राग , रोग और रोगी - अन्तः सम्बन्धों की विवेचना डॉ․ ज्योति सिनहा प्रवक्ता (संगीत) भारतीय महिला पी․जी․ कालेज जौनपुर एवं रिस...
राग, रोग और रोगी - अन्तः सम्बन्धों की विवेचना
डॉ․ ज्योति सिनहा
प्रवक्ता (संगीत)
भारतीय महिला पी․जी․ कालेज
जौनपुर
एवं
रिसर्च एसोसियेट
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान
राष्ट्रपति निवास, शिमला-171005
भारतीय संस्कृति अपनी जीवन्त परम्पराओं, शास्वत मूल्यों तथा अपरिवर्तनीय विशिष्टता के कारण सर्वत्र सराहनीय है, वन्दनीय है, अनुकरणीय है। इसी भारतीय सभ्यता व संस्कृति की संवाहक है -- समस्त कलायें। भारतीय संस्कृति में कला को ‘मनसत्व' कहा गया है और वह ‘आत्मवत्-सर्वभूतेषु' के चिन्तन से उत्प्रेरित है। भारतीय चिन्तन के अनुसार चौंसठ कलायें मानी गयी हैं। जिनमें ललित कलायें अन्य कलाओं से कुछ विशिष्टता रखती है। जीवन में सौंदर्य-बोध विकसित करने के लिये तथा जीवन को सम्पूर्णता, समग्रता के साथ जीने के लिये कलायें मन को सदैव प्रेरित करती रही हैं। जिनमें सर्वाधिक उत्कृष्ट, प्रभावी एवं मुखर कला है-- संगीत। मानवीय भावनाओं एवं संवेदनाओं को स्वरों द्वारा अभिव्यक्त करने की अविरल धारा ही संगीत है। यह ईश्वर द्वारा प्रदत्त्ा सृष्टि की मधुरतम् अभिव्यक्ति है। संगीत वह परम् दिव्य नाद है जिसमें सृष्टि के समस्त स्वर समाहित हैं' समस्त ब्रह्मांड संगीत मय है। यह स्वरों का अनुपम एवं मनोहारी सामंजस्य है जो मानव के हृदय तंत्र को स्पन्दित करती हैं यह नाद ब्रह्म में एकाकार हो जाने की दिव्य एवं पवित्र साधना है। भारतीय मान्यता के अनुसार संगीत साक्षात् ईश्वर का स्वरुप है और इसीलिये इससे प्राप्त आनन्द को ‘ब्रह्मानन्द-सहोदर' कहा गया है। माधुर्य की वर्षा से सभी को रससिक्त करने वाली महादेव निर्मित कला है, अनुभूतियों का चरमोत्कर्ष है, जो सत् चित् आनन्द तथा लौकिक विभेद से परे मोक्ष प्राप्ति का सरल व सुलभ साधन हैं सत्यं शिवं सुन्दरं के भावों से भरी भारतीय संगीत की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक विकास, धार्मिक ऐश्वर्य एवं जीवन के स्वाभाविक विकास पर आधारित है।
ललित कलाओं में संगीत कला का स्थान सर्वोच्च है, क्योंकि इसके उपकरण ही अत्यंत अमूर्त और चल है। जहां काव्य के उपकरण भाषा और भाव, चित्रकला के उपकरण रेखा और रंग, वहां संगीत के मुख्य उपकरण मात्र स्वर और लय है। इस विशिष्ट विशिष्ट्ता के कारण ही ललित कलाओं में संगीत अपना एक अहम्, अनूठा एवं सम्मानजनक स्थान बनाये हुये है।
भारतीय संगीत की विशिष्टता का वर्णन वेद, स्मृति, पुराण, उपनिषद तथा अन्य शिक्षा ग्रन्थों में भी मिलता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि -- ‘‘तुम यदि संगीत के साथ ईश्वर को पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रगट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।''1
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है-- नाहं वसामि बैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मदभक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदः॥2
सृष्टि का बीजमंत्र ‘ओम्' अथवा ‘ऊंकार' अथवा ‘प्रणव नाद' ब्रह्म का सर्वोच्च उद्गान माना गया है। समस्त स्वर इस ओम् से ही निष्पन्न होते हैं और इसी में विलीन हो जाते हैं आचार्य मतंग ने नाद की व्याख्या अपने ग्रंथ ‘वृहद्देशी' के ‘देशी-उत्पत्ति-प्रकरण' में करते हुये बताया है कि नाद के बिना कोई संगीत या संगीत सृजन नहीं।
यथा--
न नादेन बिना गीतं, न नादेन बिना ास्वराः।
न नादेन बिना नृतं, तस्मान्नादात्मकं जगत्॥3
संगीत कला विभिन्न नादों का संयोग मात्र है। ‘नादाधीनम् जगत् सर्वम्' से ही इसकी व्याख्या पूर्ण हो जाती है।
भारतीय संगीत में संभवतः अनेकानेक तालों की कल्पना, लय के विभिन्न प्रकार, स्वर- संवाद, श्रुति-स्वर-मूर्च्छना, असंख्या राग-रागीनियां मेल-थाट, राग पद्धति, ताल पद्धति, संगीत की विविध प्रणालियां, गीत शैलियां, गायन शैलियां विभिन्न वाद्यों की वादन-विधि, विशिष्ट संगति, कल्पना की स्वतंत्रता, स्वर व लय की स्वतंत्र सत्ता, अनन्तता, रस निष्पत्ति इत्यादि ऐसे गुण हैं जो अन्य देशों के संगीत में नहीं मिलते। ऐसी निःसीम सम्भावनाओं से भरी जिसमें अनन्त भाव सृष्टि निर्माण करने की अदम्य क्षमता है, जिसकी व्यापकता व गहराई का अनुमान लगाना कल्पना से परे है। इन्हीं विशिष्टताओं से भारतीय संगीत विश्व संगीत के क्षितिज पर दैदीत्यमान है।
भारतीय संगीत की प्रमुख विशिष्ट्ता ‘रागदारी संगीत' है। स्वर तथा ताल किसी न किसी रूप में लगभग सभी संगीत प्रणालियों में विद्यमान है परन्तु राग की अवधारणा भारतीय संगीत की अपनी विशिष्ट विशिष्ट्ता हैं राग का मूल अर्थ ‘रंगना' है। रंगने अथवा रंग देने की यह मूल भावना राग में महत्त्वपूर्ण है। जन चित्त्ा का रंजन या लोकरंजन के उपयोग से ही राग का अस्तित्व कायम हैं। राग भारतीय संगीत की आधारशिला है। स्वरों की एक विशेष अवस्था ‘रांग' कहलाती है। एक निश्चित स्वरावली को लेकर स्वरों का ऐसा क्रमिक विकास किया जाता है, जिसमें सभी स्वर स्थायी ‘सा' से अपना रिश्ता जोड़ लेते हैं। प्रत्येक राग का अपना एक स्वरूप एवं स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वर, उनके परस्पर सम्बन्ध, स्वर स्थान, विश्रांति स्थान, अल्पत्व-बहुत्व, कण-भीड़ आदि पर निर्भर करता है। प्रत्येक राग में वही सात शुद्ध व पांच विकृत स्वर प्रयोग होते हैं परन्तु अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण प्रत्येक राग की प्रकृति सर्वथा एक दूसरे से भिन्न हो जाती हैं प्रत्येक राग कोई न कोई प्रतिक्रिया अथवा सन्देश (Msasage) अवश्य देती है। राग के विभिन्न तत्त्वों वादी-संवादी, पकड़, अंग वर्ण तथा विभिन्न घटकों आलाप, तान, लय तथा बंदिशों के साथ जब कलाकार अपनी भावनाओं को साकार करने की कोशिश करता है तो वह स्वयं तथा श्रोता दोनों ही रसमगन हो जाते हैं। यही भारतीय राग की विशेषता है जो अपने में अनूठी है, बेजोड़ है। यह सिर्फ स्वरों का समूह नहीं, बल्कि रस-भाव-सौन्दर्य का वाहक है। यह स्वरों का गायन-वादन मात्र नहीं ‘रागमय' बोध अभिप्रेत हैं राग में रंजकता का लक्षण श्रोता के मन में असीम आनन्द की सृष्टि करता है और कुछ समय के लिये ही क्यों न हो, श्रोता-प्रयोक्ता संसार की तमाम पीड़ाओं चिंताओं से मुक्ति पाकर नाद ब्रह्म में मगन हो जाता हैं श्री शरत्चन्द्र परांजपे लिखते है-
‘‘नाद ब्रह्म का यही साक्षात्कार ‘राग संगीत' की वास्तविक अनुभूति हैं। यही है-
रंग देने की क्रिया॥4
राग की यही रंग देने की विशिष्टता ने वैज्ञानिकों, संगीत चिकित्सकों को अपनी शक्ति की ओर आकृष्ट किया। संगीत में जो आनन्द प्रदान करने की चमत्कारिक शक्ति है वह मानव को सांसारिक बंधनों से मुक्त करके आत्मिक सुख प्रदान करती है। इसी आत्मिक सुख में ‘रोग-निवारण' की शक्ति निहित है। संगीत की प्रभावी शक्ति को देखने-परखने के बाद भारतीय मनीषियों एवं आचार्यों ने संगीत के चिकित्सकीय प्रभाव पर सर्वाधिक जोर दिया है। भारतीय संगीत का इतिहास ऐसे कथाओं से भरा है जो इस बात की द्योतक है कि संगीत में रोग निवारक क्षमता है। अतीत से ही संगीत का उपयोग मानव की भौतिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दुर्बलताओं से मुक्त होने के लिये किया जाता रहा है। यद्यपि संगीत एक कला है, परन्तु ऋषियों-महर्षियों की यह धारणा है कि संगीत द्वारा मानव के मस्तिष्क को शान्ति मिलती है और वह शान्तिपूर्ण जीवन यात्रा समाप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है। सामवेद की रचना स्वर तथा गेय शक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है। वैदिक युग से ही संगीत का प्रयोग चिकित्सा के रूप में किया जाने लगा था। श्री उमेश जोशी ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संगीत के इतिहास में लिखा है कि-- ‘‘जब कोई बीमार पड़ता था तो ये लोग उसे दवा नहीं देते थे बल्कि संगीत द्वारा ही उसका उपचार करते थे और इस सांगीतिक उपचार से अनेक व्यक्ति स्वस्थ व सुन्दर बन जाते थे। उन्हें संगीत के वैज्ञानिक रूप का पता था तभी तो उन्होंने संगीत का प्रयोग चिकित्सा रूप में किया।''5
ऋग्वेद व अथर्वेद में नीहित मंत्रों का प्रयोग मनुष्य की शारीरिक व्याधियों के उपचार के लिये किया जाता था। गायत्री महामंत्र के 24 मुख्य चमत्कारिक प्रभावों के अर्न्तगत 15वें प्रभाव में यह वर्णित है कि गायत्री मंत्र के सस्वर जाप से रोगों, व्याधियों से मुक्ति-निवृति मिलती है।6 सामवेद के बीज मंत्र ‘ओम्' में ही रोग निवारक की शक्ति निहित है। नाद योग व नाद साधना में ‘ऊँ' की महत्ता निर्विवाद हैं तथापि सामवेद में रोगों के निवारण के लिये राग गायन का विधान मिलता हैं। दीर्धायु की प्राप्ति एवं व्याधियों से मुक्ति के लिये साम गायन का विधान मिलता है। ऐसा उल्लेख है कि ‘‘रोग शान्ति की कामना करने वाले महारोगी की रोग के शान्ति के लिये ‘विश्वापृतनाः' इस साम का गायन करें।''7
मैंद ऋषि के शब्द कौतुहल नामक ग्रंथ में रोगी का शब्द से रोग निदान, बीना, तंत्री, पणव, भेरी, मृदंग, वंशी आदि वाद्य भेषज से ही बनाने और उनको सुनाकर रोगापहरण का विवरण है तथा हर रोग के लिये पृथक-पृथक बाजों के प्रभावों का वर्णन है तथा साथ ही अमुक प्रकार के श्रवन-मनन कीर्तन से रोग निवारण का विवरण है।8
आर्युवेद में भी अश्विनी कुमारों ने हर रोग के लिये चार भैषज बताये हैं -- पवनौकस, जलौकष, वनौकष और शाब्दिक। क्रौंचमुनी के ग्रंथ ‘कुर्णक-प्रभा' में भी शब्द और शरीर के सम्बन्ध का विवरण हैं।9
इसके अतिरिक्त संगीत के विभिन्न चिकित्सकीय आयामों एवं औषधीय प्रभावों का विस्तृत वर्णन संगीत मकरंद, संगीत सारामृत, चरक संहिता सुश्रुत- संहिता, अग्नि पुराण इत्यादि ग्रंथों में भी मिलता है। संगीत-मकरंद ग्रंथ में नारद द्वारा रागों की जातियों (ऑडव-षॉडव-सम्पूर्ण) के आधार पर रोगी के मन व शरीर पर प्रभाव पड़ने का उल्लेख किया गया हैं। नारद ने ‘संगीताध्याय' के प्रकरण में विभिन्न दशाओं में रागों के गायन-वादन का निर्धारण किया है।
यथा-
आयुधर्मयशोवृद्धिः धनधान्यफलम् लभेत्।
रागामिवृद्धि सन्तानंपूर्णभगाः प्रगीयते॥10-।
अर्थात् आयु, धर्म, यश, बृद्धि, संतान की अभिवृद्धि, धन-धान्य, फल-लाभ इत्यादि के लिये पूर्ण रागों का गायन करना चाहिये।
मध्यकाल में भी संगीत कि वैज्ञानिक व चमत्कारिक प्रभाव के वर्णन मिलते हैं। तानसेन बैजुबावरा, सरीखे संगीतज्ञों के चमत्कारिक प्रभावों से सभी परिचित हैं। मुस्लिम ग्रंथ ‘शरमा-इ-इशरत' के अनुसार-- ‘‘यदि रागों को उचित रीति से गाया जाता है तो वे रोग निदान एवं औषधि का काम करते हैं तथा रोगों पर तत्कालिक प्रभाव डालते हैं।''10
20वीं सदी में पं0 ओम्कार नाथ ठाकुर ने संगीत के चिकित्सकीय प्रभाव पर गहरा चिन्तन किया तथा उसका सफल प्रयोग भी किया। उन्होंने अपने चमत्कारिक गायन में राग पूरिया की अवतारणा कर इटली के शासक मुसोलिनी को अनिद्रा रोग से मुक्ति दिलाई। भारत में ही नहीं रोम, युनान, मिश्र आदि देशों के इतिहास में भी संगीत चिकित्सा का वर्णन मिलता है। इस प्रकार संगीत-चिकित्सा प्रणाली का इतिहास विविध रूपों में प्राप्त होता है। जिसके अर्न्तगत विपाद प्रमाद, अनिद्रा जैसे अनेक दैहिक, दैविक, भौतिक त्रियतायों के उपचार हेतु संगीत चिकित्सा का सहारा लिया गया।
आज पुनः वैज्ञानिकों, संगीत चिकित्सकों ने इस तथ्य पर अनुसंधान करना शुरू किया है कि संगीत अर्थात् भारतीय राग संगीत में चिकित्सोपयोगी तत्व निहित है जो रोगोपचार में सहायक हैं। राग-चिकित्सा के अर्न्तगत रोग (रोगी) की उत्पत्ति व अर्थ के विषय में जानना न्यायसंगत है।
आयुर्वेद जो आयु का वेद कहलाता है, के अनुसार देह धारण की तीन धातुयें बताई गयी है-- वात्, पित् और कफ़। हमारे शरीर को निरोग रखने में इनकी अहम भूमिका है। इनमें से किसी एक धातु में भी विकार आने से तत्सम्बन्धी रोग शरीर में होने लगते हैं जब इन तीनों में सन्तुलन बना रहता है तो हम स्वस्थ रहते हैं और असन्तुलन होने पर अनेक रोगों का जन्म होता है अर्थात् इनके कुपित होने के फल को रोग कहते हैं। आचार्य भरत ने रोग अथवा व्याधि के बारे में नाट्यशास्त्र में लिखा है--
व्यार्धिनाम् वात्पित्त्ाकफसनिपात प्रभवः।''
अर्थात् वात् पित्त्ा् कफ़ में से किसी एक की विकृति के कारण व्याधि उत्पन्न होती है।
धर्मग्रंथों के अनुसार मानव शरीर पंच-तत्वों से मिलकर बना है- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। संतुलन से हम आरोग्यावस्था में रहते हैं परन्तु इनमें असंतुलन अर्थात् तन और मन में संचित विकार रोगों के कारण हैं।
योगदर्शन के अनुसार शरीर के विभिन्न स्थानों पर चेतना शक्ति के सात चक्र है। ये सातों चक्र नर्वस सिस्टम और मुख्य ग्रंथियों से सम्बन्धित है जो शरीर-मन-बुद्धि से जुड़ी होती हैं। ये चक्र हमारे नाड़ी संस्थान और स्नायु संस्थान का भी संचालन केन्द्र हैं। जब इनमें से किसी चक्र में विकृति आती है तो यह शरीर व मन रोगी हो जाता है।
इन समस्त अवयवों में संतुसलन बनाये रखने के लिये वैदिक काल से शब्द शक्ति, मंत्र शक्ति व गीत शक्ति का भी प्रयोग होता रहा है। अर्थवेद में ऋक्, यजुष और साम के ऐसे मंत्र थे जो जीवन से व्यवहार से और स्वास्थ्य से सम्बन्धित थे। मंत्र-मणि व औषधि तीनों द्वारा अथर्वेद में उपचार बताया गया हैं संगीतारिषि तुम्बरू को प्रथम संगीत चिकित्सक माना जाता हैं उन्होंने अपनी पुस्तक ‘संगीत-स्वरामृत' में उल्लेख किया है कि-ऊँची व असमान ध्वनि का वात् पर, गम्भीर व स्थिर ध्वनि का पित्त्ा पर तथा कोमल व मृदु ध्वनियों का कफ.
के गुणों पर प्रभाव पड़ता है।
वर्तमान में वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों ने यह प्रमाणित किया है कि अस्सी फ़ीसदी बीमारियों का मूल मानसिक कारण हैं जो तनाव चिंता, अवसाद इत्यादि के कारण होता है। राग जो भारतीय संगीत की विशिष्टता है मानव-मन को समस्त चिंताओं-पीड़ाओं से दूर ले जाती है। इसके अर्न्तनिहित स्वर-लय, रस-भाव अपने विशिष्ट प्रभाव से व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता हैं स्वर तथा लय की भिन्न-2 प्रक्रिया उसकी शारीरिक क्रियाओं, रक्त संचार, मांसपेशियों, कंठ-ध्वनियों आदि में स्फूर्ति, ऊर्जा उत्पन्न करते हैं तथा व्याधियों को दूर करते हैं मानसिक विक्षिप्तिका का मुख्य कारण मस्तिष्क के उतकों में होने वाला असंतुलन है। इनका संतुलन बनाये रखने में रागों की भूमिका महत्वपूर्ण है। संगीत आनन्दानुभूति का विषय तो है ही साथ राग की सुमधुर धवनियां मानसिक स्थितियों की सूचक भी होती हैं। संगीत में एक गति है और हमारी नाड़ी-स्नायु संस्थान की क्रियायें भी गत्यात्मक हैं। दोनों में गुण-धर्म की समानता-सादृश्यता होने के कारण ही मधुर राग-रागिनियां हमारी आत्मा को प्रभावित करती हैं। स्वस्थ्य रहने का प्रमुख कारण है मन की प्रसन्नता और संगीत का प्रथम प्रभाव जो होता है वह मन की प्रसन्नता ही है।
संगीत चिकित्सकों की मान्यता है कि संगीत का प्रभाव मस्तिष्क के सेरिब्रल कार्टेक्स और आटोनौमिक नर्वस सिस्टम पर सीधा पड़ता है जो शरीर की साम्यावस्था को नियमित एवं नियंत्रित रखता है। राग की स्वर लहरियों से हृदय की घड़कनों की गति में कमी आती है जो रिलेक्शेसन का प्रमुख कारण हैं। रागों को सुनने से कार्टिसोल हार्मोन का स्तर घट जाता है, इससे शरीर तनावमुक्त हो जाता है जिसके फलस्वरूप शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती हैं साथ ही मधुर रागिनी शरीर को प्राकृतिक दर्द निवारक तत्व इर्न्डोफिन्स बनाने के लिये प्रेरित करती हैं संगीत की ध्वनि तंरगे मानव-मस्तिष्क में स्थित हाईपोथैलेमस को आन्दोलित करती हैं। जिससे मस्तिष्क की ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक हार्मोन्स का स्राव सुचारु रूप से होता है जिससे रोगी स्वतः स्वस्थ्य होने लगता है। वैज्ञानिकों के मत से संगीत मेटाबॉलिज्म को तेज करता है तथा मांसपेशियों की उम्र् बढ़ाता है। शोधकर्ताओं के अनुसार मानसिक तनाव, पागलपन, मिर्गी हिस्टीरिया, याददाश्त की कमी, अपंगता, गर्भावस्था, रक्तचाप, अनिद्रा, हृदय रोग, श्वास रोग तथा नशा से उत्पन्न रोगों मं संगीत की मधुर ध्वनि सुनने से तत्जनित रोगों से मुक्ति मिलती हैं।
सुख-दुःख आशा-निराशा, उल्लास-उमंग की अनुभूति संगीत द्वारा प्रभावी रूप से अभिव्यक्त की जाती हैं मनुष्य के अर्न्तनिहित भावों का सम्बन्ध मन से होता है तथा मानव मन और संगीत का अटूट सम्बन्ध रहा है। शारीरिक व मानसिक थकान होने पर मधुर संगीत सुनने से तनावमुक्त, सुकून एवं आनन्द की अनुभूति होती है। स्वरों के उच्चारण मात्र से विभिन्न शारीरिक अवयवों का व्यायाम हो जाता है। शोध से ज्ञात हुआ है कि संगीत की विभिन्न राग-रागीनियां इन्फ्रा और अल्ट्रासोनिक स्तर की ध्वनियां है जो अपने में समाहित तीव्रता और मधुरता के कारण अलग-अलग प्रकार के परिणाम प्रस्तुत करती है। अतः अलग-अलग रागों का अपना विशिष्ट प्रभाव है जो उनसे निकलने वाली ध्वनियों की तीव्रता इत्यादि के कारण प्रभावी होता है।12
संगीतज्ञों, चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों ने राग में लगने वाले स्वरों तथा उनका शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर कुछ राग निश्चित किये हैं जो रोगों को दूर करने में सहायक हो रहे है। जैसे-मानसिक विक्षिप्तता के लिये राग बहार, बागेश्री, बिहाग, धानी, श्वास के रोगों एवं दमा-अस्थमा में राग दरबारी मालकौंस, भैरव, श्री, केदार, भैरवी, मधुमेह के लिये राग जौनपुरी, जयजयवन्ती, नेत्र सम्बन्धी रोगों में राग पटदीप, भीमपलासी, मुल्तानी व पटमंजरी, हृदय से सम्बन्धित रोगों में राग दरबारी, पित्त्ा, सिरदर्द व जोड़ों के दर्द में राग सारंग, सोहनी, तोड़ी, यमन कल्याण व नट भैरव, पेट के रोगों में रागेश्री एवं पंचम अनिद्रा राग में राग पूरिया निलाम्बरी, काफी, खमाज रक्तचाप से सम्बन्धित रोगों में हिंडोल, कौशिक कान्हरा, पूर्वी तथा क्षय रोग, मलेरिया व हिस्टीरिया के रोगों में राग खमाज, बिलावल, रामकली, मारवा इत्यादि राग निर्धारित किये गये हैं। मल्हार, सोरठ, जयजयवंती इत्यादि राग शरीर की उम्र् बढ़ाते बढ़ाते हैं तथा क्रोध को दूर कर मस्तिष्क को शांत करते हैं। स्मरण शक्ति बढ़ाने में राग शिवरंजनी, तनाव को कम करने में राग तोड़ी तथा भैरवी अच्छी निद्रा एवं रोगियों को शान्ति प्रदान करती है। जो राग पूर्वाग प्रधान है वे कफ रोगों से दोपहर के राग पित्त्ा सम्बन्धी रोगी से एवं रात्रि के राग वात् सम्बन्धी रोगों से मुक्ति दिलाते हैं।
रागों के समय निर्धारण के पीछे प्राचीन संगीतज्ञों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अवश्य ही इसी चिकित्सकीय प्रभाव पर आधारित होगा।
संगीत के रागों का शरीर पर इस पूर्ण रूपी प्रभाव का वर्णन करते हुये जार्जस्टीवेन्स ने लिखा है-- ‘‘क्रोध उत्पन्न हो तो शारीरिक श्रम में लगे। विक्षिप्त मन स्वाध्याय से शान्त होता है और मानसिक स्वास्थ्य के लिये व्यायाम की आवश्यकता अनिवार्य है। इन तीनों के लिये सार्थक उपाय संगीत है। इससे मानसिक तनाव दूर होता है, शान्ति मिलती है और स्वास्थ्य स्थिर रहता है।''13
भारतीय राग-संगीत की यह विशिष्टता है कि इसमें निहित स्वर लहरियां व्यक्ति में अर्न्तनिहित सूक्ष्मताओं व विशिष्टताओं को अपने ही रंग में रंगने व समाहित करने का कार्य करती है। यह मन की गहराईयों को छूकर परमाननन्द की प्राप्ति कराती हैं यह वास्तव में रोगी को निरोगी, संवेदनाशून्य के संवेदनशील बनाती है।
राग-संगीत की इन्हीं विशेषताओं को परख कर, आज वर्तमान में संगीत को रोगोपचार की प्रक्रिया में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के सशक्त माध्यम के रूप में अपनाया जा रहा है जिसे संगीत चिकित्सा ‘अथवा' म्युजिक-थेरेपी' के नाम से जाना जा रहा है। संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से मानसिक शारीरिक व भावनात्मक विकार-विकृति का उपचार ही ‘म्युजिक-थेरेपी' हैं अर्थात् कला और विज्ञान के समन्वय से जो संगीत द्वारा रोगों को दूर करने की वैज्ञानिक प्रणाली तैयार की गयी उसे संगीत-चिकित्सा नाम दिया गया। इस पद्धति में मानवीय भावनाओं एवं संवेदनाओं को ऊर्जावान कर मनुष्य को मानसिक व दैहिक रूप से समृद्ध और ओजवान किया जाता है जिससे रोगियों के पुर्नवास उपचार के लिये उत्प्रेरणा, भावनात्मक सहयोग तथा भावाभिव्यक्ति में भी सहायता मिलती है।
राग-रागीनियों से फलप्रद चिकित्सा सम्भव है किन्तु उसके लिये आवश्यक है संगीत चिकित्सक का कुशल होना, उपयुक्त वाद्य, राग, शैली, का चयन, रोगी की मानसिक अवस्था रूचि, परिवेश तथा संगीत के प्रति गा्रहयता का आंकलन तथा मूल्यांकन करने की क्षमता हो। क्योंकि प्रत्येक राग का स्वर प्रत्येक व्यक्ति के मनः स्थिति एवं मानसिक स्थिति पर भिन्न प्रकार से अपना प्रभाव डालता है। राग रोग व रोगी के बीच सामंजस्य ही इस चिकित्सा पद्धति का प्रमुख आधार है। उचित रोग मे उचित राग का प्रयोग अवश्य ही लाभकारी सिद्ध होगा।
संगीत जैसी महान् विरासत को सुरक्षित व संरक्षित रखने के लिये आवश्यक है कि इसका उपयोग नये युग की नयी मांगों के सन्दर्भ में करें, इसकी उपयोगिता व उपदेयता को समझें।14
संगीत को सामाजिक उपयोगिता के सन्दर्भ में देखने की आज भी आवश्यकता हैं विषय के प्रति हम श्रद्धा अवश्य रखें परन्तु ज्ञान के प्रति जागरूक रहना भी घ्येय होना चाहिये। संगीत के विज्ञान को नहीं बल्कि संगीत को ही वैज्ञानिक नजरिये से देखने की आवश्यकता है।
वर्तमान में जबकि मानव का अस्तित्व सर्वाधिक संकटग्रस्त है। इस युग को असाध्य रोगों के जनक की संज्ञा दी जा सकती हैं जीवन की इस बेतहाशा दौड़ में इंसान अनेक मानसिक-शारीरिक दुष्परिणामों से ग्रसित हो रहा है। ऐसी पीरस्थिति में सम्पूर्ण परिवेश को सुन्दर, शान्त व समृद्ध बनाने में संगीत संजीवनी का कार्य कर सकती है। परिणामस्वरूप संगीत द्वारा शिष्ट समाज, शुद्ध पर्यावरण, प्रदूषण मुक्त स्वस्थ मन और पुष्ट शरीर, तीव्र बुद्धि प्रखरता इत्यादि संगीत के माध्यम से सहज ही सुलभ हो जाते हैं।
तुलसी दास जी ने कहा है--
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रहित यह अधम शरीरा॥
ये पांचों तत्व मानव शरीर के आधार है। जिनमें संतुलन बिठाकर स्वस्थ व दीर्धायु जीवन प्राप्त किया जा सकता है। शोध से यह स्पष्ट है कि इन पांचों में संगीत विद्यमान है अथवा इन पांचों तत्वों में संतुलन संगीत के द्वारा बनाये रखा जा सकता है तथा मानव स्वास्थ्य दीर्धायु जीवन पा सकता है।
कालाईल ने भी कहा कि -- ‘‘संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है।'' अतः जहां ईश्वर का वास स्वयं है वहां भला कोई रोक-शोक कैसे टिक सकता है?
भारतीय संगीत की परम्परा विश्व की सबसे पुरातन संगीत परम्परा है। विश्व की सबसे पुरातन संगीत परम्परा है। भारतीय संगीत अपनी मधुरता, सरसता, शुद्धता एवं विविधता के बल पर श्रुतिमधुर एवं लोकप्रिय सिद्ध हुआ।
वास्तव में संगीत मन व वाणी से परे अनुभव व आनन्द का विषय हैं यह भाव-सौन्दर्य के रसानुभूति तथा सुखानुभूति से अभिप्रेत हैं यह हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है, विरासत है जो भावी पीढ़ी को प्रेम व सद्भाव का संदेश देती है। जन-गण-मन को प्रस्फुटित करने वाले भारतीय संगीत में मुक्ति का अमर सन्देश हैं।
संगीत के विविध रूप है, आवश्यकता है कि उनके मूल्यों एवं उपचारात्मक उपयोगिता को पहचाना जाये ताकि उनके द्वारा प्रदत्त्ा लाभों का प्रयोग हो सके। संगीत-चिकित्सा निश्चित रूप से मानव जीवन को एक नई दिशा प्रदान करेगी। वर्तमान में, बदलते परिवेश में, संगीत में राग द्वारा रोगों का निदान एवं रोगियों को शान्ति तथा सुकून की महती आवश्यकता है। अपने चमत्कारिक प्रभाव से ये निश्चित रूप से आश्चर्यजनक परिणाम देगी, ऐसी आशा एव अपेक्षा हम अपने अनुसंधानकर्ताओं, वैज्ञानिकों, मनो-वैज्ञानिकों, संगीतज्ञों-संगीत चिकित्सकों से करते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1․ ऋग्वेद 8/33/2
2․ नारदीय शिक्षा, नारद
3․ भारतीय संस्कृति, शास्वत जीवन दृष्टि एवं संगीत- डा․ रूचि गुप्ता पृ․ सं․ 31
4․ संगीत बोध- शरत चन्द्र परांजपे - पृ․ सं․ 58
5․ भारतीय संगीत का इतिहास- उमेश जोशी पृ․ सं․ 50-51
6․ सत्यं, शिवं, सुन्दरं- डॉ․ सुकन पासवान पृ․ सं․ 148-149
7․ साम गान, उद्भव व्यवहार एवं सिद्धान्त- डॉ․ पंकज माला पु․ सं․-235
8․ संगीत मासिक पत्रिका-1993-राग चिकित्सा-मधुगन्ध मधुव्रत पृ․ सं․ 24-26
9․ वही पृ․ सं․- 26
10․। संगीत मकरंद- नारद संगीताध्याय चतुर्थ पाठश्लोक सं․ 80 सतीश शर्मा- संगीत चिकित्सा पृ․ सं․ 160
11․ हिन्दी नाट्य शास्त्र- बाबूलाल शास्त्री- पृ․ सं․ 421
12․ शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म-श्रीराम शर्मा, पृ․ सं․ 6․3
13․ संगीत- चिकित्सा, श्री सतीश शर्मा, पृ․ सं․ 380
14․ साहित्य, संगीत व दर्शन-ए․ए․ज्दानोव, पृ․ सं․ 22 अनु0 श्री कर्ण सिंह चौहान
संगीतांजलि (समस्त भाग) - (श्री) पं․ ओम्कार नाथ ठाकुर
संगीत विशारद - श्री बसंत
भारतीय संस्कृति, शास्वत दृष्टि एवं संगीत - डॉ․ रूचि गुप्ता
भारतीय संगीत का इतिहास (आध्यात्मिक एवं दार्शनिक) -- डा․ सुनीता शर्मा
ख्याल गायन शैली विकसित आयाम- सत्यवती शर्मा
सरस संगीत रचना रत्नाकर -भाग- 1,2,3- श्री राजकिशोर प्रसाद सिनहा
प्राचीन भारत स इतिहास -- विद्याधर महाजन
प्राचीन भारत में संगीत -- धर्मावती श्रीवास्तव
संगीत बोध -- श्री शरत चन्द्र परांजये
भारतीय कलायें -- श्री बासुदेव शरन अग्रवाल
स्रस संगीत -- श्री प्रदीप कुमार दीक्षित
पत्रिकाः-
'' आरोग्य संजीवनी
'' निरोग धाम
'' अखण्ड ज्योति
'' कल्याण
बहुत अच्छा और उपयोगी आलेख। मैंने महसूस किया है कि पांच सुरों वाले राग जैसे भीमपलासी, शिवरंजनी, दुर्गा आदि श्रोताओं के मन को अधिक शांति प्रदान करते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा और उपयोगी आलेख। मैंने महसूस किया है कि पांच सुरों वाले राग जैसे भीमपलासी, शिवरंजनी, दुर्गा, मालकौंस आदि श्रोताओं के मन को अधिक शांति प्रदान करते हैं।
जवाब देंहटाएंjyoti ji ap bahoot achcha likhti hai.kripaya ise nirantarta pran karen
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