देवेन्‍द्र प्रकाश मिश्र का आलेख : भारत की वननीति में बदलाव आवश्‍यक

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आजादी के बाद बनी भारतीय वननीति की समीक्षा सन 1988 में की गई थी। लेकिन परिस्‍थितियों के अनुसार उसमें हेर-फेर किए बिना यथावत्‌ लागू कर दिया...

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आजादी के बाद बनी भारतीय वननीति की समीक्षा सन 1988 में की गई थी। लेकिन परिस्‍थितियों के अनुसार उसमें हेर-फेर किए बिना यथावत्‌ लागू कर दिया गया, जबकि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र द्वारा अपनाई गई वननीति का भारतीय वनों पर प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों का विपरीत प्रभाव पड़ा है। किंतु पैंतीस साल व्‍यतीत हो जाने पर भी भारतीय वनों पर पड़ रहे कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये भारत सरकार द्वारा अभी तक कोई ठोस वननीति नहीं तैयार की गई है। जबकि भारत-नेपाल सीमावर्ती भारतीय वनों पर बढ़ रहे नेपालियों के दबाव को रोकने, वन संपदा व जैव विविधता की सुरक्षा के लिये वर्तमान वननीति में बदलाव किया जाना अतिआवश्‍यक हो गया है।

भारत के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव बिहारों में दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्‍तर भारत के हिमालय की तराई में आबाद राष्ट्रीय उद्यान एवं वनपशु बिहार सुरक्षा की दृश्‍टि से अत्‍यंत संवेदनशील हैं। देश के वनों की सुरक्षा के लिये आजादी के बाद 1952 में पहली ‘वननीति' बनी थी। इसके बाद बदलते परिवेश तथा समय की मांग के अनुरूप वर्ष 1978 में दूसरी वननीति बनी, जो अद्यतन यही लागू है। विडंबना यह कही जाएगी कि इस वननीति में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर स्‍थित महत्‍वपूर्ण जैव विविधता के संरक्षण एवं वनों की सुरक्षा को नजरअंदाज किया गया है। जबकि मित्र राष्ट्र नेपाल से भारत की लगभग 1400 किमी लम्‍बी सीमा सटी हुई है। सन्‌ 1975 से पूर्व भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर घने वनक्षेत्र स्‍थित थे, जिसमें दोनों ओर के समृद्ध वनक्षेत्र होने के कारण वन्य-पशुओं का आवागमन निर्बाध रूप से होता था।

उत्‍तर भारत में हिमालय की तराई में फैले अधिकांश वनक्षेत्र की सीमा पूर्व में पश्‍चिम बंगाल, दार्जलिंग जिले से लेकर पश्‍चिम में उत्‍तरांचल में पिथौरागढ़ तक स्‍थित है। पिथौरागढ़ में काली नदी के दोनों तरफ नेपाल राष्ट्र का इलाका एवं भारत का धारचूला कस्‍बा आबाद है। आवागमन की दृष्टि से दुर्गम होने के बाद भी यह क्षेत्र तिब्‍बत में पाए जाने वाले ‘चीरू' नामक हिरन के बालों से बने ‘शाहतूश शालों' की तस्‍करी के लिये विश्‍व विख्‍यात है। अपनी अति विशेष खासियत के कारण उच्‍च वर्ग में इस शाहतूस शालों की खासी मांग बनी रहती है। यही कारण है कि अधिकांश वन्यजीव तस्‍कर बाघ, तेदुंआ आदि के अंगों के बदले शाहतूस शाल प्राप्‍त करके उसकी तस्‍करी करते हैं।

गौरतलब है कि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र द्वारा अपनाई गई ‘सरपट वन कटान नीति' के कारण हिमालय की तराई के वनाच्‍छादित भू-भाग से नेपाल के इलाकों से वनों का सफाया हो गया। नेपाल राष्ट्र की सुनियोजित नीति के तहत सरकार ने इन क्षेत्रों में सेवानिवृत्‍त नेपाली सैनिकों को बसा दिया। जिसका प्रमुख उदेश्‍य भारतीय सीमा पर मजबूत नेपाली नागरिकों की सामाजिक फौज की स्‍थापना था। खाली हुई वनभूमि पर आबाद हुए नेपाली फौजियों को नेपाल सरकार द्वारा प्राथमिकता से असलहों के लाईसेंस भी प्रदान किए गए। हालांकि कालान्‍तर में नेपाल की लोकतांत्रिक सरकारों की स्‍थिति आयाराम-गयाराम की रही इसके कारण इन क्षेत्रों में आबाद हुए गांव माओवादियों के गढ़ बन गए, जो अब भी नेपाल सरकार के लिये समस्‍या का प्रमुख कारण बने हुए हैं।

यद्यपि यह मामला नेपाल की सरकार का है वह माओवादियों से कैसे निपटती है? लेकिन नेपाल की सरपट वन कटान नीति का भारतीय वनों पर अच्‍छा-खासा प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों से भारी विपरीत प्रभाव पड़ा है। नेपाल की ओर से वन के कट जाने के कारण भारतीय क्षेत्र में स्‍थित प्रमुख जैवविविध क्षेत्र में जलप्‍लावन एवं गाद (सिल्‍टिंग) जमा होने की समस्‍या बढ़ने लगी और सीमावर्ती वनक्षेत्र सूख गए साथ ही जंगल के घास मैदानों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा जबकि मानवजनित कारणों से वनों की सुरक्षा भी प्रभावित हुई। इसके अतिरिक्‍त पिछले तीन-चार सालों से नेपाल से सटे भारतीय क्षेत्रों में बाढ़ की विनाशलीला का कहर भी बढ़ने लगा है। यह भी सर्वविदित है कि नेपाल, चीन, कोरिया, ताईवान आदि कई देश वन्यजीव-जंतु उत्‍पाद के प्रमुख व्‍यवसायिक केंद्र हैं। जिसमें भारी मात्रा में ऊँचे दामों पर वन्यजीव उत्‍पादों की खरीद-फरोख्‍त होती है। जिनके लिये कच्‍चा माल हिमालय एवं हिमालय की तराई में बसे जैव विविधता क्षेत्रों में उपलब्‍ध है। ये राष्ट्र वन्यजीव एवं उससे निर्मित सामग्री का आयात-निर्यात करने वाले देशों की भूमिका अदा करते हैं। इन्‍हीं क्षेत्रों में सारा सामान विश्‍व बाजार में प्रवेश करता है। जहां प्रतिवर्ष 2-5 बिलियन अमेरिकी ड़ालर का व्‍यापार होता है।

वन्यजीवों के अंगों का यह अवैध कारोबार नारकोटिक्‍स के बाद दूसरे नम्‍बर पर आता है। इस स्‍थिति की गंभीरता का अनुमान नेपाल राष्ट्र ने पहले ही समझ लिया था शायद इसी का परिणाम है कि नेपाल सरकार ने अपने प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों के वन्यजीवों की सुरक्षा का दायित्‍व नेपाल आर्मी को सौंप दिया था। इसका परिणाम यह निकला कि नेपाली सैनिकों के दबाव के कारण वन्यजीव तस्‍कर भारत, श्रीलंका, म्‍यांमार, मलेशिया जैसे देशों में सक्रिय हो गए। हाल ही में यहां पकड़े गए वन्यजीव अंगों के तस्‍कर भी अपने बयानों में स्‍वीकार कर चुके हैं कि नेपाल राष्ट्र के प्रमुख बाजारों में निर्बाध वन्यजीवों के उत्‍पादों की तस्‍करी जारी है तथा नेपाल में एकत्र होने के बाद वन्यजीवों के अंग तिब्‍बत, चीन, कोरिया पहुंचकर ऊँचे दामों पर बिकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है अपनी वनसंपदा एवं वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये नेपाल राष्ट्र ने यथोचित प्रबंध कर रखा है लेकिन अन्‍तर्राष्ट्रीय तस्‍करी के मार्गों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।

नेपाल राष्ट्र द्वारा ‘सरपट वन कटान नीति' के अन्‍तर्गत बृहद पैमाने पर किए गए वन कटान का भारतीय क्षेत्रों पर प्रत्‍यक्ष अथवा अप्रत्‍यक्ष रूप से क्‍या प्रभाव पड़ा अभी तक इसका मूल्‍यांकन नहीं किया गया है। इतना ही नहीं उपरोक्‍त नीति के कारण भारतीय वन क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रतिप्रभाव को निष्प्रभावी करने के लिये भी कोई विशेष नीति भारत सरकार द्वारा नहीं अपनाई गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गंभीर स्‍थिति का मूल्‍यांकन किए बगैर इसे राज्‍यों के ऊपर छोड़ दिया गया है। यदि पूर्व में पश्‍चिम बंगाल से पश्‍चिम में उत्‍तराखंड तक फैले महानंदा वन्यजीव बिहार, मानस वन्यजीव बिहार, बुक्‍सा टाइगर रिजर्व, बाल्‍मीकी टाइगर रिजर्व, सोहागीबरवा वन्यजीव प्रभाग, सुहेलदेव वन्यजीव प्रभाग, कतर्नियाघाट वन्‍यजीव प्रभाग, दुधवा टाइगर रिजर्व, किशनपुर वन्यजीव बिहार, पीलीभीत का लग्‍गा-भग्‍गा वनक्षेत्र की स्‍थिति को देखा जाए तो ज्ञात होता है कि भारतीय सीमा की ओर नियंत्रण एवं संरक्षण की यथोचित व्‍यवस्‍था है परंतु नेपाल राष्ट्र की तरफ इन क्षेत्रों में पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को न्‍यूनतम स्‍तर पर ले जाने के लिये वनकर्मी अपने को असहज महसूस करते हैं।

भारतीय वनों पर लगातार नेपाली नागरिकों का दबाब बढ़ता जा रहा है। जिससे वन्यजीवों का अवैध शिकार हो अथवा पेड़ों को काटना हो, इसमें नेपाल नागरिक जरा भी कोताही नहीं बरतते हैं। स्‍थानीय स्‍तर के प्रबंध को यदि नजरअंदाज कर दिया जाए तो पैंतीस वर्ष बाद भी हमारे देश की वननीति में उपरोक्‍त कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये अभी तक न तो कोई मूल्‍याकंन किया गया है और न ही नई वननीति तैयार की गई है तथा भविष्य में भी ऐसी कोई आशा दिखाई नहीं पड़ती है। परंतु बदलते परिवेश में अब यह आवश्‍यक हो गया है कि हिमालय एवं हिमालय की तराई में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर भारतीय क्षेत्र में बसे जैव विविधता क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु एक व्‍यवहारिक ठोस वननीति बनाई जाए, अन्‍यथा की स्‍थिति में भारतीय वनों पर नेपाल की तरफ से पड़ रहे दुष्प्रभावों के भविष्य में और भी घातक परिणाम निकल सकते हैं, इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।

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(लेखक वाइल्‍ड़लाइफ पत्रकार हैं)

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-देवेन्‍द्र प्रकाश मिश्र,

नगर पालिका रोड़, पलियाकलां

लखीमपुर-खीरी।

ई-मेलः dpmishra7@gmail.com

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रचनाकार: देवेन्‍द्र प्रकाश मिश्र का आलेख : भारत की वननीति में बदलाव आवश्‍यक
देवेन्‍द्र प्रकाश मिश्र का आलेख : भारत की वननीति में बदलाव आवश्‍यक
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