सामाजिक आंदोलन और पत्रकार प्रेमचंद : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य - डॉ.साताप्पा लहू चव्हाण सामाजिक आंदोलन और पत्रकारिता का संबंध सतत ...
सामाजिक आंदोलन और पत्रकार प्रेमचंद : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- डॉ.साताप्पा लहू चव्हाण
सामाजिक आंदोलन और पत्रकारिता का संबंध सतत प्रवाहमान रहा है|× पत्रकारिता का इतिहास वर्तमान जैसा ´प्रोफेशनलिज्म´ नहीं है। पत्रकारिता का इतिहास पत्रकारों के त्याग-बलिदान से अभिभूत है, इसे मानना होगा। अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीय समाज को जगाने का काम अनेक संपादकों ने किया है। जून 1931 में लिखे ×हंस-वाणी× नामक अपने संपादकीय में प्रेमचंद ने लिखा है - × देश में इस समय आर्थिक संकट के कारण, जो दशा उपस्थित हो गई हैं, उसे जल्द न सँभाला गया, तो बडे भारी उपद्रव की आशंका है। महात्मा गांधी क्रांति नहीं चाहते और न क्रांति से आज तक किसी जाति का उद्धार हुआ है। महात्माजी ने हमें जो मार्ग बतलाया है, उससे क्रांति की भीषणता के बिना ही क्रांति के लाभ प्राप्त हो सकते हैं, लेकिन एक और सरकार और उसके पिट्टू जमींदार और दूसरी और हमारे कुछ तेजदम और जोशीले कार्यकर्ता नादिरशाह बने हुए क्रांति के सामान पैदा कर रह हैं। सरकार से तो हमें शिकायत नहीं। जो चीज हमारे काम न आये, उसे नष्ट कर देना भी राजनीति का एक सिद्धांत है। शत्रु को बढते देखकर फसल को जलाना, कुओं में विष डाल देना और घास को जला देना, हरानेवाले दल की पुरानी नीति है| इसी नीति से रूसियों ने नेपोलियन पर विजय पाई थी। देश में यदि इस समय जगह-जगह उपद्रव होने लगें, तो स्वभावतः जनता का ध्यान लक्ष से हटकर घरेलू झगडों की ओर चला जायगा और स्वराज्य की नौका मंझधार में चक्कर खाने लगेगी।× कहना आवश्यक नहीं कि प्रेमचंद इतिहास के प्रखर चिंतक थे। सामाजिक आंदोलनों का अध्ययन करते समय स्वतंत्रता पूर्व के पत्रकार और पत्रकारिता का सच सामने आता है। संपादक और मालिक देानों ही उच्च आदर्शों और सिध्दांतों के प्रति प्रतिबद्ध होकर अखबार का प्रकाशन करते थे। हिंदी पत्रकारिता के संदर्भ में देखा
जाय तो युगप्रवर्तक पत्रकारों की लंबी सूची उपलब्ध है। उनमें युगल किशोर शुक्ल, बालकृष्ण भटरूट, केशवराम भटरूट, बालमुकूंद गुप्त, मुंशी प्रेमचंद, बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य शिवपूजन सहाय, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, सर्यूकांत त्रिपाठी निराला, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद व्दिवेदी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, कृष्णदत्त पालीवाला, महात्मा गांधी, प्रतापनारायण मिश्र, मदन मोहन मालवीय, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि प्रमुख पत्रकारों का सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
डॉ.अर्जुन तिवारी कहते हैं - × इतिहास मानव-जीवन के संघर्षों और उपलब्धियों का अभिलेख है जो विगत को प्रकट करता है तथा उसकी लोकहित में व्याख्या करता है| यह राजनीति की पाठशाला और समाज नीति का साधन है। पूर्व गौरव को अक्षुण्ण रखने के निमित्त इतिहास का अवलोकन अत्यन्त उपादेय है। पत्रकारिता, संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी है। जन-भावना की अभिव्यक्ति, सद्भावों की उद्भूति और नैतिकता की पीठिका को ही पत्रकारिता कहा जाता है जिसके द्वारा -ज्ञान-वि-ज्ञान को जानकर हम अपने बन्द मस्तिष्क खोलते है। जीवन एवं जगत सम्बन्धी सत्य का अन्वेषण तथा समय की सहज अभिव्यक्ति पत्रकारिता और इतिहास दोनों का अमीष्ट होता है।× कहना आवश्यक नहीं कि पत्रकारिता और इतिहास दोनों का एक दूसरे के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान परिलक्षित होता है। भारत के सामाजिक आंदोलनों का इतिहास देखा जाए तो इसमें पत्रकारों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। ×प्रेमचंद समाज सें समता लाने के लिए हर संभव प्रयास करने को तैयार थे।× आधुनिक भारत में ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों ने समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किया जिसके खिलाफ सशक्त प्रतिरोध हुए। पत्रकार प्रेमचंद ने ´हंस´ के माध्यम से ब्रिटिश सरकार का प्रखर विरोध किया हुआ
परिलक्षित होता है| पत्रकार के रूप में प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन के साथ-साथ
विभिन्न सामाजिक आंदोलनों को एक नई दिशा दी। 10 मार्च 1930 को प्रेमचंद ने ´हंस´ का प्रकाशन कर राष्ट्रीय आंदोलन में स्वातंत्र्य सेनानी की भूमिका का निर्वाह किया। 10 मार्च 1930 के अपने पहले संपादकीय में प्रेमचंद लिखते हैं - × युवक नई दिशाओं का प्रवर्तक हुआ करता है| संसार का इतिहास युवकों के साहस और शौर्य का इतिहास है। जिसके ह्दय में जवानी का जोश है, यौवन की उमंग है, जो अभी दुनिया के धक्के खा-खाकर हतोत्साह नहीं हुआ, जो अभी बाल-बच्चों की फिक्र से आजाद हैं अगर वही हिम्मत छोडकर बैठे रहेगा तो मैदान में आयेगा कौन ? फिर, क्या उसका उदासीन होना इन्साफ की बात है ? आखिर यह संग्राम किस लिए छिडा है ? कौन इससे ज्यादा फायदा उठावेगा ? कौन इस पौधे के फल खावेगा ? बूढे चंद दिनों के मेहमान हैं। जब युवक ही स्वराज्य का सुख भोगेंगे तो क्या यह इंसाफ की बात होगी कि वह दबके बैठे रहे। हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, कि वह गुलामी में खुश हैं और अपनी दशा को सुधारने की लगन उन्हें नहीं है| यौवन कहीं भी इतना बेजान नहीं हुआ करता। तुम्हारी दशा देखर ही नेताओं को स्वराज्य की फिक्र हुई है। वह देख रहे है, कि तुम जी तोड़कर डिग्रियाँ लेते हो , पर तुम्हें कोई पूछता नहीं, जहाँ तुम्हें होना चाहिए, वहाँ विदेशी लोग डटे हुए हैं। स्वराज्य वास्तव में तुम्हारे लिए है, और तुम्हें उसके आन्दोलन में प्रमुख भाग लेना चाहिए।× कहना आवश्यक नहीं कि युवक और संपूर्ण युवाशक्ति ही प्रत्येक आंदोलन में आवश्यक होती है। चाहे राजनीतिक आंदोलन हो या सामाजिक आंदोलन युवाओं को जागृत करना आवश्यक होता है।
पुरानी रूढ़ियों और ढकोसलों का पुराना, सडा गला ठूँठ जड-मूल से उखाड फेंकने के लिए युवाओं की आवश्यकता को पत्रकार प्रेमचंद ने आवश्यक माना है। सामाजिक आंदोलनों के शिवाय सामाज निर्माण की प्रक्रिया ही अधूरी सी दृष्टिगोचर होती है। नवीन सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने के सामूहिक प्रयास के रूप में सामाजिक आंदोलन को देखा जा सकता है। पत्रकार प्रेमचंद प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित करना चाहते थे। सामाजिक आंदोलन के दौरान संरचनात्मक परिवर्तन हो बहुसंख्यांक व्यक्ति मिलकर सामाजिक व्यवस्था को बदले और समाज में मौलिक परिवर्तन हो, यही विचार पत्रकार प्रेमचंद व्दारा लिखे संपादकीय में प्राप्त होते हैं।
IAS संस्थान दिल्ली के निदेशक एवं सिविल सेवा दृष्टिकोण पत्रिका के संपादकीय सलाहकार श्री.शैलेन्द्र सेंगर कहते हैं - ×सामाजिक आंदोलन इस दृष्टि से एक विद्या है, जिसमें सुविधाविहीत वर्ग व्दारा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए किया जानेवाला सामूहिक प्रयास होता है।× इन्हीं सामूहिक प्रयत्नों का जिक्र स्वतंत्रतापूर्व काल में अपने संम्पादकीय में पत्रकार प्रेमचंद ने किया हुआ परिलक्षित होता है। कामगार आंदोलन, कृषक आंदोलन, नारीवादी आंदोलन, उपभोक्ता आंदोलन, शांति आंदोलन, पर्यावरण आंदोलन, मानव अधिकार संबंधी आंदोलन हो सभी आंदोलनों का उ÷ेश्य सामाजिक होता है। कहना सही होगा कि सामाजिक आंदोलन की शुरूवात किसी ऐतिहासिक परिवर्तन के संदर्भ में होती है। प्रेमचंद ने अपने संपादकीय में सामाजिक आंदोलन को बहुआयामी सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में देखा है।
व्ही.हर्नर ने बाताए हुए सुधार आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन, प्रतिक्रियावादी आंदोलन, अभिव्ेांजक आंदोलन और नवसामाजिक आंदोलन आदि का जिक्र पत्रकार प्रेमचंद के अनेक लेखों में पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। भारतीय सामाजिक विकास का विस्तार के साथ बयान करते हेतु प्रेमचंद ने आगे प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान, आदि महत्त्वपूर्ण उपन्यास भी लिखे परंतु पत्रकार के रूप में प्रेमचंद ने किया लेखन आज भी सामाजिक आंदोलनों का पूरा इतिहास सामने रखता है। इसे नकारा नहीं जा सकता। मई 1931 में लिखे संपादकीय ×हंस-वाणी× में प्रेमचंद ने अग्रेंज सरकार की ×दमन× नीति पर लिखा प्रहार किया है| भारतीय इतिहास में स्वतंत्रतापूर्व काल में अंग्रेज सरकार पर ऐसा प्रहार करने वाले पत्रकारों में प्रेमचंद का नाम अग्रणी है इसे मानना होगा।
प्रेमचंद अपने संपादकीय में लिखते है - × हमारी सरकार दमन-नीति के व्यवहार में सबसे बाजी लिए जा रही है। और यह कौन कह सकता है, कि वह गलती पर है। पुरानी कहावत है कि मार के आगे भूत भागता है। आखिर आंदोलन करने वाले आदमी ही तो है। मार्शल लॉ से जेलखाने में बंद करके सरकार उन्हें चुप कर सकती है , मगर जैसा जर्मनी के प्रिन्स बिस्मार्क जैसे पशुबलवादी को भी स्वीकार करना पडा था कि ×संगीन से तुम चाहे जो काम ले लो, पर उस पर बैठ नहीं सकते।× हमारी सरकार दमन के व्यवहार से चाहे जाति को चुप कर दे, पर उसे शांत नहीं रख सकती। उसके लिए दोनों रास्ते खुले हुए हैं। एक तो प्रजा की शांति और दूसरी अशांति।× प्रेमचंद की उपर्युक्त फटकार का नमूना अंग्रेज सरकार को सोचने पर मजबूर कर देती है। प्रेमचंद ने सामाजिक आंदोलनों के ´ तटस्थ ´ रूप में नहीं दिखायी है और वे तटस्थ संपादक नहीं थे। वे सामाजिक आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन को एक साथ ले जाना चाहते थे। उनकी पत्रकारिता पाखंड धूर्तता, अन्याय आदि से घृणा करना सिखाती है। किसी सामाजिक आंदोलन के निर्माण में पत्रकारिता का कितना बड़ा हाथ रहता है, प्रेमचंद इस बात को जानते थे| इसलिए वह सामाजिक आंदोलनों की कद्र करते थे| सामाजिक आंदोलनों में एक संपादक के नाते ही नहीं एक आम आंदोलक के रूप में सहभागिता दर्ज करते पत्रकार प्रेमचंद वर्तमान समय में अधिक प्रासंगिक लगते है|
हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं - ×प्रेमचंद कथाकार ही नहीं थे, पत्रकार भी थे| भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद तक हिंदी-साहित्य की परंपरा में यह बात ध्यान देने की है कि हमारे सभी बडे साहित्यकार पत्रकार भी थे| पत्रकारिता उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी| यह पत्रकारिता एक सजग और लडाकू पत्रकारिता थी, जो देश-विदेश के घटना क्रम में दखल देती थी, जनता के जीवन और साहित्यकार के परस्पर संबंध को मजबूत करती थी× कहना आवश्यक नहीं कि प्रेमचंद ने ´हंस´ के माध्यम से भारतीय मध्यवर्गीय ग्रामीण-जीवन की विषम स्थितियों को पाठकों के सामने रखा। तत्कालीन यथार्थ तथ्यों का विश्लेषण कर भारतीय जनता को सामाजिक आंदोलनों के लिए संघर्ष करने का मौलिक मार्गदर्शन किया। पत्रकार के रूप में प्रेमचंद का प्रभाव समाज के सभी स्तरों में परिलक्षित होता है| पत्रकार प्रेमचंद ने भारतीय समाज की समस्याओं का गहरा अध्ययन किया हुआ परिलक्षित होता है| प्रेमचंद सदैव नारी-जाति के अधिकार के प्रति सजग रहें। वे चाहते थे कि स्त्री-पुरूष के लिए समान अधिकार का प्रावधान हो| प्रेमचंद स्त्री-पुरूष के बीच के तमाम भेदों को मिटना चाहते थे। स्वयं उन्हीं के शब्दों में - × 1. एक विवाह का नियम स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए समान रूप से लागू हो| कोई पुरूष पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह न कर सके। 2.पिता की संपत्ति पर पुत्रों और पुत्रियों का समान अधिकार हो।×
फरवरी 1931 के ´हंस´ में प्रकाशित पत्रकार प्रेमचंद के उपर्युक्त विचार आज भी प्रासंगिक हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। समाज की समस्याओं का हल ढूँढते-ढूँढते प्रेमचंद दृढ़ हो गए थे। प्रेमचंद की धारणा थी कि एक मामूली मजदूर के जीवन में भी साहित्य के महत्त्वपूर्ण विषय निहित होते हैं। ऐसे विषयों को समझने के लिए समाज में गहराई से दृष्टि डालनी पड़ती है। संघर्षशील मजदूर और साहित्यकारों के श्रम पर विश्वास कर प्रेमचंद ने ´हंस´ का संपादन कुशलता से कर सामाजिक आंदोलनों को अधिक गतिमान बनाया। पत्रकार प्रेमचंद का सारा परिवार विभिन्न आंदोलनों से जुड़ा था। हिंदी के विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं - ×हंस के छह अंक निकल चुके। सितंबर और अक्तूबर में प्रेस और पत्रिका जमानत माँगे जाने के कारण बन्द पड़े रहे। प्रेस के ऑर्डीनेंस उठ जाने पर फिर निकले है। मेरी पत्नी जी पिकेटिंग के जुर्म में दो महीने की सजा पा गई। कल फैसला हुआ है। इधर पन्द्रह दिन से इसी में परेशान रहा। मैं जाने का इरादा ही कर रहा था, पर उन्होंने खुद जाकर मेरा रास्ता बंद कर दिया।×
कहना सही होगा कि प्रेमचंद ने जागरूक नागरिक की भूमिका का भी निर्वाह किया तथा भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के साथ-साथ किए जाने वाले अहिंसा मूलक आंदोलनों में ´हंस´ के माध्यम से सक्रिय रूप में भाग लिया। अपने अदम्य साहस और तेजस्वी व्यक्तित्व के कारण प्रेमचंद को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रताड़ित एवं संत्रस्त किया गया। फिर भी प्रेमचंद ने परिवेशगत अवरोधों को लाँघकर जूझारूपन से सामाजिक आंदोलनों में अपनी उपस्थिति दर्ज की। ऐतिहासिक दृष्टिकोन से ´हंस´ का श्रीगणेश ही उस समय हुआ था, जबकि देश पराधीन था और राष्ट्रीय चेतना के जागरण से प्रेरित मनीषी स्वतंत्रता-आंदोलन के भूमिका का निर्माण कर रहे थे। अतः प्रेमचंद को हिंदी-पत्रकारिता की संघर्ष-यात्रा का एक समर्थ सेनानी मानना होगा।
हिंदी पत्रकारिता का जो परिवेशगत स्वरूप आज परिलक्षित होता है, उसमें, उनका योगदान आधारभूत रूप में महत्त्व रखता है। ´हंस´ के माध्यम से प्रेमचंद ने समय-समय पर शासन की अन्यायपूर्ण नीति के निर्भीक विरोध के समानांतर ही विभिन्न सामाजिक कुरीतियों का भी निर्मूलन कर सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता हेतु जन-आवाहन किया| डॉ.रामविलास शर्मा कहते हैं - ×सामाजिक प्रगति में विभिन्न समाजों की स्थिति एक सी नहीं है। विषम सामाजिक स्थितियों वाला यह भारत वर्तमान व्यवस्था को बदलकर समाजवादी व्यवस्था की ओर बढने के लिए प्रयत्नशील है। वर्तमान व्यवस्था राष्ट्रीय प्रयत्न से, आगे बढी हुई और पिछडी हुई जातियों के सम्मिलित प्रयत्न सें , इन जातियों के श्रमिक निर्धन जनों के सहयोग से ही बदली जा सकती है, तथा नई समाजवादी व्यवस्था कायम की जा सकती है और उसकी रक्षा की जा सकती है, इस देश में जितना ही जातियों के बीच वैषम्य रहेगा, उनकी आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों में भेद रहेगा, उतनी ही राष्ट्रीयता कमजोर होगी|× प्रेमचंद इस बात से बखूबी परिचित थे।
प्रेमचंद ने धार्मिक, अध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों के खंडन-मंडन की प्रवृत्ति को आधार बनाकर ´हंस´ में समय-समय पर धार्मिक पाखंडियों के लिखाफ लड़े जा रहे विभिन्न आंदोलनों को बल देने के लिए सामग्री का संपादन कर धार्मिक परिवेश में उठे बवंडर पर तीखा प्रहार किया। कहना आवश्यक नहीं कि पत्रकार प्रेमचंद ने धार्मिक आंदोलन को भी सही मार्गदर्शन किया।
यह कहना गैरजरूरी हैं कि नियोजित और प्रेरित सामाजिक परिवर्तन का मुख्य बल परम्परागत सामाजिक आधारों को ढहाने पर है, और उनकी जगह धीरे-धीरे समाज संगठन के उन सिद्धांतों और व्यवहारों को स्थापि करने पर है जो आधुनिकीकरण के अनुष्ठान के अंतर्गत आते है। पत्रकार प्रेमचंद इस बात से परिचित थे। अतः प्रेमचंद ने परंपरागत तरीकों के आमूल बदलाव की दिशा में संकेत दिया है। ×गरीबी, विषमता, पक्षपात, दलितों और वंचितों पर आधिपत्य और उनका शोषण। धनियों और ताकतवरों के गठबंधन के द्वारा गरीबों और कमजोरों के जायज हक भी छीने जा रहे हैं। जिन्दगी का मतलब है कठिन परिश्रम, अविराम, कठोर और प्रतिफल रहित श्रम। दलितों में अज्ञान और फूट है जिससे गरीबों और कमजोरों की तंगहाली-कंगाली और भी बढती है।× प्रेमचंद अपने संपादकीय ×हंस-वाणी× के माध्यम से इसी स्थिति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में सफल हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं के वर्णन के साथ प्रेमचंद ने समसामयिक परिस्थितियों का अध्ययन कर सामाजिक आंदोलनों के इतिहास की पुनर्व्याख्या करने का साहस किया, इसे नकारा नहीं जा सकता। अमरेंद्र कुमार सही कहते हैं - ×प्रेमचंद ने अपनी संपादकीय टिप्पणियों के माध्यम से विचारों के नये गवाक्ष खोले हैं। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और जीवन के विभिन्न पक्षों पर सत्य का संधान करते हुए प्रकाश डाला है। हर स्थान पर प्रेमचंद के स्वर में नैतिकता और मानवता है। वे मनुष्य की सद्प्रवृत्तियों में आस्था रखते थे। यह मानते थे कि मनुष्य की सद्प्रवृत्तियों में सुधार हो सकता है, वह बुरा नहीं होता। उसमें क्षुद्रताएँ भी हो सकती हैं, लेकिन उन क्षुद्रताओं को नजर अंदाज करके उसके महतरू रूप का दिग्दर्शन कराया जा सकता है।×
प्रेमचंद ने पत्रकारिता के संपूर्ण जीवन में अपने आप को सामाजिक आंदोलनों से जुडा रखा। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेमचंद ने शासन सत्ता और जनजीवन के बीच फैले ´सन्नाटे´ को समझा, परखा और अपने संपादकीय के माध्यम से समाज तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। प्रेमचंद ने प्रगतिशील विचारों को बखूबी समाज तक पहुंचाकर एक विशाल आंदोलन की नींव डाली, इसे मानना होगा। सुदर्शन नारंग जी के विचार दृष्टव्य हैं - × लोकतांत्रिक प्रणालीवाले किसी भी देश में बल्कि किसी भी शासन प्रणाली के अंतर्गत उपलब्ध होनेवाली स्वाधीनता, विशेषाधिकार, सुविधायें वहां के नागरिकों का जन्मसिद्ध अधिकार होती है।
सरकारें, हमेशा बदलती रहती हैं , स्वयं लोगों व्दारा बनाई गई होती हैं। अतः नागरिक के रूप में हमें जो भी सुविधायें प्राप्त हैं वह मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार होती हैं। उसके लिए नागरिक किसी भी सरकार अथवा व्यक्ति का मुहताज नहीं होती।× पत्रकार प्रेमचंद ने प्रगतिशील आंदोलन के माध्यम से नए विचारों और सर्जना की नई सोच को ×हंस-वाणी× से पाठकों के सामने रखा। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को लेकर प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण पत्रकारिता जीवन में सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय सहभाग लिया। अतः प्रेमचंद का संपूर्ण संपादकीय लेखन सामाजिक आंदोलनों को प्रेरणा देता परिलक्षित होता है। अतः कहना सही होगा कि प्रेमचंद भारतीय सामाजिक आंदोलनों के सच्चे पक्षधर थे।
निष्कर्ष :-
भारतीय सामाजिक आंदोलन और हिंदी पत्रकारिता का सिंहावलोकन करने से स्पष्ट होता है कि पत्रकार प्रेमचंद ने अपने संपादकीय लेखन के माध्यम से भारतीय सामाजिक आंदोलनों को नई दिशा दी। भारतीय समाज के साम्प्रदायिक नारी, दलित, किसान जैसे अनेक आंदोलनों पर पत्रकार प्रेमचंद ने गंभीरता से विचार किया हुआ परिलक्षित होता है। अत्यंत संवेदनशील और सचेत पत्रकार प्रेमचंद पर गांधी जी के विचारों का गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सामाजिक आंदोलन विषमता के कारण ही पिछड़ रहें हैं , इस पर प्रेमचंद दृढ थे।
सामाजिक विषमता को हटाकर समता और न्याय से दृढ़ समाज का निर्माण पत्रकार प्रेमचंद के संपादकीय लेखों का मूल मंत्र था। अपनी ×हंस-वाणी× अधिक तीखी कर प्रेमचंद ने मंदिर प्रवेश और मंदिरों में व्याप्त भ्रष्टाचार और व्यभिचार पर प्रहार किया। इसे नकारा नहीं जा सकता। सामाजिक आंदोलनों को सफल करने हेतु प्रेमचंद ने इन आंदोलनकारियों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया। प्रेमचंद जानते थे कि अगर आंदोलनकारी विविध समस्याओं से मुक्त नहीं होंगे तो कौन सा भी आंदोलन सफल नहीं होगा। अतः कहना सही होगा कि पत्रकार प्रेमचंद ने भारतीय सामाजिक आंदोलनों का एक कुशल संपादक के रूप में वैचारिक नेतृत्व कर सामाजिक आंदोलनों को जुझारू विचार प्रदान किया।
संदर्भ - संकेत
1. संपादक प्रेमचंद - हंस-वाणी, ´हंस´, वर्ष 1, अंक 12, जून 1931, पृष्ठ - 66
2. डॉ.अर्जुन तिवारी - हिंदी पत्रकारिता का बृहद् इतिहास, प्राक्कथन से उद्धृत
3. जितेन्द्र श्रीवास्तव - भारतीय समाज की समस्याँए और प्रेमचंद, पृष्ठ-43
4. संपादक प्रेमचंद- हंस-वाणी, ´हंस´, वर्ष 1, अंक 1, जून 1930, पृष्ठ - 64
5. शैलेन्द्र सेंगर - भारत में सामाजिक आंदोलन, पृष्ठ -26
6. संपादक प्रेमचंद - हंस-वाणी, ´हंस´, वर्ष 1, अंक 3, जून 1930, पृष्ठ - 66
7. डॉ.रामविलास शर्मा - प्रेमचंद और उनका युग, पृष्ठ- 124
8. संपादक प्रेमचंद - हंस-वाणी, ´हंस´, वर्ष 1, अंक 8, जून 1931, पृष्ठ - 68
9. संपादक मदनमोहन और अमृतराय - प्रेमचंद चिटरूठी-पत्री, पृष्ठ-10
10. डॉ.रामविलास शर्मा - भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, पृष्ठ-471
11. रामेंाय राय, राजकृष्ण श्रीवास्तव - विकास और जनचेतना, पृष्ठ - 111
12. संपादक अमरेंन्द्र कुमार - युगप्रवर्तक पत्रकार और पत्रकारिता, पृष्ठ- 31
13. सुदर्शन नारंग - सही भूमिका की खोज, पृष्ठ-17
डॉ.साताप्पा लहू चव्हाण
अधिव्याख्याता
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
अहमदनगर महाविद्यालय, अहमदनगर - 414001 (महा.)
46/180, ´पितृ छाया ´ पंपिंग स्टेशन रोड, ताठे मळा, भुतकरवाडी, सावेडी, अहमदनगर
Email - drsatappachavan @ ymail.com
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जवाब देंहटाएंSurajkumar
Dr.Satappa ji aap ne premchand ke patrakarita sambadhi vicharo se avagat karya. bhaut bar premchand ko matra upanaysakar, kathakar ke rup me hi log jante aur mante hai, aab patrakar ke rup me bhi manana aur bariki se janana hoga dhanaywad. Dr.Bhausaheb Navale
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