाण के साक्षात्कार के बाद मुक्ति निश्चित होती है। इसलिए निर्वाण का साक्षात्कार करना यह इस साधना का एक मात्र उद्देश्य है। चित्त की परिपूर्ण शुद्धि और निर्वाण का साक्षात्कार दोनों एक ही है।
6. विपश्यना साधना का लाभ
6.1 वर्तमान जीवन में सुख शांति ः
साधना करते हुए समता में रहकर संस्कारों का व्यय किया जाता है। जैसे जैसे संस्कार में व्यय होते जाएंगे, मन समता में रहना आरंभ कर देता है और समता में रहने का स्वभाव पुष्ट होने लगता है। व्यवहार जगत में विपरीत परिस्थिति में भी शरीर और वाणी से किये जाने वाले गलत कामों में कमी होने लगती है और आगे चलकर साधक शरीर वाणी और मन से भी गलत काम नहीं करता। इससे साधक वर्तमान जीवन में सुख शांति महसूस करने लगता है और दूसरों के लिए भी सुख शांति के वातावरण का निर्माण करता है।
6.2 चित्त की परिपूर्ण शुद्धि से भवचक्र से मुक्ति ः
लंबे समय तक साधना करने से सारे संस्कार व्यय हो जाते है और मृत्यु के समय चित्त को नये गर्भ में ले जाने वाली पुनर्भव के संस्कारों की ऊर्जा उपस्थित न होने से, चित्त जनम-मरण के चक्र से हमेशा हमेशा के लिए छूट जाता है। इस तरह भव चक्र के हर जीवन में जन्म, जरा, रोग और मृत्यु से होने वाले दुःखों से छूट जाता है।
7. इस तरह भगवान बुद्ध का अंतिम उपदेश ‘‘वय धम्मा संखारा अप्पमादेन सम्पादेथ'' पूरी तरह वैज्ञानिक है। साधना का सिद्धांतिक पक्ष आज की वैज्ञानिक शिक्षा से भी मेल खाता है। मेडीकल साइंस के अनुसार भी (अॉटोनामिक सिस्टम) इसे समझा जा सकता है।
7.1 शरीर में आहार की ऊर्जा जो भौतिक कार्य में परिवर्तित होती है उसका नियंत्रण मोटर न्यूरॉन द्वारा होता है।
7.2 शरीर से चित्त की ओर जाने वाली नये संस्कारों की ऊर्जा और चित्त से शरीर की ओर आने वाली पुराने संस्कारों की ऊर्जा का नियंत्रण ‘‘सेन्सरी न्यूरॉन'' द्वारा होता है।
इस तरह आज की वैज्ञानिक शिक्षा, साधना के सिद्धांतिक पक्ष को समझने में, हर पढ़े लिखे व्यक्ति को मदद करती है।
8. पुर्नजन्म को मानना या न मानना इससे इस साधना का कोई संबंध नहीं है। क्योंकि यह साधना ऊर्जा पर आधारित सत्य से संबंधित है। परंतु नीचे दिये हुए पुराने साधकों के अनुभव पुर्नजन्म के बारे में उसके होने की दिशा निश्चित करता है (आगे चलकर नये लोगों के साधना सीखने पर वे अपने अनुभव द्वारा भी इसकी सच्चाई जानेंगे) ।
8.1 साधना में निर्जरा किये गये संस्कारों की संख्या, इस जनम में, जनम से लेकर आज तक निर्माण और संग्रहित किये गये संस्कारों की संख्या से कई गुना अधिक है। यह इस बात को दर्शाता है कि हमने ये अधिक संस्कार वर्तमान जन्म के पहले वाले जीवनों में निर्माण और संग्रहित किये है।
8.2 साधक साधना करते हुए यह स्वयं अनुभव करता है कि ऐसे अनेक संस्कार है जिनकी निर्जरा की गयी है और उनकी निर्जरा होते समय, जो सुखद या दुखद संवेदनाओं के अनुभव हुए है उनकी तीव्रता वर्तमान जीवन में अनुभव किये गये सुखद या दुखद संवेदनाओं की तीव्रता से भिन्न है। ऐसे भी अनेक संस्कार पाये जाते है जिनकी निर्जरा होते समय जो सुखद या दुखद संवेदनाओं के अनुभव हुए है उनकी तीव्रता वर्तमान मनुष्य जीवन में अनुभव किये गये सुखद या दुखद संवेदनाओं की तीव्रता से मेल खाते है। यह इस बात का संकेत है कि हमारे पूर्व के अनेक जीवन, मनुष्य के या अन्य योनियों में गुजरे है।
9. सामान्य/जनरल ः
9.1 विपश्यना साधना वैज्ञानिक होने से हर संप्रदाय, जाति, देश, मान्यता, का व्यक्ति इसे अपना सकता है।
9.2 साधना का आलंबन अपने ही श्वास और संवेदना पर आधारित है, इसलिए वैज्ञानिक और सार्वजनिन है।
9.3 साधना के दस दिवसीय शिविर भारत और भारत के बाहर अनेक स्थानों व अनेक भाषाओं में नियमित रूप से लगते रहते है। सारे शिविर पुराने साधकों के दान से चलाये जाते है। इसलिये धनी या निर्धन दोनों प्रकार के व्यक्ति इसका लाभ ले सकते हैं।
9.4 साधना वैज्ञानिक होने से और उसके सिद्धांत को बुद्धि द्वारा पहले से ही समझने लेने से हर कोई इसे निःसंकोच होकर अपना सकता है।
9.5 अनेक प्रकार की साधनाएं सीखकर बाद में उनमें से सर्वश्रेष्ठ चुनने में जो जीवन का बहुमूल्य समय नष्ट होता है, उससे साधक बन सकता है।
9.6 साधना संबंधित सारे निर्देश व प्रवचन विश्वविख्यात प्रमुख विपश्यनाचार्य पूज्य श्री सत्यनारायण गोयंका गुरुजी की वाणी में रिकार्ड किये गये अॉडियो वीडियो कैसेट/सीडी द्वारा दिये जाते हैं।
9.7 जिन व्यक्तियों का अध्यात्म में बिल्कुल विश्वास नहीं परंतु विज्ञान में विश्वास है ऐसे व्यक्ति इस साधना से विशेष रूप से लाभान्वित हो सकते हैं।
9.8 विपश्यना साधना संबंधित कुछ ही सीमित वैज्ञानिक बातें यहां बताई गयी है, जिससे साधना पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है यह सभी जान सकें। साधक साधना सीखकर जैसे-जैसे साधना में प्रगति करेगा अनेक वैज्ञानिक सच्चाईयां वह स्वयं अनुभव करेगा।
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