आ चार्य ओशो ने कहा है-‘प्रेम में तुम न रहो, प्रेम रहे‘। यानी कि प्रेम की उस अवस्था में पहुंचना कि कर्ता को अपना भान न रहे, वह अपने आ...
आचार्य ओशो ने कहा है-‘प्रेम में तुम न रहो, प्रेम रहे‘। यानी कि प्रेम की उस अवस्था में पहुंचना कि कर्ता को अपना भान न रहे, वह अपने आपको भूल जाये, भूल जाये अपने भौतिक स्वरूप को-देह को। प्रेम की यह है उच्च अवस्था। उस अवस्था को उद्घाटित करता शचीन्द्र भटनागर का गीत-संग्रह ‘ढाई आखर प्रेम के‘ में कुल 67 रचनाएं हैं। इन रचनाओं में उनके जीवन के विभिन्न काल खण्डों की प्रेमानुभूतियों को अवरोही क्रम में सहेजा गया है। उनका यह संकलन प्रेम की खुशबू की पहचान तो कराता ही है, व्यापक दृष्टि में जीवन को सुवासित करने का नित्य संदेश भी देता है। इसीलिए उनकी यह प्रेम-साधना अनवरत चल रही है। इस साधना में अवरोध आये, कष्ट आये, किन्तु अनका धैर्य कभी टूटा नहीं, उनका आत्म-विश्वास कभी डिगा नहीं। तभी तो उनका तप आज भी जारी है इस उम्मीद के साथ-‘‘इतना तप लेने दो मुझको/यह जीवन कुंदन बन जाए/श्वांस-श्वांस चंदन बन जाए।‘‘
जिसका जीवन लघु से विराट हो जाये, जो व्यष्टि से समष्टि हो जाये-ऐसे कम ही लोग मिलेंगे। और इन कम लोगों में एक नाम इस कवि का भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि उसकी सोच का आयाम व्यापक हो चुका है, उसमें ‘स्व‘ से ‘सर्व‘ की भावना जाग चुकी है। इसीलिए उसकी कामना है-इच्छा है-
मुझे न लाओ उस उपवन में
जिसमें केवल आकर्षण हो,
मुझे न दो तू ऐसा पारस
लौह जिसे छूकर कंचन हो
वह पारस दो, जिसे परस कर
माटी भी कंचन बन जाए
हर बंजर उपवन बन जाए।
इसी तरह की अभिलाषा डा0 शिवबहादुर सिंह भदौरिया के लोकप्रिय गीत ‘नदी का बहना मुझमें हो‘ में की गई है-
मेरी कोशिश है
कि
नदी का बहना मुझमें हो।
जहां कहीं हो
बंजरपन का-
मरना मुझमें हो।
भदौरिया जी बंजरपन के मरने की बात करते हैं, वहीं भटनागर जी बंजर के उपवन बन जाने की बात। दोनों में कितनी साम्यता! जगत के कल्याण की द्योतक-प्रेम की परिचायक। शायद तभी खलील जिब्रान कहते हैं-‘‘खूब किया मैंने दुनिया से प्रेम और मुझमें दुनिया ने, तभी तो मेरी मुस्कुराहट उसके होठों पर थी और उसके सभी आंसू मेरी आंखों में‘‘। यह प्रेम की चेतना का व्यापक स्वरूप नहीं, तो क्या है?
वाह्य सौन्दर्य क्षणिक होता है और उसका आकर्षण अस्थाई। कवि जानता है यह बात। तभी तो वह मन की आंखों से दीदार करना चाहता है प्रेम के शाश्वत रूप का जो देता है जीवन को एक नया आयाम-
रूप दिखाओ, जो भीतर की-
आंखों का अंजन बन जाए
अक्षय आकर्षण बन जाए।
प्रिय से उसकी यह गुहार आखिर क्यों? ताकि प्रेम का यह आयाम समाज के सामने एक आदर्श बनकर सामने आए। ऐसा आदर्श जिसे लोग जानें, समझें और जीवन में उतारें। साथ ही महसूस करें कि प्रेम कोई फैशन नहीं, सामयिक चलन नहीं-जब मन में आये, जिस पर आये कर बैठे प्यार और जब जी भर गया तो मुंह फेर लिया। गुड बाय-गर्ल फ्रेंड-बाय फ्रेंड। या पटक दी जुबान-‘गो टु हैल‘! क्योंकि ऐसा प्रेम कुछ पल का है, स्वार्थ पर आधारित है, इसमें नित्य तीव्रता और समर्पण का अभाव होता है। कवि यह सब भलीभांति जानता है। प्रिय से उसका कहना है-
यहां किसको समय है
प्यार से देखो/तुम्हारी ओर पल-भर भी
तुम्हारी बात तो है दूर
सुन पाता नहीं कोई/यहां अपना मुखर स्वर भी
मीत/मत छेड़ो/मधुर संगीत लहरी अब
धरा स्वर से
सजाने की सनातन सौम्य अभिलाषा
न कोई समझ पाएगा।
यह सर्वविदित सच है। गीतकार जानता है कि हममें से बहुत से लोग अपने हृदय की गहराइयों में उतर नहीं पाते, उसकी आवाज को सुन नहीं पाते। और इसीलिए असफल हो जाते हैं हम प्यार में, जीवन-व्यवहार में। कारण-‘‘हमारी दृष्टि पैनापन पुरातन खो चुकी अपना‘‘ तथा ‘‘स्वनिर्मित पंथ पर हम/भूमि से आकाश तक को/नापने में व्यस्त हैं इतने/सहज संवेदना की/सोधती अमराइयों में घूमना संभव न हो पाता‘‘। इस दृष्टि से शेक्सपीयर का मानना -‘‘प्रेम आंखों से से नहीं हृदय से देखता है‘‘ काफी तर्कसंगत लगता है। आज की स्थिति उलटी-पलटी है। आज पे्रम ने हृदय से कम, आंख या दिमाग से देखना ज्यादा प्रारम्भ कर दिया है। परिणाम सबके सामने है। कवि का इस ओर भी साफ संकेत है।
वियोग और संयोग प्रेम के सिक्के के दो पहलू हैं। इस संग्रह में दोनों ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। कवि का वियोगी मन प्रिय के जाने पर कैसा महसूस करता है-देखें-
तुम्हें गए/कुछ दिन बीते हैं
पर मुझको अरसा लगता है
गुमसुम हैं/सारी दीवारें
छत भी है रोई-रोई सी
आंगन के/गमले में तुलसी
रहती है खोई-खोई-सी
द्वार/किसी निर्जन तट वाले
सूखे सरवर-सा लगता है।
गीतकार का यह भाव सहृदयों को पूरी तरह से संवेदित करता है। किन्तु उसकी इस अभिव्यक्ति में लेस मात्र शिकायत, झुंझलाहट या खीज दिखाई नहीं पड़ती। प्रिय की अनुपस्थिति उसकी आंखों को द्रवित जरूर कर रही है।-वह वेचैनी में, अकुलाहट में, पीड़ा में कह उठता है-‘‘तुम क्या गए/कि भीगी पलक पवन सोया है/मन रोया है/‘‘ साथ ही प्रेम की पावन एवं उद्दात अनुभूति से ओतप्रोत यह रचनाकार निराश नहीं है, बल्कि उसका स्वर पूरी तरह से आशावादी है। तभी तो वह संपूर्ण विश्व को प्यार का यह संदेश देता है।
विश्व की सारी दिशायें/एक होकर अब मिलेंगी
जाति की संकीर्णताएं/टूट जायेंगी, मिटेंगी
अब ना कोषों में पराया/शब्द कोई भी रहेगा
विश्व भर अपनत्वपूरित/प्यार का संदेश देगा।
संपूर्ण विश्व के मंगल की कामना करने वाले इस प्रेमी की इच्छा है। प्यार की पुरवाई उसके घर भी डोलती है। फिर से आंगन, छत, दीवारें, तुलसी खिल-खिल उठती हैं। प्रिय का आगमन होता है। मिलन की घड़ी आती है। प्रेमी भावुक हो उठता है और हो जाती है उसकी संवेदना तरल-‘‘तुम आए/तो सुख के फिर आए दिन/बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन‘‘। कहीं यह ‘कृष्ण‘ का ‘राधा‘ से मिलन तो नहीं? यदि हां, तो डॉ बुद्धिनाथ मिश्रजी यहां बरबस याद आते हैं-
एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से
आज मेरा मन स्वयं देवल बना
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आंचल बना।
(शिखरणी)
और इस मिलन में प्रेमी अपना विवेक नहीं खोता, बल्कि वह न केवल अपने आपको, अपनी प्रिय को भी समझाये रखता है-‘‘मत बहकी-बहकी बात करो/मन में मत झंझावत करो/ना जाने पिंजरे की मैना/कब द्वार खोल उड़ जाएगी‘‘।
जल की तरह निर्मल एवं पारदर्शी भावनाओं को उकेरतीं ये गीत-रचनाएं कवि के रागात्मक आयाम से न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उनकी कहन, उनके शब्द प्रेम का बखूबी पाठ भी पढाते हैं। ऐसा पाठ कि यह प्रेम ही है जो आदमी को आदमी बनाता है, उसकी कार्यक्षमता एवं खूबसूरती बढाता है और ऐसी दुनिया के निर्माण में सहायक बनता है जहां मनुष्यता के ही नहीं जड़-चेतन के गीत गाये जाते है मीठे एवं मोहक स्वरों में। यही है प्रेम का व्यापक स्वरूप। दो प्रेमियों के निजी रागों से ऊपर उठकर सबको अपने में समाहित कर लेने की चाहत या कि इन सबमें अपने को समोने की सुखद लालसा। प्रख्यात आलोचक-नवगीतकार दिनेश सिंह जी के शब्दों में कहूं तो-‘‘यहां यह इर्आखर वाला प्रेम सारे शास्त्रों के सार तत्व रूप में प्रस्तुत हुआ है....यह प्रेम इस अर्थ में जीवन जगत के प्रति संवेदनात्मक रवैया की सीख से है‘‘। तभी बाबा कबीरदास जी कहते हैं-‘‘ढाईआखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय‘‘।
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सम्पर्क-
ग्रा. व पो.-चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जिला-इटावा (उ.प्र.)-206127
मो.-09456011560
-समीक्षित कृति-‘ढाईआखर प्रेम के‘, लेखक-शचीन्द्र भटनागर,
हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर (उ.प्र.) से 2010 में प्रकाशित, मूल्य-रु.100/-।
इतनी सुंदर रचनाएँ और उतना ही सुंदर आपका विवेचन । इतनी प्यारी रचनाएँ पढवाने का धन्यवाद । ये कविता विशेष अच्छा लगी सरल और गहरी भावभिव्यक्ती ।
जवाब देंहटाएंतुम्हें गए/कुछ दिन बीते हैं
पर मुझको अरसा लगता है
गुमसुम हैं/सारी दीवारें
छत भी है रोई-रोई सी
आंगन के/गमले में तुलसी
रहती है खोई-खोई-सी
द्वार/किसी निर्जन तट वाले
सूखे सरवर-सा लगता है।
जितनी सुन्दर और जीवन दर्शन कराती शचीन्द्र जी की कवितायें हैं उतना ही सुन्दर आपकी समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंप्रेम बेहद वृहद विषय है मगर चरम पर जो पहुंच गया वहाँ "मै" का अभाव हो गया और संपूर्णता आ गयी…………इस ब्राह्मी स्थिति मे पहुँच कर जब कुछ लिखा जायेगा तो सभी के दिल तक जरूर पहुँचेगा।
किसी एक कविता के लिये क्या कहा जा सकता है आपने जिस तरह बताया है लगता है कि इस किताब को जरूर पढा जाये।