जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 8)

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(पिछले भाग 7 से जारी… ) रा नी मां का क्रियाकर्म हो गया। तीसरे दिन रिश्‍तेदारों को पत्र लिखे गये। चन्‍द्रावती को तार दिया गया था वह आ...

(पिछले भाग 7 से जारी…)

Janpriya lekhak 
omprakash sharma - जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा

रानी मां का क्रियाकर्म हो गया।

तीसरे दिन रिश्‍तेदारों को पत्र लिखे गये।

चन्‍द्रावती को तार दिया गया था वह आ चुकी थी। किन्‍तु वह गर्भवती थी। अतएव वह आ अवश्‍य आ गई थी परन्‍तु अधिक समय आराम में बीतता था।

सोना देहातिन बनकर लौटी थी। परन्‍तु कुछ ही घन्‍टों में पूर्णरुप से शहरी बनकर घर के काम धन्‍धों में लग गई थी। उसकी उपस्‍थिति पाकर जैसे कुंवरसाहब पिछली पीड़ा भूल गये थे।

रिश्‍तेदार आते रहे और जाते रहे।

कुंवरसाहब को भी आतिथ्‍य में व्‍यस्‍त होना पड़ा। तेरह दिन बहुत हलचल में बीते। तेरहवीं के दिन लगभग एक हजार व्‍यक्‍तियों का खाना हुआ।

चौदहवें दिन सबसे पहले बहन विदा हुई। कुंवरसाहब चाहते थे कि वह और रहे परन्‍तु अजीब तर्क दिया था बहन ने, यह कि यहां उसे नींद नहीं आती रात भर बुरे सपने दिखाई पड़ते हैं।

चौदहवें दिन शाम को जैसे हवेली फिर उजड़ गई।

सभी मेहमान जा चुके थे। शेष थी बस सोना।

उस रात !

आज जैसे सोना ने कुंवरसाहब के संग मन से अभिसार किया था। शरीर पर एक भी कपड़ा न था। कुंवरसाहब के कम्‍बल में लिपटी उनके बिस्‍तर पर थकी सी।

सोना ने बात छेड़ी-‘कुंवर जी।'

-‘जी!'

-‘सो गए क्‍या?'

-‘नहीं।'

-‘हीरा बड़े तेज स्‍वभाव का है। उसे खुश रखना होगा।'

-‘जो हुकुम।'

-‘उस गांव में आपकी अस्‍सी बीघे जमीन है ।'

-‘होगी।'

-‘पिछले वर्ष चालीस बीघे में बाग लगवाया गया है अनार का।'

-‘हां।'

-‘चालीस बीघे और है।'

-‘इस वर्ष उसमें शायद आम की कलम लगाई जायेगी।'

-‘एक बात कहूं।'

-‘दो बात कहो।'

-‘मानेंगे न?'

-‘अरे साहब भला आपकी बात न मानेंगे?'

-‘वह चालीस बीघे जमीन हीरा के नाम कर दीजिये। वह खुश हो जायेगा।'

-‘जरुर कर देंगे।'

-‘पक्‍की बात है न?'

-‘बिल्‍कुल पक्‍की।'

सुबह सोना ने फिर वही बात छेड़ी।

-‘सब कुछ हो जाएगा जल्‍दी क्‍या है?'

-‘आप क्‍या जानें। जल्‍दी है।'

कुंवरसाहब ने केवल इतना कहा-‘अच्‍छा।'

उठकर कहीं जाने का मन नहीं था। परन्‍तु भला वह सोना का आदेश कैसे टालते।

वह सोना को लेकर कहीं गए।

तब जबकि दान पत्र तैयार हो रहा था यकायक सोना बोली-‘कुंवर जी।'

-‘जी।'

-‘जमीन हीरा के नाम न की जाए।'

-‘आपका ही तो हुक्‍म था।'

-‘जमीन मेरे नाम करा दीजिये।'

-‘जो हुक्‍म।'

दान पत्र तैयार हो गया। रजिस्‍ट्री हो गई। चालीस बीघे जमीन की स्‍वामिनी सोना हो गई।

वह रात बहुत ही आनन्‍द में बीती।

अगले दिन।

जैसे विस्‍फोट हुआ। सोना ने आकर कहा-‘कुंवर जी आज मुझे जाना होगा।'

-‘क्‍यों?'

-‘हीरा घोड़ा तांगा लेकर आया है।'

-‘उससे कह दो कि अभी जाना नहीं होगा।'

-‘कुंवर जी . ... .।' सोना ने मुस्‍कराते हुए कुंवरसाहब के गले में बांहें डाल दीं।

-‘अभी जाना नहीं होगा सोना।'

-‘चार दिन बाद मैं लौट आउंगी।'

-‘हम चार दिन कैसे बिताएंगे।'

-‘कुछ तो पर्दा रखना ही होगा।'

-‘सोना जी . ... .।' कुंवरसाहब की आंखें डबडबा आईं-‘कुछ और कितना पर्दा रखेंगी यह आप जानें। परन्‍तु हमारी हालत यह है कि हम आपके बिना जिन्‍दा न रह सकेंगे। अगर आप चाहती हैं कि हम मर जाएं तो . ... .।'

सोना ने कुंवरसाहब के होंठों पर हाथ रख दिया।

दोपहर का खाना सोना और कुंवरसाहब ने साथ साथ खाया। फिर दोनों साथ साथ ही लेट गए।

लगभग चार बजे कुंवरसाहब की आंख खुलीं। तब निकट सोना नहीं थी।

कुंवरसाहब ने पुकारा-‘सोना . ... .सोना . ... .।'

भौंपू आया।

-‘चाय लाउं हुजूर।'

-‘सोना कहां है?'

क्षण मात्र के लिए भौंपू चुप रहा। फिर बोला-‘हुजूर . ... .।' वह मुड़ा और खूंटी पर से भरी हुई रायफल उतारकर कुंवरसाहब के सम्‍मुख रखते हुए कहा-‘ हुजूर आपका गुलाम हूं, चाहें तो गोली मार दें। सब कुछ जानता हूं और जानबूझ कर कह रहा हूं कि राधा वेश्‍या होते हुए भी देवी हैं और सोना असली वेश्‍या है, वह हरामजादी . ... .।'

-‘सोना कहां है?' चींखकर कुंवरसाहब ने कहा-‘सिर्फ इतना बताओ कि सोना कहां है?'

-‘गई।' भौंपू बोला-‘जाते वक्‍त झूठे आँसू बहाती हुई यह भी कह गई कि मजबूरी में जा रही हूं। लेकिन उसने आपसे जमीन तो ठग ही ली थी, अब यहां रुक कर क्‍या करती।'

-‘बुरी बात है भौंपू। सब कुछ जानबूझ कर ऐसा कहते हो। वह बेचारी मजबूर थी हीरा आया था न?'

-‘हीरा तो रोज आता था।'

-‘ओह !' कुंवरसाहब सुनकर स्‍तब्‍ध रह गए।

-‘चूंकि वह आपको ठग चुकी थी और फिलहाल और ज्‍यादह नहीं ठग सकती थी इसलिये चली गई।'

कुंवरसाहब विश्‍वास नहीं कर पा रहे थे।

कुछ क्षण रुक कर भौंपू बोला-‘मैं आपके मन की हालत समझता हूं सरकार। उसके जाते ही मैं राधा के यहां गया था। परन्‍तु लगता है वह कहीं गई हुई है। कोठे पर ताला लगा था। कितना अच्‍छा होता अगर राधा आ जाती।मैं . ... . मैं चाय लाता हूं सरकार!'

कुंवरसाहब न हां कर सके न ना कर सके।

0000

राधा कहीं गई नहीं थी शहर में ही थी।

वह कुंवरसाहब को चमत्‍कृत कर देना चाहती थी।

कुंवरसाहब ने उसे बहुत पैसा दिया था और जितना कुंवरसाहब ने दिया था वह सब उसने अलग जमा किया हुआ था। कुछ दिन पहले उसने नई कालोनी में जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था अब वह उसमें छोटी सी कोठी बनवा रही थी।

कई डिजाइनरों से बात करके उसने नक्‍शा बनवाया था। कोठी की जमीन कुंवरसाहब के नाम खरीदी गई थी। कोठी कुंवरसाहब के नाम से बन रही थी। लेकिन गुपचुप।

यह काम उसने दिल्‍ली के एक ठेकेदार के सुपुर्द किया था। खूब सलाह की थी। एक कवि के लिए जैसा घर होना चाहिए वैसा ही बने ! इसलिए !!

स्‍टोर रुम और रसोई के अतिरिक्‍त तीन कमरे और एक बड़ा कमरा बन रहा था।

बड़ा कमरा था लायब्रेरी के लिये। लायब्रेरी के अतिरिक्‍त जहां कविओं का कविता पाठ हो सके, कुछ व्‍यक्‍ति बैठ सकें इस योग्‍य हाल के प्रकार का कमरा !

छोटे कमरे में एक बड़ा पलंग। शयनागार।

एक कमरा जो पूर्व दिशा में खुलता था कवि का विशेष कमरा था। दो ओर खिड़कियां खुलती थी। एक खिड़की की ओर से अनार के वृक्ष दिखाई पड़ें दूसरी खिड़की की ओर से फुलवारी।

छोटे कमरे में एक बड़ा पलंग। शयनागार।

एक कमरा पहली मंजिल पर था। कुंवरसाहब मित्रों के साथ पी पिला सकें, इसलिए।

राधा अपनी नौकरानी तथा नौकरों सहित वहीं डेरा डाले पड़ी थी। इसलिए कि सभी उसकी आशा के अनुरुप हो।

बंगले का नाम तो कुंवरसाहब निश्‍चित कर ही चुके थे-‘पी कहां'।

यह शब्‍द बंगले के उपर सीमेन्‍ट के अक्षरों में लिखे जाने थे।

बड़ा उत्‍साह था राधा में-बहुत उमंग थी।

कोठे की नाजुक नर्तकी रेत और मिट्‌टी से सनी सारे दिन व्‍यस्‍त रहने के बावजूद वह कुंवरसाहब की ओर से बेफिक्र नहीं थी। उसने कई बार अपने नौकर को जासूस की तरह कुंवरसाहब की हवेली पर भेजा था ताकि वह देख आये कि कुंवरसाहब स्‍वस्‍थ तो हैं।

तेरहवीं से पहले नौकर दो दिन देख आया था।

कोठी पर तेजी से काम चल रहा था। राधा की रात भी वहीं बीतती थी। परन्‍तु विश्‍वासी नौकर और नौकरानी के अतिरिक्‍त शहर में यह बात कोई नहीं जानता था।

वह कुंवरसाहब को यहां लाकर एक बारगी चकित कर देना चाहती थी बस।

राधा को किसी प्रकार की गलतफहमी नहीं थी।

वह जानती थी कि जल्‍दी ही कुंवरसाहब विवाह करेंगे। रिश्‍तेदार उन्‍हें विवश कर देंगे।

परन्‍तु इससे उसे क्‍या?

विवाह तो उन्‍हें करना ही होगा। नहीं तो क्‍या कोठे वाली के साथ जिन्‍दगी गुजारेंगे?

वह रहेगी इस कोठी में!

सभी यह जानेंगे कि यह कुंवरसाहब की रखेल है। केाठे वाली है नहीं-थी।

परन्‍तु दूसरों के कहने सुनने से क्‍या होता है?

वह अपने मन से नई जिन्‍दगी आरम्‍भ करेगी।

जब कुंवरसाहब विवाह कर लेंगे तो वह उन्‍हें कभी दस बजे बाद रात में यहां न रहने देगी। कहा करेगी-‘जाइये दुल्‍हन इन्‍तजार करती होंगी। न जायें तो मेरा मरा मुंह देखें।'

रात में जल्‍दी सोने की आदी नहीं थी न। इसलिये जमीन पर बिछे बिछावन पर पड़ी पड़ी वह यही सब सोचा करती थी।

कोठी के आस-पास होंगे कुछ पेड़। छोटी सी फुलवारी।

इधर उत्‍तर की ओर वह छोटा सा मन्‍दिर बनवाएगी। कृष्‍ण कन्‍हैया का मन्‍दिर!

वह प्रातः चार बजे उठा करेगी।

पांच बजे स्‍नान आदि से निवृत होकर वह छः बजे तक भजन किया करेेगी, अपने मन्‍दिर में बैठकर कृष्‍ण कन्‍हैया को बांसुरी सुनाया करेगी।

छः बजे मन्‍दिर से उठना पड़ेगा। हां, जल्‍दी हुआ करेगी न !

फिर रसोई !

कुंवरसाहब को क्‍या-क्‍या पसन्‍द है यह सब जानना होगा।

बड़े आदमी ठहरे। दाल सब्‍जी आदि कम से कम गिनती में चार तो हों।

दस ग्‍यारह तक कुंवरसाहब आ जाया करेंगे। तब तक खाना तैयार हुआ करेगा।

नौकरों के भरोसे कुछ छोड़ देना ठीक नहीं होगा।

कोठे के नरक की जिन्‍दगी छोड़नी होगी। मैया री, यहां रह कर क्‍या वह शराब पीयेगी? हर्गिज नहीं! न न, अभी से कसम खाना ठीक नहीं होगा। जब कुंवरसाहब का हुक्‍म होगा तब कैसे इन्‍कार किया जा सकेगा?

राधा तुझे सम्‍पूर्ण बदलना होगा।

हां जी, बदलना तो होगा ही।

पूरे कार्तिक ठंडे पानी से स्‍नान करना होगा। हर व्रत रखना होगा।

अधिक चूड़ियां पहनना अच्‍छा नहीं लगता। परन्‍तु यह तो सुहाग और सौभाग्‍य का प्रतीक है। पहननी ही होंगी।

मेहंदी में हाथ खिल उठते हैं।

मांग से सिन्‍दूर बहुत अच्‍छा लगता है।

यह सब तो है। परन्‍तु कुंवरसाहब का मिजाज! खुश हुए तो ठीक . ... .नाराज हुए तो?

अब जैसा भी खेल भाग्‍य खिलाए।

जिन्‍दगी भर कुंवरसाहब की बन कर रहना है।

उनकी सुहागिन!

नहीं तो फिर उनकी जोगन!

जागते हुए इस प्रकार के सपने देखने में राधा को बहुत आनन्‍द मिलता था।

0000

मालविका के पिता रानीगढ़ी के रावजी को कुंवरसाहब ने रानी मां के मरने का समाचार नहीं भेजा था। यह समाचार उन्‍हें किसी और से मिला और जिस समय यह समाचार मिला उस समय रावजी बहुत ही परेशान थे-मालविका के कारण।

जहां तक मालविका का प्रश्‍न था वह भी उच्‍च वर्ग की भारतीय लड़कियों की तरह मोम की नाक थी। घर में कुंवरसाहब से विवाह तय हुआ वह भावनाओं से उनकी बन गई। घर में जब चर्चा हुई कि कुंवरसाहब ने अपनी बहन को ढेर रुपये दे डाले तो रावजी की भांति उसे भी बुरा लगा। रावजी ने कहा कि कुंवरसाहब को भूल जाना होगा तो कुछ देर बन्‍द कमरे में रोने के बाद उन्‍हें वास्‍तव में भूल गई। उसने उनकी कवितायें गुनगुनाना एकदम बन्‍द कर दिया।

यह बात कुछ आधुनिक युवकों और युवतियों को आश्‍चर्यजनक लग सकती है।

मालविका अनपढ़ नहीं थी, पढ़ी लिखी थी। क्‍या उसने अपने परिवार में अपनी चाहत के लिये अपनी पसन्‍द के लिये संघर्ष नहीं किया।

सचमुच उसने संघर्ष नहीं किया।

अगर यह बात सीधी मालविका से पूछी जाए कि-राजकुंवरी जी आपने ऐसा क्‍यों नहीं किया तो उत्‍तर मिलेगा-भाग्‍य से कौन लड़ सकता है?

मालविका की स्‍थिति को समझने के लिए राजस्‍थान को समझना जरुरी नहीं है। राजपूताने का रियासती युग जब राजस्‍थान का जनपद बना तो युवक युवतियों में चेतना आलोकित हुई।

तब ?

प्रश्‍न है आर्थिक रिश्‍ते के आधारों का।

हां। यह बहुत बड़ा प्रश्‍न है।

मालविका जहां की राजकुंवरी है उसी गढ़ी की कोई पढ़ी लिखी लड़की अपनी चाहत के लिये हठ कर सकती है। इसलिये कि उसे भारतीय संविधान का संरक्षण और शिक्षा एवं डिग्रियों का अवलम्‍बन प्राप्‍त है।

वह इस प्रकार का साहस कर सकती है, परन्‍तु जहां राजसी सुख का प्रश्‍न हो, लाखों के दहेज की बात हो, वहां चाहत के लिये विद्रोह संभव नहीं होता।

मालविका शिक्षित अवश्‍य थी, परन्‍तु शिक्षा का कोई ऐसा क्रान्‍तिकारी पहलू नहीं है जो सहज स्‍त्री को, वातावरण विशेष में पली स्‍त्री को क्रान्‍ति के लिए प्रेरित कर सके।

धन का महत्‍व सदा ही रहा है। इसका दोष अगर हम केवल महाजनी सभ्‍यता के मत्‍थ्‍ो ही मढ़ें तो उचित नहीं होगा। यह ठीक है कि भूतपूर्व राजे रजवाड़ों ने अपने शौक के लिये, अपने ऐश के लिये न केवल धन को बड़ी निर्ममता से फूंका। परन्‍तु हम यह क्‍यों भूल जायें कि उन्‍होंने आज के जनतन्‍त्र से कई गुणा कठोर होकर मालगुजारी वसूल कराई और बेगार प्रथा को भी जारी रक्‍खा।

जब मालविका को पिता का आदेश मिला कि कुंवरसाहब को भूल जाना होगा तो एक बारगी वह ठगी सी रह गई।

बन्‍द कमरे में वह बहुत देर रोती सुबकती भी रही।

मां ने समझाया-‘सभी कुछ तेरे भले के लिये ही तो है बेटी, पुराने दिन तो अब रहे नहीं कि आता रहे और जाता रहे। जो है उसी में गुजारा है। भला एक लाख कुंवरसाहब ने अपनी बहन को क्‍यों दिया? फिर तेरे राव बापू एक और बात कहते हैं-ऐसा तो था नहीं कि तेरे और उनके बीच कोई पर्दा था। मान लो कि मुझे नहीं पूछा, तेरे राव बापू को नहीं पूछा। बहन को रुपया देना था तो कम से कम तुझसे तो पूछते। पूछते तो तब न जब तुझे कुछ मानते . ... .।'

बात मालविका को भी चुभी। व्‍यर्थ का दम्‍भ उभरा।

उसी सांझ जब दासी ने भोजन सामने रक्‍खा तो . ... .।

दिन में कुछ खाया नहीं था।

अरुचि से ही सही, कुछ ग्रास लिये।

ऐसा एकदम नहीं हुआ। धीरे-धीरे हुआ। जब-जब कुंवरसाहब के साथ बीते क्षण याद आते तो वह उदास सी हो जाती, तब याद आता उन्‍होंने बहन को एक लाख दे डाला-उस से पूछा तक भी नहीं।

तो?

मन को समझाने का मानो उपाय मिल गया था। जब एक लाख की बात वह सोचती तो कठोर हो उठती।

कुछ भी न होते हुए वह राजकुंवरी थी, नारी में जो सहज रुप का अभिमान होता है उसमें सामन्‍ती दम्‍भ और घुल जाता।

अतएव . ... .।

एक दिन असामान्‍य रहकर दूसरे दिन वह सामान्‍य हो गयी।

यह अलग बात है कि कभी-कभी कुंवरसाहब की स्‍मृति बिजली की तरह चमक कर उसे आन्‍दोलित कर देती थी। परन्‍तु यह क्षणिक बातें थीं।

उसके घर में व्‍यवस्‍था अब भी सामन्‍ती थी। पिता के सम्‍मुख, माता के सम्‍मुख अब भी वर्जित था।

विद्रोह अभाव में होते हैं, अभाव तो कहीं था ही नहीं। विद्रोह का प्रश्‍न ही नहीं था।

यंू उसके मन में कई बार इच्‍छा हुई कि वह कुंवरसाहब को रोष भरा पत्र लिखे, कई अधूरे पत्र उसने लिखे भी-परन्‍तु पत्र पूरा करके भेजने का साहस वह नहीं जुटा सकी।

और . ... .।

एक बार रेडियो पर कुंवरसाहब की कविता सुनाई पड़ी तो उसने दासी से कहा-‘रेडियो बन्‍द करो। मेरी बिना आज्ञा के रेडियो मत चलाया करो। सुबह के नाश्‍ते के समय पॉप म्‍यूजिक के रिकार्ड लगाया करो।'

यह बीसवीं सदी का आधुनिक युग है।

परन्‍तु . ... .अठाहरवीं सदी के ढंग से भैंसा गाड़ी और घोड़ा गाड़ी का उपयोग है। सभी की समझ कैसे आधुनिक हो सकती है।

और . ... .।

रावजी ने तुरन्‍त ही मालविका के लिए दूसरा घर ढूंढना आरम्‍भ किया। सुल्‍तान गढ़ी के राजकुमार से मालविका का विवाह होगा यह बात पक्‍की हो गई। शगुन भेजने की तैयारियां चल रही थीं तब जैसे विस्‍फोट हुआ।

मालूम हुआ कि राजकुमार पर लगभग पन्‍द्रह लाख बम्‍बई के सेठों का कर्ज है और बहुत सी एक्‍ट्रेसों से राजकुमार की दोस्‍ती है।

रिश्‍ता बनने से पहले ही टूट गया।

परन्‍तु रिश्‍ता टूटने का उतना क्ष्‍ोाभ नहीं हुआ। बड़ी स्‍टेट श्‍यामपुर के महाराजा रिश्‍ते के लिये सहमत हो गये। उनके राजकुमार इंग्‍लैण्‍ड में थे। निश्‍चय हुआ कि राजकुमार जैसे ही आयेंगे तुरन्‍त ही शगुन चढ़ा दिया जायेगा।

राजकुमार आ गए। उनसे मिलने रावजी अकेले ही श्‍यामपुर पंहुचे और अपमान का जैसा कडुवा घूंट वहां पीना पड़ा वैसा अनुभव दूसरा नहीं था।

कई घण्‍टे प्रतीक्षा करने के बाद राजकुमार से मुलाकात हो सकी। श्‍यामपुर के हिजहाईनेस भी उपस्‍थित थे।

श्‍यामपुर के हिजहाइनेस ने रावजी से राजकुमार का परिचय कराया, कहा-‘राजकुमार हमने रानीगढ़ी की राजकुंवरी से आपका विवाह करने का निश्‍चय किया है। यह रानीगढ़ी के रावजी हैं। अगर चाहो तो राजकुमारी को देख भी सकते हो।'

परन्‍तु राजकुमार ने दो टूक उत्‍तर दिया-‘यह रिश्‍ता नहीं हो सकेगा महाराजा साहब . ... .।'

-‘क्‍यों?' राजा साहब चौंके।

-‘बम्‍बई में हमें महादेव के पुरोहित मिले थे।'

-‘हम महादेवपुर में आपका रिश्‍ता नहीं करेंगे।'

-‘मैं यह कब कह रहा हूं कि आप वहां रिश्‍ता करें। परन्‍तु महाराजा साहब पुरोहित जी ने बताया कि रावजी ने रतनपुर के कुंवरसाहब से रिश्‍ता इसलिये तोड़ दिया कि कुंवरसाहब ने किसी कारणवश अपनी बहन को कुछ रुपया दे दिया था। महाराज श्री आप कुंवर सूरजप्रकाश जी से खूब परिचित हैं। जो व्‍यक्‍ति उन जैसे विद्वान और देवता से नहीं निभ सकता वह हम से क्‍या निभेगा?'

-‘क्‍या यह सच है रावजी कि आपने कुंवर सूरजप्रकाश से भी रिश्‍ते की बात चलाई थी?'

रावजी से कुछ कहते न बना और राजकुमार इतना कह कर चले गए।

यह बात रावजी अपनी पत्‍नि अथवा राजकुंवरी मालविका को बताने का साहस न कर सके।

आज रानी साहिबा की मृत्‍यु का समाचार पाकर रावजी ने कुंवरसाहब को एक पत्र लिखा-

श्री कुंवर सूरज प्रकाश जी आशीष,

रानी साहिबा के स्‍वर्गवासी होने का समाचार मिला। बड़े दुख का समाचार है, मेरी संवेदना स्‍वीकार करें।

कुंवरसाहब, मैं अपनी गलती पर लज्‍जित हूं। इसी सप्‍ताह मैं मालविका को लेकर आपके पास पंहुच रहा हूं। वह आपके बिना रह नहीं सकती। मैं फिर रिश्‍ते की भीख मांगने के लिये विवश हूं।

यह तो प्रकट है कि आप नाराज हैं।

रानी साहिबा के निधन का समाचार आपने मुझे नहीं भेजा इसे मैं तो नाराजगी ही समझूंगा।

स्‍वीकार करता हूं कि मुझ से भूल हुई। परन्‍तु क्‍या क्षमा नहीं मिलेगी?

मालविका आपको बहुत याद करती है।

आपका . ... . . ... .।

रावसाहब ने पत्र को रजिस्‍टर्ड पोस्‍ट से भेजा।

मन कुछ हल्‍का हुआ।

अपनी पत्‍नि और मालविका के सम्‍मुख उन्‍होंने कहा-‘भई हमारे रजवाड़ों के राजकुमार एकदम गोबर गणेश होते है। अच्‍छी भली लड़कियों का वहां निभाह मुश्‍किल है। मैं तो मालविका की शादी रतनपुर के कुंवरसाहब से ही करुंगा। पढ़े लिखे हैं विद्वान हैं ।'

सुनकर रावजी की पत्‍नि चौंकी। मालविका ने दृष्‍टि फेर ली।

रावजी बेतुकी हंसी हंसे-‘हाथी बीमार हो सकता है, दुबला हो सकता है लेकिन हाथी भैंस नहीं हो सकता। उन्‍होंने अगर कुछ रुपये अपनी बहन को दे ही दिए तो क्‍या फर्क पड़ता है। यह दिल गुर्दे की बात है। इतना त्‍याग अपने रजवाड़ों का कोई राजकुमार नहीं कर सकता . ... .।'

मालविका लजाई सी उस कमरे से चली आई !

आज वह खुश थी। आज वह कुंवरसाहब का गीत फिर गुनगुना रही थी। मोम की नाक।

0000

साहूपुर जागीर सम्‍बन्‍धी मुकदमा सुना था जस्‍टिस उमेश भार्गव ने। सम्‍पूर्ण कार्यवाही हो चुकी थी केवल निर्णय देना शेष था।

पुख्‍ता सुबूतों और लगभग तीस गवाहों ने जैसे सरकारी सुबूतों की धज्‍जियां उड़ा दी थी।

छोटी अदालत की बात और थी परन्‍तु जबसे मुकदमा सेशन कोर्ट में आया था तब से गुप्‍ता जी के वकील कुछ शंकित से हो उठे थे।

वकील साहब ने कहा भी था-‘यार गुप्‍ता जी, मैं सोचता हूं कि कहीं लुटिया न डूब जाए।'

-‘क्‍यांे?'

-‘भार्गव साहब के दिमाग का पता नहीं चलता, अजीब दिमाग के आदमी हैं।'

सुलझे हुए ढंग से गुप्‍ता जी ने कहा-‘इसमें दिमाग क्‍या करेगा भई !सरकारी सुबूत कितने हैं?'

-‘वह सब ठीक है।'

-‘तब गलत क्‍या है?'

-‘भार्गव साहब छने हुए को छानने में माहिर हैं। होगा वही जो ईश्वर चाहेगा। अपनी तरफ से तो जान लड़ाई है इस मुकदमे में।'

वकील साहब शंकित थे परन्‍तु गुप्‍ता जी कच्‍चे खिलाड़ी नहीं थे। उन्‍हें अपनी सफलता पर पक्‍का विश्‍वास था।

अगले दिन फैसले की तारीख थी।

गुप्‍ता जी जैसे अनन्‍त खुशी और गमों को छुपा लेने वाले महासागर थे।

रानी मां की तेरहवीं के दिन वह अदालत से निपटकर ही पंहुचे थे। कुंवरसाहब ने देर से आने के मामले में उन्‍हें मीठी झिड़की भी दी थी।

परन्‍तु गुप्‍ता जी ने मुस्‍कराते हुए झिड़की सह ली, देर से आने के कारण को प्रकट नहीं किया।

रही कुंवरसाहब की बात, उन्‍हें यह याद रखने की जरुरत ही नहीं थी। उन्‍होंने एक दिन गुप्‍ता जी को कोर्ट फीस के लिये चैक दिया था, सुबूत और गवाहों की लिस्‍ट दी थी और फिर सब कुछ भूल गए थे। एक बार यह पूछा भी नहीं था कि मुकदमा दायर भी किया गया या नहीं।

फैसला अगले दिन भी नहीं हो सका।

शाम को लगभग चार बजे तक जस्‍टिस भार्गव दूसरा मुकदमा सुनते रहे। ठीक पांच बजे उन्‍होंने सूचना दी कि वह फैसला पूरा नहीं लिख सके इसलिये फैसला कल सुनाया जायेगा।

गुप्‍ता जी लौट रहे थे कि एक चपरासी ने आकर उन्‍हें रोका-‘कुंवर सूरज प्रकाश के एजेन्‍ट आप ही हैं?'

-‘हां।'

-‘आपको जज साहब बुला रहे हैं। अपने कमरे में।'

जज भार्गव अन्‍य जजों की अपेक्षा युवक ही थे। अधिकतम आयु होगी चालीस वर्ष। जब गुप्‍ता जी उनके सामने पंहुचे तो वह कोई मासिक पत्रिका हाथ में लिये थे।

जज साहब ने पूछा-‘आप कुंवर सूरजप्रकाश के वैतनिक एजेन्‍ट हैं?'

-‘जी नहीं।' गुप्‍ता जी ने उत्‍तर दिया-‘वह मुझे अपना मित्र मानते हैं। वैसे मेरी चौक में किताबों की दुकान है।'

-‘देखिए यह कविता सूरज प्रकाश की ही है न?'

गुप्‍ता जी ने कविता देखी।

यूं यह कविता मासिक पत्रिका के नए अंक में छपी थी, परन्‍तु गुप्‍ता जी ने यह कविता कुंवरसाहब से उसी दिन सुनी थी जब वह चैक लाये थे-

चौराहे पर थकीं प्रतीक्षायें,

और ले रही संध्‍या जमुहाई,

भीड़ भरा कोलाहल है ओ मन !

पूछ किसी से है गन्‍तव्‍य कहंा?

पूछ किसी से अपना कौन यहां?

हेर हेर कोई परिचित अपना,

बार बार ही नयन गए पथरा,

अनचाही अनचाही नगरी में-

रह रह कर जी उठता है घबरा,

आत्‍म सात कर रहा किन्‍तु सब ही,

अन्‍तर वाला अन्‍धा गहन कुंआ !

श्रम से थके कहीं घर लौट रहे,

विश्रामों से उकता कहीं चले !

अजब दृश्‍य हैं इस चौराहे के,

देख देख आशा की उमर ढले !

एक अधूरा पता पास मेरे ,

शायद ही पंहुंचू मैं आज वहां।

-‘जी।' कविता देखकर पत्रिका लौटाते हुए गुप्‍ता जी ने कहा।

-‘मेरा ख्‍याल है कुंवर सूरज प्रकाश की आर्थिक दशा तो खराब नहीं होनी चाहिए?'

-‘जी नहीं। आर्थिक दशा खराब नहीं है।'

-‘फिर उनकी कविता में इतनी निराशा की भावनाएं क्‍यों?'

-‘उनकी सभी कविताएं ऐसी नहीं होतीं।'

-‘जानता हूं। परन्‍तु यह कविता ऐसी क्‍यों है?'

गुप्‍ता जी ने जानबूझ कर उत्‍तर नहीं दिया।

जज साहब ने कहा-‘हमारा नाम मत लीजियेगा। उनसे कहियेगा उनके श्रोता और पाठक यह जानते हैं कि उन्‍हें भाग्‍य ने रवीन्‍द्रनाथ टैगोर जैसी सुविधाएं दी हैं और हिन्‍दी प्रेमी उनसे बहुत आशाएं रखते हैं।'

-‘जी।'

गुप्‍ता जी नमस्‍कार करके जाने लगे। जज साहब ने फिर टोका-‘सुनिए।'

-‘जी।'

-‘कुंवर सूरज प्रकाश को कई बार मैंने रेडियो से सुना है। वह अपनी कविताओं को जादू के संगीत स्‍वरों में ढाल कर प्रस्‍तुत करते हैं। अगर इस नगर में कोई ऐसा सार्वजनिक कवि सम्‍मेलन हो जिसमें कुंवरसाहब की कविताए्र सुनने का अवसर मिल सके तो मुझे सूचित कीजिएगा।'

-‘जी बहुत अच्‍छा।'

गुप्‍ता जी नमस्‍कार करके लौट आए।

उन्‍हें अपने आप पर गर्व सा हुआ। वह एक ऐसे व्‍यक्‍ति के लिए काम कर रहे थे जो जनता की सम्‍पत्‍ति था। छोटे बड़े सभी नागरिकों की सम्‍पत्‍ति।

काश गुप्‍ता जी जज साहब की बात जाकर कुंवरसाहब से कहते।

परन्‍तु नहीं !

वह तो मुकदमा जीतकर एक बारगी कुंवरसाहब को चौंका देना चाहते थे।

जज साहब ने अगले दिन भी फैसला कल पर टाल दिया।

काश आज ही गुप्‍ता जी अपने मित्र कुंवरसाहब से जाकर मिल लेते।

---

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. पढ़ कर अच्छा लगा। शर्मा जी का साहित्य हिन्दी अंतर्जाल से अधिक पाठकों को जोड़ेगा।

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  2. बेनामी9:51 am

    रोचक।
    धन्यवाद पढ़वाने के लिये|

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 8)
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