नारी-विमर्श का बेबाक बयान : विष्णु प्रभाकर प्रा. डॉ .भाऊसाहेब नवनाथ नवले अधिव्याख्याता, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, श्री शिवाजी महाविद्या...
नारी-विमर्श का बेबाक बयान : विष्णु प्रभाकर
प्रा. डॉ .भाऊसाहेब नवनाथ नवले
अधिव्याख्याता, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
श्री शिवाजी महाविद्यालय,बार्शी
जिला-सोलापुर -413411 (महाराष्ट्र)
विष्णु प्रभाकर जी को बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कहना न्यायोचित होगा। यह वह व्यक्तित्व है जो साहित्यिक एवं सामाजिक योगदान के लिए अपने-आप में आजीवन बेजोड़ रहा है। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं (उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, रेखाचित्र, जीवनी, रिपोर्ताज) में विष्णु प्रभाकर जी का लेखन उच्चतम सीमा में अभिव्यक्त हुआ है, जो विषय वैविध्य के साथ प्रस्तुत होने पर भी अंततः नारी अस्मिता की पुरजोर हिमायत करता नजर आता है। उनका व्यक्तित्व आजीवन तत्वनिष्ठता में बंधा रहा है। माँ के आधुनिक विचारों की गहरी छाप विष्णु प्रभाकरजी के व्यक्तित्व पर रही है। परिवार में माँ का स्थान अनन्यसाधारण होता है। उनकी माँ की अनन्यसाधारणता पर ही परिवार की धूरा ठीक-ठाक संचलित होती थी। वह आधुनिक विचारों की सुशिक्षित महिला होने के कारण ही उनका सामाजिक कुप्रथाओं का पर्दाफाश किया और नारी अस्मिता एवं उसमें संघर्षशील होने का एहसास दिलाया।
परिवार की अभावग्रस्त स्थिति में भी विष्णु प्रभाकरजी को उनकी माँ ने शिक्षा के विविध सोपानों तक पहुँचाने के लिए अथक कष्ट सहे। अभावों के कारण वे उच्च शिक्षा से वंचित रहे। लेकिन शिक्षा की इस अधूरी इच्छा को हर किसी प्रकार का कष्ट सहकर ही हिंदी की विभिन्न उपाधियाँ प्राप्त की। अपने स्कूली जीवन से ही साहित्य के प्रति एवं लेखन के प्रति लगाव था। उनकी पहली कहानी सन् 1937 के ‘मिलाप’ मंे छपी। यही से उनका लेखन के प्रति अत्यधिक लगाव बढ़ता गया और वे हिंदी साहित्य में अपनी अमिट और स्मरणीय छाप छोड़कर विभिन्न मान-सम्मानों के अधिकारी बन गए। नाट्य साहित्य में व्यावसायिक स्तर पर भी लिखते थे। ‘हत्या के बाद’ नाटक से आपकी नाट्ययात्रा आरंभ हुई। उनका बाल नाटक ‘पानी आ गया’ बच्चों की दृष्टि से काफी पसंदीदा नाटक है। प्रस्तुत नाटक में बच्चों की चालाकी, बहाना बनाने की प्रवृत्ति तथा झूठ बोलने की प्रवृत्ति को अभिव्यक्ति मिली है। हिंदी नाट्य जगत् में मनोवैज्ञानिक एकांकीकार के रूप में भी विष्णु प्रभाकर जी की विशेष पहचान रही है। बच्चों के लिए शिक्षाप्रद एकांकियों की उन्होंने रचना की है।
कथा साहित्य में आपका व्यक्तित्व अपनी अनूठी शैली एवं एक ही केंद्रीय विषय को विभिन्न धरातलों पर प्रस्तुत करने की कला के कारण बेजोड़ रहा है। विष्णु प्रभाकर जी का पहला उपन्यास ‘ढलती रात’ सन् 1951 में प्रकाशित हुआ, जो आगे चलकर 1955 में ‘निशिकांत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात् 1955 में ‘तट का बंधन’, ‘स्वप्नमयी’(1969), ‘कोई तो’ (1980), ‘अर्धनारीश्वर’ (1992), ‘संकल्प’ (1993), परछाई तथा दरपण का व्यक्ति आदि रचनाएँ प्रकाशित हुई। ‘स्वप्नमयी’ तथा ‘दरपण का व्यक्ति’ को कुछ लोग लंबी कहानियाँ मानते हैं। प्रो. गोपाल राय मानते हैं कि ‘‘विष्णु प्रभाकर के उपन्यास में विषय का वैविध्य न के बराबर है। नारी नियति की बहुआयामी त्रासदी ही उनके उपन्यासों का केंद्रीय कथ्य है। (गोपाल राय- हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ-234) कहना सही होगा कि विषय वैविध्यता में अभाव होने के बावजूद वे ‘नारी विमर्श’ की पुरजोर हिमायत वे विभिन्न रचनाओं के जरिए और विभिन्न धरातलों पर करते रहे। विषय वैविध्य चाहे जो भी हो, लेकिन उनकी हर रचना मानवतावाद की हिमायत करती है, इस बात को स्वीकार करना होगा। उनके उपन्यास वर्गीय भेदाभेद, मध्यवर्गीय समाज की अनैतिकता तथा आर्थिक वैषम्य को अभिव्यक्ति अवश्य देते हैं। विष्णु प्रभाकर जी सदा नए के प्रति आग्रही रहे हैं। वे नयी मूल्य व्यवस्था चाहते हैं। मूल्यों की हिफाजत उनका स्थायीभाव एवं सकारात्मक पक्ष है। नए के प्रति असीम आस्था के संस्कार उन्हें अपनी माँ से विरासत के रूप में मिले हैं। इन्हीं संस्कारों की पूँजी को वे समाज के लिए आजीवन बाँटते रहे। ‘संघर्ष’ उनके स्थायीभाव का पहूल है। उनका साहित्य जीवन के प्रति आस्थावान तथा अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने की क्षमता देकर चेतना जागृति का प्रयास करता है। उनके उपन्यास साहित्य का मुख्य स्वर नारी जीवन के अंतस एवं बाह्य संघर्षों को अभिव्यक्ति देना है। उनके उपन्यासों में बाह्य संघर्ष की अपेक्षा आंतरिक संघर्ष, व्याकुलता, पीड़ा एवं उसकी बहुआयामी त्रासदी का हृदयद्रावक चित्रण हुआ है। उनकी रचनाओं में विभिन्न समस्याओं में त्रसित नारी का चित्रण पर्याप्त मात्रा में हुआ है। परित्यक्ता, विधवा, दहेज, अनमेल विवाह, यौन वासना, बलात्कार, पति की बेमन चाह आदि की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है।
‘ढलती रात’ उपन्यास जो बाद में ‘निशिकांत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, मानवतावाद की बेबाकी के साथ हिमायत करता है। प्रस्तुत उपन्यास के पात्रों में संघर्ष के बीज विद्यमान है। मानवता के लिए समर्पण इनके केंद्र में है। इस उपन्यास में निम्नमध्यवर्गीय युवक का आत्मसंघर्ष चित्रित हुआ है। यह युवक जाति-धर्मों के बीच की दीवारों को तोड़ते स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने संबंधी द्वंद्व को प्रस्तुत करता है। लेखक विष्णु प्रभाकर जी अपने पात्रों को निरंतर गतिशील एवं संघर्षरत रखने में माहिर रहे हैं-‘‘नदी मुक्त है, तभी उसमें पवित्रता होती है, तालाब बंद है, तभी वह सड़ता है, समय और काल में अंतर है। नियम के प्रति अनियमितता विद्रोह नहीं। अनाचार पाप है, पर आचार को जाने बिना उसके नियमों का पालन करना अनाचार से भी बुरा है। (विष्णु प्रभाकर-निशिकांत, पृष्ठ-146) द्रष्टव्य कथन से विदित होता है कि लेखक अपने पात्रों को स्वतंत्रता के साथ प्रस्तुत करते है। तालाब का बहुत अच्छा-सा उदाहरण देकर गतिशिलता के नियम तथा उसके परिणाम को रेखांकित किया है। विष्णु प्रभाकर जी का मानना है कि यदि युवा पीढ़ी को, उनके स्वच्छंद विचारों को रोकने का प्रयास किया जाता है, उन्हें अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य से उपेक्षित रखा जाता है तो निश्चित हमारी अवस्था भी तालाब के बंद पानी जैसी होगी। कहीं अन्याय होता है तो वे पात्रों को अन्याय के विरूद्ध लड़ने की सलाह देते हैं और मानते हैं कि अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ी गई लड़ाई विद्रोह नहीं है बल्कि वह न्याय की लड़ाई है।
पुरानी विवाह व्यवस्था पर भी लेखक ने तीखा व्यंग्य-प्रहार किया है। वे परंपरागत विवाह के बदले प्रेमविवाह की महत्ता बताते हुए उसकी हिमायत करते हैं। लेखक चाहते हैं कि प्रेमविवाह से ही जातिगत जकड़नों को तोड़ा जा सकता है और दोनों की दूरियों को कम किया जा सकता है। प्रस्तुत उपन्यास का नायक जाति-पांती एवं धार्मिक बंधनों से मुक्ति की तलाश के लिए संघर्ष करता है। कांत कहता है -‘‘सुरैया, सुरैया रहकर मेरी पत्नी होगी, अन्यथा नही। सुमित्रा और सावित्री मेरी जाति से कम नहीं।’’ (विष्णु प्रभाकर- निशिकांत, पृष्ठ 193) कहना आवश्यक नहीं कि कांत माता-पिताओं के अनावश्यक बंधनों को खारिज करना चाहता है। वह हमारी पुरानी मानसिकता में बंधी सुमित्रा-सावित्री की पुरूषाधीन संस्कृति का विरोध करते हुए जातिगत दूरियों को कम करने के लिए वह अंतर्जातीय प्रेमविवाह को महत्त्व देता है। डॉ. मोहनलाल रत्नकर कहते हैं -‘‘निशिकांत का मूल स्वर मानवतावादी रहा है।’’(डॉ. मोहनलाल- हिंदी उपन्यास द्वंद्व एवं संघर्ष, पृष्ठ-201) इससे स्पष्ट होता है कि कांत के जरिए लेखक जातीय भेदाभेद की नीति में परिवर्तन की कामना करता है। अंतर्जातीय विवाह को स्वीकार कर धार्मिक बुरी प्रथा-परंपराओं को तिलांजलि देने में ही उसका मानवीय पक्ष उभरकर आता है।
‘तट के बंधन’ अमानवीय नारी बंधनों से मुक्ति की तलाश है। इसमें नारी विषयक विभिन्न समसामयिक एवं प्रासंगिक पक्षों को उठाया है। विभिन्न समस्याओं को वर्तमान परिदृश्य में प्रस्तुत करना लेखक विष्णु प्रभाकर जी की दूरदर्शिता का उत्कृष्ट नमूना है। प्रस्तुत उपन्यास की मालती, नीलम, शीला एवं सरला विभिन्न स्तरों पर संघर्ष करती है। ये सभी नारी पात्र हमारी आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना उनका स्थायीभाव बना है। नीलम-डाकू प्रसंग, मालती-दहेज पीड़ा, शीला को उसका पति नहर में धकेल देता है। सरला को पति की हत्या में जबरन अपराधी बनाया जाता है। ये नारी पात्र अपनी दुर्गा शक्ति का परिचय देते हैं। कथा नायक गोपाल नारी शक्ति का परिचय देते हुए कहता है-‘‘कोई क्या कल्पना कर सकता था कि वह छुई-मुई नीलम एक दिन इतनी शक्ति पा लेगी आदमी के अंदर ही सब कुछ है, केवल उसे इस तथ्य को जानना है। तब उससे शक्तिशाली इस संस्था में कोई नहीं, विधाता भी नही।’’ (विष्णु प्रभाकर- तट के बंधन, पृष्ठ-189) कहना गलत न होगा कि पुरूष प्रधान संस्कृति में भी विष्णु प्रभाकर जी ने गोपाल की उक्त अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है, जो निश्चित ही प्रशंसनीय बात है। लेकिन नारी को लेखक एक सुझाव अवश्य देना चाहता है कि उन्हें अपनी शक्ति का एहसास होना जरूरी है। यदि नारियाँ अपनी शक्ति से भली-भाँति परिचित होती है तो वे हर कसी संकट का निडरता के साथ सामना कर सकती है।
विष्णु प्रभाकर जी का ‘कोई तो’ यह वह उपन्यास है जो नारी प्रधानता की चरम सीमा है। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक पुरानी मान्यताओं का विरोध करता है। लेखक मध्यवर्गीय समाज की रूढ़िवादी एवं पुरानी मान्यताओं को अपने विकास में रोड़ा मानते है। आज भी भारतीय समाज पुरानी रूढ़ियों की जकड़नों से मुक्त नहीं है। ‘कोई तो’ में लेखक ने ऐसे पात्रों की सृष्टि की है जो पुरानी मान्यताओं के खिलाफ बेबाकी के साथ लड़ती है। विष्णु प्रभाकर जी ने सुमिता, विभा, राजमती, ‘यामला, शाहिदा, रमा तथा किरण आदि नारी पात्रों में वह शक्ति भर दी है जो पुराने मूल्यों को तिलांजलि तथा नए मूल्यों को सहर्ष स्वीकार करने की क्षमता रखती है। ये नारी पात्र परिवर्तनशील समाज की कामना करते हैं। साथ ही ये धर्म, जाति-व्यवस्था, पुरूष प्रधान मानसिकता, सड़ी गली व्यवस्था, पुरूषों की भोगवादी दृष्टि, स्त्री के साहस का अभाव, गर्भधारणा तथा बलात्कार आदि समस्याओं का उद्घाटन हुआ है। इन समस्याओं के समाधान के लिए उक्त नारी पात्र संघर्षरत दिखाई देते हैं। नारी पात्र विद्रोही बनते नहीं बल्कि उन्हें परिस्थिति के कारण विद्रोही बनना पड़ता है। मध्यवर्गीय समाज के बिचैलियों एवं ठेकेदारों की कुप्रवृत्तियों कारण ये लड़किया क्रांतिकारी एवं संघर्षशील बन जाती है।
उपन्यास की नायिका वर्तिका है जो लेखक के क्रांतिकारी विचारों का प्रवर्तन करती है। वह अपने पिताजी के साथ काम करनेवाले मुस्लिम जाति के सहकर्मी के बेटे असद के साथ परीक्षा फीस जमा करने हेतु देहरादून से ग्वालियर तक की यात्रा करती है। वस्तुतः वर्तिका और असद का एक साथ यात्रा करना कोई अनुचित बात नहीं है। लेकिन हिंदू समाज के क्रूर ठेकेदार हिंदू लड़की को मुसलमान लड़के के साथ देखकर खौफनाक बन जाते हैं और दोनों केा एक-दूसरे से अलग कर देते हैं। साथ ही यही हिंदू समाज मुस्लिम व्यक्ति के साथ भागने का आरोप करता है और उसके निर्मल चरित्र पर कलंक पोतता है। वर्तिका के माता-पिताओं का कहना था कि वह यह बात किसी से न कहे और विवाह कर ले। लेकिन वर्तिका इस कलंक को छिपाना नहीं चाहती, वह इस कलंकित धब्बे के आरोप का पर्दाफाश करना चाहती है। यहीं से उसका संघर्ष शाश्वत रूप से शुरू होता है। नारी-अस्मिता एवं स्वाभिमान को तिलांजलि देकर किसी पुरूष का प्यार पाना वह नहीं चाहती है। वर्तिका द्वारा नारी मुक्ति के लिए उठाया गया यह कदम उस दीपक के समान है, जो खुद जलता है और दूसरों को प्रकाश देता है।
वह असह्य दुखों को सहते हुए समाज की कड़वी मानसिकता का विरोध करते हुए कहती है-‘‘ मैं पुरान पंथी नहीं हूँ। नारी मुक्ति का पूर्ण समर्थन करती हूँ, उसे छिपाना नहीं चाहती। समाज के जड़ नीति-नियमों पर आघात करने के लिए यह आवश्यक है।’’(विष्णु प्रभाकर- कोई तो, पृष्ठ-58) कहना सही होगा कि वर्तिका आम युवतियों का प्रतिनिधित्व करते हुए मध्यवर्गीय समाज के उन ठेकेदारों को सचेत करना चाहती है कि नारी अब अबला नहीं, सबला बनी है, उसने दुर्गा का रूप धारण किया है। डॉ. रामदरश मिश्र का कहना सही है कि ‘‘इसमें समाज और पुरूष से प्रताड़ित अनेक नारियों की व्यथा-कथा है और उसके माध्यम से पुरूष समाज के कुरूप चेहरे पर से नकाब हटाया है।’’ (रामदरश मिश्र- हिंदी उपन्यास ः एक अन्तर्यात्रा,पृष्ठ-174 ) उपन्यास की नायिका वर्तिका को उक्त आरोपों के कारण वर की खोज करनी पड़ती है, वह दक्षिणी नारायण से शादी करती है, जिसका जीवन भी त्रासदीपूर्ण गुजरा था। डॉ. राजलक्ष्मी नायडू कहती है-‘‘मुसलमान युवक असद के साथ भाग जाने के झूठे अफवाह के कारण वर्तिका को जीवनभर जीवन साथी की खोज में भटकना पड़ता है। ’’(डॉ.राजलक्ष्मी नायडू- विष्णु प्रभाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृष्ठ-103) द्रष्टव्य कथन से स्पष्ट होता है कि वर्तिका की आजीवन भटकन उसके अंतद्र्वंद्व को उजागर करती है। एक ओर वह मध्यवर्गीय समाज के ठेकेदारों का शिकार बन जाती है तो दूसरी ओर उसे अंतःसंघर्ष भी पर्याप्त मात्रा में सहना पड़ता है।
संक्षेप में कहना सही होगा कि विष्णु प्रभाकर जी ने वर्तिका के माध्यम से जाति-भेद, वर्गीय मानसिकता, परंपरागत रूढ़ मान्यताएँ एवं मध्यवर्ग की खोखली मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करने की चेतना जागृत की है। लेखक नए समाज का सृजन चाहता है। वह चाहता है कि उक्त रूढ़ मान्यताएँ समाज विकास में बहुत बड़ा अवरोध है। नए मानवीय मूल्यों के प्रति समाज में आस्था जगाने का प्रयास भी विष्णु प्रभाकर जी ने किया है। वर्तिका और नारायण से यह बात उभरकर आती है।
‘‘अर्द्धनारीश्वर’ का प्रकाशन सन् 1992 में हुआ। यह वह रचना है जो व्यक्तिमन, समाजमन एवं अंतर्मन के विविध स्तरों को अभिव्यक्ति देते हुए स्त्री-पुरूष समानता की अपिल करती है। प्रस्तुत ग्रंाि के प्रकाशक ने ‘अद्र्धनारीश्वर’ के अभिप्रेत के बारे में कहा है कि ‘‘अर्द्धनारीश्वर का अभिप्रेत नारी और नर की समान सहभागिता को प्राप्त करना है।’’(विष्णु प्रभाकर- ‘अर्द्धनारीश्वर, ब्लर्प मैटर से उद्धृत) विष्णु प्रभाकर जी की रचनागत केंद्रीय भूमि नारी-संवेदना मानी जा सकती है। उनकी हर रचना, चाहे वह किसी भी विधा से संबंधित क्यों न हो नारी की बेबाक हिमायत करती है। प्रस्तुत उपन्यास के बारे मे आलोचकों में काफी मत-भिन्नता परिलक्षित होती है। कुछ समीक्ष कइस रचना को उपन्यास कहने के पक्ष में नहीं है लेकिन अपने समीक्षागत अध्ययन के दौरान उसे उपन्यास के अंतर्गत ही ले लेते हैं।
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह वह रचना नहीं है जो बनी-बनाई है। इसमें अनुभव की पूँजी को संजोया है। नारी संवेदना को केंद्र में रखते हुए विष्णु प्रभाकर जी ने अपनी गांधीवादी दृष्टि का परिचय अवश्य दिया है। मधुरेश लिखते है-‘‘विष्णु प्रभाकर ‘‘अर्द्धनारीश्वर’ में अपने जीवनभर की संचित गांधीवादी दृष्टि लेकर स्त्री उत्पीड़न एक प्रमुख पक्ष का साक्षात्कार करते हैं। अपने अनुभव और सर्जनात्मक कल्पना को जोड़कर वे इस साक्षात्कार को भरसक, व्यापक और समग्र बनाने का प्रयास भी करते हैं।’’(मधुरेश - हिंदी उपन्यास ः सार्थक की पहचान, पृष्ठ-23) लेखक का उद्देश्य है, बलात्कार जैसी समसामयिक घृणित समस्या पर प्रकाश डालना और इस समस्या की पोल खोलना। कुछ आलोचक इस रचना को एक थीसिस मानते हैं। लेकिन यह वह थीसिस है जो वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक है जो समाजशास्त्र के जरिए समाज मन को अभिव्यक्ति देता है।
प्रस्तुत उपन्यास की नायिका सुमिता है जो प्रश्नों के घेरे में उलझ जाती है। उसके मन में वे प्रश्न उपस्थित होते हैं जो हर पीड़ित नारी अनुभव करती है। स्वयं के साथ घटे भयावह प्रसंगों ने ही सुमिता को चुप रहने नहीं दिया। वह बलात्कार पीड़ित नारियों पर अनुसंधान करती है। इस रचना को ‘कोई तो’ की अगली कड़ी कहा जा सकता है। उपन्यास के कहानी की शुरूआत सुमिता के पति अजित और ननद विभा के साथ रात्रि के शो में पिक्चर देखने के लिए जाने से होती है। शो के खत्म हो जाने के पश्चात् घटित भयंकर प्रसंग ही कल्पित फिल्म के बदले सुमिता के जरिए यथार्थ पिक्चर बन जाता है। उपन्यास की केंद्रीय घटना के रूप में सुमिता द्वारा अपनी कुँवारी ननद को भयंकर एवं भीषण प्रसंग में बचाने से होता है।
सिनेमा खत्म होने पर युवकों द्वारा सुमिता और विभा में से किसी एक की माँग की जाती है। लेकिन विभा की भाभी सुमिता अपनी कुँवारी ननद के बजाय खुद को उस भयावह प्रसंग का शिकार बनाती है। लेकिन घर आने पर अजित और विभा भी सुमिता पर आरोप और संदेह करते हैं। लेकिन सुमिता इस प्रसंग को चुपचाप बर्दाश्त नहीं करती बल्कि यहीं से उसकी नारी मुक्ति की तलाश की योजना बनती है। वह अपने संपर्क के दौरान धर्म, प्रांत तथा जाति की सीमा को लांघकर अपने शोध में बलात्कार की शिकार महिलाओं के साक्षात्कार लेती है।
प्रकाश मनु का कहना है कि ‘‘अर्द्धनारीश्वर’ एक उपन्यास कम, बलात्कार पर लिखा गया ‘कच्चा चिट्ठा’ ज्यादा है।’’ (प्रकाश मनु- बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यास, पृष्ठ-24) कहना गलत न होगा कि विष्णु प्रभाकर जी के सृजन केंद्र में मूलतः बलात्कार पीड़ित महिलाओं की व्यथा-कथा है। ध्यातव्य बात यह कि उपन्यास लेखन की कसौटी पर न कसने के बाद भी ‘‘अर्द्धनारीश्वर’ विचारणीय तथा चिंतनीय रचना प्रतीत होती है। कुछ लोग इस रचना को प्रबंधात्मक लेखन मानते हैं। इसे प्रकाश मनु दूसरे शब्दों में सच्चाई एंव उसके स्तरीय एवं प्रासंगिक होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-‘‘यह शोध उसके लिए वैसा नीरस और मुर्दा शोध नहीं है, जैसे आजकल यूनिवर्सिटियों में होते हैं।’’(प्रकाश मनु- बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यास, पृष्ठ-24) अपने शोध के दौरान सुमिता इस बात से अवश्य परिचित हो जाती है कि समाज का सर्वहारा तथा निम्नवर्ग रोजी-रोटी की तलाश में नगरों तथा महानगरों की ओर बढ़ जाता है। इसी वर्ग में यौन-शुचिता के अत्यधिक उदाहरण मिल जाते हैं।
राजकली बंबई पुलिस के अत्याचारों का शिकार बन जाती है। सुमिता राजकली पर हुए अत्याचारों की जानकारी पाती है। त बवह राजकली के प्रति उसके माँ-पिता तथा परिवारवालों ने दी हुई प्रतिक्रियाओं को प्रस्तुत करती है-‘‘मैंने उन्हें सब कुछ बताया। अस्पताल भी ले गई, लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया। आप भी कुछ नहीं करेंगी। लेकिन मैं करूँगी। बंबई लौट आने दो, फिर बताऊँगी उस कुत्ते को...।’’ (विष्णु प्रभाकर- अद्र्धनारीश्वर, पृष्ठ-57) वह सुमिता के सामने पुलिस की काली करतूतों को बेबाकी के साथ प्रस्तुत करती है। उसे सुमिता के कहने पर भी विश्वास नहीं होता है। क्योंकि उसे लगता है कि माँ तथा परिवारवालों से इस अत्याचार को लेकर कुछ नहीं हुआ तो सुमिता कैसे हल पा लेगी
उपन्यास की मार्था ईसाई तथा किरण बलात्कार का शिकार हो जाती है। साथ ही शाहिदा अंतर्जातीय विवाह करना चाहती है। लेकिन परिवार के सदस्य उसका विरोध करते हैं। तब सुमिता की थीसिस से काम निपट जाता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि विष्णु प्रभाकर जी ने अर्द्धनारीश्वर’ के जरिए विविध समस्याओं की पोल खोलकर बलात्कार पीड़ित महिलाओं को बेबाक अभिव्यक्ति दी है। कहना आवश्यक नहीं कि ये पीड़ित महिलाएँ ही बलात्कार कर्ताओं को सही दिशा दिखाती है।
निष्कर्ष -
अंततः कहा जा सकता है कि विष्णु प्रभाकर जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा कृति पक्ष बेजोड़ रहा है। परिवेश एवं अनुभव जगत् का लेखा-जोखा ही उनका व्यक्तित्व है। समाज के दलित, पीड़ित तथा अभावग्रस्त पात्रों को अभिव्यक्ति देकर उनमें नई चेतना जागृति की है। उनके अत्याचार तथा बलात्कार पीड़ित पात्र अन्याय को सहने की मानसिकता में नहीं है। बल्कि नए सिरे से लड़ने का साहस जुटाते हैं। लेखनगत तथा विषयगत वैविध्य होने के बावजूद कहना न्यायोचित होगा कि विष्णुप्रभाकर जी ने नारी अस्तित्व, अस्मिता तथा नारी मुक्ति की कामना को केंद्र में रखकर हिंदी साहित्य में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, जो हिंदी दुनिया के लिए महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माननी होगी। उनकी हर रचनाएँ विभिन्न समस्याओं की यथार्थ प्रस्तुति के साथ किसी न किसी रूप में नारी विमर्श की बेबाक पहल करती है।
संदर्भ -
1. गोपाल राय - हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ-234
2. विष्णु प्रभाकर- निशिकांत, पृष्ठ-146
3. वही, पृष्ठ-193
4. डॉ. मोहनलाल रत्नाकर- हिंदी उपन्यासः द्वंद्व एवं संघर्ष, पृष्ठ-201
5. विष्णु प्रभाकर- तट के बंधन, पृष्ठ-189
6. विष्णु प्रभाकर- कोई तो,पृष्ठ-58
7. डॉ. रामदरश मिश्र- हिंदी उपन्यास ः एक अन्तर्यात्रा, पृष्ठ-174
8. डॉ. राजलक्ष्मी नायडू- विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व, 103
9. विष्णु प्रभाकर- अद्र्धनारीश्वर, बल्र्प मैटर से, 57
10. मधुरेश - हिंदी उपन्यास ः सार्थक की पहचान, पृष्ठ-23
11. प्रकाश मनु - बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यास, पृष्ठ-24
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