एक अंधी हवस का शिकार आदमी भूल बैठा है आपस का प्यार आदमी खुद से जब तक नहीं आशकार आदमी आदमी में न होगा शुमार आदमी जीतकर भी गया जंग ...
एक अंधी हवस का शिकार आदमी
भूल बैठा है आपस का प्यार आदमी
खुद से जब तक नहीं आशकार आदमी
आदमी में न होगा शुमार आदमी
जीतकर भी गया जंग हार आदमी
कितना नादान है होशियार आदमी
जान किन मौसमों के हवाले हुआ
आदमी को नहीं साजगार आदमी
अपने साये के पीछे चला जा रहा
एक खंजर लिए तेज धर आदमी
प्यार की साख पर आज बाज़ार में
नप़फरतों का करे कारोबार आदमी
अपने ही आप से जंग हारा हुआ
अपने ही आप से शर्मसार आदमी
दोस्ती हो वफा हो कि किरदार हो
अब किसी का नहीं पासदार आदमी
सबसे बढ़कर वही सबसे आला वही
ऐसे एहसास का है शिकार आदमी
ख़्वाब के रेगजारों में खोया हुआ
तिश्नगी का लगे इश्तेहार आदमी
भूख इक मसअला और दो रोटियाँ
खो न दे अपना हर इख्तियार आदमी
दरिया-दरिया वही ख़्वाब की कश्तियाँ
क़तरा-क़तरा वही अश्कबार आदमी
ख्वाब ‘रौशन’ न था फिर ये देखा है क्या
अपनी ही लाश पर सोगवार आदमी
-----.
नहीं जानता था कि यूं घात होगी
मेरी जिन्दगी मुझको खैरात होगी
न अल्फाज अपने न अपनी जुबां है
भला ऐसे लोगों से क्या बात होगी
ये सूरज नहीं फैसला हम करेंगे
कहाँ दिन रहेगा कहाँ रात होगी
सियासत, सियासत, सियासत, सियासत
सियासत से निकलो तो फिर बात होगी
हमें क़त्ल होना है हम क़त्ल होंगे
उन्हें दान देना है खैरात होगी
मजूरांे को बेगार करनी पड़ेगी
किसानों के हक़ में न बरसात होगी
हमारा नमस्कार कहना उसे तुम
अगर जि़न्दगी से मुलाकात होगी
सियासत की शतरंज ‘रौशन’ भुलावा
सियासत से निकलो तो फिर बात होगी
-----.
अब जलती है अब जलती है
गीली लकड़ी कब जलती है
कर्म नदी के शीतल जल में
तृष्ण बे-मतलब जलती है
याद रहे तो भूल न होगी
शम्आ सारी शब जलती है
भोर लगे है घोर अमावस
कौन चिता यारब जलती है
अँधियारे ये जान चुके हैं
दीप शिखा बेढब जलती है
हिर्सो-हवस की आग है ‘रौशन’
घर-बाहर जब-तब जलती है
-----.
सब का यही बयान था होगी किसी की लाश
पहचान ही न पाया कोई जि़न्दगी की लाश
बुनते रहे हैं अतलसो-कमख़ाब जिसके हाथ
महरूम एक तारे-कफ़न से उसी की लाश
कोई सुराग कोई निशां तक नहीं मिला
दुख की नदी में डूब गयी यूं खुशी की लाश
हर शख़्स खुद गरज है तो हर बात मस्लेहत
क्या दफन हो चुकी है दिलों में खुदी की लाश
‘रौशन’ पड़े हुए हैं वतन में हम इस तरह
परदेस में हो जैसे किसी अजनबी की लाश
-----.
हवसकारों की बस्ती का हर इक मंजर निराला है
उजालों में अँधेरा है अँधेरों में उजाला है
यहाँ चढ़ते हुए सूरज की पूजा लोग करते हैं
यहाँ गिरते हुए को दोस्तो किसने संभाला है
कोई लम्हा, कोई साया मसर्रत का न रास आया
गमों ने दोस्तो मुझको बड़ा नाजों में पाला है
सुखन सद राज है अपना अलग अन्दाज है अपना
मुझे इस जिन्दगी ने और ही सांचे में ढाला है
तुम्हारी अंजुमन से जो सलामत लौट कर आये
जमाने में कोई ऐसा कहां तकदीर वाला है
-----.
रूप का सोना न धन की प्यास है
जिन्दगी तो सिर्फ एक एहसास है
मेरे दिल में एक नन्ही आस है
आदमीयत पर जिसे विश्वास है
आस्था है, प्रेम है, विश्वास है
इनमें से क्या कुछ तुम्हारे पास है
जिनके घर वातानुकूलित हैं यहां
जेठ भी उनके लिए मधुमास है
देश की अय्याश सत्ता के लिए
निर्धनों की भूख भी परिहास है
झूठ को भी सच बना सकता है वो
लेखनी शासन की जिसके पास है
तेरी बातों में है बीते कल का झूठ
मेरे हाथों में नया इतिहास है
दुख गरीबी यातना शोषण दमन
आज के जनतंत्र की मीरास है
हर कथन गूंगे का गुड़ साबित हुआ
हर अमल नंगा विरोधभास है
मौत के सौदागरों की मंडियाँ
जिन्दगी का सच यहां बकवास है
सो गया फुटपाथ पर चिथड़े बिछा
क्या करे उसका यही आवास है
कौन मानेगा कि सिर पर आग है
जब तलक तलवों के नीचे घास है
कुछ बिगड़ता तो नहीं बहरूप से
आईने का टूटता विश्वास है
कोई दशरथ है न कोई कैकयी
फिर भी जीवन राम का वनवास है
कामयाबी सबको ‘रौशन’ चाहिए
प्रश्न ये है धैर्य किसके पास है
-----.
कोई बुश है कोई ओबामा है
किसने गिरते धुओं को थामा है
आदमी खुद को आदमी न कहे
मुफलिसी वो करारनामा है
कृष्ण कोई नजर नहीं आता
जिसको देखो वही सुदामा है
जिसका कालर है जेब के नीचे
जिन्दगी एक ऐसा जामा है
उनके कदमों में ऐटमी हथियार
मेरे हाथों में मेरा खामा है
कुफ्रो-ईमां में कोई फर्क नहीं
ये मुहब्बत का कारनामा है
ये किसी क़त्ल की रिपोर्ट नहीं
आदमीयत का पंचनामा है
भूख उस घर की देन है ‘रौशन’
वक्त जिस घर में खानसामा है
-----.
हर कदम आजमाये गये
फिर भी हम मुस्कुराये गये
छोड़कर हमको किस मोड़ पर
सारे अपने-पराये गये
खाक की आमतें जब खुलीं
हर कदम सिर झुकाये गये
उनको इल्जाम क्या दीजिए
दिल के हाथों सताये गये
हम कि खामोश देखा किये
वो लगाए-बुझाये गये
लोग देरो हरम तक गये
वो कहीं और पाये गये
-----.
शोषकों के बदन दबाते हैं
कितनी मेहनत से हम कमाते हैं
फसल वादों की जो उगाते हैं
वोट सबसे अधिक वो पाते हैं
दाल-रोटी का आसरा देकर
ऊँगलियों पर हमें नचाते हैं
आपकी फब्तियाँ भी सुनते हैं
आपको पान भी खिलाते हैं
दूसरों के लिए वो क्या बोलें
शब्द को देर तक चबाते हैं
-----.
सोचो तो औसान नदारद
बस्ती से इन्सान नदारद
किरदारों की बात ही क्या है
चेहरों की पहचान नदारद
प्यास लगे तो दरिया गायब
भूख लगे तो नान नदारद
मरने के हैं लाख बहाने
जीने का इमकान नदारद
अपने-अपने काबा-काशी
यानी हिन्दुस्तान नदारद
देख रहा हूँ गुमसुम बचपन
वो निश्छल मुस्कान नदारद
घर में वैसे सब कुछ ‘रौशन’
रिश्तों का सम्मान नदारद
-----.
शब्द का भरम टूटे
इससे पहले दम टूटे
मंजिलों से खत आया
राह में कदम टूटे
पहले दिन से आख़िर तक
दिल पे सारे गम टूटे
खुल के बात हो जाये
शर्म बे-शरम टूटे
खत्म जब कहानी हो
बेहिचक कलम टूटे
खौफ बन गयी जंजीर
चुप की डोर कम टूटे
सच के रास्ते ‘रौशन’
झूठ के सितम टूटे
-----
संवेद, मार्च 2010 से साभार.
सम्पादक: किशन कालजयी
सम्पादकीय सम्पर्क
एफ-3/78-79
सेक्टर-16, रोहिणी, दिल्ली-110089
फोन: 011-27891526
रोशन लाल जी की शायरी से रूबरू कराने का बहुत बहुत शुक्रिया , कुछ शेर तो दिल को छू गए ...
जवाब देंहटाएंअब जलती है अब जलती है
गीली लकड़ी कब जलती है
कोई बुश है कोई ओबामा है
किसने गिरते धुओं को थामा है
ये सूरज नहीं फैसला हम करेंगे
कहाँ दिन रहेगा कहाँ रात होगी
भूख इक मसअला और दो रोटियाँ
जवाब देंहटाएंखो न दे अपना हर इख्तियार आदमी
दरिया-दरिया वही ख़्वाब की कश्तियाँ
क़तरा-क़तरा वही अश्कबार आदमी
*******************
हवसकारों की बस्ती का हर इक मंजर निराला है
उजालों में अँधेरा है अँधेरों में उजाला है
उमदा अश’आर हैं
पढ़ कर बहुत लुत्फ़ हासिल हुआ
मेरी तरफ़ से दाद हज़िर है क़ुबूल फ़रमाएँ