मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता ! मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता, न बच्चा भूखा रहता भर पेट मज़े से सोता, मकान रोटी कपड़ा सभी के प...
मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता !
मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता,
न बच्चा भूखा रहता भर पेट मज़े से सोता,
मकान रोटी कपड़ा सभी के पास होता ,
न कोई चोर होता न ग़रीब बन के रोता !
मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता !
हर नदी में पानी निर्मल बन के बहता,
हर पेड़ पत्तियों से हर दम भरा सा रहता,
छाया सभी को मिलती कलियाँ समय पे खिलती,
खुशियों का होता आलम स्नेह की लहर चलती,
जंगल में होता मंगल न कोई पेड़ कटते,
सुंदर पहाड़ियों से शिला न टूट पड़ते,
खेतों में फसलें होती पहने रंगीन धोती,
स्वर्ग की भी अप्सराएँ यहीं ज़मीन पे रहती !
छिप छिप के पत्तियों में चिड़िया चहचहाती,
और मस्त होके कोयल स्वर से स्वर मिलाती !
ईर्षा न क्रोध होता न आदम जमी पे सोता,
मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता !
नक्सल न हत्या करते न निर्दोष रोज मरते,
किसानों की बस्तियों में न आत्म हत्या करते,
न कोई गद्दार होता न नफ़रत के बीज बोता,
आतंकवाद आकर किस्मत को अपनी रोता,
हर गद्दार का सिर फाँसी पे लटका होता,
मेरा ईश्वर गर कहीं ज़मीन पे होता !
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वही इतिहास लिखते हैं
जो अंगारों पे चलते हैं कांटों से नहीं डरते,
पद चापों में दम इतना की काटे राह बदला देते,
वे तूफ़ानों से टकराते न बाधाओं से घबराते,
इरादों में है दम इतना की पर्वत भी हैं झुक जाते,
जंगल राह दिखलाते नदियाँ रुख़ बदल जाते,
और दुर्गम घाटियों में भी सरल रस्ते नज़र आते,
अंधेरे बंद गुफ़ाओं में भयानक जीव रहते हैं,
जो जाता लौट नहीं पाता बड़े बूढ़े भी कहते हैं !
वहाँ जाकर गुफ़ाओं में निंशा अपना बना आते,
हिमालय जैसे पहाड़ों पर तिरंगा हैं वे लहराते !
उनकी हुंकारों से ही दुश्मन दहल जाते हैं,
उनकी नज़रों में आते ही वे जीते ही मर जाते,
दिशाओं के दिग्गज भी उन्हें मंजिल हैं दिखलाते,
गगन भी हंस हंस कर उन पर फूल बरसाते !!
मैदाने जंग में रणधीर एक ही बार मरते हैं,
वही इतिहास लिखते हैं जो अंगारों पे चलते हैं !!
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एक हो वो दुनिया !
जहाँ मैं मुस्कराऊं,
खुल कर खिलखिलाऊं,
न हो कोई दुश्मन,
हँसता ही जाऊं !!
मधुर गीत गाऊँ ,
जो भी मैं चाहूं,
वो सब मैं पाऊँ !
हर भूखा भिखारी को
देता ही जाऊं !
न धर्म की दीवार,
न खडग न तलवार !
न बोझ न भार,
आँखे बिछाए न हो इंतजार !
न हो कोई ऊँचा न कोई नीचा,
मुझ को और तुझको
उसी ने है सींचा !
न हो
आरक्षण का ज़ोर,
न हो कोई शोर,
न डाका पड़े
न हो कोई चोर !
नक्सल न मावो,
भर पेट खाओ,
न आतंक न नफ़रत
सभी मिल कर गाओ !
न हो दिल की दूरी,
न हो मजबूरी,
नेता हो नेता दे न वो धोका,
एंडरसन को बता क्यों न उसने रोका !
जहाँ सुखी हो धनिया,
सुखी हो मुनिया,
प्रभु मुझे दे दे अब एक वो दुनिया !!
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दो गधों की वार्ता
दो गधे जो जवानी की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, एक दिन साथ साथ चल रहे थे ! एक धोबी का गधा था और दूसरा कुमार का ! एक की पीठ पर गंधे कपड़े लदे थे और दूसरे की पीठ पर मिट्टी के बर्तन ! दोनों तेज तेज चल रहे थे जब की उनके बूढ़े मालिक काफ़ी पीछे रह गये थे ! चौराहे पर ग्रीन लाईट मिल गयी और दोनो गधे सड़क पार कर गये लेकिन जैसे ही इनके मालिक वहा पहुँचे रेड लाईट हो गई ! मौका देख कर दोनो गधे एक पतली गली से होकर एक घास के मैदान में आ गये !
पीठ पर बोझ लेकिन खुली हवा में स्वतंत्रता का आभास, दिल में खुशी की उमंग, दोनों एक दूसऱे से बातें करने लगे ! कुमार के गधे ने धोबी के गधे से कहा, " यार आज तो तू गबरू जवान लग रहा है, क्या कोई गधी पटाई है ! बता कब शादी का इरादा है ? मैने तो अपना जीवन साथी चुन लिया है ! गधी का बाप तो राज़ी नहीं है लेकिन हमने चोरी चोरी शादी करने का फ़ैसला कर लिया है ! इंसानों की तरह उसका बाप एक ही गोत्र में शादी के खिलाफ है, मैं तो नहीं मानता ! यार कमाल है हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और मेरी माशूका का बाप इंसानो की तरह अभी भी मध्य युगीन सभ्यता और परम्पराओं के आवरण को लपेटे हुए है ! भयया हम तो शादी करेंगे और भाग जाएँगे, प्रदेश ही छोड़ देंगे, हमें नहीं लेना आनर किलिंग का रिस्क ! मैं ही बोलता जा रहा हूँ, तू भी तो कुछ बोल, कब कर रहा है शादी ? जल्दी कर ले ए गबरू जवानी ज़्यादा दिन नहीं रहेगी, फिर कोई घास भी नहीं डालेगा !"
धोबी का गधा बोला. " भया मैं क्या बोलूं, अभी किसी से नज़रें चार नहीं हुई ! कल मैं मालिक के घर के बाहर पीठ पर बोझ लादने के लिए खड़ा था, घर के भीतर मालिक गुस्से होकर चिल्ला रहा था और अपनी एक मात्र लड़की को कह रहा था' 'अब मैं तेरी नादानी बर्दाश्त नहीं कर सकता, रोज कोई न कोई समस्या पैदा करती जा रही है, मैंने फ़ैसला कर लिया है की अब तेरी शादी किसी गधे से ही करूँगा ! मेरे से अच्छा गधा वर इनको और कौन मिलेगा ? इंतजार है ये खूसट मालिक कब मेरी शादी अपनी लड़की से करता है" !
कुमार का गधा बोला, "अरे बांगड़ू उसने कह दिया और तूने मान लिया ! ये इंसान जो कहते हैं करते नहीं हैं ! इनका कोई ईमान धर्म नहीं है ! अरे मवेशी चारा तक खाने वाले हैं इनके नेता ! घर इनसे संभलता नहीं नेता बनकर देश का शासन चलाते हैं ! मवेशी चारा खाते हैं ! जर जोरू ज़मीन के लिए भाई भाई को भी मरवाते हैं ! भाषणों की गोली खिला कर जनता से वोट लेते हैं और फिर उसी जनता को लूटते हैं ! हमारा अपना मज़हब है अपनी सभ्यता है की हम केवल गधे हैं" !
इनकी बातें चल ही रही थी की इन्हें ढूँढते ढूँढते हाथों में डंडे लिए इनके मालिक वहाँ आ गये, ये बेचारे बेजुबान गधे दस दस डंडे खा गये ! दर्द के मारे ढेँचू ढेँचू करने लगे और शादी के स्वप्न ज़मीन पर बिखरने लगे !!
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मैं भी जवां
मैं भी जवां तुम भी जवां,
फिर ये बचपन बुढ़ापा कहाँ ?
नज़ारे कुदरत के बिखरे जहाँ,
हर दिल की धड़कन धड़के वहाँ,
संगीत कानों में बजने लगे,
लबों से गीत निकलने लगे,
पाँव ज़मीं पे थरकने लगे,
चकवा चक़वी से मिलने लगे,
रंगीन स्वप्न आँखों में सजे,
पायल या घूँघरू पांवों में बजे,
बन के दुलहन चली है कहाँ ?
नज़ारे कुदरत के बिखरे यहाँ !
अमुवा की डाली पर कोयल के गीत,
घाटी में गुण रहे संगीत,
नदियों की कल कल चलता ही चल,
रुकना नहीं एक भी पल,
बादल भी करते हैं अपना काम,
बरसता है पानी सुबह और शाम,
हवा को झोंका हिलते हैं पेड़,
गिरते हैं पत्ते मत इनको छेड़,
कुदरत ने सबको किया है जवां,
फिर ये बचपन बुढ़ापा कहाँ ?
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हरेन्द्रसिंह रावत न्यू यार्क अमेरिका
आपकी रचनायें काफी प्रगतिशील व झकझोर देनेवाली हैं। काफी सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत आभार......
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