शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक , सांस्कृतिक , धार्मिर्क , राजनीतिक , सामाजिक तथा पर्या...
शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके एक हजार से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
दलित चिन्तन : संघर्ष और मुक्ति के नये क्षितिज
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव
एसोशिएट
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति निवास शिमला (हि.प्र.)
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वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
डी0 वी0 कालेज उरई, जालौन (उ0 प्र0) 285001
भारतीय परम्परावादी हिन्दू वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले अर्थात् चौथे स्तम्भ या भारत के सभी समुदायों या समाजों में निम्न स्तर पर पाये जाने वालों को अछूत या अस्पृश्य माना गया है जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। ‘दलित' शब्द भारतीय शब्द-कोष का एक ऐसा अस्मिता-बोधक शब्द है जो भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न नामों की संज्ञा प्राप्त करता हुआ इधर-उधर ढ़ुलकता रहा और अपनी मर्यादा एवं स्वतन्त्रता के लिए सदियों से छटपटाता रहा। पूर्व वैदिक काल में मानव के गुण कर्म और स्वभाव के आधार पर जब चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की रचना हुई तो वर्ण व्यवस्था का न तो विरोध हुआ और न ही शूद्रों की कोई छटपटाहट। उस समय सभी को समान अधिकार प्राप्त थे कोई भी व्यक्ति अपने कर्म के आधार पर किसी भी वर्ण का वरण कर सकता था। नाभाग का क्षत्रिय से वैश्य होना धृष्ट पुत्र धाठर्ट का क्षत्रिय से ब्राह्मण होना तथा क्षत्रिय नरेश विश्वामित्र का ब्रह्मर्षिपद प्राप्त करना इसी के तत्कालीन ज्वलंत उदाहरण हैं। आगे चलकर उत्तर वैदिक काल में यही ‘वर्ण-व्यवस्था', जाति व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गई। ‘जाति' के वर्चस्व बोधि के सामने मानव के गुण और कर्म गौण हो गए; परिणामतः ‘वर्ण' के वरण का अधिकार भी समाप्त हो गया। जबसे जाति-व्यवस्था का निर्माण हुआ, तबसे शूद्रों को न जाने कितने पर्यायबोधक शब्दों से अलंकृत किया गया, यथा-अवर्ण, अस्पृश्य, अन्त्यज, चाण्डाल, निम्न, हरिजन पंचम आदि। ये समस्त विशेषण और उपनाम अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा करते हुए आज ‘दलित' नाम से प्रतिफलित हो रहे हैं।''1 समय के अंतराल में दलित वर्ग के लोगों ने अपनी अलग सामाजिक पहचान बनाने का प्रयास किया या वे जिस समुदाय के अंग हैं उसमें रहकर ही अपनी स्थिति को उन्नत करने का हर सम्भव प्रयास करते रहे हैं। यद्यपि दलितों के सभी प्रयास सुचारू नहीं हो पाये हैं। यही नहीं, बल्कि यह कहा जाए कि उनके प्रयासों या आन्दोलनों का इतिहास या सामाजिक अध्ययन अथवा साहित्य में सम्यक रूप से लिखित विवरण, उपलब्ध नहीं हैं। इतिहास से ज्ञात होता है कि अछूत या सबसे निम्न-स्तर के लोगों की सामाजिक- आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय रही है, चाहे वे जनसंख्या बहुल हिन्दू समुदाय के अंग हों या फिर मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि अल्प-संख्यक समुदायों के; जिसमें वे हिन्दू-धर्म छोड़कर गये हैं और स्वेच्छा से इन धर्मों को अपनाकर इन समुदायों की सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था के अंग बन गये हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अल्प-संख्यक धर्म एवं उनकी समाज-व्यवस्था सैद्धान्तिक-रूप में समानता, भाईचारा एवं दया-भाव पर आधारित है किन्तु व्यवहारिक दृष्टि से ये सभी अन्तर सामाजिक स्तरीकरण से मुक्त नहीं हैं। फलस्वरूप, अछूतों की सामाजिक-स्थिति वहाँ पर भी बदतर रही है। यद्यपि अल्प-संख्यक समुदायों में अछूतों की संख्या बहु-संख्यक हिन्दू समुदाय के अछूतों की संख्या जो कि करोड़ों में है, की तुलना में बिल्कुल ही नगण्य एवं दयनीय स्थिति में है।
डॉ0 अम्बेडकर ने भारत में एक नये समाज की परिकल्पना की थी, जिसे उन्होंने देश के संविधान में कुछ हद तक समाहित भी किया था। अतएव पिछले तिरेसठ वर्षों से अनुसूचित-जातियों या दलितों, जिसे उन्होंने स्वयं अपनी सामाजिक-पहिचान के रूप में अपनाया है। वर्तमान के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक तथा राजनैतिक विकास के पूर्ण विवरण के अन्तर्गत दलितों में होने वाले संवेदनात्मक, आत्म-विश्वासी, आशावान और सम्भावनात्मक परिवर्तन को नकारा नहीं जा सकता। दलितों में ये सभी परिवर्तन डॉ0 अम्बेडकर की वैचारिकी या विचारधारा, उनके क्रियाकलाप, सतत् प्रयास तथा त्याग पर आधारित हैं जिसकी पुष्टि संविधान में निहित प्रावधानों से पूर्णरूपेण होती है। प्रतिफल के रूप में दलितों ने एक नये समाज के निर्माण की सम्भावना पर बल दिया है जो पूरी तरह समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और सामाजिक- न्याय पर आधारित है। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो यह पहले से प्रचलित दलितों के अनेक प्रकार के आन्दोलनों से स्पष्ट है चाहे वे आन्दोलन मजदूरी की उचित दर दिलाने के लिये किये गये हों, चाहे धर्म-परिवर्तन के लिये या फिर साहित्य लेखन के लिये। इन सभी आन्दोलनों का स्पष्ट लक्ष्य भले ही दलितों के अस्तित्व से जुड़ा रहा है, लेकिन इसका परोक्ष और अत्यधिक अहम् या दूरगामी लक्ष्य, एक नये समाज का निर्माण करना ही रहा है।
दलितों के नये समाज के निर्माण की परिकल्पना चाहे भले ही अभी अमूर्त-रूप में हो या फिर उच्च वर्गों एवं जातियों के बुद्धिजीवियों की परिकल्पना से गुणात्मक तथा संख्यात्मक अर्थों में भिन्न हो, परन्तु समाज-निर्माण की यह दूसरी प्रकार की परिकल्पना बहुत-हद तक परम्परा से बिल्कुल अलग हटकर परम्परावादी समाज के बिल्कुल विरुद्ध है और इसकी गति भी अत्यन्त तीव्र है। आज का दलित, चाहे वह शहर या गांवों में रहता हो, नये समाज के निर्माण को शीघ्रताशीघ्र देखने की चाह उसमें तीव्र है। उसे इसमें कितनी सफलता मिलती है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले वर्षों में उसकी आपसी एकता कितनी बनती है, जिसके सहारे वह अपने आंदोलन को कितना प्रभावी एवं सशक्त बना पाएगा।
उपर्युक्त विश्लेषण से दो तथ्य उभरकर सामने आते हैं पहला यह कि समााज- परिवर्तन, तदनुसार नये समाज के क्रमिक निर्माण में दलितों ने प्रारम्भ से ही प्रभावशाली भूमिका निभाई है। परम्परा की इस व्यवस्था में राष्ट्र निर्माण के किसी भी पहलू को लें-चाहे वह कृषि एवं उद्योगों के जरिये आर्थिक विकास का हो या शहरों तथा गांवों के विकास का हो या फिर यातायात व संचार के साधनों का हो, सबमें दलितों ने भले ही श्रमिक के ही रूप में क्यों न हो, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ तक कि वैज्ञानिकी विकास के स्तर पर भी परोक्ष रूप में ही सही वैज्ञानिकी की विषयवस्तु बनकर ही सही-दलितों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन देश में अब तक चले आ रहे प्रतिमानों के आधार पर दलितों के इन योगदानों को नगण्य ही समझा जा रहा है। यही नहीं उन्हें सदैव ही परावलम्बी तथा अब तक हुए विकास के लाभों पर आश्रित ही समझा गया है। दूसरी बात यह कि देश के कुछ परम्परावादियों ने हमेशा से दलितों को अपनी सोच या अध्ययन की विषय-सामग्री (आबजेक्ट) ही समझा है और कभी भी उन्हें एक कर्त्ता या नायक (सब्जेक्ट या ऐक्टर) के रूप में नहीं माना, इतिहास इस तथ्य का साक्षी रहा है कि विषयवस्तु को किसी भी रूप में तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत किया जा सकता है या उसे कोई भी अर्थ दिया जा सकता है और अध्ययन-कर्त्ता या नायक उसे जैसा स्वर व रूप देना चाहे, दे सकता है। अतीत से लेकर वर्तमान तक भारतीय समाज में दलितों के साथ कुल मिलाकर ऐसा ही किया जाता रहा है चाहे वह राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्तर पर हो या फिर चेतना और अध्ययन के स्तर पर। सभी स्थितियों में दुधारी तलवार का शिकार दलित वर्ग ही हुआ है।
परम्परा की इस प्रासंगिकता को समाप्त करने के लिए और यदि भारतीय समाज का समुचित विकास, राष्ट्र का निर्माण या फिर एक नये समाज की स्थापना करना है, तो दलितों के सम्यक विकास को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता, साथ ही उनकी कारगर या प्रभावी भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। आज समय की मांग है कि नये समाज के निर्माण में दलितों को भागीदार बनाना होगा। यह तभी सम्भव है तब प्रस्थापित समाज में चली आ रही प्राचीन परम्पराओं, रूढ़ विषमताओं, रूढ़िवादिता, धर्म, ढ़कोसलों जातिवाद एवम् विषमताओं को समाप्त किया जाये एवं नवीन मूल्यों, परम्पराओं तथा मान्यताओं के बीच समुचित समन्वय स्थापित हो। नहीं तो आने वाले वर्षों में हिंसा, आपसी क्लेष, शोषण, भेदभाव एवं अशांति की स्थिति बनी रहने की पूरी सम्भावना है। ऐसी स्थिति में समाज सुधारकों एवं मनीषियों की भारत में एक नये समाज की स्थापना की परिकल्पना एक कल्पना-मात्र बनकर रह जायेगी एवं भारतीय समाज कुल मिलाकर एक अविकसित या अर्द्ध-विकसित समाज बना रहेगा। यही नहीं देश में हो रहे विकास का लाभ इसकी कुल जनसंख्या के एक छोटे से हिस्से तक सिमटकर रह जायेगा एवं समाज असमानता, शोषण, भेदभाव तथा अन्याय की संस्कृति को किसी न किसी रूप में अक्षुण्ण बनाये रखेगा, जो मानवता एवं विकास की दृष्टि से घातक होगा। इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ0 बजरंग बिहारी तिवारी का मानना है कि ‘‘दलित लेखन गैर दलितों के लिए एक अवसर है ऐसा अवसर जिसके जरिए वे वर्चस्वमूलक जाति केन्द्रित समाज को प्रेमाधारित, समतामूलक समाज में तब्दील करने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। गैर दलित लेखकों को इस गुरूर से मुक्त होना होगा कि वे दलितों के पक्ष में और जाति प्रथा के विरोध में लिखकर दलितों के मुक्तिपथ को प्रशस्त्र करने का महनीय कार्य कर रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि ऐसा करके वे अपनी मनुष्यता को जाति की जंजीरों से मुक्ति कर रहे हैं और अपने समुदाय को इन्सानियत की जमीन पर ला रहे हैं। यही बात दलित साहित्य के गैर दलित पाठकों-समीक्षकों और आलोचकों पर भी लागू होती है। दलित साहित्य को पूर्वाग्रह मुक्त होकर पढ़ने का परिणाम होगा संवेदन-क्षमता का विस्तार ः संवेदन जगत पर पड़े हुए आवरण का हटना।''2 इन आवरणों के हटते ही दलित नव समाज की ओर अग्रसर होगा।
दलित आन्दोलन दलित मुक्ति का मतलब जाति व्यवस्था, अछूतपन के विनाश का, चातुर्वण्य व्यवस्था के विनाश का, परम्परावाद एवम् रूढ़ियों के विनाश का आन्दोलन है, तथापि समग्र समाज परिवर्तन, समग्र सामाजिक क्रांन्ति इस आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य है। आधुनिक भारत के दलित आन्दोलन में कुछ ऐसी बातें,सिद्धान्त एवं मानवीय जीवन मूल्य समाये हुये हैं जो अन्य किसी भी आन्दोलन में नहीं है। यह आन्दोलन भारत के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से दबाये, सताये, प्रताड़ित किए गए वर्ग के लिये मुक्ति अथवा स्वतंत्रता की समान प्रेरणा देने वाला महान प्रेरणादायी आन्दोलन है। दलित चिंतन को विश्व मानवता की दृष्टि से अवलोकन करें तो अमेरिका के नीग्रो (हब्सी) प्रथम पंक्ति में आ जाते हैं। अपने को विश्व का स्वयंभू समझने वाला अमेरिकी तंत्र अपने यहाँ के दलितों को अभी तक समानता का न्याय नहीं दे सका है। अश्वेतों की ओर से समय-समय पर समानता की माँग की जाती है और अमेरिका के श्वेत कट्टरपंथी सदैव इस माँग को ठुकरा देते हैं, यह रंगभेद की नीति अमेरिका का एक स्थायी रोग बन चुका है। किसी भी अभिव्यक्ति को बहुत अधिक काल तक कोई दबा नहीं सकता यही यहाँ के अश्वेत निवासियों के साथ हुआ और इनकी आत्मा की घुटन संगीत और साहित्य कला में अभिव्यक्त होकर सम्पूर्ण विश्व में समर्थन प्राप्त कर रही है।''3
दलित आन्दोलन का मतलब है कि दलितों द्वारा अपने ही नेतृत्व में, अपने ही दर्शन तथा चिन्तन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था और अछूतपन के विनाश के लिये हर प्रकार की दासता के खिलाफ चलाया गया आन्दोलन। इसीलिए इस आन्दोलन को दलित आन्दोलन कहना पर्याप्त नहीं है। बल्कि इसको दलित मुक्ति आन्देालन कहना ज्यादा सही है और इस आन्दोलन के प्रणेता, नेता, सिद्धान्तकार और मार्गदर्शक हैं डॉ0 बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर। इसमें कोई दोराय नहीं है कि आधुनिक भारत में डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा चलाया गया और उन्हीं द्वारा प्रेरित दलित आन्दोलन सही मायने में दलित मुक्ति आन्दोलन है। यह आन्दोलन संसार भर के दलितों, उत्पीड़ितों, मजदूरों, सर्वहारा समाजों, जैसे अफ्रीका, अमरीका आदि राष्ट्रों में, वहाँ के काले रंग के लोगों द्वारा चलाये गये मुक्ति आन्दोलनों में, अपना विशिष्ट महत्व और स्थान रखता है। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा चलाया गया दलित मुक्ति आन्दोलन तथा उनका दर्शन, उनके सिद्धान्त, दलितत्व, पिछड़ेपन, वर्ण-व्यवस्था, जाति- व्यवस्था, अछूतपन, ब्राह्मणवाद, हिन्दुत्ववाद, ब्राह्मणी धर्म, हिन्दू धर्म तथा दर्शन की गहराई और उसकी पृष्ठभूमि में जाकर समीक्षा करता है। डॉ0 अम्बेडकर दलितत्व, अछूतपन, जाति-व्यवस्था के बुनियादी कारणों की खोज करते हैं। यहाँ डॉ0 अम्बेडकर की सोच न तो सुधारवादी है और न ही उदारवादी। वे बीमारी के कारणों को खोजकर उसका इलाज करना चाहते हैं। वे बीमारी को हिन्दू सुधारवादियों की तरह मरहम-पट्टी करके छोड़ देना नहीं चाहते। बल्कि वे जड़मूल से ही दलितत्व और जाति-भेद की बीमारी को पूरी तरह नष्ट करना चाहते हैं। डॉ0 विमल थोराट के शब्दों में कहें तो ‘‘डॉ0 बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा चलाये गये दलित मुक्ति आन्दोलन मूलभूत आन्दोलन का लक्ष्य सदियों से चली आ रही अस्पृश्यता की परम्परा, दासता, मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने की धार्माधिष्टित रूढ़ियों का विरोध करके, दलितों को एक मानव के नाते उसके मूलभूत अधिकारों को दिलाना तथा उसमें उसके अस्तित्व, अस्मिता के प्रति चेतना जगाना था। दलित साहित्य इस मुक्ति आन्दोलन द्वारा चलाई गई चेतना की ही साहित्यिक अभिव्यक्ति है, जो प्रतिबद्धता के साथ सड़ी-गली सनातनी परम्पराओं का विरोध करती है। दलित मुक्ति आन्दोलन से प्रसूत विचारधारा और बुद्ध तथा डॉ0 अम्बेडकर इस साहित्य के प्रेरणा स्रोत हैं।''4 इसलिये ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दलित मुक्ति आन्दोलन को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
दलित चेतना दलित आन्दोलनों के लम्बे इतिहास की देन है। डॉ0 अम्बेडकर के जीवन-संघर्ष ने दलितों में जिस नई चेतना का सूत्रपात किया वही चेतना साहित्य की प्रेरणा बनकर दलित साहित्य के रूप में दिखाई देती है, जिसमें मुक्ति, स्वतंत्रता और अधिकारों के गम्भीर सरोकार विद्यमान हैं। दलित विमर्श के केन्द्र में वे सारे सवाल हैं जिनका सम्बन्ध भेदभाव से है, चाहे वह भेदभाव लिंग, जाति, रंग, वस्त्र या फिर धर्म के आधार पर हो। यह विमर्श बुद्ध और बाबा साहेब के दर्शन और विचारधारा के साथ विकसित हुआ है। ‘‘अस्मिता और आत्म-सम्मान को प्रमुख मानते हुए दलित विमर्श अपने आक्रोश को चेतना में रूपान्तरित करके सर्जनात्मकता की ओर उन्मुख है। दलित विमर्श परम्परागत सौन्दर्य और योग्यता के मानदंडों को चुनौती दे रहा है। दूसरी मूल अवधारणा समतापरक समाज की स्थापना है अर्थात् स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का भाव पैदा करके सामाजिक परिवर्तन करना दलित विमर्श का मुख्य लक्ष्य एवं उद्देश्य है।''5 दलितों के पिछड़े समाज के सवालों के मूल में जाकर जो समीक्षा डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर ने की, उससे दलित मुक्ति आन्दोलन को सम्बल प्राप्त हुआ और दलित आन्दोलन बड़ा सशक्त हुआ है। डॉ0 अम्बेडकर की यह मान्यता थी कि सामाजिक, राजनैतिक क्रांन्ति के लिये पहले धार्मिक क्रांन्ति होना अनिवार्य है। सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक क्रांन्ति के लिये धर्म की पहले समीक्षा होना अनिवार्य है। यही बात स्पष्ट रूप से महान ज्योतिबा फुले के साहित्य चिन्तन में दिखायी देती है। फुले ने आन्दोलन की बुनियाद को ब्राह्मण धर्म की समीक्षा से ही शुरू किया है। सर्वहारा क्रांन्ति के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने भी सर्वहारा क्रान्ति की बात करते हुए सर्वहारा वर्ग के लिए ‘‘धर्म एक अफीम है'' ऐसा साफ शब्दों में कहा है। महान् ज्योतिबा फूले ने ब्राह्मण धर्म (हिन्दूधर्म) को सेठों और ब्राह्मणों- पण्डितों-पुरोहितों का धर्म कहा है और ब्राह्मण धर्म को पूरी तरह से नकारते हुये, उन्होंने सत्य और समानता पर आधारित पण्डा- पुरोहित वर्ग-मुक्त, नारी और पुरुष में समानता के सिद्धान्तों पर स्थापित, सार्वजनिक सत्य-धर्म की स्थापना की थी। फुले के सम्पूर्ण साहित्य में हिन्दू धर्म अर्थात् ब्राह्मण धर्म की गहराई में जाकर समीक्षा की गई है। इसीलिये डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर उन्हें आधुनिक भारत के क्रांन्ति पुरुष मानते हैं। उन्होंने अपने प्रसिद्ध खोजपूर्ण ग्रन्थ ष्ीॅव ूमतम जीम ेीनकतेंघ्ष् 1946 में प्रकाशित प्रथम संस्करण को महान ज्योतिबा फुले की स्मृति को समर्पित करते हुए लिखा है कि, 'The greatest Shudra fo modern India who made the lower clsases fo Hindus conscious fo their slavery to the higher clsases and who preached the gospel tÈt for India social democracy wsa more vital tÈn independence from foreign rule.' इस समर्पण में डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में महान ज्योतिबा फुले की महानता और क्रांन्तिकारिता, किसमें है, यह बात स्पष्ट हो जाती है और वे इस समर्पण में इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि हिन्दू धर्म अलोकतांत्रिक है, इसलिये वे भारत को विदेशी राजतंत्र से मुक्त कराने से भी भारत में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को ज्यादा महत्व देते हैं। तत्कालीन समय में रामास्वामी नायकर ने तर्कों के द्वारा सवर्ण समाज को भयभीत कर दिया था। धर्म सम्बन्धी अपनी सोच के प्रति रामास्वामी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं और गौतम बुद्ध को अपने जीवन में आदर्श मानते हैं-गौतम बुद्ध के एक उदाहरण को अपने जीवन में आदर्श की श्रेणी में रामास्वामी रखते हैं-‘‘यदि यह सृष्टि किसी ईश्वर द्वारा बनाई गई होती, तो इसमें कुछ परिवर्तन नहीं होता; दुःख न कष्ट नाम की कोई चीज नहीं होती, कहा जाता है कि ईश्वर बुद्धि के परे का विषय है तो फिर इनकी बुद्धि की पकड़ में कैसे आ गया।''6
‘गुलामगीरी' (प्रथम संस्करण-1873) के समर्पण में ज्योतिबा फुले ने लिखा है कि ‘युनायटेड स्टेट्स के सदाचारी लोगों ने गुलामों को (काले लोग) दासता से मुक्त करने के कार्य में उदारता, निरपेक्षता और दया बुद्धि दिखायी। इसलिए उनके सम्मान में यह छोटी सी किताब उन्हें बड़े प्यार के साथ समर्पित कर रहा हूँ और मेरे देश के भाई उनके कार्य से प्रेरणा लेते हुए अपने शूद्र भाईयों को ब्राह्मण लोगों की दासता से मुक्ति करने के काम में आगे आयेंगे, ऐसी उम्मीद करता हूँ। इस समर्पण में महान ज्योतिबा फूले की सोच की दिशा क्या है, यह बात स्पष्ट हो जाती है और डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर भी अपने दर्शन में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि ‘‘सवर्ण या ऊँची हिन्दू जाति ने (अगड़ी जाति के लोग) अवर्ण या शूद्र, अतिशूद्र व पिछड़ी जाति के अछूतों का शोषण, दमन, उत्पीड़न किया है। अगड़ी जाति ने पिछड़ी जाति पर अपनी गुलामी को थोपा है और आर्य धर्म, वैदिक धर्म, सनातन धर्म, ब्राह्मण धर्म या हिन्दू धर्म और उनका धार्मिक साहित्य, दर्शन साहित्य, नीतितत्व, पौराणिक पुरुष जैसे राम, कृष्ण, परशुराम आदि सभी सवर्णवाद एवं ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं।''7 फूले और अम्बेडकर की हिन्दू-धर्म समीक्षा ही दलित मुक्ति आन्दोलन की नींव है और दलित मुक्ति आन्दोलन के ऐतिहासिक महत्व को सिद्ध करती है। बाबा साहब अम्बेडकर ने जिस दलित चेतना और साहित्य की नींव डाली वह वैज्ञानिक सोच पर आधारित थी और धर्म, भाग्य, भगवान और सारी परम्परागत रूढ़ियों एवं विकृतियों से मुक्ति की राह खोजती थीं। इसलिए वर्तमान में जो भी सबसे बड़ा तात्कालिक मुद्दा दलितों के सामने आया उन्होंने उसे उठाया, चाहे वह पानी का मुद्दा हो या मंदिर प्रवेश का! ये सब मुद्दे मनुष्य के अधिकार के साथ-साथ दलित स्वाभिमान से जुड़ गए थे। ये साहित्य दलितों को प्रेरणा के साथ-साथ वैचारिक स्तर पर श्रेष्ठता प्रदान करने का स्रोत भी बना।''8 जो लोग दलित आन्दोलन को हिन्दू सुधारवादी आन्दोलन (नव जागरण) काल की उपज मानते हैं। उसके लिए दलित मुक्ति आन्दोलन की इस बुनियाद और उसकी ऐतिहासिकता को अच्छी तरह से समझना जरूरी है, क्योंकि बिना इसकी तह तक जाये लक्ष्य स्पष्ट नहीं हो सकते हैं।
दलित आन्दोलन/साहित्य के सम्बन्ध में आज भारतीय साहित्य जगत में विविध मत मतांतरों का उद्रेक हो रहा है। कुछ विद्वान लोग दलित-मुक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दू सुधारवादी आन्दोलन से मानते हैं। इस प्रकार की धारणा खास तौर पर बंगाल, हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ज्यादातर दिखायी देती है। उनकी मान्यता के अनुसार दलित शब्द विवेकानन्द, एॅनी बेसेन्ट आदि लोगों द्वारा कई बार प्रयोग में लाया गया है। उसी प्रकार ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज और प्रार्थना-समाज आदि हिन्दू पुनर्जागरणवादी समाजों ने हिन्दू समाज में सुधार लाने के लिये, अछूतपन को समाप्त करने के लिये कार्य किया है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि विवेकानन्द की आध्यात्मिकता हवाई यूटोपिया नहीं है। उनकी अद्वैत व्याख्या में सभी मनुष्य समान हैं। सभी में ईश्वर व्याप्त है। इस प्रकार की आध्यात्मिक अद्वैतता में दलित सवालों का हल खोजना, दलित सवालों को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ना या तो दलितत्व के बुनियादी कारणों को नहीं जानना है या दलितों के प्रति झूठी सहानुभूति दिखाना है अथवा दलितों का मज़ाक उड़ाना है। दलितों का सवाल, दलितपन, अछूतपन, जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था की समस्या कोई आध्यात्मिक समस्या नहीं है। यह कोई अलौकिक या ईश्वर द्वारा निर्मित समस्या भी नहीं है बल्कि हिन्दुओं ने, हिन्दू धर्म के ईश्वरवाद, ब्रह्मवाद, आध्यात्मवाद, आत्मवाद, द्वैत तथा अद्वैतवाद के द्वारा अछूतपन, जाति-व्यवस्था, ब्राह्मण- पुरोहित, श्रेष्ठतावाद का भरण-पोषण और समर्थन किया है। इसलिए दलित समस्या का हल अध्यात्म में खोजना बौद्धिक पाखण्ड है और यह सच्चाई से मुँह मोड़ने के अलावा और कुछ नहीं है।
यदि आधुनिक भारत की दलित समस्या एवं सुधारवादी आन्दोलन के यथार्थ पर जायें तो पुनर्जागरण आन्दोलन के प्रारम्भ से आज तक इसी बात का अनुभव हम कर रहे हैं कि जिन-जिन सुधारवादी, पुनर्जागरणवादी नेताओं ने दलितपन और अछूतपन को समाप्त करने की बात की और जब भी दलितपन अछूतपन समाप्त करने की बात उठी, उस समय उनका दृष्टिकोण यही रहा कि आध्यात्मिक स्तर पर सभी मनुष्य समान हैं। सभी में ईश्वर व्याप्त है, सभी में एक ही आत्मा है, सभी में ईश्वर का निवास है आदि-आदि। किन्तु सुधारवादी आन्दोलन में अछूतपन और दलितपन की समस्या पर समाज की वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था से उत्पन्न ब्राह्मण वर्ग श्रेष्ठतम है, की अवधारणा को हिन्दू धर्मवाद से उत्पन्न एक सामाजिक तथा भौतिक समस्या के रूप में कभी न देखा गया, न सोचा गया और न देखने-सोचने की कोशिश भी की गयी। बल्कि स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, तिलक, रानाडे, से लेकर महात्मा गांधी, विनोबा भावे तक, सभी हिन्दुत्ववादी नेता वेद, गीता, रामायण, महाभारत के असीम भक्त और अनन्य समर्थक रहे। वे इन परम्परावादी ग्रन्थों को अलौकिक मानते थे और इन ग्रन्थों में समर्थित हिन्दू समाज-व्यवस्था को बरकरार रखते हुये, ब्राह्मण- वर्ण-श्रेष्ठत्व को समाप्त किये बगैर ही जाति-व्यवस्था को हिन्दू-व्यवस्था के तहत अस्पृश्यता और दलितत्व को समाप्त करने की बात करते थे। मतलब हिन्दू सुधारवादी लोग व नेता एक ओर तो हिन्दू समाज व्यवस्था को बरकरार रखते हुये उसमें सुधार चाहते हैं और दूसरी ओर उसी व्यवस्था के बरकरार रहते हुए, उक्त भेद मिटाना चाहते हैं। अर्थात् इनकी दृष्टि में अछूतपन, दलितपन की समस्या हिन्दू जाति व्यवस्था के कारण उत्पन्न एक सामाजिक, भौतिक समस्या नहीं है यानी अछूतपन या दलितपन समाज-व्यवस्था का प्रश्न नहीं है। वे अछूतपन के लिये सामाजिक-व्यवस्था हिन्दू जाति-व्यवस्था (चातुर्वण्य व्यवस्था) तथा परम्परावादियों को दोष देना नहीं चाहते थे, इसीलिये विवेकानन्द आदि से लेकर महात्मा गांधी की सोच अछूतपन, दलितपन तथा जाति-व्यवस्था के बारे में कुछ मामूली फर्क के साथ बुनियादी तौर पर एक जैसी ही दिखती है।
19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में दलितपन, अछूतपन, जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, हिन्दू धर्म आदि के बारे में भारत में दो तरह की विचारधाराएँ और दो तरह की सोच रही है। एक विचार प्रवाह हिन्दू सुधारवादी और हिन्दू पुनर्जागरणवादियों का रहा है और दूसरा विचार-प्रवाह हिन्दुत्व को नकारने वालों का, हिन्दुत्व के प्रति विद्रोह करने वालों का अर्थात् फूले-अम्बेडकरवादियों का रहा है और आज भी है। अधिकांश हिन्दू नेता और विचारक यह मानते थे कि यह समस्या वास्तव में सफाई, स्वास्थ्य, संस्कार, शिक्षा और कुरीतियों और बुरे रिवाजों की समस्या है। इसलिये स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, विनोबा भावे आदि सभी हिन्दुत्ववादी नेता अछूतपन की समस्या की ओर आध्यात्मवादी और अछूतवादी हिन्दू-दृष्टि से देखते रहे हैं और अछूतोद्धार के लिये वे साफ सफाई, मंदिर प्रवेश, साक्षरता, स्वास्थ्य, ईश्वर-भक्ति, भंगी, बस्तियों में रहना, सामूहिक भोजन आदि को विश्ोष महत्व देते हैं। एक तरह से सुधारवादियों का अछूतोद्धार का कार्यक्रम पूरी तरह से परम्परावादियों की दया पर निर्भर होने वाला कार्यक्रम है। इसके पीछे बुनियादी तौर पर इनकी सहृदयतावादी सोच कार्य करती रहती है। अछूत समस्या की बुनियाद में परम्परावादियों, सुधारवादियों की सोच यह है कि अछूत समस्या और अछूतपन हिन्दू समाज पर लगा हुआ एक कलंक है, इसलिए वे हिन्दू समाज में सुधार करना चाहते हैं। वे दलितों को अपनी दया पर निर्भर रखना चाहते हैं। वे लोग अछूतपन के लिए न तो हिन्दू धर्म को और न अपने समाज को जिम्मेदार मानते हैं, बल्कि इसके विपरीत अछूतपन के लिए वे अछूतों को ही दोषी मानते हैं। उनकी कुरीतियों को उनके अज्ञान को, उनकी निरक्षरता को, उनके कुसंस्कारों को, उनके रीति-रिवाजों को उनकी अस्वच्छता को ही जिम्मेदार मानते हैं। अछूतपन की समस्या के मामले में इन सुधारवादी/परम्परावादी नेताओं की सोच पूरी तरह से व्यवस्थावादी सोच है, इनमें कोई सन्देह नहीं। एच. आर. गौतम जी का यह कथन सर्वथा उचित है कि ‘‘आज दलित साहित्य के प्रादुर्भाव ने देश और समाज में उथल-पुथल मचा रखी है। इसने धर्म, साहित्य, इतिहास की परिभाषा ही बदल दी है। इससे सामाजिक, धार्मिक, श्ौक्षणिक, राजनैतिक, समीकरण ही बदल गये हैं। इसने निर्जीव, संवेदनाहीन, अपढ़, गंवार, बंधुवा दलितों में चेतना का संचार करके उनकी अस्मिता और स्वाभिमान को जगाकर उन्हें अपने छिने अधिकारों की पुनः प्राप्ति के लिए विद्रोही तेवर देकर संघर्ष करने के लिए प्रोत्साहित किया।''9
दलित समस्या एवं मुक्ति आन्दोलन के सम्बन्ध में महात्मा फूले-अम्बेडकरवादी सोच पूरी तरह क्रांन्तिकारी होने के साथ-साथ पूरी तरह से हिन्दू व्यवस्था की विरोधी है। डॉ0 अम्बेडकर का स्पष्ट रूप से यह मानना है कि, ‘‘हम लोग जब यह मानते थे कि अछूतपन हिन्दू धर्म पर लगा हुआ एक कलंक है तब तक अछूतपन को समाप्त करने की जिम्मेदारी सवर्ण हिन्दुओं की है। लेकिन अब हमारी यह मान्यता हो गयी है कि हिन्दू धर्म ही अछूतों पर लगा हुआ एक कलंक है, इसलिये इस कलंक को समाप्त करना अब हमारी जिम्मेदारी है।'' यही हिन्दू सुधारवादी और फूले-अम्बेडकर की सोच में बुनियादी फर्क है। फूले और अम्बेडकर ने अछूत समस्या को हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज से उत्पन्न सामाजिक शोषण की समस्या कहा है। एक वर्ण या वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग या वर्ण के शोषण की समस्या कहा है। इसलिये वे एक ओर दलितों में, अछूतों में शिक्षा स्वाभिमान, स्वसम्मान, परम्परागत जातिगत धन्धों में परिवर्तन, औद्योगिकीकरण, आधुनिकीकरण की तो बात करते ही हैं किन्तु वे धर्म-परिवर्तन की भी बात करते हैं। हिन्दुत्व को पूरी तरह से नकार देने की भी बात करते हैं। वे ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग के किसी भी प्रकार के विश्ोषाधिकार को अस्वीकार करने की बात करते हैं। वे जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट करने की बात करते हैं। ‘‘इस दृष्टि से महात्मा फुले का दर्शन सत्ता, सम्पत्ति और पद प्राप्ति का दर्शन नहीं है, वह तो सामाजिक क्रांन्ति का दर्शन है, व्यवस्था परिवर्तन का दर्शन है। इसलिए व्यवस्थावादी, यथास्थितिवादी, जातिवादी, और धर्मांध ब्राह्मण-बनियावादी लोगों को महात्मा फुले अच्छे नहीं लगे। लेकिन आज महात्मा फुले के विचारों की नितांत आवश्यकता है।''10
ज्योतिबा फुले (1827-1890) ने वास्तव में आधुनिक काल में या उन्नीसवीं शताब्दी में ही दलित मुक्ति और जाति-व्यवस्था के विनाश की बात की, न कि सुधारवादी या पुनर्जागरणवादियों ने की। एक दूसरे स्तर पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि दलित उत्थान के कार्य के सन्दर्भ में ईसाई मिशनरियों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अछूत जातियों में शिक्षा का प्रसार और स्वास्थ्य-सेवा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य किया। ईसाई मिशनरियों ने सबसे पहले दलितों-अछूतों और आदिवासियों को गले लगाया। ईसाई मिशनरियों के लिये येशू की यह प्रेरणा की कि सभी मानव एक ईश्वर की सन्तान हैं, से उपजी मानवी संवेदना ने ही उन्हें सभी दुःखी, रोगी लोगों और दलितों, अछूतों, आदिवासियों की सेवा के लिये प्रेरित किया था। भारत में ही नहीं बल्कि सारी दुनियां में ईसाई मिशनरियों ने प्रभु येशू और मानवी संवेदना के आधार पर, गुलामी प्रथा के उन्मूलन के लिये काम किया था। भारत में भी वे सब पहले अछूतों की बस्तियों में गये, उनके साथ रहे, उनके जैसा रहे। जिस समय ईसाई मिशनरी दलितों, अछूतों, आदिवासियों की बस्तियों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का काम कर रहे थे, उस समय हिन्दू संत, साधु, सन्यासी, शंकराचार्य, मठाचार्य महन्त, पण्डित पुरोहित, ब्राह्मण लोग दलितों के साथ उठना-बैठना या उनको छूना तो दूर रहा, उनको अपनी आँखों से देखना भी पसंद नहीं करते थे। जहाँ-जहाँ इन परम्परावादियों एवं सामन्तशाही का प्रभाव था इसके साथ ही जहाँ-जहाँ हिन्दू मठ मन्दिर, धर्मस्थल थे, और जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक थे ऐसे स्थानों पर अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था का स्वरूप भयंकर और घिनौना था। इन स्थानों पर जाति-भेद बहुत ही घटिया किस्म का था और आज भी इस स्थिति में कोई खास फर्क नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसके बावजूद भी इन सुधारवादियों और पुनर्जागरण- वादियों में अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था के मामले में अथवा, हिन्दू धर्म की समीक्षा के मामले में कोई नयी सोच पैदा नहीं हुई है। इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो वास्तव में सुधारवादियों में दलितोद्धार की बात एक प्रतिक्रिया के रूप में ही सामने आयी है, क्योंकि जब अछूत, दलित और आदिवासी समाज के लोग ईसाई धर्म की ओर अग्रसर हो रहे थे अर्थात् ईसाई मिशनरियों की मानवी संवेदना से प्रेरित होकर ईसाई धर्म को स्वीकार कर रहे थे और ईसाई स्कूलों में पढ़-लिख रहे थे या धर्म का अध्ययन कर रहे थे- तब इन परम्परावादियों में समीक्षा हो रही थी कि ईसाई मिशनरी हिन्दू धर्म का मज़ाक उड़ा रहे हैं और हिन्दू समाज में ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग के श्रेष्ठत्व पर प्रश्न चिह्न लगाये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में उस समय सवर्ण हिन्दुओं में सबसे पहली प्रतिक्रिया थी ईसाई मिशनरियों का विरोध और धर्मान्तरण का विरोध। उसके बाद उन्होंने शुद्धि-आन्दोलन भी चलाया और फिर उन्होंने धर्मान्तरण के विरोध में एक प्रतिक्रिया ;ब्वनदजमतद्ध के रूप में अछूतोद्धार के कार्यक्रम भी चलाये। इसलिए परम्परावादियों के अछूतोद्धार के कार्यक्रम कभी दलित-मुक्ति आन्दोलन का रूप अख्तियार न कर सके और न ही उनका अछूतोद्धार का कार्य दलित-आन्दोलन की मुख्य धारा ;डंपद ैजतमंउद्ध बन सका। बल्कि 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ यह सुधारवादी और पुनर्जागरणवादी आन्दोलन एक ओर तो अध्यात्मवाद, कर्मकाण्ड यज्ञ-आदि में फंस गया, वहीं दूसरी ओर इन आन्दोलनों ने उन्माद सनातनवाद और दहशतवाद को जन्म दिया। आज इनमें अछूतोद्धार के कार्य कहीं नहीं दिखायी दे रहे हैं, बल्कि इन तथाकथित समाज सुधारकों में दलितों, अछूतों के धर्मान्तरण के खिलाफ जबर्दस्त प्रतिक्रियाएं उठती हुई दिखाई देती हैं। आज इन परम्परावादियों में दलित और अदलितवाद की लड़ाई प्रबल रूप ले रही है। वर्तमान में अगड़ों और पिछड़ों का टकराव बढ़ रहा है। दोनों में सत्ता (Power) का संघर्ष बढ़ रहा है। अदलित (हिन्दू) या ऊँची जाति के लोग उन्हें सदियों से प्राप्त सत्ता को, अपने सामाजिक प्रभाव को, सत्ता में प्राप्त अधिकारों को किसी भी रूप में बरकरार रखने के लिये हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। ऐसी स्थिति में अदलितों (हिन्दुओं) में दलितोद्धार की उम्मीद रखना नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा है।
ईसाई मिशनरियों ने भारत में दलित आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दलित मुक्ति के प्रणेता ज्योतिबा फुले की प्रारम्भिक शिक्षा भी ईसाई मिशनरियों की ईश्वरवाद ;ळवकद्ध और चर्चवाद, दलितों के खिलाफ नहीं गयी, किन्तु अदलितों (हिन्दुओं) का ईश्वरवाद, मन्दिरवाद आज भी दलितों के सख्त खिलाफ है, इस बात को कोई नकार नहीं सकता। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि आज अदलित (हिन्दू) बहुल क्षेत्रों के दलितों पर, अदलितों का अन्याय हो रहा है। फिर ये क्षेत्र हिन्दी भाषी हों या गैर हिन्दी भाषी-वर्तमान में अदलितों के समाज में दलित सवाल, छुआ-छूत का सवाल, जाति-व्यवस्था विनाश का सवाल, सामाजिक क्रांन्ति का सवाल नहीं है; बल्कि वे उसको सामाजिक सुधार से भी कम महत्वपूर्ण सवाल मानते हैं। अदलित (हिन्दू) समाज के लोग दलित सवाल की ओर केवल सत्ता प्राप्ति के सवाल के रूप में ही देख रहे हैं। आज लोकतांत्रिक भारत में दलित समाज अदलितों को सत्ता देने वाले या दिलवाने वाले का महत्वपूर्ण हथियार बन गया है। उनकी निगाह में दलितों की इससे ज्यादा कोई कीमत नहीं है। भारत की सत्ता में दलितों के प्रति यह लुका-छिपी का खेल आज भी जारी है।
भारत में आज दलित आन्दोलन के सामने अपनी एक पहचान बनाने का गम्भीर सवाल खड़ा है, लेकिन इस यक्ष सवाल को अम्बेडकरवादी दलित मुक्ति आन्दोलन ने तो सन् 1956 में ही हल कर लिया था। किन्तु जो दलित किसी कारणवश इस आन्दोलन के साथ नहीं जुड़े पर वे आज अपनी मुक्ति की बात कर रहे हैं, उनके सामने अपनी पहचान निर्माण का अहम सवाल भी है। जो दलित, हिन्दू रह कर अपनी मुक्ति की बात करते हैं, उनके सामने अपनी पहचान-निर्माण के अलग सवाल हैं। जो दलित ईसाई धर्म में धर्मान्तरित हुए हैं उनके सामने भी अपनी पहचान-निर्माण के अलग सवाल हैं। उसी प्रकार जो दलित इस्लाम धर्म में धर्मान्तरित हुए हैं। उनके सामने भी अपनी पहचान के निर्माण के अलग सवाल खड़े हैं। पहचान का यह संकट दलितों के मानस में इतने गहरे बस गया है कि इससे निकलना उन्हें मुश्किल सा हो गया है।
दलितों की पहचान एवं अस्मिता का संकट ही दलित आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य है क्योंकि जिनको हम दलित या अछूत कहते हैं, वे सब दलित या अछूत नाम से एक वर्ग में तो आ जाते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था के कारण अलग-अलग जातियों, अलग-अलग उपजातियों और अलग-अलग पेशों में बंटे होने के कारण इस समाज में भी एकता स्थापित करना और सबकी एक पहचान का निर्माण करना, बड़ी गम्भीर समस्या है। उसी प्रकार दलित समाज पूरे देश में बिखरा हुआ है। उनकी अलग भाषाएं और बोलियां हैं, उनके सामाजिक और धार्मिक रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग हैं। इसलिये दलित समाज में अपनी एक पहचान बनाने की समस्या है और जब तक वर्ण व्यवस्था समाज का एक हिस्सा बनी रहेगी तब तक उसकी (दलितों की) पहचान बनाना सम्भव नहीं है। वह जब तक अपनी पहचान नहीं बनाता तब तक उसका अस्पृश्यता और दलितत्व से मुक्त होना भी मुश्किल ही नहीं बल्कि असम्भव है, क्योंकि हिन्दू धर्म तथा हिन्दू समाज के पास सभी दलितों को एक पहचान देने के लिये कोई ठोस बुनियादी दर्शन या चिन्तन या ठोस आधार नहीं है। हिन्दू धर्म कभी शोषित वर्ग का धर्म या दर्शन नहीं रहा है। वह तो शासक, सत्ताधारी वर्ग का धर्म और दर्शन रहा है। इसलिये उसके सभी देव, पुराण, पुरुष, मूल्य व्यवस्था, उसका ईश्वरवाद, अवतारवाद, सभी के सभी शोषक वर्ग ऊँची जातियों, सवर्ण हिन्दुओं के हितैषी तथा पक्षधर हैं। आप राम और कृष्ण को भी दलित मुक्ति के आदर्श रूप में स्थापित नहीं कर सकते। आप गीता और महाभारत को दलित मुक्ति के आदर्श के साहित्य के रूप में स्थापित नहीं कर सकते। न ही आप हिन्दू दर्शन को दलित मुक्ति के आदर्श दर्शन के रूप में स्थापित कर सकते हैं, क्योंकि इनमें कहीं भी ऐसे तथ्य नहीं मिलते जहाँ दलित अपनत्व को महसूस कर सके।
जिन दलितों ने धर्मान्तरण करके इस्लाम, सिख, ईसाई व बौद्ध धर्म अपनाया, वे बहुत हद तक अछूतपन से मुक्त हो गये, लेकिन जो दलित आज भी इस समाज का हिस्सा बने हुए हैं, वे अछूतपन से मुक्त नहीं हो पाये हैं। न वे इस समाज में अछूत के नाम पर प्रतिष्ठित हैं और न ही हिन्दू नाम पर हैं। हिन्दू-दलितों में अपनी एक पहचान निर्माण के लिये उनके अन्दर कई सवाल उठते रहते हैं। इसलिये डॉ0 अम्बेडकर की यह मान्यता थी कि धर्मान्तरण से ही हिन्दू दलित अपने अछूतपन से मुक्त हो जायेंगे और वे सामूहिक रूप से जिस धर्म को अपनायेंगे या जिस धर्म की स्थापना करेंगे, वही धर्म उनकी पहचान बन जायेगा। बैरी की पुस्तक स्लेवेरी इन रोमन एम्पायर में बताया गया है कि गुलाम साहित्य और कला में दक्ष होते थे, गीत कंठस्थ कर लेते थे। वे विषय विश्ोषज्ञ भी होते थे। व्यापार और कारोबार कर सकते थे। जॉन चैविस के नाम नीग्रो ने अपना स्कूल चलाया था। सन् 1958 में अटलांटा में नीग्रो दंत- चिकित्सक को डाक्टरी करने पर आपत्ति की गई थी। एक नीग्रो मोची के हाथ से बने जूते राष्ट्रपति मुनरो ने अपना पद ग्रहण करते समय पहने थे। भारत में अछूतों को ऐसे अवसर कब थे?''11 जैसे काले वर्ण के लोग दुनिया में कहीं भी रहें लेकिन वे अपने काले रंग के कारण अपनी पहचान बना सके। काले रंग के लोग एक ही धर्म को मानने वाले नहीं हैं, फिर भी उनका काला रंग उनकी पहचान है और आज उन्होंने ‘ब्लैक लिटरेचर', ‘ब्लैक ब्यूटी' की संकल्पना पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित की है। उन्हें अपने काले रंग पर नाज है। उन्हें गोरे लोगों द्वारा दिये गये ‘नीग्रो' शब्द से सख्त नफरत है, जैसे भारत के दलितों को सवर्ण हिन्दुओं द्वारा दिया गया ‘हरिजन' शब्द स्वीकार नहीं है।
दलित एवं हरिजन शब्द को लेकर आम राय आज भी नहीं बन पायी है, क्योंकि जब गाँधीजी ने दलितों के लिये ‘हरिजन शब्द का इस्तेमाल किया उस समय खासतौर पर महाराष्ट्र में इस शब्द का जबर्दस्त विरोध अम्बेडकरवादियों ने किया। अम्बेडकरवादियों की यह मान्यता है कि हरिजन शब्द सम्मानसूचक नहीं है और यह शब्द दलितों की सही पहचान को स्पष्ट नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने अपने आपको दलित कहना ज्यादा पसन्द किया। अम्बेडकरवादी दलितों का एक बहुत बड़ा कार्य जो महाराष्ट्र के अलावा भारत के कोने, कोने में बिखरा हुआ है, उसने अपने आपको ‘बौद्ध' शब्द से सम्मानित और गौरवान्वित करना अब शुरू कर दिया है। दलितों ने ‘बौद्ध' शब्द से अपनी पहचान को बनाये रखने के लिए ‘बौद्ध' धर्म को अपना लिया है और दूसरी तरफ उसने ‘दलित साहित्य' अम्बेडकरवादी साहित्य ‘बौद्ध साहित्य' के नाम से अपना साहित्य, आन्दोलन भी पूरे देश में विस्तृत रूप से शुरू कर दिया है। बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर द्वारा धर्म-परिवर्तन कर लेने के कारण दलित साहित्य का काफी हिस्सा बौद्ध धर्म से प्रेरित है। परन्तु मेरे मन में आज भी द्वन्द्व बरकरार हैं कि आज अपने समय के समृद्ध/सम्पन्न और शायद क्षत्रिय राजघराने में पैदा हुए भगवान बुद्ध को अस्पृश्यता/बहिष्कार का अनुभव हुआ होगा? क्या संघ में निम्न जातियों को समान प्रवेश देने वाले महामानव बुद्ध ने समान हैसियत भी दी होगी। क्या राहुल सांकृत्यायन ने सही नहीं खोजा था कि संघ में भिक्षु बनकर आये दासों/कर्जदारों को बुद्ध ने उऋण होकर या अपने स्वामियों की इजाजत से आने की अनुज्ञा देकर उन्हें वापस दासत्व के गर्त में नहीं धकेल दिया था? वरिष्ठ चिंतक डॉ0 धर्मवीर का वह वाक्य कि ‘बुद्ध के युग में भी कोई दलित चिंतक दलित हकों के लिए अवश्य लड़ रहा होगा' उन्हीं का दूसरा अवदान मक्खली गौशाल का दिशाचार-धर्म क्या बिल्कुल विचारणीय नहीं है?''12
आज दलित मुक्ति आन्दोलन के सामने अपनी पहचान निर्माण का कोई अन्तर्द्वन्द्व नहीं है। ‘बौद्ध' शब्द उसकी धार्मिक पहचान है, हिन्दू धर्म की दासता से मुक्ति की पहचान है और ‘दलित' शब्द उसके सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान है। दलित साहित्य उसके रचनात्मक सामर्थ्य की पहचान है अर्थात दलित लेखकों ने दलित साहित्य की बड़ी व्यापक परिभाषा भी की है। लेकिन ‘हरिजन' शब्द इस दृष्टि से कोई विशेष महत्व नहीं रख सका। डॉ0 सुरेश एफ कानडे के शब्दों में कहें तो दलित साहित्य सामाजिक परिवर्तन के लिये लिखा जाने वाला साहित्य है। यह वर्ण-व्यवस्था के कारण वंचित विशाल मानवीय समुदाय के सामाजिक अधिकार के लिए संघर्षरत साहित्य है। युगों से प्रताड़ित, अपमानित एवं अपने सामाजिक अधिकारों से वंचित समुदाय का साहित्य भले ही साहित्यिक सिद्धान्तों के पैमाने में न बैठता हो परन्तु इस समुदाय की पीड़ा, आक्रोश एवं विद्रोह को गहराई से प्रस्तुत करता है।''13
दलितपन, अछूतपन की समस्या का आधार क्या है? इस बारे में समाज सुधारकों एवं मनीषियों में अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं हैं। लेकिन डॉ0 अम्बेडकर की मान्यता के अनुसार अछूतपन की समस्या का आधार हिन्दू धर्म है और इसलिये उनकी मान्यता है कि हिन्दू धर्म में रहकर अछूत समाज अपने अछूतपन से मुक्त नहीं हो सकता। बल्कि अछूतपन का कलंक हमेशा के लिये उसके माथे पर बना रहता है। लोगों के दिलों-दिमाग पर धर्म की शिक्षा का प्रभाव हमेशा के लिये बना रहता है और अछूतपन हिन्दू धर्म तथा समाज का हिस्सा होने की वजह से, जब तक हिन्दू धर्म है तब तक उस समाज में अछूतपन की समस्या बरकरार रहेगी। इसी की वजह से अछूतपन की मुक्ति के लिये डॉ0 अम्बेडकर ने दलित मुक्ति आन्दोलन को एक धार्मिक आधार देने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि में धर्म नैतिक शिक्षा के अलावा और कुछ नहीं है। धर्म का काम है लोगों को नैतिक पाठ पढ़ाना। धर्म के लोगों को सामाजिक जीवन में रहने के लिये आज्ञा नहीं, बल्कि शिक्षा देनी चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म सदाचार का दूसरा नाम है, उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' में धर्म की बड़ी व्यापक परिभाषा दी है। लुई टालस्टाय के अन्तिम समय में उनके बारे में गोर्की ने कहा था कि यह संभ्रान्त वृद्ध पूरी ईमानदारी के साथ सामान्यजन के लिए एक ईश्वर तलाशता हुआ भाग रहा है, अब थक कर हताश हो चुका है। डॉ0 अम्बेडकर के बारे में कहा जा सकता है कि वह अपने अंत समय तक पूरी ईमानदारी के साथ भारतीय वर्ण-व्यवस्था एवं अस्पृश्यता का विरोध करते हुए दलित मुक्ति को वर्ग सहयोग में तलाशते रहे, अंत में धर्म की शरण में जाकर सफल हुए।''14 कार्ल मार्क्स भी अपनी धर्म की व्याख्या में इसे अफीम मानते हैं, मार्क्स के अनुसार ईश्वर के सम्बन्ध में प्रश्न उठाना वस्तुतः एक झूठा प्रश्न उठाना है। मार्क्स के सम्पूर्ण चिंतन का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है, मनुष्य की नियामक शक्ति पर उन्हें अटूट विश्वास है। यहीं तेन आदि भौतिकवादियों से मार्क्स अलग हो जाते हैं। मार्क्स के अनुसार समाज अपने विविध स्तरों पर अपने आपको धार्मिक भुलावे में रखता है तथा सच को छिपाता है। मार्क्स के पूर्ववर्ती चिंतक फायर वाख के चिंतन में अजनबीपन के ऊपर धर्म का मुखौटा लगा हुआ था। ‘‘मार्क्स धार्मिक मुखौटे को नोचकर सामाजिक स्तर पर अजबनीपन का विश्लेषण करते हैं। मार्क्स के चिंतन की धुरी मनुष्य और संसार है, इसलिए धार्मिक चर्चा उनके लिए मात्र बकवास और वितंडा है। मार्क्स ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘मनुष्य धर्म का निर्माण करता है, धर्म मनुष्य का नहीं।''15
धर्म सम्बन्धी अपनी व्याख्या में डॉ0 अम्बेडकर ने लिखा है कि ‘मैं अवतारवाद, आत्मा, परमात्मा, पुरोहितवाद, किसी भी प्रकार के कर्मकाण्डों को नहीं मानता हूँ।' उन्होंने अपने आन्दोलन से इन सारी बातों को खारिज कर दिया है। उन्होंने सभी देवी-देवताओं को नकार दिया है। दलित मुक्ति आन्दोलन में किसी भी प्रकार के देवी-देवताओं को कोई महत्व नहीं है, किसी ब्राह्मण, पण्डित, पण्डे-पुरोहित को कोई महत्व नहीं है। एक तरह से डॉ0 अम्बेडकर की धर्म और रिलीजन शब्द की जो परम्परागत मान्यताएँ हैं, वे उन सभी को नकारते हुए धर्म या शब्द को नैतिकता का आधार देते हुये, दलित मुक्ति आन्दोलन को मजबूती प्रदान की है। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य केवल रोटी के भरोसे जी नहीं सकता। उसकी भावनायें तथा मानवीय संवेदनाएँ भी होती हैं। इसलिये उसको धर्म की भी आवश्यकता होती है। (यहाँ धर्म और रिलीजन के अन्तर्गत आने वाली परम्परागत बातें ईश्वर, आत्मा, प्रार्थनाएं, पूजा, कर्मकाण्ड, रीति-रिवाज, यज्ञ और बलिकर्म आदि बातों से कोई लेना-देना नहीं है।) यहाँ शोध का विषय यह है कि क्या दलित मुक्ति आन्दोलन बगैर किसी धार्मिक आधार के अपने निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है? या बगैर किसी धार्मिक आधार के दलित मुक्ति आन्दोलन अपने निश्चित लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ सकता? इन सवालों का जवाब इस तरह से दिया जा सकता है कि जिन धर्मों में जाति और जन्म के आधार पर शोषण की व्यवस्था है, जो धर्म किसी भी प्रकार के परिवर्तन के खिलाफ है, जिस धर्म में पुरोहितवाद है, जिस धर्म में ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, प्रार्थनाएं, कर्मकाण्ड, पूजा, रीति-रिवाज, यज्ञ, बलिकर्म को ही धर्म माना गया है, जो धर्म गरीबी और दासता का समर्थन करता है, नारी और पुरुष में असमानता का समर्थन करता है, जो धर्म मनुष्यों को जाति-उपजातियों में बांटता है, जिस धर्म में मानवीय स्वतंत्रता को कोई महत्व नहीं है, जो धर्म केवल पुरोहित वर्ग का धर्म है, जो धर्म अलौकिकतावाद, ईश्वरवाद, भाग्यवाद, पुनर्जन्म का समर्थन करता है, जो धर्म मनुष्य को ईश्वर के हाथ की कठपुतली मानता है, ऐसे धर्म में रहकर दलित मुक्ति की कल्पना करना असम्भव है।
डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार हर धर्म एक प्रकार के विरोधाभाषों का शिकार है। किसी भी धर्म को सबसे ज्यादा उसके वर्चस्वाकांक्षी अनुयायी बिगाड़ते हैं। नई-नई व्यवस्थायें देकर, उन्हें धर्म ग्रन्थों में जोड़कर, धर्म की मूल भावना और उसका स्वरूप इतना बदल जाता है कि यदि उसके आदि प्रवर्त्तक या सृजक उसे देखें तो शायद पहचान न पायें। नव बौद्धों में भी ऐसे हैं जो शपथ लेने के बावजूद हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उन्होंने भौतिक कारणों से धर्म को बदल लिया परंतु मूल संस्कार अभी भी यथावत मौजूद हैं। गिरिराज किशोर के शब्दों में कहें तो हर धर्म परिवर्तन के बाद अगली पीढ़ी शायद अधिक प्रतिबद्ध होती है। राजस्थान में ऐसे मुसलमान हैं जो क्षत्रिय थे पर धर्म परिवर्तन के सैकड़ों वर्षों बाद आज भी विवाह आदि के अवसर पर हिन्दू कर्मकाण्ड का सहारा लेते हैं। ईसाई और सिक्खों के साथ भी ऐसा है। सिक्खों के साथ तो खासतौर से। दरअसल मनुष्य जब असुरक्षा का शिकार होता है। (लालच का भी) तो वह अपनी और परिवार की सुरक्षा और समृद्धि के लिए किसी भी देवी-देवता की पूजा करने से नहीं हिचकता। हिन्दू मजारों पर भी जाते हैं और बौद्ध मन्दिरों में भी पूजा-अर्चना करते हैं। गुरुद्वारों में तो जाते ही हैं। धर्म की स्थिति और मानसिकता बहुत उलझी हुई है।''16 दलितों और अछूतों को इस तरह के धर्म से अपने आपको मुक्त कर लेना चाहिये। इन सभी से मुक्ति ही दलितों की मुक्ति एवं दलित आन्दोलन/साहित्य की सार्थकता है।
परम्परा की इस प्रासंगिकता में दलितों के धर्म को एक दूसरे पहलू से विचार करना भी लाजिमी हो जाता है, वह यह है कि ‘भारत के लगभग सभी धार्मिक संरक्षक किसी न किसी तरह से जाति की समस्या के शिकार हैं। हिन्दुओं के मुकाबले एवं पूरी समता का दावा और आश्वासन मिलने के बावजूद वे जाति की परिघटना से मुक्त नहीं हो पाये हैं। नीची कही जाने वाली इन जातियों से धर्मावलम्बियों की संख्या तो बढ़ गयी, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि उनके अंदर से बनी भूमिधर जातियों से बने ईसाइयों, मुसलमानों या सिक्खों के खिलाफ असंतोष के स्वर फूटने लगे हैं । धर्म-परिवर्तन उनकी समस्याओं का हल नहीं कर पाया । यही कारण है कि आज धर्मांतरित दलित आरक्षण प्राप्त करने की मुहिम चला रहे हैं। इसके पीछे क्या राजनीति हो सकती है, इसे तो नहीं कहा जा सकता है, परन्तु नस्ल एवं जाति सम्बन्धी इस विमर्श पर भविष्य के लिए भारत में दलित आन्दोलन को कुछ परेशानियाँ, खतरे एवम् चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। परम्परा के बदलते इन प्रतिमानों को आज शिद्दत के साथ चिंतन एवं मनन की आवश्यकता है।'
आज दलितों (विभिन्न धर्म सम्प्रदाय से सम्बन्धित) के समक्ष वर्तमान में कई प्रश्न अनुत्तरित हैं, क्योंकि पिछले दो-तीन सौ वर्षां के इतिहास में कुछ दलित जातियां इस्लाम धर्म में गईं, कुछ सिक्ख धर्म में गईं, तो कुछ ईसाई धर्म में गईं, जो अछूत जातियां हिन्दू धर्म के अछूतपन से मुक्त होने के लिये और अपनी मानवीय गरिमा और अपने मानवीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिये इस्लाम, सिक्ख और ईसाई धर्म में गई, वहाँ भी उनको अपने अछूतपन से पूरी तरह छुटकारा नहीं प्राप्त हो सका, क्योंकि ये तीनों धर्म जातिवाद को तो नहीं मानते लेकिन ईश्वरवाद और पुरोहितवाद से मुक्त नहीं हैं। धार्मिक पाखण्डों से धर्म के नाम पर होने वाली सारी हरकतें इन धर्मों में होने की वजह से, दलित मुक्ति का सवाल आज भी इन धर्मों में धर्मान्तरित दलितों के सामने है। दक्षिण भारत के दलित ईसाई आज दलित के नाम पर स्वतंत्र रूप से संगठित हो रहे हैं। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, कश्मीर के दलितों के समक्ष इसी प्रकार के सवाल हैं। मुस्लिम दलितों में भी यही स्थिति है। सिक्ख दलितों में भी इसी प्रकार की स्थिति है। आज दलित समाज के सामने कई सुलगते सवाल हैं जैसे कि अछूतपन से पूर्णरूप से मुक्त कौन हो सके हैं? अछूतपन से मुक्त धर्मों में पूरी तरह से कैसे घुलमिल जाया जा सके? अथवा कहीं भी जाइये, लेकिन अछूतपन से किसी दलित की कोई मुक्ति ही नहीं है? इन सवालों का एक ही जवाब है कि डॉ0 बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा चलाये गये दलित मुक्ति आन्दोलन के कारवां को सब लोग मिलकर आगे बढ़ाये तभी इससे मुक्ति मिल सकती है।
भारतीय समाज में हिन्दू अछूत अनेक जातियों एवं उप-जातियों में बंटे हुए हैं जिसके फलस्वरूप उनमें आपसी समानता एवं भाईचारे का अभाव है। इसके लिये उन्हें दोषी नहीं कहा जा सकता। वास्तव में हिन्दू समुदाय स्वयं में असंख्य जातियों एंव उपजातियों में बंटा हुआ है साथ ही सामाजिक-आधार में भी समानता और भाईचारे का अभाव है। यही नहीं, बल्कि इन जातियों और उनकी उपजातियों में आपसी विवाह-सम्बन्ध, नातेदारी, बन्धुत्व आदि वर्जित रहे हैं, जिसके फलस्वरूप न केवल सैद्धान्तिक अपितु व्यावहारिक दृष्टि से वे एक बंद सामाजिक, स्तरीकरण व्यवस्था में बंधे हुए हैं! ऐसी व्यवस्था में सदियों से अछूतों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक स्थिति अत्यन्त दयनीय रही है। मन्दिरों में उनके प्रवेश पर प्रतिबन्ध, खान-पान तथा मिलने-जुलने में छुआछूत, शादी-विवाह में भेदभाव, पुरोहितों एवं समुदाय के अन्य सेवाकर्मियों की सेवाओं से वंचित, अन्य जातियों के समान रीति-रिवाजों, त्योवहारों आदि के मनाने पर रोक, इत्यादि के विषमतामूलक कारण, अछूतों की स्थिति जानवरों से बदतर रही है, जो न केवल हिन्दू समुदाय वरन् सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिये एक कलंक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस तथ्य को प्रकार्यात्मक सिद्धान्त में विश्वास करने वाले समाजशास्त्री भी नकार नहीं सकते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हिन्दू समाज में जातीय श्रेष्ठता प्रारम्भ से विद्यमान थी और इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि हिन्दू केवल उन्हीं जातियों के लोगों को अस्पृश्य नहीं मानते जो हिन्दू जातियों से सम्बद्ध हैं, बल्कि उनको भी अस्पृश्य मानते रहे हैं जो अहिंदू थे और हैं। वे सब हिन्दू जातियाँ जो गोमांस खाती हैं वे भी अस्पृश्य की श्रेणी में आती हैं। पाकिस्तान बनने के पीछे एक कारण उत्तरी भारत में मुसलमानों को अस्पृश्य माना जाना भी था। अस्पृश्यता के पीछे अपवित्रता या व्यक्ति प्रदूषण ही कारण नहीं है, धार्मिक विद्वेष भी है। जिसे परम्परा और स्मृतियों ने उचित ठहराया है।
डॉ0 अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के सन्दर्भ में आर्थिक प्रश्नों को भी छुआ है। उनका मत है कि अस्पृश्यता गुलामी से भी ज्यादा गई गुजरी है। गुलामी में तो रोजी-रोटी की सुरक्षा भी है, अस्पृश्यता के क्षेत्र में ऐसी कोई सुरक्षा नहीं। अस्पृश्यता का दाग, स्पृश्यों के मुकाबले, उनका पलड़ा हल्का कर देता है। उन्हें अंत में काम मिलता है पर निकाले सबसे पहले जाते हैं। हालाँकि संविधान के प्रावधानों के कारण यह स्थिति काफी हद तक बदली है। डॉ0 अम्बेडकर की यह बात एक सवाल उठाती है कि एक गुलाम मालिक की सम्पत्ति होता है और देखभाल की जिम्मेदारी मालिक की होती है इसलिए वह बेहतर है। यह बात उसके हित में जाती है जबकि एक अस्पृश्य भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। वह गुलाम न होकर स्वतंत्र है। यह तर्क थोड़ा विवादास्पद है। बावजूद सब कठिनाइयों के स्वतंत्रता और गुलामी की बराबरी शायद इस रूप में नहीं हो सकती। देश की स्वतंत्रता भी लड़ाई के दौरान, आजादी मिलने से पूर्व ‘डिस्प्रेड क्लास' की स्वतंत्रता के प्रश्न पर निर्णय लिए जाने के आग्रह के पीछे डॉ0 अम्बेडकर के मस्तिष्क में यह मानवीय बिन्दु रहा होगा। लेकिन स्वतंत्र व्यक्ति अपनी सारी मजलूमियत के बावजूद भले ही किसी जाति, धर्म का हो, एक गुलाम से अधिक सम्भावनाओं और आशा का स्वामी हो सकता है। कम ही सही परन्तु जिन्दगी का प्रवाह बदलने का अवसर, मरते-मरते भी जिंदा रहता है। उसके अनेक उदाहरण तब भी थे और आज भी हैं।
डॉ0 अम्बेडकर का तीसरा तर्क सर्वथा मान्य है कि दासता के साथ अस्पृश्यता की तरह अनिवार्यता नहीं जुड़ी है। दास स्वतंत्र हो सकता है। लेकिन अस्पृश्यता जन्मना है। यह भी सही है कि न स्पृश्य अस्पृश्य हो सकता है और न अस्पृश्य स्पृश्य। ये सब प्रश्न मनुष्य की मौलिक आजादी से जुड़े प्रश्न हैं जिन्हें आकस्मिक तौर पर स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
सामाजिक संरचना में असमान रूप से हो रहे बदलाव के साथ ही आपस का भाई-चारा, प्रेम, एकता, सद्भाव का अभाव आज भी हमें अपने दायित्वों के प्रति सचेत करता है। वैश्वरीकरण का सपना मात्र एक कल्पना सा बनकर रह जाए इस बात का भी ध्यान दलितों को रखना जरूरी है। डॉ0 अम्बेडकर ने अपनी विचारधारा व दर्शन द्वारा समाज में व्याप्त असमानता को दूर करने का जो उपक्रम किया उसमें तीव्रता लाने की आवश्यकता है। क्योंकि आधुनिकता के आईने में दलितों का स्वरूप आज भी वैसा ही नजर आता है जैसा पूर्व में था। आज भी दलितों पर अत्याचार काफी हो रहे हैं। इन्हें घृणा तिरस्कार की दृष्टि से देखा जा रहा है। वे अपने अधिकारों की लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं।, राजनीति से लेकर अन्य सभी क्षेत्रों में इनकी स्थिति ताकतवर होते हुए भी बड़ी दयनीय है। संम्भ्रान्त वर्गों ने सदैव अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु इनका इस्तेमाल किया है। ऐसे अवसरवादी, स्वार्थी लोगों से सावधान रहना होगा। आधुनिक युग में देशव्यापी प्रगति का नजारा तो दिखाई देता है पर दलितों का दुःख दर्द नहीं। सामाजिक न्याय का बहुआयामी चेहरा भी धुंधला हो चुका है। दलितों को वर्तमान परिवेश में जो सम्मान मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा है। भारतीय परम्परावादी आधुनिक संस्कृत व समाज में दलित आज भी अपने आपको सुरक्षित नहीं महसूस कर रहा है। शिक्षित व संगठित होने के बाद भी दलित सर्वोच्च सम्मान नहीं पाता है। उचित स्थान पर विराजित होने पर भी आज इनके दिल में कैदी की भांति डर बंद है। आज दलितों को एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करनी होगी जो वर्णविहीन, जातिविहीन हो जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और हर वर्ग का स्वाभाविक समुचित विकास सम्भव हो सके। क्योंकि अपनी स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व सभी को प्रिय होते हैं इसलिये अपने अधिकारों के प्रति दलितों को सजग रहते हुए कर्तव्यों को सर्वाधिक महत्व देना होगा।
आज के साहित्य में दलितों के विचार संकुचित नहीं अपितु सारगर्भित, तर्कसंगत, बहुजन हिताय होते हैं। श्रेष्ठ विचार जो सामाजिक न्याय के निर्णायक तथा प्रजातंत्र के आधार माने जाते हैं। वह वर्तमान दलित साहित्य में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं, क्योंकि दलितों ने अपमान की वेदना खूब झेली है। दलितों ने अत्याचार बहुत सह लिए हैं, उदारता की एक सीमा होती है। अब निडरता से उन्हें हर जुल्म का सामना करने की जरूरत है।
परिवर्तन की दिशाएँ भले ही हमारी आंखों से ओझल हो जाएं मगर हम अपने सिद्धान्तों को धूमिल नहीं होने देंगे। अपने लक्ष्य पर अटल रहेंगे। ‘‘प्रत्येक समाज को व्यवस्थित करने के लिए कार्यों के वर्गीकरण और सम्पादन के लिए कानून की आवश्यकता होती है। हर समाज में नियम और कानून रहे हैं और भले ही क्यों न वह कबीलायी समाज हो। नियम का बनना जितना आवश्यक है उससे अधिक आवश्यक है उसमें समय और परिस्थितियों के अनुसार संशोधन। मगर नियम बनाने वाला वर्ग अपना अधिक ध्यान रखता है और आम जनता का कम। सामाजिक उपेक्षा और सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने के कारण ही प्रायः विद्रोह होता रहा है। वर्ग और वर्ण का विभाजन एवं निचले तबकों का शोषण जब से हमारी समाज-व्यवस्था मिल रही है तब से होता चला आ रहा है। यह बात भारत के ही नहीं अपितु विश्व के सन्दर्भ में कही जा सकती है।''17 माना कि आधुनिकता सबके लिये वरदान साबित हो रही है पर दलितों के लिए अभिशाप क्यों? इन विषयों पर गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। इसके लिए जन-जन को प्रेरित कर प्रगतिवाद का शंखनाद करना होगा। दलितों की ज्वलंत समस्याओं से सरकार को रूबरू कराना होगा। दलितवर्गीय आदर्शोन्मुख यथार्थ का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर समसामयिक समझ को गहराई से आत्मसात करना होगा तभी समुचित विकास की आस करना उचित है वरना सदियों तक दलितों का उद्धार सम्भव नहीं है। दलित चेतना के अग्रदूत बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबाराव फुले परिवर्तन की पहल करने वाले नायक हैं। आज हमें समय का संकेत पहचानना होगा। वह हमें चेतावनी दे रहा है कि वर्तमान में अपने आपको ढ़ालो। शिक्षा, राजनैतिक, जागरूकता, व्यवसायिक विविधता और प्राचीन परम्परा में भी परिवर्तन की आवश्यकता है तभी वर्गविहीन, न्यायपूर्ण सामाजिक संरचना द्वारा समरसता का लक्ष्य पूरा हो सकेगा। दलित अस्मिता का यक्ष प्रश्न आज भी अपने उत्तर की प्रतीक्षा में हमारे सम्मुख है। साहित्य की उदारवादी, जनवादी विचारधारा के फलस्वरूप जनजागृति की मशाल थामे पूर्वाग्रहों से मुक्ति का मार्ग बताते हुए कई लेखक दलितों के संत्रास व शोषण के सामूहिक अनुभव का ब्यौरा प्रस्तुत भी कर रहे हैं। अच्छा, जीवन, अच्छा मरण यही आधुनिकीकरण का भावार्थ होना चाहिए। श्रम, अशिक्षा, शोषण इनका कोई औचित्य नहीं। भ्रमित, अशिक्षित, भयभीत व्यक्ति स्वयं ही विपत्ति का कारण बन जाता है। इसलिए शिक्षित और संगठित होना भी अति आवश्यक है। आज दलितों को संसार की गति नहीं बल्कि प्रगति पर ध्यान देना है। उन्नति पर आधारित नीति को अपनाते हुए परिवर्तन की बात करें तो वह बात सर्वमान्य होगी। सामूहिक प्रयास से हर मुश्किल कार्य सहज सम्पन्न हो जाते हैं, इसलिये अपने आपको और अधिक सुदृढ़ बनायें और जनहित में कदम आगे बढ़ायें तभी दलितों को नये क्षितिज मिल सकतें हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1.दलित विमर्श, चिन्तन एवं परम्परा, नवम्बर- 2005, सम्पादक-डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, पृष्ठ-40.
2.बया, 2006, मकसद गैर दलितों की मुक्ति भी, बजरंग बिहारी, पृ0-28.
3.सामर्थ्य-जनवरी-2008, दलित विमर्श ः कुछ यक्ष प्रश्न-डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, पृष्ठ-18.
4.चिन्तन की परम्परा और दलित साहित्य-डॉ0 विमल थोराट, पृ0-205.
5.दलित विमर्श ः चिंतन एवं परम्परा-डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, पृ0-22.
6.दलित विमर्श के विविध आयाम, डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, पृष्ठ-67.
7.चिन्तन की परम्परा और दलित साहित्य डॉ0 श्यौराज सिंह व डॉ0 देवेन्द्र चौबे-पृ0-196.
8.दलित चेतना ः साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार -डॉ0 रमणिका गुप्ता, पृ0-78.
9.उ0 प्र0, सितम्बर- अक्टूबर-2002, पृ0-108.
10.गुलामगीरी-ज्योतिबा फुले-भूमिका से सं. जयप्रकाश कर्दम-सं. 1995.
11.गुलामप्रथा और अस्पृश्यता, डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, हंस-9, अगस्त-2004.
12.हंस, अगस्त-2004, पृ0-12.
13.जनसम्मान, मई-2007, पृ0-44.
14.मूल प्रश्न, जनवरी-अप्रैल, 2005, पृष्ठ-44.
15.मार्क्सवाद और साहित्य का अन्तः सम्बन्ध, डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव, साहित्य क्रान्ति- नवम्बर 2006, पृ0 16.
16.दलित विमर्श ः सन्दर्भ गाँधी,राजकिशोर, पृष्ठ-105.
17.दलित विमर्श ः चिन्तन एवं परम्परा, नवम्बर- 2005, सम्पादक-डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव,पृ0-31
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