आ ज मैं बहुत खुश हूं. बचपन का सपना पूरा होने वाला है. फिल्मों की दुनिया मुम्बई में मुझे रहने का ठिकाना मिल गया है. इस भीड़-भाड़ भरे शहर में इत...
आज मैं बहुत खुश हूं. बचपन का सपना पूरा होने वाला है. फिल्मों की दुनिया मुम्बई में मुझे रहने का ठिकाना मिल गया है. इस भीड़-भाड़ भरे शहर में इतनी जल्दी सबकुछ हो जायेगा, मुझे खुद यकीन नहीं था. इसीलिये जब मैं जुहू बीच पर पहुंचा तो मेरी आखें भर आईं.
आज से साल भर पहले मैं मुम्बई को सिर्फ देखने आया था कि "कैसा शहर है मुम्बई...? और इसी समन्दर के पानी को दूर से देखा था क्योंकि उस दिन मैंने जूते पहन रखे थे, उस दिन मैंने दुआ की थी कि "ऐ दरिया...तेरा दिल बहुत बड़ा है. तूने इतनी बड़ी मुम्बई को सम्भाल रखा है. इस बड़े से शहर में मुझे भी एक छोटा सा आशियाना दे दे. ऐ दरिया...! मुझे मुम्बई में एक नौकरी दिला दे ताकि मैं अपना सपना पूरा कर सकूं."
और आज जब मैं टहलते-टहलते उस दरिया के पास पहुंचा तो खुद को रोक न सका. आज मैं चप्पल पहने हुए था. आज मुझे कहीं इण्टरव्यू देने नहीं जाना था. आज मुझे तसल्ली थी.
मैंने पूछा, ऐ दरिया! मैंने ऐसा कौन सा अच्छा काम किया था जिसके बदले तूने मुझे सबकुछ इतनी जल्दी दे दिया. मुझे मुम्बई में नौकरी दिला दी. रहने के लिये घर दिला दिया. वो भी मेरी सबसे पसंदीदा जगह अन्धेरी (वेस्ट) में.
मैं दरिया से बातें कर रहा था तभी एक आदमी मुझसे टकरा गया. वो टूरिज़्म पुलिस का कार्यकर्ता था जो सबको पानी में ज्यादा दूर तक जाने से मना कर रहा. शायद कोई डूब गया था उसे हेलीकॉप्टर से ढूंढ रहे थे. उसने मुझसे कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं तो सिर्फ किनारे पर ही था.
जब दरिया के पानी ने मेरे पैरों को छुआ तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं ज़न्नत में आ गया हूं. मैं बयान नहीं कर सकता कि मुझे कितनी खुशी हुई.
मेरा सपना था एक ऐसे शहर में रहना जहां समुन्दर हो. और आज मैं ऐसे शहर में हूं. इसके लिये मैं दरिया का शुक्रिया अदा कर रहा था. पहली बार मैंने समुन्दर के पानी में कदम रखा था. मगर अब वहां से वापस आने का मन नहीं कर रहा था. समुन्दर की लहरें तेज थीं. लहरें अपने साथ छोटे-छोटे गोल पत्थर बहाके ला रहीं थी. मुझे ये छोटे-छोटे गोल पत्थर बहुत अच्छे लगते हैं. इस सब चीजों के बीच रहके मुझे लगता है कि मैं ऊपर वाले की बनाई दुनिया में हूं.
मुझे जो पत्थर अच्छा लग रहा था, उठा ले रहा था. थोड़ी दूर चलने के बाद मुझे ढ़ेर सारे पत्थर एक साथ दिखाई दिये. मैं उनमें से अपनी पसन्द के पत्थर छांटने लगा तभी एक तेज लहर आई और वापस जाते हुए मेरे सामने कुछ छोड़ गई. मैंने देखा वो गणेश जी की मूर्ति थी जो लहर के साथ किनारे पर आ गई थी. मैं वहीं बैठ गया और गणेश जी को प्यार से देखने लगा. उनका पेट के नीचे का हिस्सा आगे से टूट चूका था मगर पीठ अभी सलामत थी.
मैंने उन्हें उठा लिया और समुन्दर से पूछा, "ऐ दरिया...! लोगों ने इन्हें तुम्हारे पास भेजा था मगर तुमने इन्हें मेरे पास क्यों भेजा? अब मैं क्या करुं इनका?" एक बार तो मैंने सोचा पानी में वापस बहा देता हूं मगर फिर दिमाग में बात आई कि "इससे पहले भी तो यही हुआ था. लोगों ने इन्हें पानी में ही बहाया था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर मैंने सोचा "मैं इन्हें इस हाल में नहीं छोड़ सकता." और मैंने उन्हें अपने साथ ले जाने के इरादे से उठा लिया.
लोग देख रहे थे कि "मैं भगवान की मूर्ति के साथ छेड़छाड़ कर रहा हूं." मगर किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं. मूर्ति पूरी रेत से सनी हुई थी. मैंने अगली लहर में मूर्ति को धोने के इरादे से पानी में डाला तो लहर इतनी तेज थी कि गणेश जी का सिर का हिस्सा मेरे हाथ में रह गया और उनकी पीठ टूट गई.
अब मैंने सोचा "अब देर करना ठीक नहीं. इन्हें लेकर घर चलता हूं. मैं थोड़ा सा ही आगे बढ़ा था कि मुझे एक भूरा पत्थर दिखाई दिया. पास जाने पर पता चला कि वो लक्ष्मी जी की एक छोटी सी मूर्ति थी. लक्ष्मी जी की मूर्ति ठोस मिट्टी की बनी थी इसलिये टूटी नहीं थी, केवल भीगी थी. मगर गणेश जी की मूर्ति बड़ी थी और खोखले प्लास्टिक की बनी थी. इसलिए टूट गई थी.
इस बार मैंने कुछ नहीं सोचा. लक्ष्मी जी की मूर्ति उठाई और जेब में डाल ली. अब मैंने कुछ नहीं सोचा और कहा, "ऐ दरिया मुझे नहीं पता मैं क्या कर रहा हूं. सही है या गलत? माफ करना अगर मैं कुछ गलत कर रहा हूं इन्हें अपने घर ले जाकर. अब चलता हूं.... फिर मिलेंगे...."
अब मेरे सामने मुसीबत थी गणेश जी कि मूर्ति को छिपाने की. कोई मुझसे पूछ सकता था कि "एक बार विसर्जित हो चुकी मूर्ति को वापस अपने घर क्यों ले जा रहा हूं?" मैंने अपने आप को भीड़ से अलग किया. और जूस की दुकान से पानी खरीदने के बहाने रुका. मैंने दुकानदार से पुराना अखबार मांगा. वो मेरे हाथ में टूटे-फूटे गणेश जी को देख रहा था फिर मुझे देख रहा था. अब मैं थोड़ा डर रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए.
"पुराना अखबार नहीं है" दुकानदार ने कहा. मुझे उसकी दुकान में अखबार दिखाई दे रहा था.
"वो दिख तो रहा है अखबार. दो ना...मुझे ये ढ़कना है" मैंने गणेश जी की तरफ इशारा करते हुए कहा.
दुकानदार बोला, "ये पुराना नहीं आज का अखबार है."
मैंने कहा "कोई पोलीथीन मिलेगी?"
उसने कहा, "दो रुपये लगेंगे."
मैंने कहा, "दे दो".
अपने मन में मैंने कहा, "भगवान के लिये दो रुपए क्या हैं?"
अब गणेश जी पोलीथीन में आ चुके थे. मैंने लक्ष्मी जी को भी उनके साथ रख लिया. वैसे भी ये दोनों एक साथ ही रहते हैं.
अब मेरा डर थोड़ा कम हुआ. मैंने दरिया से कहा, "फिर मिलेंगे..."
मैं बस स्टैण्ड की तरफ बढ़ा. जुहू बीच पर पुलिस का एक बूथ है. अब मुझे वो बूथ पार करना था. मैंने देखा एक पुलिस वाला एक औरत का सामान चेक कर रहा था. वो औरत जुहू बीच पर भुट्टे बेचती है. वो कह रही थी "कुछ नहीं है साब...भुट्टे हैं." फिर उसने उस औरत से कुछ कहा और अपने बूथ में चला गया. मेरा ध्यान गणेश जी पर था. मुझे उन्हें वहां से लेकर निकलना था. लेकिन पुलिस की चेकिंग देखकर मेरा हलक सूख गया.
मैं नज़रें बचाकर आगे निकल गया. मैंने सोचा "अगर पुलिस वाले को देखा तो वो जरुर पूछेगा कि "क्या है?" और मेरा जवाब उसे समझ में नहीं आयेगा. वो या तो मुझे पागल समझेगा या पता नहीं क्या?" मैंने अपने पीछे से आती हुई आवाजें सुनीं.
एक पुलिसवाला कह रहा था "ए...इधर से...इधर से..."
मैंने दिल मजबूत करके अपने कान बन्द कर लिये और खुद से कहा, "तुम बस चुपचाप चलते रहो. तुमसे नहीं कहा जा रहा है."
रास्ते में आने-जाने वाला हर आदमी मेरे हाथ में लटकी उस सफेद पोलीथीन को देख रहा था. मूर्ति भीगी होने की वजह से और पोलीथीन का रंग सफेद होने की वजहे से ये पता चल रहा था कि इसमें क्या हो सकता है?
मैं पूरे रास्ते डर-डर के चलता रहा.
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे "मैं भगवान की मूर्ति नहीं, बम लेकर जा रहा था."
मगर भगवान की कृपा से किसी ने मुझे टोका नहीं और मैं बस पकड़कर अपने घर आ गया. डर और जल्दीबाज़ी में मैं पानी की बोतल बस में ही भूल गया. घर आकर मैंने एक ऊंची जगह देखकर गणेश जी और लक्ष्मी जी को रख दिया. और जो पत्थर मैंने उठाए थे वो भी उन्हीं दोनों लोगों के पास रख दिया जैसे मंदिरों में होता है. अब ज्यादा कुछ मुझे पता नहीं है. मैं तो बस दिल की बात सुनकर इन्हें उठा लाया था. दोनों बहुत अच्छे लग रहे हैं.
अब मैं ये सोच रहा हूं कि "मैं पुलिस और लोगों से तो बच गया. लेकिन अपने घरवालों को क्या बताऊंगा? जब लोग मुझसे पूछेंगे कि "मैं क्यों लाया गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति? मैं तो एक मुसलमान हूं?"
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आज से साल भर पहले मैं मुम्बई को सिर्फ देखने आया था कि "कैसा शहर है मुम्बई...? और इसी समन्दर के पानी को दूर से देखा था क्योंकि उस दिन मैंने जूते पहन रखे थे, उस दिन मैंने दुआ की थी कि "ऐ दरिया...तेरा दिल बहुत बड़ा है. तूने इतनी बड़ी मुम्बई को सम्भाल रखा है. इस बड़े से शहर में मुझे भी एक छोटा सा आशियाना दे दे. ऐ दरिया...! मुझे मुम्बई में एक नौकरी दिला दे ताकि मैं अपना सपना पूरा कर सकूं."
और आज जब मैं टहलते-टहलते उस दरिया के पास पहुंचा तो खुद को रोक न सका. आज मैं चप्पल पहने हुए था. आज मुझे कहीं इण्टरव्यू देने नहीं जाना था. आज मुझे तसल्ली थी.
मैंने पूछा, ऐ दरिया! मैंने ऐसा कौन सा अच्छा काम किया था जिसके बदले तूने मुझे सबकुछ इतनी जल्दी दे दिया. मुझे मुम्बई में नौकरी दिला दी. रहने के लिये घर दिला दिया. वो भी मेरी सबसे पसंदीदा जगह अन्धेरी (वेस्ट) में.
मैं दरिया से बातें कर रहा था तभी एक आदमी मुझसे टकरा गया. वो टूरिज़्म पुलिस का कार्यकर्ता था जो सबको पानी में ज्यादा दूर तक जाने से मना कर रहा. शायद कोई डूब गया था उसे हेलीकॉप्टर से ढूंढ रहे थे. उसने मुझसे कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं तो सिर्फ किनारे पर ही था.
जब दरिया के पानी ने मेरे पैरों को छुआ तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं ज़न्नत में आ गया हूं. मैं बयान नहीं कर सकता कि मुझे कितनी खुशी हुई.
मेरा सपना था एक ऐसे शहर में रहना जहां समुन्दर हो. और आज मैं ऐसे शहर में हूं. इसके लिये मैं दरिया का शुक्रिया अदा कर रहा था. पहली बार मैंने समुन्दर के पानी में कदम रखा था. मगर अब वहां से वापस आने का मन नहीं कर रहा था. समुन्दर की लहरें तेज थीं. लहरें अपने साथ छोटे-छोटे गोल पत्थर बहाके ला रहीं थी. मुझे ये छोटे-छोटे गोल पत्थर बहुत अच्छे लगते हैं. इस सब चीजों के बीच रहके मुझे लगता है कि मैं ऊपर वाले की बनाई दुनिया में हूं.
मुझे जो पत्थर अच्छा लग रहा था, उठा ले रहा था. थोड़ी दूर चलने के बाद मुझे ढ़ेर सारे पत्थर एक साथ दिखाई दिये. मैं उनमें से अपनी पसन्द के पत्थर छांटने लगा तभी एक तेज लहर आई और वापस जाते हुए मेरे सामने कुछ छोड़ गई. मैंने देखा वो गणेश जी की मूर्ति थी जो लहर के साथ किनारे पर आ गई थी. मैं वहीं बैठ गया और गणेश जी को प्यार से देखने लगा. उनका पेट के नीचे का हिस्सा आगे से टूट चूका था मगर पीठ अभी सलामत थी.
मैंने उन्हें उठा लिया और समुन्दर से पूछा, "ऐ दरिया...! लोगों ने इन्हें तुम्हारे पास भेजा था मगर तुमने इन्हें मेरे पास क्यों भेजा? अब मैं क्या करुं इनका?" एक बार तो मैंने सोचा पानी में वापस बहा देता हूं मगर फिर दिमाग में बात आई कि "इससे पहले भी तो यही हुआ था. लोगों ने इन्हें पानी में ही बहाया था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर मैंने सोचा "मैं इन्हें इस हाल में नहीं छोड़ सकता." और मैंने उन्हें अपने साथ ले जाने के इरादे से उठा लिया.
लोग देख रहे थे कि "मैं भगवान की मूर्ति के साथ छेड़छाड़ कर रहा हूं." मगर किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं. मूर्ति पूरी रेत से सनी हुई थी. मैंने अगली लहर में मूर्ति को धोने के इरादे से पानी में डाला तो लहर इतनी तेज थी कि गणेश जी का सिर का हिस्सा मेरे हाथ में रह गया और उनकी पीठ टूट गई.
अब मैंने सोचा "अब देर करना ठीक नहीं. इन्हें लेकर घर चलता हूं. मैं थोड़ा सा ही आगे बढ़ा था कि मुझे एक भूरा पत्थर दिखाई दिया. पास जाने पर पता चला कि वो लक्ष्मी जी की एक छोटी सी मूर्ति थी. लक्ष्मी जी की मूर्ति ठोस मिट्टी की बनी थी इसलिये टूटी नहीं थी, केवल भीगी थी. मगर गणेश जी की मूर्ति बड़ी थी और खोखले प्लास्टिक की बनी थी. इसलिए टूट गई थी.
इस बार मैंने कुछ नहीं सोचा. लक्ष्मी जी की मूर्ति उठाई और जेब में डाल ली. अब मैंने कुछ नहीं सोचा और कहा, "ऐ दरिया मुझे नहीं पता मैं क्या कर रहा हूं. सही है या गलत? माफ करना अगर मैं कुछ गलत कर रहा हूं इन्हें अपने घर ले जाकर. अब चलता हूं.... फिर मिलेंगे...."
अब मेरे सामने मुसीबत थी गणेश जी कि मूर्ति को छिपाने की. कोई मुझसे पूछ सकता था कि "एक बार विसर्जित हो चुकी मूर्ति को वापस अपने घर क्यों ले जा रहा हूं?" मैंने अपने आप को भीड़ से अलग किया. और जूस की दुकान से पानी खरीदने के बहाने रुका. मैंने दुकानदार से पुराना अखबार मांगा. वो मेरे हाथ में टूटे-फूटे गणेश जी को देख रहा था फिर मुझे देख रहा था. अब मैं थोड़ा डर रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए.
"पुराना अखबार नहीं है" दुकानदार ने कहा. मुझे उसकी दुकान में अखबार दिखाई दे रहा था.
"वो दिख तो रहा है अखबार. दो ना...मुझे ये ढ़कना है" मैंने गणेश जी की तरफ इशारा करते हुए कहा.
दुकानदार बोला, "ये पुराना नहीं आज का अखबार है."
मैंने कहा "कोई पोलीथीन मिलेगी?"
उसने कहा, "दो रुपये लगेंगे."
मैंने कहा, "दे दो".
अपने मन में मैंने कहा, "भगवान के लिये दो रुपए क्या हैं?"
अब गणेश जी पोलीथीन में आ चुके थे. मैंने लक्ष्मी जी को भी उनके साथ रख लिया. वैसे भी ये दोनों एक साथ ही रहते हैं.
अब मेरा डर थोड़ा कम हुआ. मैंने दरिया से कहा, "फिर मिलेंगे..."
मैं बस स्टैण्ड की तरफ बढ़ा. जुहू बीच पर पुलिस का एक बूथ है. अब मुझे वो बूथ पार करना था. मैंने देखा एक पुलिस वाला एक औरत का सामान चेक कर रहा था. वो औरत जुहू बीच पर भुट्टे बेचती है. वो कह रही थी "कुछ नहीं है साब...भुट्टे हैं." फिर उसने उस औरत से कुछ कहा और अपने बूथ में चला गया. मेरा ध्यान गणेश जी पर था. मुझे उन्हें वहां से लेकर निकलना था. लेकिन पुलिस की चेकिंग देखकर मेरा हलक सूख गया.
मैं नज़रें बचाकर आगे निकल गया. मैंने सोचा "अगर पुलिस वाले को देखा तो वो जरुर पूछेगा कि "क्या है?" और मेरा जवाब उसे समझ में नहीं आयेगा. वो या तो मुझे पागल समझेगा या पता नहीं क्या?" मैंने अपने पीछे से आती हुई आवाजें सुनीं.
एक पुलिसवाला कह रहा था "ए...इधर से...इधर से..."
मैंने दिल मजबूत करके अपने कान बन्द कर लिये और खुद से कहा, "तुम बस चुपचाप चलते रहो. तुमसे नहीं कहा जा रहा है."
रास्ते में आने-जाने वाला हर आदमी मेरे हाथ में लटकी उस सफेद पोलीथीन को देख रहा था. मूर्ति भीगी होने की वजह से और पोलीथीन का रंग सफेद होने की वजहे से ये पता चल रहा था कि इसमें क्या हो सकता है?
मैं पूरे रास्ते डर-डर के चलता रहा.
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे "मैं भगवान की मूर्ति नहीं, बम लेकर जा रहा था."
मगर भगवान की कृपा से किसी ने मुझे टोका नहीं और मैं बस पकड़कर अपने घर आ गया. डर और जल्दीबाज़ी में मैं पानी की बोतल बस में ही भूल गया. घर आकर मैंने एक ऊंची जगह देखकर गणेश जी और लक्ष्मी जी को रख दिया. और जो पत्थर मैंने उठाए थे वो भी उन्हीं दोनों लोगों के पास रख दिया जैसे मंदिरों में होता है. अब ज्यादा कुछ मुझे पता नहीं है. मैं तो बस दिल की बात सुनकर इन्हें उठा लाया था. दोनों बहुत अच्छे लग रहे हैं.
अब मैं ये सोच रहा हूं कि "मैं पुलिस और लोगों से तो बच गया. लेकिन अपने घरवालों को क्या बताऊंगा? जब लोग मुझसे पूछेंगे कि "मैं क्यों लाया गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति? मैं तो एक मुसलमान हूं?"
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सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंडॉ.लाल रत्नाकर
Hamara Dil Kisi Majahab ka nahi hai..........Bahut hi Badhiya Rachna
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