अंग्रेजों की दास्तां से देश को मुक्ति के लिए छेड़े गये सन् 1857 के महासंग्राम से देश की आजादी तक चले आन्दोलन में राष्ट्रीय चेतना जगा...
अंग्रेजों की दास्तां से देश को मुक्ति के लिए छेड़े गये सन् 1857 के महासंग्राम से देश की आजादी तक चले आन्दोलन में राष्ट्रीय चेतना जगाने में गीतों और लोकगीतों की महती भूमिका रही है। समाज को अंग्रेजी साम्राज्य के अत्याचारी कृतो से रूबरू कराने के साथ भारतीय मन में देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति का संचार करने के साथ बलिदान का पाठ पढ़ाते इन गीतों ने इतना जोश भरा के आजादी के दीवाने सिर पर कफन बांधकर गुलाम भारत मां की मुक्ति के निकल पड़े विदेशी शासकों के विरूद्ध संग्राम लड़ने। 1857 के संग्राम का झण्डा गीत कुछ इस प्रकार का था-
‘‘हम हैं इसके मालिक यह है हिन्दुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का हमको जन्नत से प्यारा।''
कवि कल्याण सिंह कुड़रा का गीत इस प्रकार है-
‘‘कहत ‘कल्याण' बान राखी परमेसुर ने,
बांको कर साको सुरलोक को सिधाई है।
सूर को सराहैं जो गुनीन गुन गावैं हाल,
बाई की लराई की जहान में लड़ाई है॥''
आजादी के रणबाकुरें वीर कुंअरसिंह की वीरता पर ‘राम' कवि ने अपने भावो को कुछ इस तरह कहा-
‘‘जैसे मृगराज गजराजन के झुंडन पे प्रबल प्रचंड सुंड खंडत उदंड है,
जैसे बाज लपकि लपेटि के लवान-दल दलमल डारत प्रचारत विहंड है,
कहै ‘राम' कवि जैसे गरुड़ गरव गहि अहिकुल दंडि-दंडि मेटत घमंड है,
तैसे ही कुंअरसिंह कीरति अमर मंडि, फ़ौज फिरगीन की करी सुखंड-खंड है।''
दुलारे कवि ने अवध में आजादी की जंग में शामिल राणा के बारे में कुछ इस तरह लिखा-
‘‘अवध मैं राना भयो मरदाना, अवध में राना भयो मरदाना।''
भागू नाई ने वीर काव्य आल्हा छन्द में लिखा जो गांव गांव में लोकप्रिय हुआ-
‘‘राजा कहिए चहलारी का जेहिके बांट परी तरवार।
ब्याह को कंगना कर मां बांधे सर से डारो मौत उतार॥''
सन् 1861 में ईश्वरचन्द गुप्त ने बंगाल को जगाने के लिये बंगाल में गीत लिखा-
‘‘जननी भारत भूमि! ऊपर क न थकि तुमि,धर्म-रूप-भूषाहीन;
तोमार कुमार जत, सकलेइ हटे तट, मिछे केन मर भार भये।''
सत्येन्द्रनाथ ठाकुर ने पराधीनता की पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखा-
‘‘को थारे गाओ भारतेर जय!
दिनेरदिन सबे दिन भारत हय पराधीन।
नीरव भारत के न भारतीय वीणा।
सोनार प्रतिमा शोके ते मलीना''
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द की वेदना कुछ इस तरह थीं-
‘‘कहां करुणानिधि के सब सोये?
जागत नेकु न जदपि बहुत विधि भारतवासी रोये।''
विवेकानन्द अपनी कविता में इस प्रकार कहते है-
‘‘सदा घोर संग्राम छेड़ना, उनकी पूजा के उपचार।
वीर न हो भयभीत, भले ही आय पराजय सौ-सौ बार।
चूर-चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, ह्रदय होवे शमशान।
नीचे उस पर श्यामा लेकर घन रण में निज भीम-कृपाण।''
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत लिखा-
‘‘बांगलार माटी, बांगलार जल, बांगलार वायुर बांगलार फल।
पुण्य होउक, पुण्य होउक, पुण्य होउक!!''
अरविन्द घोष ने ‘भवानी भारती' लिखकर नवयुवकों को सन्देश छोड़ा-
‘‘नरास्थिमाला नृकपालकाश्ची वृकोदराक्षीं दरिद्राम्।
पृष्ठे व्रणाड्कामसुराः प्रतौदेः सिंही न दन्तीमिव हन्तु कामाम्।''
सोहनलाल द्विवेदी अपनी कविता में कहते है-
‘‘वन्दना के इस सुरों में, एक सुर मेरा मिला लो।
वन्दिनी मॉ को न भूलो, राग मे हो मगन झूलो;
अर्चना के रक्तकण में, एक कण मेरा मिला लो।
जब ह्रदय के तार बोलें, श्रृंखला के बन्द खोलें;
हों जहां बलिदान अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।''
महावीरप्रसाद द्विवेदी ने फरवरी-मार्च 1903 में ‘अपनी पत्रिका' में लिखा-
‘‘यह जो भारत भूमि हमारी, जन्मभूमि हम सबकी प्यारी;
एक गेह सम विस्तृत भारी, प्रजा कुटुम्ब तुल्य है सारी;
जन्मभूमि बलिहारी है, सुरपुर से भी प्यारी है।
पानी की कुछ कमी नहीं है, हरियाली लहराती है;
फल औ' फूल होते हैं; रम्य रात छवि छाती है।
मलयानिल मृदु-मृदु बहती है, शीतलता अधिकाती है;
सुखदायिनि वरदायिनि तेरी मूर्ति अति भाती है।''
पण्डित गिरधर शर्मा ने कुछ इस प्रकार लिखा-
‘‘सुजला सुफला मही यहां की, शस्य श्यामला मही यहां की।
मलयज शीतल मही यहां की, विवुध मनोहर मही यहां की।''
मैथिलीशरण गुप्त की कविता इस प्रकार है-
‘‘नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है, सूर्यचन्द्र युगमुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियॉ प्रेम प्रवाह, सूर्य-तारे मण्डन हैं, बन्दी विविध विहंग, शेषफन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेश की। हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की॥''
सियारामशरण गुप्त ने यह छन्द लिखा-
‘‘जय जनक जननी जननि! जय भुवन मानस हारिणी।
जय अनिल-कम्पित मनोहर, श्याम-अंचल धारिणी॥
व्योम-चुम्बी भाल हिमगिरि है, तुषार किरीट है;
जय जयति लक्ष्मी स्वरूपा, दैन्य दुःख निवारिणी॥''
रामनरेश त्रिपाठी की कविता कुछ इस प्रकार है-
‘‘विविध सुमन समूह चित्रित, शस्य श्यामल वसन सज्जित
मलय-मारुत से सुगन्धित, रत्नगर्भा जननि! मंगल करणि संकट हरणि।''
परशुराम चतुर्वेदी ने कविता में प्रश्न किया-
‘‘होगा ऐसा कौन अभागा नर तनु धारि?
जिसे न हो निज मातृभूमि प्राणों से प्यारी॥''
रामचरित उपाध्याय ने दोहे लिखे-
‘‘नहीं स्वर्ग की चाह है, नहीं नरक की प्रीति।
बढ़ती रहे सदा मेरी, जन्मभूमि से प्रीति।''
पंडित गिरधर शर्मा ने यह कहा-
‘‘पंजाबी-गुजरात-निवासी, बंगाली हों या ब्रजवासी;
राजस्थानी या मदरासी, सबके सब हैं भारतवासी।
तेरे सुत, प्रिय देश! जय जय देश, भारत देश!''
श्रीधर पाठक ने छन्द में कहा-
‘‘प्रनमामि सुभग सुदेश भारत सतत मम मन रंजनम्।
मम देश मम सुखधाम मम तन-प्राण धन, जन जीवनम्।
मम-तात-मात सुतादि प्रिय, निज बन्धु गृह-गुरू-मन्दिरम्।
सुर-असुर-नर-नागादि अगणित जाति जनपद सुन्दरम्॥''
श्रीधर वर्णेकर ने संस्कृत लिखा-
‘‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे! त्वया हिन्दुभूममे सुखम् बर्धितोअहम्।
महामंगले पुण्य-भूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥''
राजेन्द्र शाह ने गीत लिखकर कहा-
‘‘जयति जय-जय पुण्य भारत भूमि साबर शुभ्र अम्बर।
जयति जय-जय ऋतु नियंता, जय विधाता शंभु शंकर।
जयति जय-जय-जय अनागत, क्षण विवर्तन, नित निरन्तर,
जयति जय-जय पुण्य-भारत, भूमि सागर शुभ्र अम्बर॥''
बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन' ने लिखा-
‘‘जय जय भारत भूमि भवानी।
जाकी सुयश पताका जग में दसहूं दिशि फहरानी।
सब सुख सामग्री पूरित ऋतु सकल समान सोहानी।
जाकी शोभा लखि अलका अरु अमरपुरी खिसियानी।
धर्म सूर्य जहं उग्यो, नीति जहॅ गयी प्रथम पहियानी॥''
माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा-
‘‘मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाये जिस पर जावें वीर अनेक॥''
सुमित्रानन्दन पंत ने लिखा-
‘‘जिसका गौरव भाल हिमाचल, स्वर्ण धरा हंसती चिर श्यामल,
ज्योतिर्मय गंगा यमुना जल। जिसे राम लक्ष्मण औ' सीता,
बना गये पद धूलि पुनीता। यहॉ कृष्ण ने गायी गीता,
बजा अमर प्राणों में बंशी।''
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन' भी गीत गा उठे-
‘‘विन्ध्य सतपुड़ा नागा खसिया, ये दो औघट घाट महा;
भारत में पूरब-पश्चिम के, ये दो भूमि-कपाट महा;
तुंग-शिखर चिर अटल हिमाचल, है पर्वत सम्राट यहां।
यह गिरिवर बन गया युगों से विजय-निशान हमारा है।
भातरवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है॥''
रामधारीसिंह ‘दिनकर' ने यह कविता लिखी-
‘‘मेरे नगपति मेरे विशाल!
साकार दिव्य गौरव विराट, पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल।
मेरी जननी के हिम किरीट, मेरे भारत के दिव्य भाल।
मेरे नगपति मेरे विशाल!!''
रामावतार त्यागी की यह कविता क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी-
‘‘मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित;
चाहता हूं देश की, धरती! तुझे कुछ और भी दूं।
अवधी के कवि बंशीधर शुक्ल ने लोकगीत लिखकर जोश फूंका-
‘‘सर बॉध कफ़नियां हो शहीदों की टोली निकली।
पापी डायर के फायर से भूमि हुई सब लाल,
जलियॉ वाले बाग के अन्दर जूझा मदन गोपाल;
करेजे में से गोली निकली। सर बॉध कफ़निया हो!''
गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही' छोड़कर त्रिशूल बन ने लिखा-
‘‘मनाते हो घर घर खिलाफ़त का मातम। अभी दिल में ताजा है पंजाब का जख्म।
तुम्हें दीखता है खुदा और आलम। यही ऐसे जख्मों का है एक मरहम।
अरे बाबा! अब तो सहयोग कर देा। असहयोग कर दो, असहयोग कर दो॥
रामप्रसाद ‘बिस्मिल' ने चेताया-
‘यदि तुझे देश की चिन्ता है तो हिन्दू जाति जगा बाबा!
यह ऊॅच-नीच के भेदभाव का घर से भूत भगा बाबा।''
अशफाक ने निर्भीक होकर यह कहा-
‘‘मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है;
हम इसे ही समझा किये मरना क्या है?
वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,
हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे, न रहे।''
राजेन्द्र लाहिड़ी ने बलिदान की वजह बतायी-
‘‘सूख जाये न कहीं पौधा ये आज़ादी का,
खून से अपने इसे इसलिये तर करते है।''
ठाकुर रोशनसिंह ने स्वयं अपने ख़त में यह बात दोहरायी-
‘‘ज़िन्दगी जिन्दा-दिली की जान ऐ रोशन!
वरना कितने ही हुए और फना होते हैं।''
गोविन्दचरण कार ने जेल जाते कहा-
‘‘कुछ सोच न कर, ले कटती हैं अब कड़ियां तेरी गुलामी की,
हमसे ये हो सकता ही नहीं, सूरत देखें नाकामी की।''
मुकुन्दीलाल ने बड़े निश्चिन्त होकर यह शेर कहा-
‘‘अहसासे-ग़म नहीं, हमें परवाहे-ग़म नहीं।
हमने समझ लिया है कि दुनिया में हम नहीं।''
रामदुलारे त्रिवेदी ने तो अपनी इस ग़ज़ल में सच्ची बात कह दी-
‘‘खौफ़-आफत से कहां दिल में रिया आयेगी, बात सच्ची है तो वह लब से सदा आयेगी;
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी खूश्बू-ए-वफ़ा आयेगी।''
रामप्रसाद ‘बिस्मिल' ने कभी ब्रिटिश सरकार को चुनौती देते हुए कहा था-
‘‘कहते है अलविदा अब हम अपने जहान को,
जाकर खुदा के घर से तो आया ना जायेगा।
हमने जो लगायी है आग इंक़लाब की,
उस आग को किसी से बुझाया ना जायेगा।''
सोहन लाल द्विवेदी ने आवाहन गीत लिखा-
हम मातृभूमि के सैनिक हैं
आजादी के मतवाले हैं।
बलिवेदी पर हंस-हंस करके,
निज शीश चढ़ाने वाले हैं।
देश की स्वतंत्रता के लिए अपने लहू से मां भारती का तिलक करने वाले अनगिनत शहीदों को मातृभूमि की आजादी को महासमर में जूझने का जज्बा देने वाले कलमकारों ने रनबांकुरों की शूरवीरता के जो किस्से लिखे है उनमें सुभद्रा कुमारी चौहान के इस गीत के बिन सब अधूरा है-
चमक उठी सन् सतावन में
वह तलवार पुरानी थी
खूब लड़ी मरदानी
वह तो झांसी वाली रानी थी।
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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन-120/132 बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ
मो0ः 9415508695
अति सुन्दर....अभिव्यक्ति । समसामयिक जानकारी दे कर आपने बड़ा उपकार किया है।
जवाब देंहटाएंसद्भावी -डंडा लखनवी
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख| स्वतंत्रता आन्दोलन में गीतकारो के योगदान को कभी नकारा नहीं जा सकता है| स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये|
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