साताप्पा लहू चव्हाण का आलेख : आदिवासी विमर्श एवं हिंदी पत्रकारिता

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आदिवासी विमर्श एवं हिंदी पत्रकारिता - डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण हिंदी पत्रकारिता का शुरु से ही भारतीय सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदा...

आदिवासी विमर्श एवं हिंदी पत्रकारिता

- डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण

हिंदी पत्रकारिता का शुरु से ही भारतीय सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिंदी के अनेक युगप्रवर्तक पत्रकारों ने मानवीय समाज के विभिन्न विकासोन्मुख अंगों का अपनी लेखनी के माध्यम से दर्शन कराया है। स्त्री समस्या हो, छूत-अछूत समस्या हो, धर्म-जातिविषयक समस्या हो, सुदूर रह रहें आदिवासी हो या नागरी बस्ती में झुग्गी-झोपडियों में रह रहें आम आदमी हो, ग्रामीण समाज हो या नागरी समाज हिंदी के युगप्रवर्तक पत्रकारों ने सदा ही अन्याय के खिलाफ अपनी लेखनी तलवार की भाँति चलाई हुई दृष्टिगोचर होती है। हिंदी पत्रकारिता ने भारतीय समाज में स्थित स्त्रियों, दलितों और किसानों की समस्याओं के साथ-साथ आदिवासियों की समस्याओं पर भी गंभीरता से विचार किया है। इसे मानना होगा। पत्रकार प्रेमचंद जी ने मार्च 1930 के ’हंस’ में ’उपन्यास का विषय’ शीर्षक आलेख में विस्तार से उपन्यास के विषयों के संदर्भ में विवेचन किया है। प्रेमचंद जानते थे कि हिंदी पत्रकारिता जब तक स्वाभाविक परिस्थितियों के अनुकूल अपना विचार नहीं रखती तब तक वह अपना विकास नहीं कर पायेंगी।

हिंदी पत्रकारिता ने ’कल्पना कम, सत्य अधिक’ का विचार शुरु से किया है। अतः आदिवासियों के जीवन का यथार्थ रूप पाठकों के सामने रखने में हिंदी पत्रकारिता सफल हुई परिलक्षित होती है। पत्रकार प्रेमचंद कहते हैं - ’’शिक्षित-समाज की भाषा तो सर्वत्र एक है, हाँ भिन्न-भिन्न जातियों की जबान पर उसका रूप कुछ न कुछ बदल जाता है। बंगाली, मारवाडी, ऐंग्लो इंडियन भी कभी-कभी बहुत शुद्ध हिंदी बोलते पाए जाते हैं, लेकिन यह अपवाद है - नियम नहीं, पर ग्रामीण बात-चीत कभी-कभी हमें दुविधा में डाल देती है। बिहार की ग्रामीण भाषा शायद दिल्ली के आस-पास का आदमी समझ ही न सकेंगा। वास्तव में कोई रचना रचयिता के मनोभावों का, उनके चरित्र का, उसके जीवनादर्श का, उसके दर्शन का आईना होती है। अगर लेखक आशावादी है, तो उसकी रचना में आशावादिता छलकती रहेगी, अगर वह शोकवादी है, तो बहुत प्रयत्न करने पर भी वह अपने चरित्रों को जिन्दा दिल न बना सकेंगा।’’1

कहना आवश्यक नहीं कि पत्रकार प्रेमचंद हिंदी पत्रकारिता से मनुष्यों को भीतर से जानने की आशा करते हैं। सिद्धनाथ माधव की कहानी ’परख’ भारतीय चित्र-कला की उन्नति, लोक-शिक्षण आदि स्तंभों को ’हंस’ में स्थान देकर पत्रकार प्रेमचंद ने आदिवासी विमर्श की बात 1930 में छेड़ी थी, इसे मानना होगा। स्वतंत्रता पूर्व काल में प्रेमचंद ने भारतीय सामाजिक विकास के लिए वर्ग-चेतना के विभिन्न विकासात्मक पहलुओं का विवेचन अपने संपादकीय ’हंस-वाणी’ में किया है। प्रेमचंद की परंपरा को ही ’हंस’ के वर्तमान संपादक राजेंद्र यादव जीने आगे चलाया है। ’हंस’ के अगस्त 1986 के अंक में संपादक राजेंद्र यादवजी ने सच ही कहा है - ’’हम इस ’हंस’ को प्रेमचंद की परम्परा से ही जोड़ना चाहते हैं, सामाजिक समानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष, रूढ़ियों और आडम्बरों के खिलाफ जिहाद.. प्रेमचंद हमारे लिए मूर्ति या आदर्श से अधिक एक प्रेरणा और अंकुश है..।’’2

राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद के विचारों को ही समाजाभिमुख करने का सफल प्रयास किया हुआ परिलक्षित होता है। कथाकार संजीव, दक्षिण अफ्रिकाई कहानीकार रिचर्ड राइव, फखर जमान की पाकिस्तानी पंजाबी उपन्यासिका ’एक मरे बंदे की कहानी’ आदि भविष्य में आदिवासी विमर्श को सशक्त करने वाले लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित कर राजेंद्र यादव ने ’आदिवासी विमर्श’ को नया आयाम दिया। इसे मानना होगा। ’आदिवासी समाज और शिक्षा’ शीर्षक रामशरण जोशी की किताब की सराहना कर ’हंस’ ने आदिवासी विमर्श पर लंबी बहस छेडी। लेखिका रमणिका गुप्ता का पहला लघु उपन्यास ’सीता’ पर ’हंस’ ने बहस की। आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधिक रूप ही ’सीता’ लघु उपन्यास है। हिंदी पत्रकारिता ने समय-समय पर आदिवासी समाज का शोषण-दोहन और संघर्षों का वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है। इसे नकारा नहीं जा सकता। अनेक पत्रकारों ने दलित समाज के साथ-साथ आदिवासी समाज का अध्ययन कर अपने विचार पाठकों के सामने रखें है।

मोहनदास नैमिशराय, नाग बोडस, रमणिका गुप्ता, अखिलेश्वर झा, शैलेंद्र सागर, कमलेश्वर, प्रभाष जोशी आदि लेखकों ने ’पत्रकार’ के रूप में आदिवासी समाज का अध्ययन कर अपने आलेखों में समय-समय पर ’आदिवासी विमर्श’ को आगे बढाया है। दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श के विरोध में काम करने वाले अखबारों पर मोहनदास नैमिशराय ने ’हंस’ के माध्यम से तिखा प्रहार किया हुआ परिलक्षित होता है। मोहनदास नैमिशराय कहते हैं - ’’गैर दलित बस्तियों में दलितों के खिलाफ नफरत उग रही थी, जिसे हवा देने का भरखस प्रयास स्थानीय अखबार कर रहे थे, वे अखबार दलित नहीं सवर्ण चलाते थे जो अपने धर्म तथा संस्कृति के पक्षधर थे भले ही उन दोनों में से ही सडांध आने लगी हो।’’3

मोहनदास नैमिशराय ने आगे अपनी पत्रिका ’बयान’ में दलित विमर्श के साथ-साथ आदिवासी विमर्श को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया हुआ दृष्टिगोचर होता है। लेपचा, डफला, पिरमी, गारो, खासी, नागा (उत्तर तथा उत्तर पूर्वी क्षेत्र), भील, गरासिया मीणा, महादेव कोली, वार्ली (पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी क्षेत्र) संथाल, मुंडा, उराव, गौंड, कोल, भूमिया (मध्यवर्ती प्रदेश) टोडा, वायनाड, चेंचु, कुरोवन, अंडमानी, ओंज (दक्षिण क्षेत्र) प्रसिध्द समाजविद श्यामाचरण दुबे ने भारत के आदिवासी के प्रधान क्षेत्रों का किया यह विवेचन हिंदी पत्र - पत्रिकाओं में रिपोर्ट, आलेख और साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अन्तर्राष्ट्रीय चिंतक, लेखक एवं शिक्षाविद प्रो. मधुसूदन त्रिपाठी कहते हैं - ’’आज भारत आर्थिक विकास के पथ पर तेज गति से आगे बढता जा रहा है। भारत के हर हिस्से और हर वर्ग के चेहरे पर विकास की झलक देखी जा सकती है।

इस सबके बावजूद आज भी समाज का एक वर्ग ऐसा है जो हजारों साल पुरानी अपनी परंपराओं के साथ जी रहा है। भारत के आदिवासी आज भी जंगली परिस्थितियों में किसी तरह से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। संख्या में आदिवासी काफी है लेकिन विकास की बयार उन तक नहीं पहुँच पा रही है। आदिवासी समुदाय हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं लेकिन आज भी वे समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाये हैं और जरुरत इस बात की है कि आदिवासियों की समस्या को समझ कर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास किये जाएँ।’’4

कहना आवश्यक नहीं कि हिंदी पत्रकारिता ने भी इसी विचार को आगे बढाया है। बाबूराव विष्णु पराडकर, पंडित सुंदरलाल से लेकर डॉ. भीमराव अम्बेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय तथा आधी दुनिया के संपादक मधुसूदन त्रिपाठी, ’हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव, समर लोक की संपादिका पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज कथन के संपादक रमेश उपाध्याय, चक्रवाक के संपादक निशांत केतु, महाराष्ट्र से प्रकाशित लोकमत समाचार के संपादक अमिताभ श्रीवास्तव, नवभारत टाइम्स ग्रुप के सभी संपादक आज भी आदिवासी विमर्श पर सामग्री प्रकाशित कर आदिवासियों की सामाजिक संरचना, उनकी संस्कृति व धर्म, उनको दिए गए संवैधानिक अधिकारों और आदिवासी विकास कार्यक्रमों पर लंबी बहस छेड़ने में सफल हुए दृष्टिगोचर होते है।

हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासियों के बारे में जो साहित्य तथा टिप्पणियाँ प्रकाशित हो रही है वह आज भी अन्य समाज की तुलना में बहुत कम है। इसे मानना होगा। अभी आदिवासी समाज में जन्मे लेखक अपने ’समाज’ का सच लिख रहें हैं। अनेक आँचलिक उपन्यासों में आदिवासी समाज का चित्रण हुआ है लेकिन वह ग्रामीण या आँचलिकता की परिभाषा के अंतर्गत ही आया है।इसे नकारा नहीं जा सकता। मानव समाज के विकसोन्मुखता का सच उजागर करते हुए डॉ. एस. आर. सिंह कहते हैं - ’’मानव समाज अपने जीवन को और समृद्ध तथा सुविधापूर्ण बनाने के लिए सतत् संघर्ष करता रहा। उसका यह संघर्ष लम्बा और कष्टदायक रहा। अपनी जीविका कमाने का सुगम तथा बेहतर तरीका प्राप्त करने, अपने साथी मनुष्यों के साथ सहयोग के बेहतर तरीके निकालने, कला, साहित्य के विकास के लिए वह आगे की तरफ देखता रहा।’’ 5 मनुष्य का यह आगे देखना ही अनेक समस्याओं का कारण बना। यहाँ ही वर्गीय वातावरण निर्माण हुआ और एक समुह इतना पीछे रहा कि वर्तमान में भी वह ’आदिम’ नाम से ही परिचित बन गया।

हिंदी के अनेक वरिष्ठ पत्रकारों ने इस आदिम आदिवासियों की शोचनीय दशा की और स्वतंत्रता के बाद पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया। दलित समाज से भी बत्तर जीवन जिनके भाग्य में आया वह आदिवासी समाज वर्तमान में भी अत्यन्त दुःखी है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज भी आदिवासी समाज तमाम विरोधों को झेल रहा है। वैश्वीकरण के इस दौर में महाराष्ट्र हो या झारखंड सारे भारत भर में बसे आदिवासी जंगली फल, बेरीयाँ, पक्षियों के अण्डे, बीमार बकरों, हिरणों, सूअरों आदि शिकार कर पेट भरने में ही धन्यता मानते है। इस स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। जितेन्द्र श्रीवास्तव कहते हैं - ’’मानव सभ्यता के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी जाति मिले, जो पराधीनों के लिए उदार रही है। यहाँ यह कहने में संकोच नहीं है कि ’संस्कृति के दस्तावेज प्रायः बर्बरता के भी दस्तावेज होते हैं।’

गुलामी सबसे बड़ा अभिशाप होता है, वह सामाजिक - राजनीतिक हो अथवा शारीरिक - मानसिक।’’ 6 सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले ’गुलामी’ पर प्रहार करना आवश्यक है। हिंदी पत्रकारिता में इस ’सच’ को पाठकों के सामने रखा है। आदिवासी अस्मिता को उजागर करने वाले लेखक संजीव का उपन्यास ’पाँव तले की दूब’ ’हंस’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित कर हिंदी पत्रकारिता ने आदिवासी समाज को सही अर्थों में न्याय देने का प्रयास किया है। पत्रकार सविता चड्ढा कहती हैं - ’’पत्रकार केवल समाचार ही नहीं लिखता बल्कि समाज को एक नयी दिशा भी देता है। सूर्य के प्रकाश की तरह लोगों को राह भी दिखाता है।’’ 7 कहना आवश्यक नहीं कि हिंदी पत्रकारिता के दीपस्तंभ बने लेखक और पत्रकारों ने आदिवासी विमर्श को वर्तमान में भी बहस का केंद्र बनाया है। इसे नकारा नहीं जा सकता।

निष्कर्ष :-

हिंदी पत्रकारिता के युगप्रवर्तक पत्रकारों ने शुरु से ही भारतीय सामाजिक विकास का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। वर्तमान में पत्रकारिता में ’प्रोफेशनजिल्म’ का प्रादुर्भाव माना जाता है लेकिन इस प्रादुर्भाव से बचकर हिंदी पत्रकारिता के अनेक मूर्धन्य पत्रकारों ने अपना सामाजिक कार्य शुरु रखा है। पुराने पत्रकारों के त्याग-बलिदान से अभिभूत होकर ही राजेंद्र यादव, संजीव, रमणिका गुप्ता, मेहरुन्निसा परवेज, भारत भारद्वाज, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, अज्ञेय, प्रभाष जोशी, मोहनदास नैमिशराय, मधुसूदन त्रिपाठी आदि पत्रकार ’सूचना विस्फोट’ के इस युग में अपना कर्तव्य सफलता पूर्वक संपन्न कर रहे हैं।

भाषा और शब्दों की साधना के माध्यम सें वर्तमान समय में ’आदिवासी विमर्श’ को बहस का केंद्र बनाने में हिंदी पत्रकारिता सफल हुअी दृष्टिगोचर होती है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी समाज की विभिन्न समस्याओं का चित्रण करने वाले पत्रकारों एवं लेखकों को हिंदी पत्रकारिता ने सही स्थान दिया है। इसे नकारा नहीं जा सकता। हिंदी पत्रकारिता ने आदिवासियों के भविष्य - निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। आज हिंदी पत्रकारिता का जो तेजी से विकास हुआ दिखाई देता है, इसका श्रेय सामाजिक पत्रकारिता को जाता है।

हिंदी पत्रकारिता नये परिवेश के निर्माण का सामर्थ्य रखती हैं। स्त्रियों, दलितों और किसानों की समस्याओं के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता आदिवासियों की समस्याओं पर भी गंभीरता से विचार कर भारत सरकार को जगाने का काम सफलता पूर्वक कर रहीं है। आदिवासी विमर्श पर प्रकाशित कृतियों पर बहस कर, संपादकीय टिप्पणियों और निबंधों के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता ने आदिवासियों की सामाजिक समस्याओं, धार्मिक, राजनीतिक और आदिवासी जीवन के विभिन्न पक्षों पर सत्य का संधान करते हुए प्रकाश डाला है, इसे नकारा नहीं जा सकता।

संदर्भ-संकेत

संपादक प्रेमचंद - उपन्यास का विषय, ’हंस’, वर्ष-1, अंक-1, मार्च 1930, पृष्ठ-18.

संपादक राजेंद्र यादव -प्रत्यागत, ’हंस’, वर्ष-1, अंक-1, अगस्त 1986, पृष्ठ-5.

संपादक राजेंद्र यादव-’हंस’ वर्ष-12, अंक-4, नवंबर 1997, पृष्ठ-53.

प्रो.मधुसूदन त्रिपाठी- भारत के आदिवासी, लेखकीय से उदधृत

डॉ. एस.आर.सिंह - भारतीय सामाजिक विकास और हिंदी उपन्यास, पृष्ठ-10.

जितेंद्र श्रीवास्तव - भारतीय समाज की समस्याएँ और प्रेमचंद, पृष्ठ-13.

सविता चड्ढा - आजादी के पचास वर्ष और हिंदी पत्रकारिता, पृष्ठ-22.

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डॉ. साताप्पा लहू चव्हाण

अधिव्याख्याता

स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,

अहमदनगर महाविद्यालय, अहमदनगर - 414001 (महा.)

6/180, ’पितृछाया’ पंपिंग स्टेशन रोड, ताठे मळा, भुतकरवाडी, सावेडी, अहमदनगर.

Email : drsatappachavan@ymail.com Mob.ः 09850619074

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: साताप्पा लहू चव्हाण का आलेख : आदिवासी विमर्श एवं हिंदी पत्रकारिता
साताप्पा लहू चव्हाण का आलेख : आदिवासी विमर्श एवं हिंदी पत्रकारिता
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