मानव सेवा से ही राष्ट्रोन्नति सम्भव डॉ0 शशांक मिश्र ‘भारती' मनुष्य मात्र की सेवा करना तथा पुरूषार्थ के द्वारा हमेशा सत्कर्म कर मन,...
मानव सेवा से ही राष्ट्रोन्नति सम्भव
डॉ0 शशांक मिश्र ‘भारती'
मनुष्य मात्र की सेवा करना तथा पुरूषार्थ के द्वारा हमेशा सत्कर्म कर मन, वचन और कर्म से प्राणि मात्र का हित करना मनुष्य का कर्तव्य है।
यह हमारे देश और संस्कृति की प्राचीन परम्परा एवं विशेषता रही है। मनुष्य में दूसरों के प्रति सेवा भाव होना ही परोपकार कहलाता है, जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरों का उपकार करता है। जब तक मनुष्य में दूसरों के लिए दयाभाव नहीं होगा तब तक उसमें सेवा भाव होना सम्भव नहीं है। इसलिए मनुष्य में मनुष्य के प्रति सेवा, सहानुभूति, दया तथा परोपकार की भावना विकसित हो और उसका मन-मस्तिष्क सांसारिक विकारों से दूर हो। तभी मानव सेवा की भावना पनप सकती है। बिना सेवा भावना को अपने अर्न्तरंग में संजोये राष्ट्रोन्नति में भागीदार बनना मनुष्य के बस से बाहर की बात है। इसी लिये मनुष्य का कर्तव्य है, कि वह मनुष्य के प्रति सेवा भावों का अपने अन्दर समावेश करे। जिसके द्वारा राष्ट्र की प्रगति में अपनी सामर्थ्य शक्ति के अनुसार सहयोग देकर उसके विकास के पथ को प्रशस्त करे।
मानव सेवा राष्ट्रोन्नति का केन्द्र बिन्दु है, जिसके चारों ओर देश और समाज की प्रगति का चक्र रूपी पहिया चलता-फिरता रहता है; लेकिन मानव सेवा में क्षणिक सी कमी या शिथिलता आने पर प्रगति का चक्र डगमगाने लगता है और शनैः-शनैः राष्ट्र की प्रगति रूक जाती है। जो मानव सेवा के खोखलेपन को उजागर करती है। वैसे मानव सेवायें सदैव एक सी नहीं रहती। क्योंकि समय तथा वातावरण परिवर्तन शील है, जिसके द्वारा मनुष्य के रंग ,लिंग,स्वभाव,वेशभूषा,बोलचाल,रूचि,लगन तथा संस्कृति पर प्रभाव पड़ते है। जिसके कारण मनुष्य की प्रवृत्ति में भी थोड़े बहुत परिवर्तन होते रहते हैं। जिनसे प्रभावित होकर मनुष्य फिर नयी उमंग और उत्साह के साथ राष्ट्र की
सेवा प्रारम्भ कर देता है। मानव द्वारा की गयी सत्य एवं पूर्ण ढं़ग की सेवा से ही राष्ट्रोन्नति में गति आती है। राष्ट्र में खुशहाली का वातावरण झलकने लगता है, जो मानव सेवा से ही राष्ट्रोंन्नति सम्भव होने का संकेत देता है।
मनुष्य असत्य, लोभ, घृणा,ईर्ष्या तथा आलस्य जैसे दुर्गुणों का त्याग करके ही सेवा भाव के पथ पर चल सकता है। सेवाभाव ही राष्ट्र की उन्नति में सहायक होने वाला एक मात्र ऐसा शब्द है, जिसके द्वारा देश और समाज का चहुंमुखी विकास सम्भव है।
मानव सेवा के द्वारा व्यक्ति जटिल से जटिल परिस्थितियों में भी संघर्ष कर तथा उन पर विजय प्राप्त कर राष्ट्र की उन्नति में अपना अमूल्य सहयोग देता है। मानव अपनी निःस्वार्थ भाव की सेवाओं के द्वारा तरह-तरह के कल्याण मयी कार्य करके समाज व देश में उन्नति के अवसरों के सम्बन्ध में नयी क्रान्ति ला देता है। जिसके द्वारा अशिक्षिति व्यक्ति भी उनसे प्रेरणा लेकर उनके मार्ग का अनुसरण करते हुए देश व समाज के विकास में सहयोग देते हैं। अपने अन्दर सद्गुणों का विकास कर उसमें जीवन रस रूपी नवीन हरियाली को जन्म देते हैं।
लेकिन मानव सेवा मदर टेरेसा,लेदीविद लैम्प तथा भट्ट नागेश जैसी निःस्वार्थ भाव के वशीभूत होकर हो अथवा ऐसा न लगे कि वह अपने लाभ को ही सर्वोपरि मानकर चल रहा है या इस प्रकार कहें-कि वह किसी राष्ट्र या देश अथवा व्यक्ति पर कोई उपकार कर रहा है;बल्कि ऐसा लगे,कि इस व्यक्ति, समाज व देश की मुझ पर ऐसी कृपा है, जो कि यह मेरी सेवायें स्वीकार कर रहा है। साथ ही साथ यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि मानव सेवा संकुचित अर्थों की सीमित परिधि में न हो। उसमें अमीर-गरीब,झोंपड़ी,महल, राजा-प्रजा का भेद-भाव न हो। वह सबल वर्ग के साथ-साथ निर्बल ,यहां तक कि पशु-पक्षियों तक सेवा करने वाली हो। तभी राष्ट्र व समाज की प्रगति हो सकती है। परन्तु यह भी नहीं होना चाहिए कि ऊपर से त्याग पूर्ण सच्ची सेवा का आवरण चढ़ा हो ; जबकि अन्दर से लोभ की तस्वीर छिपी हो अथवा अपने स्वार्थ की भावना प्रबल हो। इसलिए आवश्यकता इस बात की है, कि सेवा का उद्देश्य एक निश्चित किन्तु पूर्व निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य की ओर हो। तभी मानव सेवा के द्वारा राष्ट्र का विकास सम्भव हो सकेगा ।
अगर दिखावटी सेवायें प्राप्त होती रहे, तो ऐसा लगेगा कि मनुष्य की सेवायें तो अधिकाधिक प्राप्त होती हैं;किन्तु राष्ट्र की प्रगति मे कोई विश्ोष परिवर्तन नहीं हो रहा है और न ही भौतिक एवं सांस्कृतिक पक्ष सुदृढ़ हो रहा है। उस समय व्यक्ति राष्ट्र की उन्नति के स्थान पर अपनी तथा अपने परिवार की उन्नति को प्रधानता देगा। तो राष्ट्रोन्नति कैसे हो सकती है। क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए देश की सेवा करेगा। जिसमें उसके कुटुम्ब की भलाई का प्रतिबिम्ब उभरा हेागा। मात्र अपने परिवार तक की सीमित भलाई चाहने वाला देश की उन्नति और विकास में भाग कैसे ले सकता है; क्योंकि उसकी सेवायें प्रत्यक्ष रूप से तो राष्ट्र की प्रगति को दर्शायेंगे। जबकि परोक्षतः उसमे परिवार की प्रगति होगी।
राष्ट्रोन्नति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी स्वार्थ परता को त्याग कर समस्त देश के लिए ‘ हमभाव' की भावना अपने अन्दर विकसित करे। तभी वह देश का कल्याण कर उसकी उन्नति एवं विकास के अवसरों में तन-मन और धन के द्वारा अपनी सेवायें दे सकेगा। मानव सेवा जब तक निःस्वार्थ भाव से त्याग एवं लगनपूर्ण ढंग से नहीं होगी। उस समय तक मनुष्य के द्वारा राष्ट्रोन्नति के लिए किये गये प्रयास सार्थक नहीं होगे। उनकी सेवाओं से तो सिर्फ सच्ची देश सेवा का भ्रम उत्पन्न हो जायेगा। जो समाज व देश केा असमंजस की स्थिति में डाल देगा। जिससे देश में विकास के अनेक अवसर उपलब्ध होने के बाद भी मानव सेवायें पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो सकेगीं
मनुष्य की सच्ची स्वार्थ रहित एवं निष्ठापूर्ण सेवाओं से कई बार हमारे देश व विदेशों में बड़े-बड़े चमत्कार हुए हैं जिनके द्वारा देशों के विकास के भौतिक तथा सांस्कृतिक पक्षों को बल मिला है। जिससे मानव सभ्यता और अधिक विकास के स्तर को प्राप्त हुई है। साथ ही नवीन वैज्ञानिक ,सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक प्रणालियों का जन्म हुआ है। हमारे देश मे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी मानव सेवा को ही प्राथमिकता देते थे उन्होंने
मानव सेवा को ही देश की उन्नति का प्रदीप बताया जिन्हें अपनी र्निःस्वार्थ सेवा के बदले पुरस्कार स्वरूप गोलियां मिलीं। किन्तु उन्होंने सेवा का मार्ग नहीं छोंड़ा। बल्कि प्राण देना ही श्रेयस्कर समझा । इसी प्रकार महर्षि दयानन्द को कांच पीस कर खिला दिया तथा सुकरात को अपनी अमूल्य सेवाओं के बदले विष पीना पड़ा। आज भी ऐसे श्रृद्धालुओं का नाम उनके महान कार्यों के कारण बड़े सम्मान से लिया जाता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव सेवा से ही राष्ट्रोन्नति सम्भव है। लेकिन जब मानव सेवा सच्ची स्वार्थ रहित,निष्ठा, विश्वास एवं लगनपूर्ण ढंग से हो।
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