वि कसित देश अमेरिका ने जिस चालाकी से एड्स के वीषाणु (वायरस) के उत्पत्ति की अवधारणा अफ्रीका में पाए जाने वाले बंदरों से गढ़ी थी, कुछ उ...
विकसित देश अमेरिका ने जिस चालाकी से एड्स के वीषाणु (वायरस) के उत्पत्ति की अवधारणा अफ्रीका में पाए जाने वाले बंदरों से गढ़ी थी, कुछ उसी तर्ज पर ब्रिटेन ने नए सुपरबग यानी महाजीवाणु की उत्पत्ति की खोज भारत की राजधानी नई दिल्ली में कर डाली। यही नहीं इस महाजीवाणु का नामाकरण भी नई दिल्ली बीटा लेक्टामोज -1 रख दिया। जैसे दिल्ली मानव आबादी का शहर न होकर महामारियों के जनक विषाणु-जीवाणुओं का शहर हो गया ? इस जीवाणु की उत्पत्ति इसलिए संदेह के घेरे में है क्योंकि इसकी खोज सरकारी स्तर पर किए गए किसी अनुसंधान के वनिस्बत ऐसी दो बड़ी दवा कंपनियों ने की है जो पूरी दुनिया में एंटी बायोटिक दवा का कारोबार तो करती ही हैं, नई दवा की बड़ी मात्रा में बिक्रय के लिए पूर्व से ही साजिशन पृष्ठभूमि भी रचती हैं। एड्स हेपेटाइटिस-बी, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और पोलियों की दवाएं खपाने के लिए भी कुछ इसी तर्ज पर हौवा खड़ा किया गया था। भारत में उपलब्ध सस्ती उपचार सुविधा और राष्ट्रमण्डल खेलों में आने वाले पर्यटकों को प्रभावित करने की दृष्टि से भी यह पड्यंत्र रचा गया हो सकता है ? हालांकि भारत सरकार और भारतीय चिकित्सकों ने इस महाजीवाणु की दिल्ली में उत्पत्ति को लेकर नाराजगी जताई है। ये निष्कर्ष ब्रिटेन के मेडिकल जर्नल लैंसेट में छपे हैं।
हालांकि इस महाजीवाणु के सिलसिले में ताजा आई जानकारियों से जाहिर हुआ है कि कई दवाओं से लड़ने में प्रतिरोधात्मक क्षमता संपन्न सुपरबग के बारे में भारतीय अनुसंधानकर्ता पहले ही चेतावनी दे चुके हैं। मुंबई के पीडी हिंदुजा नेशनल चिकित्सालय और चिकित्सा शोध केन्द्र के शोधार्थी पायल देशपांडे, कैमिला रोड्रिग्ज, अंजलि शेट्टी, फरहद कपाड़िया, असित हेगड़े और राजीव सोमण ने इसी साल मार्च में ‘एसोसिएशन ऑफ फिजीशियन अॉफ इंडिया' के जर्नल में सुपरबग के वजूद का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया था। यह अध्ययन चौबीस मरीजों पर किए शोध का निष्कर्ष था, जिसमें बताया गया था कि नई दिल्ली मेटालो लैक्टामोज-1 ऐसा महाजीवाणु है जो अंधाधुंध एंटीबायोटिक के इस्तेमाल के कारण सूक्ष्म जीवों में जबरदस्त प्रतिरोधात्मक क्षमता विकसित कर रहा है। शोध-पत्र के मुताबिक उपचार में कार्बापीनिम दवा से भी मुठभेड़ करने में सक्षम सूक्ष्म जीव का इतने कम समय में अपेक्षाकृत रूप से बड़ी संख्या में पाया जाना चिंता जनक है।
कार्बोपीनिम एक एंटीबायोटिक है जो मल्टी ड्रग प्रतिरोधी दवाओं के संक्रमण के इलाज में प्रयोग में लाई जाती है। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक सुपरबग या दूसरे सूक्ष्मजीव पूरी दुनिया में कहीं भी पाए जा सकते हैं। किसी नगर, देश या क्षेत्र विशेष में ही इनके पनपने के कोई तार्किक प्रमाण नहीं हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियों के विशेषज्ञ और भारतीय जर्नल के संपादक शशांक जोशी ने माना है कि पन्द्रहवीं सदी से ही सूक्ष्मजीवों के वैश्विक अस्तित्व के बारे में दुनिया जानती है। इसके बावजूद कुछ निहित स्वार्थों के चलते विकसित देश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनकी उत्पत्ति और महामारी में तब्दील हो जाने की अवधारणा अपने स्वार्थों के लिए विकासशील देशों गढ़ लेते हैं। चूंकि दवा कारोबार कुछ नामचीन कंपनियों के कब्जे में है। इसलिए नए जीवाणु-वीषाणु व इनसे फैलने वाली बीमारी की भयावहता का आडंबर ये संगठित और सुनियोजित ढंग से रचकर विश्वव्यापी कमाई का तंत्र विकसित कर लेती हैं। इस मुहिम में भारतीय चिकित्सक और राजनेता भी शामिल होकर इनकी मकसदपूर्ति का हिस्सा बन जाते हैं। नतीजतन देखते-देखते अस्तित्वहीन या मामूली बीमारियां भी देशव्यापी महामारी का खतरा बन जाती हैं।
बीते साल अप्रैल में जेनेवा में आयोजित एक आपात बैठक में विश्व स्वास्थ्य संगठन की महानिदेशक माग्रेट चाम ने ऐलान किया था कि स्वाइन फ्लू के कारण पूरी मानवता खतरे में है। इस ऐलान की हकीकत पर बिना विचार-विमर्श किए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नवी आजाद ने देश की एक तिहाई आबादी स्वाइन फ्लू की चपेट में बता दी और देश के हरेक जिले के लिए दस हजार खुराक दवा खरीद ली। कुछ दिनों पश्चात दिल्ली में आयोजित एक बैठक में इसी संगठन के एक अधिकारी ने संगठन की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाते हुए स्पष्ट किया कि स्वाइन फ्लू को विश्वव्यापी महामारी घोषित करने का जो काम विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किया है वह एक छल था। ऐसा केवल विश्व स्तर पर दवा कारोबार करने वाली कंपनियों को लाभ पहुंचाने के नजरिये से किया गया।
बर्ड फ्लू भी एक ऐसी ही बीमारी थी। दरअसल यह अरबों-खरबों का घोटाला थी। आईएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार का कहना था कि कुछ जगहों के अलावा यह बीमारी कहीं नहीं है। वैसे भी चिकन या अण्डे को 70 डिग्री सेल्सियस पर गर्म करने से बर्ड फ्लू के विषाणु अपने आप मर जाते हैं। इस बीमारी का हौवा बड़ी मात्रा में भारत में अमेरिका द्वारा दवाएं खपाने के लिए किया गया एक पड़यत्र था।
भारत में विभिन्न बीमारियों के उन्मूलन के दृष्टिगत राष्ट्रव्यापी अभियान विश्व स्वास्थ्य संगठन की देखरेख में चलाए जा रहे हैं। पोलियो के सिलसिले में दावा किया गया था कि 2005 तक पोलियो को निर्मूल कर दिया जाएगा। लेकिन बीस सालों में करीब छह अरब डॉलर खर्चने के बावजूद देश को पोलियो के संक्रमण से छुटकारा नहीं मिला। अब तक पूरी दुनिया में पोलियो की खुराक लेने के बावजूद पोलियो संक्रमण से प्रभावित दो हजार से भी ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं। भारत के अकेले उत्तरप्रदेश में 2005 में एक साथ 66 मामले सामने आए थे। बाद में इनकी संख्या बढ़कर 380 तक पहुंच गई। अब ताजा जानकारी आई है कि 12 राज्यों के 87 जिले पोलियो विषाणु से प्रभावित हैं। इससे मुक्ति के उपायों को तलाशने की बाजाय नई अवधारणा गढ़ी गई कि विषाणु प्रकृति पर नियंत्रण के लिए तकरीबन 10 खुराक दवा पिलाई जाए। लिहाजा अब पांच साल की उम्र तक के बच्चों को दवा पिलाने का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया है। जबकि जरूरत यह थी कि दवा पिलाने के बाद पोलियो के मामले क्यों सामने आ रहे हैं, इनकी जड़ों को खंगाला जाता ?
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खासतौर से विकासशील देशों में एड्स का जो हौवा खड़ा किया हुआ है, अफ्रीका सरकार उसे सिरे से तार्किक ढंग से खारिज कर रही है। कुछ समय पूर्व संगठन ने एक प्रतिवेदन का हवाला देते हुए दावा किया था कि अफ्रीकी देशों में 38 लाख एड्स के रोगी हैं। अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति थाबो मुबेकी ने इस रिपोर्ट पर आपत्ति तो जताई ही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 33 विशेषज्ञों का एक पैनल भी बनाया। इस पैनल की खास बात यह थी कि इसमें सेंटर फॉर मालीक्यूलर एंड सेलुलर बायोलॉजी पेरिस के निदेशक प्रो. लुकमुरनिर भी शामिल थे। प्रो. लुकमुरनिर वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. गैली के साथ मिलकर 1984 में एड्स के वासरस एच.आई.वी. का पता लगाया था। इसके साथ ही इस पैनल में अमेरिका, ब्रिटेन, भारत और अटलांटा के सी.डी.सी. के वैज्ञानिक डॉ. ऑन ह्यूमर भी शामिल थे। इस रिपोर्ट में 2001 में इन वैज्ञानिकों ने एड्स के वायरस एच.आई.वी. के अस्तित्व पर तीन सवाल उठाते हुए नए सिरे से इस पर अनुसंधान करने की सलाह दी थी। रिपोर्ट का पहला सवाल था कि संभावित एड्स पीड़ित रोगी में प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होने की वास्तविकता क्या है ? दूसरा, एड्स से होने वाली मौत के लिए किस कारण को जिम्मेवार माना जाए ? तीसरा, अफ्रीकी देशों में विपरीत सैक्स से एड्स फैलता है, जबकि पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता से, यह विरोधाभास क्यों ? इस रपट में एड्स रोधी दवाओं की उपयोगिता पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरअसल इस प्ररिपेक्ष्य में दबी जुबान से वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि एड्स रोधी दवाओं के दुष्प्रभाव से भी रोगी के शरीर में प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होती है और नीतीजतन रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
दरअसल हमारे देश में विभिन्न महामारियों के उन्मूलन के दृष्टिगत राष्ट्रव्यापी अभियान विश्व स्वास्थ्य संगठन की देखरेख में चलाए जा रहे हैं। इनका मकसद रोग का जड़ से उन्मूलन की बजाय ऐसा वातावरण तैयार करना है, जिससे दवाओं की खपत ज्यादा हो और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां मुनाफे के कारोबार में लगी रहें। सुपरबग का शगूफा भी दवा कंपनियों के लिए मुनाफे का आधार बने, इस सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
फोन 07492-232007, 233882
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
gyanprad aur vicharotejak aalekh ke liye aabhar.
जवाब देंहटाएंShandar...........DWA MAFIA ka Parda Fash....Head's off to Writer.....
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