शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक , सांस्कृतिक , धार्मिर्क , राजनीतिक , सामाजिक तथा पर्या...
शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके एक हजार से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
चित्रपट के आईने में भोजपुरी सिनेमा
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
एवम्
रिसर्च एसोसिएट, उच्च अध्ययन संस्थान
राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि.प्र.)
मनोरंजन करना मानव का मूल स्वभाव है। हर युग में मनोरंजन के भिन्न-भिन्न साधन रहे हैं। आज विज्ञान के विकास के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों का भी विकास हुआ है। वर्तमान समय में रेडियो, दूरदर्शन, वीडियो, सर्कस, पर्यटन के अलावा सिनेमा का भी महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रपट यानि ‘सिनेमा' समाज का दर्पण कहा जाता है क्योंकि समाज की स्थिति का सच्चा चित्रण इनके माध्यम से होता है। सिनेमा का आविष्कार तो 19वीं शताब्दी में हुआ, परन्तु इसका विकास एवं सर्वव्यापी स्वरूप 20वीं सदी के आरम्भिक दशकों में स्थापित हुआ।
सिनेमा को आरम्भ से ही नाटक-नौटंकी का स्थानापन्न माना गया अर्थात् जनसाधारण का मनोरंजन करने का साधन और मूल रूप से सीख देने का माध्यम भी । देखा जाये तो यह फोटो खींचने की परम्परा की अगली कड़ी थी। फोटो खींचने से लेकर चलती-फिरती तस्वीरों की यह यात्रा बहुत लम्बी नहीं रही। शुरूआत में तो मूक फिल्मों का निर्माण किया गया, परन्तु जैसे-जैसे तकनीकी विकास हुये बोलती फिल्में बनने लगीं। विषय वस्तु को और भी प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने के लिये बोलती फिल्मों का ईजाद हुआ।
विश्व की पहली बोलती फिल्म थी ‘‘द जैज सिंगर'' जिसे अमेरिकी कम्पनी बानेर ब्रदर्स ने सन् 1926 में बनाया था। परन्तु हमारे देश में पहली बोलती फिल्म का नाम था ‘‘आलमआरा'' जिसे सन् 1931 में इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने बनाया था तथा इसका प्रदर्शन बम्बई के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ। इस फिल्म की अपार सफलता के पश्चात् उत्साहित होकर अन्य अनेक भाषाओं में सिनेमा का निर्माण होने लगा।
फिल्म का उद्देश्य सभी का करीब-करीब एक ही रहा। प्रयोजनमूलक मनोरंजन, गाना-बजाना, समाज में हो रहे कार्यों, परम्पराओं का सजीव चित्रण इन फिल्मों में फिल्माया जाने लगा। मनोरंजन का यह साधन लोगों को अत्यधिक रास आया। बम्बई मुख्य केन्द्र बन गया तथा देखते-देखते सैकड़ों कम्पनियां खुल गयीं। देश प्रेम, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सभी विषयों पर फिल्में बनने लगीं। देखा जाये तो सिनेमा मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा का भी अपूर्व साधन है। इसके द्वारा हमारे इतिहास, भूगोल, विज्ञान, राजनीति, कृषि, धर्म इत्यादि के सम्बन्ध के ज्ञान की सरलता से वृद्धि हो सकती है। समाज के वातावरण को उच्च व स्वस्थ बनाये रखने में इन फिल्मों का योगदान अवश्य वर्णनीय है। अपने-अपने काम से थककर जब लोग घर लौटते हैं तो वे ऐसा अपना मनोनुकूल मनोरंजन चाहते हैं जिससे कि उनकी पूरी थकान मिट जाये। सिनेमा इस कार्य को भली-भाँति पूरा करने में सक्षम है क्योंकि यह सबसे अधिक लोकप्रिय साधन है। अर्थात् पूरे दिन की थकान, ऊब और रक्तचाप को मिटाने के लिये सिनेमा टॉनिक का काम करता है। सिनेमा कुछ देर के लिये ही सही हमें ऐसी स्वप्निल दुनियाँ में ले जाता है जहाँ हम अपने वर्तमान दुःख दर्द को थोड़ी देर के लिये भूल जाते हैं। सिनेमा का समाज से गहरा सम्बन्ध है।
सिनेमा चाहे हिन्दी भाषा में हो या अन्य किसी भाषा में, तत्सम्बन्धित भाषाओं को बोलने वाले समूह को सदैव लाभान्वित करता रहा है। अन्य भाषाओं में ‘भोजपुरी' भाषा का अपना अलग महत्व हैं। वर्तमान समय में भोजपुरी भाषा ने स्वयं को एक प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित कर लिया है। देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी इस भाषा ने अपना प्रभुत्व जमाया है।
यद्यपि भोजपुरी का नामकरण बिहार के भोजपुर परगने के नाम पर हुआ परन्तु यह भोजपुर की सीमा से आगे बहुत दूर तक बोली जाती है। यह एक हृदयग्राही एवं संगीतात्मक भाषा है जो सीधे हृदय पर जाकर दस्तक देती है। अपनी बोली की मिठास के कारण यह सभी को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। भोजपुरी भाषा की इन विशेषताओं के पीछे अनेक कारण हैं। जिन्होंने आज भोजपुरी भाषा को वह स्थान दिया है जिसकी वह वास्तविक हकदार है।
विज्ञान के बढ़ते कदमों एवं अत्याधुनिक संचार उपकरणों ने भोजपुरी को लोकप्रिय बनाने में विशेष सहायता की है। इन माध्यमों में एक प्रमुख माध्यम है- ‘भोजपुरी सिनेमा' जिसने भोजपुरी भाषा, कला-साहित्य, संस्कृति को गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है। कभी भोजपुरी भाषा को बड़े ही हेय दृष्टि से देखा-समझा जाता था। कथित बुद्धिजीवियों की नजरों में भोजपुरी बोल ने को पिछड़ेपन का पर्याय माना जाता था। परन्तु आज परिस्थिति भिन्न है। आज हिन्दी फिल्मों की तरह भोजपुरी फिल्मों को देखने वाले दर्शकों की संख्या बढ़ी है। अनेक बड़े सितारे एवं बड़ी फिल्म कम्पनियां भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में लगी हैं।
साहित्य, संगीत-नृत्य के मेल से बना सिनेमा भोजपुरी भाषा के विकास में सर्वप्रमुख है। भोजपुरी भाषा में करीब अभी तक 400 फिल्मों का निर्माण हो चुका है। भोजपुरी फिल्मों की इस यात्रा की शुरूआत की नाजिर हुसैन ने, जो गाजीपुर के रहने वाले थे। सन् 1962 में उन्होंने ‘‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो' नाम से फिल्म बनाई। यह फिल्म उत्कृष्ट थी जो दर्शकों द्वारा अत्यन्त सराही गई तथा दर्शकों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल रही। अभिनय के अलावा नृत्य-संगीत भी उत्तम था। भोजपुरी फिल्मों की जो शुरूआत हुयी वह आज तक निरन्तर प्रवाहमान है और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जितनी फिल्में आज तक भोजपुरी भाषा में बनी हैं, और उत्कृष्ट फिल्में बनी हैं उतनी अन्य किसी लोकभाषा में नहीं। यह भी गर्व का विषय रहा है कि ज्यादातर फिल्में हिट एवं सुपरहिट रहीं। इसके अतिरिक्त ‘‘बलम परदेशिया'', ‘‘दुल्हा गंगा पार के'', ‘‘हमार भउजी'', ‘‘दगाबाज बलमा'', ‘‘दंगल'', ‘‘गंगा क बेटी'', ‘‘पिया रखिह सेनुरवा क लाज'', ‘‘नदिया के पार'' इत्यादि फिल्में अपनी विशेषता के बल पर समाज में अपना स्थान बनाने में सक्षम रहीं। इनके अतिरिक्त ‘विदेसिया', ‘गंगा किनारे मोरा गाँव', ‘ससुरा बड़ा पईसा वाला', दरोगा बाबू आई लव यू‘, ‘दुलहा मिलल दिलदार, ‘पण्डित जी बताई ना बियाह कब होई', ‘परिवार' फिल्में भी दर्शकों को बेहद पसन्द आईं।
किसी भी फिल्म के निर्माण में अभिनेता-अभिनेत्री के साथ-साथ गीत-संगीत, नृत्य, कहानी, संवाद, चरित्र इत्यादि सभी का समान योगदान होता है और इन सभी का सामंजस्य उचित तरीके से हो इसका श्रेय प्रोड्युसर, डाइरेक्टर को जाता है। इस दृष्टि से नाजिर हुसैन तथा ताराचन्द बड़जात्या, आरती भट्टाचार्या आदि का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है।
अभिनेता-अभिनेत्री का नाम लें तो ढेरों कलाकारों के नाम सामने आते हैं जिन्होंने अपना जीवन भोजपुरी फिल्मों के लिये दिया तथा भोजपुरी के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। राकेश पाण्डेय, सचिन, सुजीत कुमार, मनोज तिवारी, रवि किशन, कुणाल सिंह, कमाल खान के अतिरिक्त अनेक अन्य नये चेहरे भी दिखाई देते हैं। अभिनेत्रियों में यदि हम शुरू से देखें तो जद्दन बाई, लीला मिश्रा, आरती, कुमकुम, पद्मा खन्ना, गौरी खुराना, तनूजा, प्रेमा नारायण, टीना घई, साहिला चढ्ढा, पिंकी यादव, नगमा के अतिरिक्त मीरा माधुरी, रेखा सहाय, वन्दिनी मिश्रा, शीला डेविड, सीमा बजाज, बरखा पंडित, नूर फातिमा, रेनूश्री तथा शबनम इत्यादि अभिनेत्रियों ने भी भोजपुरी फिल्मों को सफल बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देखा जाये तो भोजपुरी फिल्मों में विशेष रूप से महिलाओं ने अपनी कलागत विशेषता से एक नया मुकाम हासिल कराया। महिला कलाकारों की भूमिका अनिर्वचनीय है। बल्कि वे भोजपुरी भाषी हों अथवा गैर भोजपुरी इन फिल्मों में उन्होंने सशक्त एवं स्मरणीय भूमिका निभायी। बनारस की लीला मिश्रा जिन्हें सिनेमा जगत् भोजपुरी काकी अथवा भोजपुरी चाची कहकर बुलाता था, अपने किरदार से हिन्दी व भोजपुरी सिनेमा में एक नया इतिहास रचने में सफल रहीं। बढ़िया भोजपुरी बोलकर इन्होंने दर्शकों के दिल पर न केवल अमिट छाप छोड़ी बल्कि विदेशों में भी इस भाषा को पहचान दिलाई।
‘‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबे' फिल्म में कुमकुम ने जिस प्रकार अपने किरदार को निभाया वह प्रशंसनीय है। पदमा खन्ना जो इस फिल्म की नायिका थी अपने चरित्र से उन्होंने समाज में एक नई छाप छोड़ी। इस फिल्म की कहानी ऐसी रही कि वर्षों तक लोगों के मन में ‘गंगा मईया' के प्रति जो भाव भरा था वह आज भी अपनी पवित्रता को जनमानस में रचा-बसा है। ‘मनौती' मानने की परम्परा को खूबसूरत ढंग से समाज में बनाये रखा। इस फिल्म का गीत-संगीत अत्यंत उत्कृष्ट एवं जन-जन को रससिक्त करने वाला है। भोजपुरी परिवेश, संवाद, पारिवारिक मर्यादाओं को इस फिल्म में बखूबी चित्रित किया गया है। ‘बलम परदेसिया' पद्मा खन्ना अभिमित अत्यन्त खूबसूरत फिल्म रही। ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो' की अपार सफलता के पश्चात् गंगा के ऊपर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ। जैसे ‘दुल्हा गंगा पार के' गौरी खुराना द्वारा अभिनीत तथा ‘‘गंगा किनारे मोरा गाँव'' एवं ‘गंगा क बेटी' जिसमें टीना घई ने सशक्त भूमिका निभाई, दर्शकों द्वारा बेहद सराही गई। ‘हमार भऊजी'' में तनुजा ने भउजी के किरदार को इतने बेहतर ढंग से निभाया कि समाज में पारिवारिक रिश्तों को समझने की एक पुख्ता सोच लोगों में आई। तेजी से विघटित हो रहे परिवारों को संगठित करने में एवं रिश्तों की गहराई को बनाये रखने में यह फिल्म अत्यंत सफल रही।
‘‘कब अइहे दुलहा हमार'' में आँचल नामक अभिनेत्री ने जो दमदार अभिनय किया है वह स्मरणीय एवं प्रशंसनीय है। इसी प्रकार ‘‘पिया रखिह सेनुरवा क लाज'' में पटना की पिंकी यादव ने अपने चरित्र को इतने बखूबी से निभाया कि उसे सरहा गया।
‘नदिया के पार' फिल्म जो ताराचन्द बड़जात्या ने राजश्री प्रोडक्सन के बैनर तले बनाई, समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रही। रिश्तों की मर्यादा, परिवार की मान, एवं समाज के रीति-रिवाजों को जिस खूबसूरती से इस फिल्म में चित्रित किया गया है वह अवर्णनीय है। फिल्म के नायक सचिन एवं नायिका साधना ने जिस संजीदगी एवम् शिदद्त के साथ अपने किरदार को निभाया है वह जनमानस में एक नई सोच पैदा करता है। इन फिल्मों को देखकर ऐसा लगता है कि ये सारी बातें हमारे इर्द-गिर्द नाच रही हैं। फिल्म की समस्या हमारी समस्या प्रतीत होती है। पूरी तरह से ये फिल्में दर्शकों को बांधने में सफल रहीं। इसी तरह यदि सामाजिक, चारीत्रिक विशेषताओं पर आधारित फिल्में बनती रहीं और एक उद्योग अथवा पैसा कमाने का क्षेत्र न समझकर बल्कि अपने दायित्व को समझकर फिल्में बनती रहीं तो निश्चित ही ये समाज को समृद्ध एवं स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ समाज को एक नई दिशा, नई सोच देने में सफल रहेंगीं तथा भोजपुरी केवल गिने-चुने प्रदेशों की नहीं बल्कि जन-जन की भाषा बनकर उभरेगी।
भोजपुरी फिल्मों की सफलता का राज भोजपुरी गीतों का माधुर्य एवं संवादों की अर्थवक्ता भी है। कई संवाद तो इतने लोकप्रिय हुये कि भोजपुरी भाषी के अतिरिक्त अन्य भाषा-भाषी को उन संवादों को बोलते थे तथा हिन्दी फिल्मों में हास्य व्यंग्य लाने के लिये उन भोजपुरी संवादों का प्रयोग किया गया।
फिल्मों में पार्श्वगायिका का महत्व किसी से कम नहीं है तथा अनेक ऐसी फिल्में हैं जिन्होंने अपने संगीत से उस फिल्म को सुपरहिट का दर्जा दिलाया। फिल्मों की काफी सफलता उसके संगीत पर निर्भर करता है। महिलाओं में शारदा सिनहा, विन्ध्यवासिनी देवी, अलका याज्ञिन, उषा मंगेशकर, हेमलता, चंद्राणी मुखर्जी, दिलराज कौर, मोनिका अग्रवाल तथा पुरूष गायकों में उदित नारायण, सुरेश वाडेकर, मनोज तिवारी, बालेश्वर इत्यादि का योगदान सर्वविदित है।
इन भोजपुरी फिल्मों की कहानी हमारी कहानी है। हमारे समाज की कहानी है। समाज का ऐसा कोई मुद्दा नहीं जो इन फिल्मों में न दिखाया गया हो। समाज की सच्ची तस्वीर इन फिल्मों में दिखाई देती है। अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, शोषित-दलित सभी वगों से सम्बन्धित बातों, समस्याओं का चित्रण ,मानव मन की भावनाओं की सच्ची अभिव्यक्ति इन फिल्मों में है। एक साधारण व्यक्ति का दृष्टिकोण भी इन फिल्मों में मिलता है।
भोजपुरी फिल्मों के बारे में जितना भी लिखा जाये, कम ही होगा। क्योंकि लोगों का फिल्म देखने का शौख ‘लागी नाहीं छूटे रामा'' की तरह है। वास्तव में देखा जाये तो फिल्में समाज के प्रत्येक अंग को स्पर्श करती हैं, पूरे समाज से प्रभावित होती हैं तथा पूरे समाज को प्रभावित भी करती है। अतः सामाजिक चित्रपट समाज की स्थिति के ठीक-ठीक प्रदर्शक हों तभी ठीक कहे जा सकते हैं। साथ ही जन समुदाय के समक्ष उच्च आदर्शों को रखा जाना आवश्यक है इसी से समाज का अस्तित्व बना रहेगा तथा समाज सुखी एवं समृद्ध रहेगा।
भोजपुरी फिल्मों ने इन सभी विशेषताओं से तालमेल बिढाकर न केवल भोजपुरी के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है बल्कि समाज को भी संगठित एवं सुरक्षित रखने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। आज भोजपुरी भाषा संस्कृति को जो साख मिली है उसे इस स्तर तक पहुँचाने में भोजपुरी फिल्मों का योगदान निश्चित रूप से अवर्णनीय एवम प्रशंसनीय है।
क्या नदिया के पार को भोजपुरी फिल्म कह सकते हैं?
जवाब देंहटाएंतब तो गंगा जमुना भी भोजपुरी फिल्म हो जायेगी और कितनी ही फिल्में जिनमें कुछ कैरेक्टरस भोजपुरी बोलते हैं भोजपुरी फिल्मों की श्रेणी में पहुँच जायेंगीं।
सबसे पहले आपको इस तरह की लेखनी के लिए बधाई...आपने जो लिखा है वो काबिल-ए-तारीफ है...मुरली मनोहर श्रीवास्तव, पत्रकार सह लेखक, पटना
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