बस्ती तंजनिगारान बस्ती तंजनिगारान बसते-बसते बसी हुई एक बस्ती है। इसका नाम भी बाद में ही पड़ा लगता है। नगरपालिका क्षेत्र से सटी हुई है और...
बस्ती तंजनिगारान
बस्ती तंजनिगारान बसते-बसते बसी हुई एक बस्ती है। इसका नाम भी बाद में ही पड़ा लगता है। नगरपालिका क्षेत्र से सटी हुई है और शहर में शरीक होने के लिए कमर कस कर डटी हुई है। यहां हर तरह के तंजनिगार पाए जाते हैं। यहां बिजली, पानी,सड़क की किल्लत के अलावा शहरी आबादी के प्रतीक कीचड़, गंदगी, चिल्लपों,आवश्यकतानुसार सूअर,अनाथ कुत्ते वगैरह-वगैरह सब कुछ मयस्सर हैं। इसके पास ही शहर के सफाई कर्मी कचरा लाकर जमा करते हैं। शहर की नालियां यहीं आकर दम लेती हैं, अतः प्रचुर मात्रा में दुर्गन्ध, डेंगू और मलेरिया दूत विघमान हैं। ऐसे माहौल में जन्म लेकर किसी का व्यंग्यकार बनना तो तय हैं ही,अगर यहां आकर रहने वाला भी व्यंग्य लिख मारे तो कोई खास ताज्जुब की बात नहीं। हां, कोई दिलकश नगमें लिखने की सोचे तो जरुर सोचना पड़ेगा। यहां के मुकीम एक से एक बढ़-चढ़ कर है। इनके द्वारा लिखा गया व्यंग्य ही होगा, यह सोचकर ही इनका लिखा पढ़ना पड़ता है।
अगर जरा तवारीख के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि इनमें से किसी ने तो इश्क पर करारा व्यंग्य किया है, कोई दो थनी गदही का दूध निकाल चुका है तो कोई कुत्ती और सूअरी के थन गिन चुका हैं पिछले दिनों दाल के जरा से भाव क्या बढ़े लगभग सभी के सभी दाल पर ही पिल पड़े थे। कोइ दूरदराज बैठे लालू पर लाल-पीला हो चुका है तो कोई अबला जयललिता को कोसा है। किसी ने वीरप्पन, मुशर्रफ, लादेन, उमर, बुश पर अपनी कलम भांजी है। चाहे कभी भी गली के किसी टटपुंजे दादा की पुलिस थाने में रपट लिखवाने की हिम्मत न कर पाया हो, कहीं कोई ऑफिस से चुराई स्टेशनरी चुरा कर देश में बेतहाशा फैलते भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य कस रहा है तो कोई कार्यालय समय में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर सरकारी विभागों की लेटलतीफी पर व्यंग्य खेंच रहा है। किसी को कुछ भी विषय नहीं मिलता तो अपनी बीवी पर ही लिख डाला तो कोई हैलमेट, ऊपरी कमाई, बंदरिया का नाच पर ही व्यंग्य लिख बैठा। अगर गलती से किसी ने तंजनिगारों के एक से ज्यादा व्यंग्य लेख पढ़े हो तो देखा होगा कि इनके लेखों में मौजूं के अलावा कुछ नहीं बदलता ।कई कई मर्तबा तो कई को पढ़ने के बाद सोचता हूं कि जनाब क्यों लिख रहे हैं।
यहां ऐसे-ऐसे महारथी वास करते हैं कि जिनके व्यंग्य लेख निबंधों, ललित लेखों के स्वाद से भी सराबोर होते है। जरा आप ही सोचिए कि भ्रष्टाचार, आंतकवाद, पारदर्शिता, राजनीति और शराफत जैसे शोध के मौजूआत पर तंज करना कितना लाजिमी है? मुहावरों का मिसयूज, उल्टा-पुल्टा वाक्य विन्यास, कुविशेषण ही यहां तंज में शुमार होते हैं। मगर इस बस्ती वाले हैं कि बस, कौन समझाए इन्हें, अगर आप समझाने जाएं तो प्राथमिक उपचार का सामान अपने साथ ले जाएं।कभी- कभार तो इनका महज नाम और मेहनताने के लिए लिखा गया व्यंग्य खुद व्यंग्य लेखक पर ही पर ही प्रहार करता मालूम होता है और सब तो ठीक-ठाक चलता रहता है,मगर ये किसी एक अपना सरदार मानने में आज तक एक राय नहीं हो पाए हैं। उम्ररशीदगी के बिना किसी एक को सरदार चुनने का मसविदा इस दलील के बूते पर खारिज कर दिया जाता है कि उम्र अपने आप में कोई उपलब्धि नहीं होती, उल्टा सठियाने की सनद होती है।
न किसी को लम्बे समय से लिखने की बिना पर तदर्थ आधार पर ही सरदार चुना गया ,उसने जब कभी भी हक मांगा तो कोई तव्वजो नहीं दी गयी ऊपर से पूछा गया कि कौनसा तीर मार लिया, इतने सालों में ? इसके अलावा मेहनताना सहब का बराबर है सो आधार कैसे बने ? न किसी का बड़े-बड़े लेख लिखना उसे सरदारी दिला पाया। व्यंग्य का विषय,मार्मिकता,स्थान,धार, औचित्य, स्तर और मात्रा का आधार किसी को सूझा नहीं। किसी ने अपनी एक भी रचना लौटकर न आने के आधार पर सरदारी पानी चाही तो सारे के सारे उसे हिकारत भरी नजरों से देखने लगे। किसी ने अपनी एक पुस्तक छप जाने का हवाला दिया मगर उसकी किसी ने नहीं सुनी। उसका अकादमी अध्यक्ष का साला होना भी सरदारी का आधार नहीं बना पाया। इस बस्ती तंजनिगारान में साहित्यिक गोष्ठियां भी लगभग हर रोज होती ही रहती हैं। देर रात तक भी चलती हैं। कभी अगर बहस में सभी चुप हो जाते हैं तो संभावित नीरवता को तोड़ने का काम कुत्ते कर देते हैं।
अंततः जब सबके पारे चढ़े होते हैं तो बात तू तू मैं..मैं तक पहुंच जाती है। वहां उपस्थित उम्ररशीदा लोग हाथापाई और जूतम पैजार के अंदेशे को भांप कर चलते बनते हैं। बाकी अदीब उनका अनुसरण करते हुए इस अनिर्णित सभा का विसर्जन कर देते हैं। लगता है यह मसला ‘बोन' में ही सुलझेगा। ये किसी और को तो क्या पढ़ेंगे, खुद का लिखा भी दुबारा नहीं पढ़ सकते हैं। बस धड़ाधड़ लिख रहे हैं। ये मुकीम बस्ती तंजनिगारान के।
आस पास जो बिखरा देखा,वो कागज पर लिख डाला ?
‘ पुरुषोत्तम ‘शामिल क्यों करते तुझको तंजनिगारों में ?
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कठपुतलियों की मौत
चाचा दिल्लगी दास बड़ी मातमी सी सूरत लिए मिले। अपने हाथ में थामी एक कठपुतली की जानिब इशारा करते हुए सहानुभूति भरे स्वर में बोले कि ये तो मुझे एक कचरे के ढेर में मिली थी पता नहीं कौन बेरहम इसे फेंक गया होगा। भतीजे ये कठपुतली है अगर तुम इसके बारे में कुछ जानते हो तो तुम्हें यह भी मालूम होगा कि इसका अपना कोई वजूद, वर्तमान,इतिहास,भविष्य,परिचय, स्वाभिमान, मति वगैरह कुछ नहीं होता। इसकी तो सिर्फ और सिर्फ नियति होती है अपने आका के इशारों पर नाचने की।
चाचा ने जरा क्रोध मिश्रित दुखः के साथ कहा कि कई मर्तबा अनाड़ी टाइप के लोग सियासी पुतलियों को कठपुतली की तमाशबीन दे बैठते हैं जो सरासर बेइज्जती है इन बेजान, निःस्वार्थी, दिलपसंद, तमाशाबीन की पेट पालक, निरीह काठ की पुतलियों की। क्योंकि भले ही इन कठपुतलियों के रीढ़ खम्ब नहीं होता, मगर इसकी जगह जो पतली सी लकड़ी होती है वो इस कदर अड़ियल होती है कि टूट भले ही जाए मगर इसे झुकना कभी गवारा नहीं होता। इसके अलावा जितना सच यह है कि कठपुतलियां दूसरों के इशारों पर नाचती है उतना सच यह भी है कि इनको किए जाने वाले इशारों की भी एक हद होती है, एक क्रम होता है,इशारे मुत्तफिक होते हैं वरना तमाशाबीन का जरा सा इशारा चूका नहीं कि कठपुतली उसका बना बनाया सारा खेल बिगाड़ देती है। कठपुतलियां अपने आका से नहीं डरती, उल्टा आका उनसे डरता है। मगर सियासी पुतलियों में ये कुव्वत कहां! कठपुतलियां मरती भी है चाचा ने बुदबुदाते हुए कहा। हां इतना जरुर है कि सियासती पुतलियों की बनिस्वत कठपुतलियों की उम्र काफी ज्यादा होती है।
एक तमाशबीन मजमा समेटने के बाद अपनी कठपुतलियों को बड़ी नफासत से अपने पिटारे में रखता हैं। वो उन्हें तब तक नहीं फैंकता जब तक कि उन्हें मरम्मत कर इस्तेमाल न किया जा सके। जबकि सियासती पुतलियों को कचरे के डिब्बे के हवाले करने का कोई कारण नहीं होता, सिर्फ आका की मर्जी पर निर्भर होता है। मगर एक तमाशबीन अपनी कठपुतली को फैंकता भी है तो बड़े अनमने भाव से। क्योंकि उसे रोजगार का आधार,सुख दुख का साथी रही कठपुतली के साथ काफी अपनापन हो चुका होता है,सो वो उसे कभी फैंकता है तो काफी दुखः होता है मगर सियासी कठपुतलियों की मौत का कोई मातम नहीं करता। काठ की पुतलियों को बनाने में जो थोड़ा बहुत सामान लगता है उसकी भी कुछ न कुछ कीमत होती है मगर सियासी पुतलियां फिर भी कठपुतलियों की तुलना में सस्ती पड़ती है । सियासी पुतलियों को सिर्फ छांटना पड़ता है जबकि कठपुतलियों को बनाना पड़ता है जो कि एक हूनर का काम है। कई कठपुतलियां तो एंटीक्स में शुमार होकर संग्रहालयों में बड़ी शान से रहती है कि उनकी सही-सही कीमत आंकना मुश्किल सा हो जाता है मगर बेचारी इन सियासी पुतलियों के नसीब में ये सब कहां।
चाचा ने अपने हाथ में थमी कठपुतली को बड़ी शान व नफासत के साथ लठ्ठे की बनियान की जेब के हवाले किया और बोले कि कपूत ये काठ की पुतलियां सियासी पुतलियों की तरह बाजार में सरेआम नहीं बिका करती। उन्होने बिकना तो शायद सीखा ही नहीं इसे तुम इनकी खूबी समझो या नुक्श तुम्हारी समझ हां, एक बात और कोई इन कठपुतलियों जैसा व्यवहार कर सकता है मगर कठपुतलियां किसी का अनुसरण कभी नहीं करती। इसके मद्देनजर में दावे के साथ कह सकता हूं कि इन कठपुतलियों की हैसियत और सियासी पुतलियों की औकात की तुलना यकीनन बेमानी होगी।
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कौन बनेगा बलि का बकरा
चाचा दिल्लगी दास अखबार पढ़ते वक्त अक्सर कलम हाथ में रखा करते है और खास खबरों की खुशूसन पंक्तियों को अण्डर लाइन करते हैं। आज जब मैं उनके पास गया तो देखा कि ‘बलि के बकरे' उन्वान के नीचे कई गहरी-गहरी रेखाएँ खींच रखी थी। दुआ सलाम के बाद बोले कि बरखुरदार लोक परम्पराओं में जहाँ बलि का अर्थ है किसी कुपित देवता को खुश करने की गरज से उपहार, भेंट,नैवेध,चढ़ावा स्वरुप पशु वध करना, वही राजनीति में बलि का मतलब है कि जब किसी मोहरे या बादशाह को शह लगने की नौबत आ जाए तो मात से बचने के लिए किसी पैदल को मरवा देना। राजनीति में बलि सिर्फ संकट के समय ही दी जाती है, वहीं लोक मान्यताओं में खुशी का इजहार भी बलि देकर किया जा सकता है। लोक परम्पराओं में बकरी की बलि निषिद्ध है, लेकिन राजनैतिक बलि में बकरे-बकरी में फर्क नहीं किया जाता।
चाचा ने अपनी मालूमात मजीद बयां करते हुए कहा कि मैंने कई मर्तबा बकरों को बलि चढ़ते हुए देखा है। बकरे को बलि चढ़ाने से पूर्व खूब खिलाया पिलाया जाता है। अगर बकरा चोरी छुपे भी कुछ खा पी लेता है तो पता होते हुए भी उसे खाने दिया जाता है। कई लोग तो कई-कई बकरे पालते हैं। वक्त की नजाकत के मुताबिक छोटे-बङे बकरों में से एक बकरा मुन्तखिब कर जिबह कर दिया जाता है। अलबत्ता कुर्बानी से पहले बकरे के तमाम नाज नखरे उठाए जाते है।
कई मर्तबा तो बकरे मालिक या मालिक के करीबी लोगों को ‘भेंटी‘ तक मार देते हैं। तब तक बकरे को भी पता नहीं होता कि एक दिन उसको हलाल होना है। हाँ उसकी माँ को जरुर इल्म होता है कि उसका किसी भी दिन झटका हो सकता है। आम तौर पर जब किसी बकरे की बलि दी जाती है तो किसी को भी उस बकरे पर तरस नहीं आता। यहाँ तक कि बकरे की बिरादरी में से बलि चढ़ने से रह गए बाकी बकरों को भी बलि चढ़ने वाले बकरे से कोई सहानुभूति नहीं होती। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि आज तक बकरों ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। बकरे शुरु से ही झुण्ड में रहते आए है मगर बावजूद इसके वो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की तरह एक-दूसरे से वाकिफ तक नहीं होते। इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि बलि चढ़ने के बाद बकरा कोई प्रेस-नोट देने के काबिल नहीं रह जाता या फिर बकरों ने यह स्वीकार कर लिया है कि उनकी पैदाइश ही इसीलिए हुई है कि बलि चढ़ना ही जैसे उनकी अंतिम नियति हो।
चाचा ने उठते हुए कहा कि रवायती व सियासती दोनों ही प्रकार की बलियों में बकरे को ही शहीद का दर्जा नहीं मिलता। बाज मौकों पर तो बकरा अपनी जान से गया और मालिक को मजा ही नहीं आया, वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। लोक परम्पराओं में बलि चढ़ाने से पूर्व बकरे को खूब नहलाया धुलाया जाता है, उसके सिर पर कुंकुम, रोली आदि लगाई जाती है, गाजे बाजे के साथ बलि स्थल तक ले जाया जाता है, फिर बाकायदा एक चौकी पर खड़ा करके मंत्रोच्चार के साथ उसकी गर्दन पर तलवार चलाई जाती है या कई बार तो औपचारिकता के तौर पर बकरे के कान काटकर ही काम चला लिया जाता है, उसे जांबाक नहीं किया जाता। मगर राजनीतिक क्षेत्र में तो बिना हील हुज्जत के बकरे की गर्दन पर छुरी चला दी जाती है।
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छा गये चचा दिल्लगी दास
जवाब देंहटाएंaapke wang bahot ache lage aapke `1 lekh dwara jalna ke logo ko netawo ko aade hato lene ka pryas kar rha hu;;;;;;;;;;;;;;;;;
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