अमरीक सिंह दीप की कहानी : हैंगओवर

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कहानी हैंगओवर अमरीक सिंह दीप वरिष्‍ठ कथाकार अमरीक सिंह दीप का जन्‍म 5 अगस्‍त, 1942 (कानपुर) में हुआ. ‘कहां जाएगा सिद्धार्थ' ‘का...

कहानी

हैंगओवर

अमरीक सिंह दीप

अमरीक सिंह दीप amreek singh deep

वरिष्‍ठ कथाकार अमरीक सिंह दीप का जन्‍म 5 अगस्‍त, 1942 (कानपुर) में हुआ. ‘कहां जाएगा सिद्धार्थ' ‘काला हांडी', ‘चांदनी हूं मैं', ‘सिर फोड़ती चिड़िया' (कहानी-संग्रह), ‘आज़ादी का फ़सल' (लघुकथा संग्रह), ‘बर्फ़ का दानव', शाने पंजाब व ऋतु नागर', (पंजाबी से अनूदित कहानी-संग्रह) प्रकाशित. सौ से अधिक कहानियां सारिका, हंस, नया ज्ञानोदय, पुनर्नवा, पहल, वसुधा, वागर्थ, कथाक्रम, आउटलुक, जनसत्ता, साक्षात्‍कार, पाखी, पश्‍यन्‍ती, कला, मुहिम व अन्‍य श्रेष्‍ठ साहित्‍यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित. कथाभाषा द्वारा आयोजित अखिल भारतीय सर्वभाषा प्रतियोगिता में ‘बेस्‍ट वर्कर' कहानी प्रथम पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत.

संप्रति, स्‍वतंत्र लेखन. संपर्क ः फ्‍लैट नं. 101, गोल्‍डी अपार्टमेंट, 119/372 बी. दर्शन पुरवा, कानपुर-208012

शाम से ही बातों में मशगूल हैं वे. बातों का लहण पता नहीं कब से दोनों के भीतर की धरती में दबा पड़ा था. आज मौका मिलते ही यह लहण साथ की भटटी में चढ़कर शराब की-सी शक्‍ल अख्‍़तियार कर बाहर आ रहा है. जैसे-जैसे वक़्‍त गुज़र रहा है बातों का नशा तीखा होता जा रहा है. अभ्‍यंतर के समस्‍त रिक्‍त कोषों में भरता जा रहा है. रोम-रोम में रचता जा रहा है. उसे लग ही नहीं रहा कि कुर्सी पर शीरीं बैठी है. यूं लग रहा है कुर्सी पर एक उज्‍ज्‍वल कोमल एहसास बैठा हुआ है। जो शरीर नहीं सिर्फ होंठ हैं...संवादरत हो गुलाबी अधर। याकिबातों का दो गुलाबी अधरों से गिरता उज्‍ज्‍वल-धवल जलप्रपात, जिसकी फेनिल शुभ्र-श्‍वेत धुंध ने उसे अपने रहस्‍यमयी आगोश में जकड़ रखा है.

फरवरी महीने के अंतिम दिनों की ठंडी स्‍याह रात दरवाजे की दहलीज के पास चुपके से आकर खड़ी हो गई है. आंगन में खड़े हरसिंगार से फूल यूं झर रहे हैं जैसे उन्‍होंने महक की मदिरा पी रखी हो. कुर्सी के पास ही डबलबैड पर वह बैठा है. आलथी-पालथी मारकर. जांघ पर टिकी दाईं कोहनी के दूसरे छोर पर मौजूद खुली हथेली पर ठुडडी टिकाए. शुभ्र श्‍वेत एहसास के रंग में रंग कर स्‍वयं भी एक आलोकमयी कोमल अनुभूति में बदला.

शीरीं ने लाल, नीली व हरी कतरनों के से डिजाइन की वायल की मस्‍टर्ड कलर की साड़ी पहन रखी है. लाल रंग के ब्‍लाउज के साथ. देह से लिपटे रंगों के इस आबशार से उसकी देहगंध आम के बौर-सी झर रही है पूरा कमरा महमहा रहा है, पर बातों का नशा ज्‍यादा तीखा है. शीरीं की आम के बौर-सी देहगंध उस पर हावी नहीं हो पा रही.

शीरीं ने अपने जीवन के एक और प्रसंग का जाम ढालना शुरू किया, ‘जानते हो वसु, खरगोश मुझे सदा से ही हांट करते रहे हैं. उन्‍हें देखकर महसूस होता है जैसे धरती के सीने में कोई उजला रेशमी एहसास पल रहा हो.

एक बार जब मैं धरती के सीने में पलने वाले इस कोमल रेशमी एहसास को अपनी गोदी में भरने की प्रबल लालसा को जब्‍त नहीं कर पाई तो मैं जिद पर उतर आई थी, ‘प्रत्‍यूष, मुझे खरगोश पालने हैं. मुझे अभी इसी वक़्‍त खरगोश लाकर दो नहीं तो ...

मेरी ‘नहीं तो' से प्रत्‍यूष डर गया था. शाम को न जाने कहां से एक जोड़ा खरगोश का लेकर ही लौटा था. उन्‍हें लेकर मैं यूं मग्‍न हो गई थी जैसे वे मेरी कोखजायी संतान हों. फीडिंग बाटल से दूध पिलाने से लेकर उनकी पॉटी साफ करने, उनको नहलाने-धुलाने, उनकी भूख, प्‍यास, नींद, स्‍वास्‍थ्‍य और सुरक्षा हर बात का ख्‍याल एक फिक्रमंद मां की तरह करती थी.

रात को लव लवी, यही नाम रखा था मैंने उन दोनों का, मेरे बिस्‍तर में मेरे पहलू में दुबक कर सोते थे. एक दिन मैं उन दोनों को कमरे में बंद कर गली के मोड़ तक सब्‍ज़ी लेने गई थी. भूल से जल्‍दबाजी में कमरे की खिड़की का एक पल्‍ला खुला रह गया था. एक काली बिल्‍ली न जाने कब से ताक में थी. मेरे घर से बाहर होते ही खिड़की का पल्‍ला खुला देखकर वह अपने शिकार पर टूट पड़ी थी. लौटी तो कमरे में खून ही खून था और लव और लवी का कोई पता नहीं था. पागलों की तरह मैंने पूरा घर और आस-पड़ोस खूंद डाला था, पर हाय मेरे लव-लवी ... मेरी धरती के सीने में धड़कते शुभ्र श्‍वेत कोमल रेशमी एहसास ... ' पहले हिचकियां, फिर आंसुओं का सैलाब. शीरीं रो रही है. फूट-फूट कर. जारो कतार.

सुवास की जान सूख गई है. पता नहीं कैसे वह आंसुओं के भंवर में छलांग लगा शीरीं को खींचकर किनारे ला पाया. हद बेहद भावुक, संवेदनशील और नाजुक मिज़ाज़ है शीरी. एकदम बाज़ार में मिलने वाली पतले पारदर्शी कांच से बनी रंगीन पानी से भरे खिलौना बत्तखों की तरह. चंद ही मुलाक़ातों के बाद उसने फतवा जारी कर दिया था, ‘कांच के सामान जैसी हो तुम. तुम्‍हारे गले में तो ‘हैंडिल विद केयर' की तख्‍ती लटकी होनी चाहिए.'

शीरीं को सुवास आंसुओं के भंवर से किसी तरह बाहर खींच तो लाया पर अब सर्दी की इस ठंडी रात में उसके माथे पर चुहचुहा आए पसीने को देखकर डर गया, ‘शिरू तुम्‍हारे हाथ-पांव क्‍यों ठंडे हो रहे हैं? तुम्‍हारे माथे पर पसीना क्‍यों आ गया है?' ‘लगता है, आज फिर ब्‍लड प्रेशर लो हो रहा है मेरा. सीने में दबा दर्द जब अपनी हदें पार कर जाता है तब अक्‍सर लो ब्‍लडप्रेशर का दौरा पड़ जाता है मुझे.' शीरीं के बात करने के अंदाज़ से यूं लगा सुवास को कि जैसे शीरीं अपनी बीमारी का बयान नहीं कर रही शेखी बघार रही हो. इधर उसके हाथ पांव फूले हुए हैं. जब कुछ नहीं सूझा तो वह लपककर किचन में गया और कॉफी बना लाया.

शीरीं को कॉफी का कप थमाकर वह उसके दोनों पांवों के तलुए अपनी हथेलियों से मलने लगा. छोटी बच्‍ची की तरह शीरीं ने खुद को उसके हवाले कर रखा है. सुवास की हथेलियों से तरल उष्‍मा भरा सुख रिस रहा है. कॉफी खत्‍म कर प्‍याला मेज पर रखते हुए वह हँसी, ‘अस्‍पतालों में बीमार मर्दों के लिए महिला नर्से और बीमार औरतों के लिए पुरुष नर्से होनी चाहिए. आध्‍ो बीमार बिना दवाइयों के ही ठीक हो जाएंगे.' सुवास खीझ उठा, ‘शिरू मज़ाक मत करो ... अभी ज्‍यादा वक़्‍त नहीं हुआ है. डाक्‍टरों की दुकानें बंद नहीं हुई होंगी. चलो, तुम्‍हें किसी डॉक्‍टर के पास ले चलता हूं.' ‘नहीं, अब बेहतर महसूस कर रही हूं. चिंता जैसी कोई बात नहीं है. यूं भी तुम्‍हारे जैसा दर्दमंद दोस्‍त हो जिसका उसे डाक्‍टर की क्‍या जरूरत'

सुवास ने राहत की सांस ली, ‘अच्‍छा शीरू, यह नामुराद बी.पी. लो की बीमारी तुम्‍हारे गले कैसे पड़ गई?' खनकती हँसी ने एक मुरकी सी ली, ‘तुम भी बस कभी-कभी बच्‍चों जैसे सवाल करना शुरू कर देते हो वसु ... अरे बन्‍धु, जो लोग दिमाग़ के कहे पर कम चलते हैं और दिल के कहे पर ज़्‍यादा उन पर ऐसी बीमारियां सौ जान फ़िदा रहती हैं.'

शीरीं के जवाब से उसे झेंप सी महसूस हुई. हल्‍का-सा इन्‍फीरियरिटी कॉम्‍प्‍लैक्‍स भी. उसे लगा, दिल के दरिया में अभी वह गोताखोरों जैसी दक्षता हासिल नहीं कर पाया है. शीरीं के मन-पाताल में क्‍या है, कितने जलपोत दफ़न हैं, कितने मूंगे-मोती हैं, कितने खूबसूरत और खौफ़नाक जलचर हैं, अभी तक वह बूझ नहीं पाया है. लेकिन कहीं कुछ बेहद खूबसूरत और खौफनाक है ज़रूर, पता नहीं उसे ऐसा क्‍यों लगता है?

दरअसल दोस्‍ती में दोस्‍त के दिल की निजी दराज़ों को खोलकर देखने की उसकी आदत नहीं है.

उसकी एक कविता है -

.... बहुत जरूरी है कि/किसी के निजीपन में प्रवेश से पूर्व/हम अपनी आत्‍मा की निर्मल झील में उतरकर/करे स्‍नान ऑ'/खुद को कर ले ओस कण सा पवित्र और पारदर्शी/बहुत ज़रूरी है कि/किसी के निजीपन में प्रवेश के बाद/हम छुएं न उसका अतीत इतिहास/ टूटे स्‍वप्‍न/भग्‍न देव प्रतिमाएं/बस चुपचाप/ जोड़कर हाथ/किसी की निजी आस्‍थाओं के सम्‍मुख/ प्रसाद में मिली आरती-उष्‍मा को/रोप लें अपनी हथेलियों में/और अपने भक्‍त मन में/ ... बहुत जरूरी है कि/किसी के निजीपन का/उसके खुदा की तरह/हम करें सम्‍मान/और उसके विधि विधान के अनुरूप/ढाल लें अपना निजीपन ...

शीरीं ने सुवास की आंखों में मुद्रित कविता शायद पढ़ ली, ‘वसु, ज़िंदगी बड़ी मुन्‍सिफ है. वह इंसान से बीज भर छीनती है तो उसे वृक्ष भर लौटा भी देती है.

बचपन में ज़िंदगी ने मुझसे इतना कुछ छीन लिया था कि मैं कंगली-सी होकर रह गई थी ... मां से पिताजी का अलगाव. अलगाव के बाद घर का एक पुरुष की छाया तक के लिए तरस जाता. मां का रात को टूटी हुई नींद में अपने बिस्‍तर पर बिछी किरचों से लहूलुहान होना और दिन में एक कड़क तानाशाह वाला रूप अख्तियार कर लेना. कई बार मैंने उन्‍हें अपनी तन्‍हाइयों में फिल्‍म ‘शगुन' का यह गाना गाते सुना था, ‘ज़िंदगी जुल्‍म सही, जब्र सही, ग़म ही सही, दिल की फरियाद सही, रूह का मातम ही सही ... ' मुझे मां की उस तन्‍हाई से बड़ा डर लगने लगा था.

शुक्र है, ज़िंदगी ने जो, मां से छीना था उसे सूद-ब्‍याज समेत उसकी बेटी को लौटा दिया है. आज मैं खुद को दुनिया की सबसे अमीर औरतों में शुमार करती हूं. मेरे पास प्रत्‍यूष जैसा पति है, तुम जैसा शानदार दोस्‍त है और योगेश जैसा ... ' शीरीं की जुबान की लगाम जैसे उसके अंदर के सवार ने खींच ली हो.

अचानक वह सुवास पर बिल्‍ली की तरह झपटी, ‘बहुत दुष्‍ट हो तुम ... कुछ भी व्‍यक्‍तिगत नहीं रहने देना चाहते हो मेरा. निर्मल वर्मा ने ठीक ही कहा है कि लेखक आदमी की आत्‍मा का जासूस होता है.' पीठ पर पड़े घूंसों को प्रसाद की तरह ग्रहण कर सुवास कुछ देर गंभीर मौन धारण किए सोचता रहा ... कौन है योगेश? शीरीं की सुख सम्‍पदा का एक सुदृढ़ स्‍तंभ.

इस शहर में शीरीं को आए मुश्‍किल से छह महीने ही तो हुए हैं. उसकी एक बड़ी साहित्‍यिक पत्रिाका में छपी कहानी को पढ़कर व कहानी के साथ प्रकाशित उसका पता देखकर अपनी साहित्‍यिक तृषा से त्रस्‍त शीरीं खोजती हुई उसके घर आई थी. फिलवक़्‍त इस शहर में वही इकलौता मित्र है उसका. फिर ... शायद उसका देहरादून के दिनों का साथी हो. पर ... क्‍या कमी है प्रत्‍यूष में? उसकी आंखों के आगे प्रत्‍यूष का चेहरा घूम गया ... बर्थ डे केक-सा भरा हुआ गोल क्रीमी चेहरा. हँसती हुई आंखें. लॉलीपॉप के होंठ. उसने कभी भी प्रत्‍यूष को गुस्‍से से भरा हुआ नहीं देखा. बच्‍चों की धमाचौकड़ी और धीगामुश्‍ती से आज़िज आकर जब शीरीं उसे बच्‍चों को डांटने के लिए कहेगी तो वह उन्‍हें यूं डांटेगा जैसे लोरी दे रहा हो.

शीरीं पर वह यूं सौ जान फ़िदा रहता है जैसे शीरीं उसकी नहीं किसी दूसरे की पत्‍नी हो. शीरीं जानती है, उसकी खुशी के लिए प्रत्‍युष आग में भी कूद सकता है। दोनों ने पांच वर्ष तक जुनून की हद तक इश्‍क करने के बाद प्रेम विवाह किया है. फिर ... आख़िर उसका गंभीर मौन टूटा. वह दुखी स्‍वर में बोला, ‘सॉरी ... ' शीरीं ने दो मुक्‍के और उसकी पीठ पर जड़ दिए, ‘शर्म नहीं आती सॉरी कहते हुए. दोस्‍त होने का दावा करते हो और यह भी नहीं जानते कि ‘सॉरी' शब्‍द दोस्‍ती का दुश्‍मन है. खैर यार, लीव इट. दरअसल दोस्‍त और हमाम में कोई विशेष फर्क नहीं होता. दोनों में ही अपने सारे आवरण उतार कर, अपना सारा गर्द गुबार बहाकर, पवित्र होकर निकलता है आदमी.

इसलिए अब अपने हमाम से पर्दादारी कैसी?' क्रुद्ध बिल्‍ली धरती के सीने में पलने वाले शुभ्र श्‍वेत खरगोश में बदल गई, ‘तुम तो जानते ही हो, आदमी में कई प्रकार की भूखें होती हैं. कुछ लोग अपनी बाक़ी भूखों की अनदेखी कर पेट और जिस्‍म की भूख में ही मस्‍त रहते हैं. कुछ मेरे तुम्‍हारे जैसे भी हैं जो अपने दिल और दिमाग की भूख की अनदेखी नहीं कर पाते. बल्‍कि सच तो यह है कि ऐसी प्रजाति के लोगों के लिए दिल और दिमाग की भूख ही अहम होती है. बस यह समझ लो कि योगेश मेरे दिल और दिमाग की भूख का निमित्त है.

उससे मिलने के बाद मुझे यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस हुई कि मैं किसी इंसान की नहीं वृक्ष की संतान हूं. वृक्ष की शाख पर पहले मैं फूल बनकर खिली हूं, फिर मेरे फूलपन ने फल की शक्‍ल अिख्‍़तयार कर ली है. बारिशें मुझे नहलाती हैं. हवाएं मेरी खुशबू को अखिल ब्रह्मांड में बिखेर रही हैं. धूप की ममतामयी उष्‍मा में मैं पक रही हूं. मेरे रोम-रोम, रेशे-रेशे में मिठास भरती जा रही है.

क्‍यों हुआ ऐसा, खूब-खूब माथापच्‍ची के बावजूद मैं यह समझ नहीं पा रही?' शीरीं की आंखों में पनीली थरथराहट कांपने लगी. उसके भीतर कोई तूफान ज्‍वार पर है. सुवास ने उठकर शीरीं का सिर अपने सीने में समेट लिया. डरी हुई बच्‍ची की तरह वह उसके सीने में दुबक गई ... पिछले तीन, साढ़े तीन महीनों में शीरीं की बातों में अमूर्त ढंग से जिक्र आता रहा है उसके भीतर के आसमान पर उग आए इस सूरज का. उसकी नज़्‍मों में दर्द की जो परछाइयां चिलकती हैं, उनका मुहान्‍दरा हूबहू योगेश की छवि से मिलता है. पागल है यह लड़की. जानबूझकर अपने मनपसंद व्‍यक्‍ति के साथ बुल फाइटिंग वाला खेल खेलना शुरू कर देती है.

चंद मुलाकातों में ही इतनी अनौपचारिक हो जाती है कि सामने वाले के आगे अपने जीवन की किताब का एक-एक वर्क खोलकर रख देती है. सामने वाला असंपृक्‍त नहीं रह पाता और शीरीं को पढ़ते-पढ़ते खुद उसके जीवन की किताब एक अध्‍याय होकर रह जाती है.

सुवास ने खुद को शीरीं के जीवन की किताब का अध्‍याय न होने देने के लिए तीन दिन पहले अपनी आत्‍मा को हाजिर- नाजिर जानकर यह संकल्‍प लिया था कि इस लड़की की बुल फाइटिंग का शिकार नहीं बनना है उसे. इसलिए मुलाक़ातों का सिलसिला यहीं ठप्‍प. उसे उसकी कलम की कसम, आइन्‍दा वह कभी शीरीं से नहीं मिलेगा ... तीन दिन तक काई जमे पत्‍थर पर उसका संकल्‍प पैर जमाए खड़ा रहा था. चौथे दिन अर्थात आज शाम शीरीं खुद उसके घर आ धमकी थी. आते ही कमर पर हाथ रखकर बनैली बिल्‍ली की तरह गुर्राने लगी थी, ‘तीन दिन तक कहां थे तुम? ... घर क्‍यों नहीं आए?'

सुवास सिटपिटा गया था, ‘तुम कोई पाठशाला हो, जहां हाजिरी लगवाना जरूरी हो?' शीरीं उसके साथ चलते हुए हमेशा छोटी बच्‍ची हो जाया करती है. वह सड़क पार करते वक़्‍त हमेशा उसकी बांह थाम लिया करती है और भीड़-भाड़ में उसके कंध्‍ो पर हाथ रखकर चलेगी. इतनी बेबाक और दिलेर होने के बावजूद उसके अवचेतन में अब भी एक डरावनापन विद्यमान है. शायद बचपन में पिता की छत्रछाया से वंचित रह जाने के कारण यह डरावनापन उसमें घर कर गया है.

जो भी हो लेकिन यह सच है कि शीरीं का यूं बांह थामकर चलना सुवास को अच्‍छा लगता है, उसमें आत्‍मीय ऊष्‍मा का संचार करता है.

‘बेशक वो तो मैं हूं ही ... इतना याद रखना स्‍कूल से गुठली मारने वाले नालायक विद्यार्थियों से मैं बड़ी सख्‍़ती से पेश आती हूं.' शीरीं के कहने का अंदाज़ इतना नाटकीय लेकिन प्रभावशाली था कि बेसाख्‍ता हँसी फूट निकली थी सुवास के होंठों से? और उसका कलम की कसम उठाकर लिया संकल्‍प धराशायी हो गया था. शीरीं का ज़िंदगी जीने का अंदाज़ इतना बेखौफ और बेबाक़ी भरा है कि ज़िंदगी भी सौ जान फिदा रहती है उस पर. वह पहाड़ पर होने वाली तेज बारिश की तरह है ... तेजी से आना और सबकुछ भिगोकर निकल जाना.

यूं उसका आयताकार चेहरा सुंदरता के प्रचलित प्रतिमानों के अनुरूप नहीं है लेकिन उसके होंठों व उसकी बेहद बातूनी आंखों में ग़जब़ का आकर्षण है. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की काली पुतलियां गुनगुनाते हुए भौरों जैसी हैं और पुतलियों के पीछे की सफेद पृष्‍ठभूमि खिले हुए चम्‍पा के फूलों जैसी. उसके शर्बती शहतूतों से लंबे मोटे होठों के मध्‍य दांतों की दोनों लड़ियां कतारबद्ध नक्षत्रों जैसी हैं. नाक न बहुत लंबी, न तीखी लेकिन चेहरे पर उसका होना पूरी सार्थकता के साथ दर्ज है. आंखों और होठों के बाद उसकी घनी धनुषाकार भौहें, जो कि देवी दुर्गा के मुखौटे पर बनी भौहों जैसी हैं, तेजी से सामने वाले का ध्‍यान अपनी ओर खींचती है. यूं उसके नैन-नक्‍श दक्षिण भारतीय लगते हैं पर उसका गोरेपन की हदों को छूता गंदुमी रंग उसके पंजाबी होने की चुगली कर देता है.

पंजाबी होने के कारण एक्‍स्‍ट्रीम में जीना उसकी फितरत है. उसका स्‍पष्‍ट कहना है कि न मैं मिडियाकर ज़िंदगी जी सकती हूं और न ही मिडियाकर लेखन कर सकती हूं. थोड़ी-सी चुहुल-चिकोटियां लेने के बाद शीरीं उसकी किताबों वाली अल्‍मारी खोलकर बैठ गई थी. आधे घंटे तक शीरीं सुवास की शीशेवाली लोहे की अल्‍मारी में सिर घुसाये अपनी मनपसंद पुस्‍तकें तलाशने में तल्‍लीन रही. आख़िर सिरतोड़ मेहनत के बाद वह इस्‍मत चुगताई, मण्‍टो व अमृता प्रीतम की लगभग आधा दर्जन पुस्‍तकें अपने लिए छांटकर किताबों की दुनिया से बाहर निकली थी. किताबों के मामले में हद दर्जे की लापरवाह थी वह. किताबें पढ़ने का उसे शौक तो था पर उन्‍हें इश्‍क की हद तक प्‍यार करना और प्रेमिका की तरह उनकी सार संभाल करना यह उससे नहीं होता था. खुद कहती थी वह, ‘किताबों के मामले में मैं देहरादून के दोस्‍तों के बीच खासी बदनाम थी. अक्‍सर दोस्‍तों के द्वारा मुझे दी गई किताबें या तो खो जाया करती थीं या किसी दूसरे के घर बरामद होती थीं.'

उसकी इस स्‍पष्‍टबयानी के बावजूद अभी तक सुवास ने उसे किताबों के लिए मना नहीं किया था. बस प्‍यार से इतना ही कहा था कि ‘किताबों का तुम अगर आदर करोगी तो किताबें भी तुम्‍हें आदर प्रदान करेंगी.' किताबें छांट लेने के बाद सुवास ने सोचा था कि अब शीरीं या तो उसे अपनी किसी नई नज़्‍म का श्रोता बनाएगी या फिर अपनी बातों का रंगला चरखा लेकर बैठ जाएगी. बातों का अक्षय भंडार था उसके पास. जैसे जादूगर अपने ‘हैट से कभी कबूतरों का जोड़ा, कभी खरगोश, कभी रंगीन रिबन, कभी फूलों के गुच्‍छे तो कभी चाकलेट व टाफियां निकालता चला जाता है वैसे ही शीरीं भी बातों से बातों के जादूई किस्‍से निकालती चली जाती थी.

उसकी इस खसूसियत के कारण ही सुवास ने उसका नाम चैटर बॉक्‍स रख दिया था. लेकिन आज चैटर बॉक्‍स किसी दूसरे ही मूड में था. हुआ यह था कि किताबों के संधान के बाद वह सुवास की आडियो कैसटों वाली लकड़ी की छोटी अल्‍मारी खोल कर बैठ गई थी. उसकी नज़र अल्‍लारक्‍खा और ज़ाकिर हुसैन के तबले, हरी प्रसाद चौरसिया की बांसुरी, सावरी खान की सारंगी, शिव कुमार शर्मा के संतूर के कैसेटों से फिसलती हुई बेगम अख्‍़तर की ग़ज़लों वाले कैसेट के पास जाकर ठिठक गई थी. शीरीं की आंखें चमक उठी थीं. जैसे उसकी तलाश को मंज़िल मिल गई हो. या कि उसकी आत्‍मा को उसका अभिष्‍ट मिल गया हो. अल्‍मारी से कैसेट निकाल उसने टेपरिकार्डर के हवाले कर दिया था और खुद पलंग पर आलथी-पालथी मारकर बैठ गई थी.

जैसे ही टेपरिकॉर्डर से उसकी मनपसंद ग़ज़ल बजनी शुरू हुई थी वह बेगम अख्‍़तर की सोज भरी आवाज़ के साथ सुर में सुर मिला खुद भी तन्‍मय होकर गाने लगी थी दृ ‘अपनों के सितम हमसे बताए नहीं जाते, ये हादसे वो हैं जो सुनाए नहीं जाते. कुछ कम ही तआल्‍लुक है मोहब्‍बत का जुनूं से, दीवाने तो होते हैं बनाए नहीं जाते ... ' गाते-गाते वह गहरे में गर्क हो गई थी. बेगम अख्‍़तर की आवाज़ का दर्द उसके चेहरे पर उतर आया था, पलकों पर झिलमिलाने लगा था.

सुवास हैरान ... कैसी अजब गजब है यह लड़की? अपनी राह चले जा रहे दर्द के साथ जानबूझकर छेड़खानी कर उसे अपने गले मढ़ लेगी. उसकी इस आदत के लिए एक बार जब उसने टोका था तो उसने अपनी बिंदास हँसी के सारे मोती उसके सामने बिखेर दिए थे, ‘मैं हर काम डूबकर करना पसंद करती हूं. डूबकर किए गए काम से ही मोती हासिल होते हैं. बेमन से किए गए काम से कभी कोई उपलब्‍धि हासिल नहीं होती.' डूबकर संगीत की सीप से मोती हासिल करने के बाद वह किचन में जा घुसी थी और आधे घंटे बाद चावलों में, जितनी भी सब्‍जियां उसे किचेन में मिली थीं, डालकर उनकी तहरी बना लाई थी. तहरी भी उसने डूबकर बनाई थी इसलिए खासी स्‍वादिष्‍ट थी.

सुवास ने जब तारीफ की थी तो अपनी पीठ खुद ठोंकते हुए उसने कहा था, ‘दिल्‍ली- मुंबई के कई फाईव स्‍टार होटल वाले मेरे आगे पीछे चक्‍कर काटते हैं कि मैडम इतना उम्‍दा खाना तो खाना-खज़ाना वाला संजीव कपूर भी नहीं बना पाता. यह ब्‍लैंंक चेक रखिए और इसमें सैलरी के बतौर जो चाहे रकम भर लीजिए, और हमारे होटल की हेड शेफ हो जाइए.' अपनी बेकाबू होती हँसी की लगाम खींच सुवास ने उठकर शीरीं के सिर पर एक टीप जड़ दी थी, ‘गपोड़िन गर्ल, इतनी दूर की मत हांका कर कि खुदा भी पनाह मांग जाए.' जब रात के नौ बज गए तो शीरीं को घर की सुध आई.

वह सुवास की कमीज की बांह का कफ थामकर घने लाड भरे स्‍वर में बोली, ‘आज दिन में न जाने क्‍यों, मन बहुत उदास हो गया था. उदासी से मुक्‍त होने के लिए तुम्‍हारे यहां चली आई. अब मूड बिल्‍कुल फ्रेश है. चलो मुझे घर छोड़ आओ.' शीरीं उसके साथ चलते हुए हमेशा छोटी बच्‍ची हो जाया करती है. वह सड़क पार करते वक़्‍त हमेशा उसकी बांह थाम लिया करती है और भीड़-भाड़ में उसके कंधे पर हाथ रखकर चलेगी. इतनी बेबाक और दिलेर होने के बावजूद उसके अवचेतन में अब भी एक डरावनापन विद्यमान है. शायद बचपन में पिता की छत्रछाया से वंचित रह जाने के कारण यह डरावनापन उसमें घर कर गया है. जो भी हो लेकिन यह सच है कि शीरीं का यूं बांह थामकर चलना सुवास को अच्‍छा लगता है, उसमें आत्‍मीय उष्‍मा का संचार करता है.

रिक्‍शे पर बैठते ही शीरीं की बातों की लटाई खुल गई थी और किस्‍सों के कनकव्‍वे उड़ना शुरू हो गए थे. दोस्‍तों की हरमजदगियों और इनायतों के किस्‍से, देहरादून में बिताए दिनों की खटटी-मीठी यादें, देहरादून व आसपास के शहरों में होने वाले मुशायरों के किस्‍से, कुछ काल तक नज़ीमाबाद रेडियो स्‍टेशन पर बतौर उद्घोषक किए गए काम के किस्‍से, प्रत्‍यूष व बच्‍चों के स्‍वभाव की खूबियां-खामियां, स्‍कूल और कॉलेज के दिनों में की गइर्ं शरारतें और खरमस्‍तियां ... बातें, बातें और बातें. बातों के नशे में गडुंच होने के कारण पता ही नहीं चला कब घर आ गया था.

रिक्‍शे से उतरकर सुवास ने घड़ी देखी ... रात के साढ़े नौ बजने वाले थे. उसे लगा, रात बहुत हो चुकी है. इसलिए जिस रिक्‍शे से वे आए हैं उसी से उसका लौट लेना बेहतर होगा. उसे यूं लौटता देखकर शोरी तिड़क गई, ‘चाय पिए बिना ही लौट जाओगे? शर्म नहीं आती तुम्‍हें?' ‘रात को चाय पी लेने पर देर तक नींद नहीं आती मुझे. चाय पिलाकर मेरे सपनों का क्‍यों सत्‍यानाश करना चाहती हो?' उसने बहाने से अपना बचाव करने की कोशिश की. ‘सपना जब साक्षात सामने हो तो क्‍या ज़रूरत है झूठे सपनों की?' हर बात का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने में दक्ष शीरीं ने उसकी बोलती बंद कर दी थी ... बीते की बही पलटने के बाद सुवास वर्तमान में लौट आया है.

इस बीच शीरीं प्रकृस्‍थ हो चुकी है. उसने हौले से शीरीं का सिर अपनी छाती से हटाकर दीवार घड़ी पर नज़र डाली, ‘बाप रे!..बातों ही बातों में पता ही नहीं चला और रात के ग्‍यारह बज गए!!' शीरीं शरारती शोख अंदाज़ में चीखी, ‘मेरा बस चले तो इस हरामजादी घड़ी की दोनों टांगे तोड़कर रख दूं ... गश्‍ती साली, बेमतलब रात-दिन आवारागर्दों की तरह घूमती रहती है.' सुवास भी घड़ी से कहां खुश है. पर लौटना तो पड़ेगा ही. हालांकि प्रत्‍यूष दौरे से आज आधीरात के बाद लौटने वाला है. शीरीं अपनी पितृग्रंथि के कारण उससे अलग होना नहीं चाहती और वह तो ताउम्र शीरीं के साथ बने रहना चाहता है, पर सुवास और शीरीं एक घर में नहीं दो अलग-अलग घरों में रहते हैं और दोनों घर उनकी सोच के हिसाब से नहीं चलते.

रात, मोहल्‍ला, चौकीदार, सीटियां बजने और कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें इन सबसे असंपृक्‍त-सा सुवास ओस भीगी रात में अंधेरा ओढ़कर सोई सड़क पर चलने में अपराधबोध सा महसूस कर रहा है. आज का दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे स्‍वर्णिम दिन रहा है. वह नहीं चाहता कि आज उसके पांव सोई हुई सड़क तो क्‍या किसी चींटी या दूब के एक तिनके तक पर पड़ें. वह उड़ना चाहता है, चिड़िया हो जाना चाहता है, बादल हो जाना चाहता है और उड़ते हुए घर पहुंच जाना चाहता है. सु बह नींद खुलते ही सुवास ने जब अपनी दोनों हथेलियों को अपनी आंखों के सम्‍मुख किया तो उसने अपनी हाथों की लकीरों के बीच शीरीं का मुस्‍कराता हुआ चेहरा मौजूद पाया. दोनों हथेलियों को चूमने के बाद वह बिस्‍तर से बाहर आ गया.

शीरीं से कल की मुलाकात का खुमार अब भी उस पर तारी है. खुमार में डूबे हुए कदम टेपरिकार्डर तक गए, उस पर बिस्‍मिल्‍लाह खां की शहनाई का कैसेट लगाया और गुनगुनाते हुए कमरे से बाहर निकल आए. बाहर दिन को उसने अपने इंतजार में खड़े पाया. उसे देखते ही दिन का उजला चेहरा चमक उठा. गमलों के पौधों से आंख-मिचौली खेल रही धूप उसकी पीठ के पीछे आकर छुप गई. बसंती हवा में घुली फूलों की खुशबू को उसने अपनी सांसों में घुलते हुए महसूस किया. वह धूप में खड़ा लंबी-लंबी सांसें खींचता रहा.

जब उसने पूरा का पूरा दिन अपने भीतर भर लिया तो वह वापिस कमरे में लौट आया. घड़ी ने उसकी ओर घूरकर देखा. उसने जुबान निकालकर घड़ी को मुंह बिरा दिया और घोषणा कर दी, आज वह दफ्‍तर नहीं जाएगा. कल ही शेविंग की थी, फिर भी शेविंग बॉक्‍स निकालकर वह शेविंग करने बैठ गया. शेविंग करने के बाद थपक-थपककर गालों पर आफ्‍टर शेव लोशन लगाया. गालों से एक महकती हुई आंच उठने लगी. साबुन आधी बटटी के करीब होगा अभी फिर भी पीयर्स साबुन की नई बटटी निकाली, और खुद को गुसलखाने के हवाले कर दिया.

जापानी गीशा की तरह गुसलखाने ने उसे मल-मल कर बड़े प्‍यार से नहलाया. नहाने के बाद जब वह शीशे के सामने खड़ा हुआ तो अपना चेहरा देख कर हैरान रह गया ... क्‍या यह खिले गुलाब-सा महकता हुआ चेहरा उसी का है? अपने आप पर मुग्‍ध हो उठा. उसे लगा, उसके चेहरे से किरणें-सी फूट रही हैं. इसी के साथ यह रहस्‍य भी उसके सामने उजागर हुआ कि सुंदर शरीर नहीं होता, वह एहसास होता है, जिसे धारण करते ही शरीर कन्‍दील सा मोहक और नक्षत्र सा जगमगाता नज़र आता है. सज-संवरकर वह सड़क पर आ गया. सुबह की सर्दी में निखर रही धूप से दुधमुंहे बच्‍चे के पास से आने वाली कच्‍ची दूधिया महक निसृत हो रही है.

उसे देखते ही मंदिर अपने सारे देवताओं को दरकिनार कर उसकी अगवानी को लपका. मंदिर के चौगिर्द लगे वृक्षों की खामोश खड़ी हरियाली झूमने लगी. मंद-मंद बह रही हवा लहराकर मुस्‍कियां लेने लगी. शहदारी के दोनों ओर लगी दूब के शीर्ष पर थिरक रहे आंसू हीरे-सी झिलमिलाने लगे. मंदिर के दाएं पार्श्‍व में स्‍थित पुस्‍तकालय एक पुल द्वारा मंदिर से संलग्‍न है. पुल के नीचे से गुजरते हुए सुवास की दृष्‍टि अकस्‍मात मंदिर की चाहरदीवारी के दाईं ओर सटे खड़े छप्‍पड़ फाड़ सुमन सम्‍पदा से संपन्‍न पलाश वृक्ष से जा टकरायी.

सुवास को लगा जैसे कि पलाश के फूलों से लदी वृक्ष की टहनियां कालीदास रचित ‘ऋतु संहार' के श्‍लोक हों या कि शिव के श्राप से भस्‍मीभूत हो रहे रतिपति कामदेव की आग की लपटों में बदली भौतिक देह. वह मंत्रबिद्ध सा बेचाप कदमों से वृक्ष के पास जा पहुंचा. कुछ देर तक वह वृक्ष के नीचे खड़ा निःशब्‍द झरते फूलों का अपने भीतर झरना महसूस करता रहा. तत्‍पश्‍चात वृक्ष के चतुर्दिक बन गए फूलों के दायरे से पांव बचाता तने तक जा पहुंचा और तने से टेक लगाकर आंखें मूंद कर बैठ गया. आंखें मूंदने के बाद उसने अपनी स्‍वयं रचित प्रार्थना दोहराई, ‘हे वृक्ष देवता, मुझे अपने जैसा फूलदार, फलदार और छायादार बना.

अपना यह खिलापन मुझे भी बख्‍़श. अपने सर्वदानी स्‍वभाव का संस्‍कार मुझे भी प्रदान कर. आमीन ... ' मंदिर से जब वह बाहर आया तो उसमें न कोई विकार बचा था न द्विधा. भीतर सिर्फ़ एक रंग है. अनंग और वितराग दोनों का सम्‍मलित रंग दहकता हुआ ... केसर रंग. प्रेम में काम को भस्‍मीभूत कर उसे ब्रह्मपद प्रदान करने वाला रंग. रंग की तरंग में रमतायोगी बना वह नदी तट पर जा पहुंचा. खुद को आवरण मुक्‍त कर वह नदी में उतर गया. नदी ने उसे पूरा का पूरा अपने भीतर भर लिया.

नदी की कोख में वह दूर तक बहता चला गया. नदी में स्‍नान करने के बाद वह अपने शहर का सुख-दुख जानने के लिए शहर के पास आ गया. बच्‍चों के स्‍कूल के सामने से गुजरने वाली सड़क के मध्‍य एक बड़ा-सा गडढा देखकर वह रुक गया. गडढे में बदबूदार काला कीचड़ भरा हुआ है. उसने देखा, स्‍कूली रिक्‍शों के पहिए जब इस गडढे में पड़ते हैं तो गडढे का कीचड़ उछलकर राहगीरों व बच्‍चों के कपड़े गंदे कर देता है. दुकान से उसने मिटटी ढोने वाली टोकरी खरीदी. इसके बाद वह स्‍कूल के पास फुटपाथ पर लगे मलवे के ढेर से टोकरी में मलवा भर-भर गडढे में डालने लगा. लोग हैरानी से उसे देख रहे है और शैदाई समझ रहे हैं, लेकिन वह भीड़ से बेनियाज़ अपने काम में मशगूल रहा.

गडढा जब पूरा भर गया तो एक समूची ईंट से उसने उसे ठोकपीट कर समतल कर दिया. उसके शहर का चेहरा खिल गया. शहर ने उसके कदम स्‍टेशन की ओर मोड़ दिए. स्‍टेशन के बाहर होटलों की कतार के पास एक बूढ़ा भिखारी उसके आगे हाथ जोड़ कर रोने लगा, ‘बेटा, दो दिन से पेट में अन्‍न का एक दाना नहीं गया. भूख के मारे दम निकला जा रहा है ... बस, दो रोटी खिला दे.' वह बूढ़े बाबा को साथ लेकर सामने के होटल में दाखिल हो गया. दूर से आती सिंकती हुई रोटियों व तरह-तरह की सब्‍जियों की दुनिया के तमाम इत्रों से भी नायाब सुगंधों को जब बूढ़े भिखारी ने अपने इतने समीप पाया तो उसके दोनों हाथ आसमान की ओर उठ गए.

सुवास ने एक ही मेज पर बैठकर बूढ़े बाबा के साथ भरपेट भोजन किया. होटल का बिल अदा करने के बाद जितने भी रुपए उसकी जेब में बचे वह सब उसने बूढ़े बाबा को दे दिए. साथ ही अपने घर का पता भी. बाकी पूरा दिन वह पैदल चलते हुए अपने शहर की सड़कों से गुफ़्‍तगू करता रहा. सड़कों के किनारे लगे वृक्षों की छाया का आशीर्वाद प्राप्‍त करता रहा. कोसों पैदल चलने के बावजूद रात को वह घर लौटा तो उसने अपने शरीर में थकान का नामोनिशान तक नहीं पाया. हां, कल शाम से रात ग्‍यारह बजे तक शीरीं के साथ रहने का जो प्रगाढ़ नशा था उसकी प्रबलता अब वैसी नहीं है.

वह आश्‍वस्‍त हो गया. अब कल वह दफ़्‍तर जा सकता है.

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(साभार – हंस जून 2009)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. anreeksingh ji aap sachmuch men deep ho. hindee kee itanee sundar shabdaavalee kahaanee ko ek chor se doosare chor tak pahunchaana, dosaron ke galon men sneh kee maalaa aur apane gale men..... bahut hee achchhee kahaanee, vadhaaee !

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रचनाकार: अमरीक सिंह दीप की कहानी : हैंगओवर
अमरीक सिंह दीप की कहानी : हैंगओवर
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