(पिछले भाग 6 से जारी… ) ए क के बाद एक बुलावा। क्या हो गया है राधा को-कहीं बावली तो नहीं हो गयी। कुंवरसाहब ने हंस कर कहा-‘हां हां ...
एक के बाद एक बुलावा।
क्या हो गया है राधा को-कहीं बावली तो नहीं हो गयी। कुंवरसाहब ने हंस कर कहा-‘हां हां बाबा, आउंगा।'
-‘जी बाई जी ने कहा है सात बजे से पहले ही ।'
हंसते हुए कुंवरसाहब ने एक कागज पर लिखा-‘मैं कवि सूरज प्रकाश जिसे लोग गलती से कुंवरसाहब कहते हैं, ठीक पौने सात बजे राधा देवी के यहां पंहुचने का वादा करता हूं। रसीद लिख दी है ताकि वक्त जरुरत काम आए।'
यूं एक पल भी सोना को छोड़ना अच्छा नहीं लगता था, परन्तु आज सोना से बाकायदा इजाजत लेकर पौने सात बजे से भी कुछ मिनिट पहले कुंवरसाहब जब राधा के कोठे पर पंहुचे तो राधा को कोठे से नीचे प्रतीक्षा में खड़े पाया।
-‘नमस्ते हुजूर . ... .उतरियेगा नहीं। जरा चलना है।'
-‘कहां चलना है?'
-‘शहर में ही, ज्यादा दूर नहीं। बस क्लब तक।'
-‘क्लब किसलिये ?'
कार का दरवाजा खोलकर कुंवरसाहब के निकट बैठते हुए राधा बोली-‘यह वहीं पंहुचकर बताउंगी।'
क्लब के द्वार पर कुंवरसाहब और भी चमत्कृत हुए। लाॅन में शामियाना लगा था। शामियाने के निकट ही खूबसूरत मचान बना था, मचान पर अनवर शहनाई नवाज अपने साथियों सहित मंगल संगीत गुंजा रहा था।
कुंवरसाहब ने राधा से पूछा-‘किसी की शादी है क्या?'
-‘नहीं हुजूर . ... .कार अन्दर ले चलो न भौंपू जी।'
ओह राधा . ... .।
कार से उतरकर जब कुंवरसाहब शामियाने में प्रविष्ट हुए और गुप्ता जी, डाक्टर माथुर तथा उनके अनेकों स्थानीय मित्रों ने यथा योग्य उपहारों और फूल मालाओं से लादकर जन्म दिन की बधाई दी तो कुंवरसाहब को सचमुच याद आ गया कि आज उनकी वर्षगांठ है। सदा ही वर्षगांठ पर हवेली में छोटा मोटा आयोजन होता था। परन्तु यह काम था रानी मां का, अब की बार अपनी बीमारी के कारण रानी मां को शायद याद नहीं रहा। कौन याद रखता-राधा को याद रहा। आश्चर्य !
डाक्टर माथुर ने कहा। धीमे से, कोई और न सुन पावे ऐसे-‘कुंवरसाहब, कभी विश्वास नहीं हुआ। परन्तु सुना था कि कोई ऐसा भी पत्थर होता है जिसके छूने से प्रत्येक धातु सोना हो जाती है। क्या बना दिया है तुमने राधा को, हस्पताल आई और कहने लगी कुंवरसाहब की वर्षगांठ मना रही हूं, कोठे पर आना आप पसन्द नहीं करेंगे, इसलिये क्लब में आइयेगा। सात बजे . ... .तब तक नहीं टली जब तक कि मुझ से हां न करा ली।'
गुप्ता जी ने थोड़ी देर बाद कहा-‘मैं ठहरा दुनियादार बनिया, परन्तु मानना ही होगा कि राधा बहुत शुभचिन्तक स्त्री है।'
यह कुंवरसाहब के अतिरिक्त किसी ने नोट नहीं किया था कि लोगों ने जब आते ही कुंवरसाहब को फूल मालाओं से लादा था, तब राधा चुपचाप कुछ फूल उनके जूतों पर रखकर व्यवस्था देखने चली गई थी।
अधिक व्यक्ति नहीं थे, कठिनता से कुल थे बीस। परन्तु अतिथियों के लिये राधा ने नगर के सबसे बढ़िया होटल मैनेजर से व्यवस्था कराई थी।
जब जाम उठाकर कुंवरसाहब के दीर्घायु होने की कामना की गई तो राधा भी कुछ क्षण के लिये सम्मुख आई। परन्तु वैसे वह व्यस्त थी, उसी के द्वारा तो यह आयोजन आयोजित था। देख भाल उसके जिम्मे थी, यहां भी वहां भी।
इस बीच कुंवरसाहब ने उसे टोका भी नहीं।
सात बजे आरम्भ होकर साढ़े आठ बजे कार्यक्रम समाप्त हो गया।
तब जबकि सभी जा चुके थे।
कुंवरसाहब ने कहा-‘अब चलो न?'
-‘कहां?'
-‘अपने घर नहीं जाओगी?'
-‘आपको विदा किये बिना कैसे जाउंगी?'
-‘मुझे साथ नहीं ले चलोगी?'
उस शामियाने में इस समय वह थी और कुंवरसाहब थे। कुंवरसाहब की बांह थाम कर वह तनिक झुकी। उसका माथा कुंवरसाहब की बांह से छू गया।
-‘हुजूर जन्मदिन मुबारक हो, अगर हुक्म हो, अगर जानबख्शी हो तो कुछ अर्ज करुं?'
कुंवरसाहब मुस्कराये-‘इतने तकल्लुफ के साथ कुछ कहोगी?'
-‘न न, तकल्लुफ कैसा। कुछ बातें गुप्ता जी से की, कुछ डाक्टर साहब से। पता लगा कि आजकल रानी मां बीमार हैं, उनके कारण आप घर से कम निकलते हैं, लेकिन खुशी की बात यह है कि खूब लिख रहे हैं, खुश रहते हैं। कुंवरसाहब आप मुझ से दूर रहें तो कभी शिकायत न होगी। लेकिन खुश रहें-सेहत का ख्याल रखें। यूं यह मेरे मन की कमजोरी है कि कभी कभी आप के लिये तड़प उठती हूं। फिर भी जब तक रानी मां ठीक न हो जायेंगी तब तक आप को घर से बाहर ज्यादा न ही देखना चाहूंगी।'
कुंवरसाहब के मन में आया कि राधा को सोना के बारे में बता दें।
वह बताना भी चाहते थे लेकिन राधा ने ऐसा अवसर ही नहीं दिया। वह बढ़ी और एक पैग अपने हाथों से बनाकर उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा-‘हुजूर की लम्बी उम्र हो। आइये आपको कार तक छोड़ आउं।'
-‘हम चाहते थे थोड़ी देर तुमसे बातें करें।'
-‘फिर किसी दिन, मैंने डाक्टर माथुर से वायदा किया था कि नौ से पहले आपको घर पंहुचा दूंगी।'
-‘हुक्म है तो चला जाता हूं।'
कार के निकट पहुंचकर कुंवरसाहब ने दूसरी बात उठाई-‘कितना खर्च कर दिया आज?'
परन्तु राधा ने कुंवरसाहब का जेब की ओर जाता हाथ रोक दिया।
-‘हुजूर . ... .।'
-‘क्या बात है?'
-‘आपने सदा दिया है, वक्त होगा तो हाथ पसारकर जितना धन चाहूंगी, मांगूगी भी। लेकिन आज नहीं . ... .।'
-‘क्यों?'
वह मुस्कराई-‘सभी भक्त जानते हैं कि भगवान के पास किसी वस्तु की कमी तो होती नहीं, फिर भी पूजा अर्चना की सामग्री कोई भक्त क्या भगवान से मांगता है?'
-‘यह पागलपन है।'
-‘मेरी खुशी के लिये सह लीजिये न मेरा जरा सा पागलपन।'
-‘अच्छा . ... .।' कुंवरसाहब ने राधा के दोनों गालों को हाथों से थपथपा दिया।
सचमुच राधा ने खुशी खुशी उन्हें विदा कर दिया।
उस रात . ... .।
उस रात मन में एक सुखद संघर्ष रहा।
राधा और सोना . ... .सोना और राधा।
एक नये गीत की रचना हुई।
नींद में मोहक स्वप्न देखे।
सोना और राधा।
मालविका बिल्कुल याद नहीं आई।
बस सोना और राधा।
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अचानक और अनायास ही आज कुंवरसाहब के यहां भारत के प्रसिद्ध कवि अतिथि हुए। वीरेन्द्र मिश्र, राजेश दीक्षित और सोम ठाकुर मेरठ के एक कवि सम्मेलन में जा रहे थे और अन्तिम बस निकल जाने के कारण रात भर के लिए कुंवरसाहब के अतिथि हुए। भारत भूषण और कृष्ण सरोज कानपुर से मेरठ लौट रहे थे, गाड़ी लेट हो जाने के कारण सब लाइन की गाड़ी न मिल सकी। संयोग से यह प्रतिभाएं एकत्रित हुईं। और गोष्ठी जम गई।
सोम ठाकुर और राजेश दीक्षित ने इस छोटी सी गोष्ठी में राष्ट्ीय कविताएं सुनाईं। वीरेन्द्र मिश्र ने ‘वेस्ट पटेल नगर सवेरों से दूर', भारत भूषण ने ‘धन्यवाद गलिओं चौराहों' शीर्षक से कविताएं सुनाई। अपने रंग से अलग वीरेन्द्र मिश्र की कविता में दिल्ली के यातायात की दुर्दशा थी और भारत भूषण की कविता में खुशियों का आवरण ओढ़े निराशा थी।
मेजबान कुंवरसाहब ने अपना नम्बर आखिर में लिया।
-‘एक गीत सुना रहा हूं।' कुंवरसाहब बोले।
-‘ईश्वर को धन्यवाद।' भारत भूषण ने कहा-‘चर्चा तो यह थी कि कुंवरसाहब ने नए गीत लिखना और कवि सम्मेलनों मे आना छोड़ दिया है।'
-‘जी आपका हुक्म हो तो ऐसा भी कर सकता हूं।'
-‘वाह, मैं ऐसा क्यों चाहूंगा। कुंवरसाहब के मंच पर न होने से रौनक नहीं होती, भगवान कसम . ... .।'
-‘गीत सुना रहा हूं . ... .।'
-‘दरवाजे पर एक चिर परिचित सी आहट हुई।
कुंवरसाहब पहचान गए। निश्चय ही सोना दरवाजे से लगी खड़ी थी।
कुंवरसाहब ने गीत आरम्भ किया।
उनके गले के सभी कायल थे। संगीत की जानकारी स्वर को जैसे अलंकृत कर देती है।
गीत सुनो प्यार के,
पतझर बहार के,
एक दिल की जीत के,
एक दिल की हार के।
-‘वाह गुरु।' दीक्षित बोले-‘कवि सम्मेलन लूट लें ऐसे बोल है।'
-‘बात तो तब है जब मित्र लुटें . ... .।' कुंवरसाहब ने गीत जारी रखा
अधरों के संगम में,
सरगम सुहावने,
अंगड़ाई ले लेकर-
अभिनय लुभावने,
यमुना के तीर के,
गंगा के पार के,
गीत सुनो प्यार के !
कृष्ण सरोज ने दाद दी-‘खूब गजब ढाया है कुंवरसाहब ।'
गीत जारी था-
आँसू की धार में,
यौवन का जूझना !
पावस में पी को ,
पपीहे से बूझना !
बिरहा के नयनों में,
सपने सिंगार के !
गीत सुना प्यार के !
गीत सहज था।
परन्तु जैसे छोटे शब्दों ने माधुर्य का बड़ा बांध रचा था।
-‘अन्तिम है . ... .।' कुंवरसाहब ने कहा
एक रात ढल गई,
जुल्फों की छांव में ,
एक रात जल गई,
यादों के गांव में ।
पायल की रुनझुन के,
दिल की पुकार के,
गीत सुनो प्यार के।
-‘वाह भई। मान गए। श्रोताओं के हिसाब से हिट गीत है। नौटंकी वाली भी गायें तो श्रोता झूमें।' भारत भूषण बोले।
-‘आपको कोई एतराज है?'
-‘जबरदस्त एतराज है। आप तो कुंवरसाहब हैं, हाथी हैं, दुबले हो सकते हैं लेकिन भैंस नहीं। अगर कवि सम्मेलनों में पंहुचकर ऐसे हिट गीत मारने लगे तो उन गरीबों का क्या होगा जो कुंवरसाहब नहीं हैं।'
इस बात पर कवि मन्डली में खूब ठहाका लगा।
खूब लतीफे और कहकहे चले।
कुंवरसाहब जब अपने कमरे में पंहुचे तो रात के बारह बज चुके थे। खाना भी उन्होंने कवि मित्रों के साथ ही खाया था।
कमरे में सोना प्रतीक्षा कर रही थी।
-‘आज सुना।' वह बोली।
-‘क्या?'
-‘गीत।'
-‘कैसा लगा?'
-‘बहुत अच्छा लगा।'
-‘सच?'
-‘बहुत समझ में नहीं आया फिर भी बहुत अच्छा लगा।'
-‘झूंठ।' बनते हुए कुंवरसाहब ने मुंह बनाया।
-‘हाय राम, मेरी बात का यकीन नहीं?'
-‘नहीं।'
जैसे अधिकार हो। जैसे बीच में कोई बन्धन न हो। सोना ने कुंवरसाहब के गले में बांहें डाल दीं।
-‘यकीन क्यों नहीं?'
-‘अब कुछ यकीन हुआ।'
-‘क्या?'
-‘ओह तुम नहीं समझोगी मेरी सोना . ... .नहीं समझोगी।'
आज कुंवरसाहब की गोद में सोना ने नई बात कही।
-‘कुंवर जी?'
-‘हां सोना जी।'
-‘हमें पढ़ा दो।'
-‘पढ़ोगी?'
-‘बहुत पढ़ना चाहती हूं।'
-‘पढ़ाउंगा।'
-‘फिर ।'
-‘फिर क्या?'
-‘बड़े आदमी देखेंगे न . ... .सबके सामने तब आउंगी जब खूब पढ़ लूंगी।'
-‘अच्छा।'
-‘लोग कहेंगे कि कुंवरसाहब की रखेल यूं ही नहीं है ।'
-‘सोना . ... .।' चौंक कर कुंवरसाहब ने सोना के होंठों पर हाथ रख दिया।
चकित रह गई सोना।
व्यथा में डूबे से कुंवरसाहब बोले-‘सोना, रखेल अच्छा शब्द नहीं है। तुम मेरी रखेल नहीं हो। तुम क्या जानो काश तुम जान सकतीं तुम मेरी जिन्दगी हो सोना। मेरी जिन्दगी।'
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वह दिन आ गये जब सोना को अग्नि की साक्षी में पराई होना था।
रानी मां एक क्षण के लिये भी नहीं भूली थीं कि वह गरीब बिरादरी की लड़की का विवाह कर रही हैं। बड़े छोटे का भेद वह तोड़ना नहीं चाहती थी। इसलिये वधू गृह हवेली नहीं बनी थी बल्कि एक मन्दिर में विवाह का आयोजन किया गया था।
भौंपू तथा घर के और नौकर चाकर आदि विवाह में लगे थे। मन्दिर हवेली से अधिक दूर नहीं था। रानी मां के लिये उठकर जाना सम्भव नहीं था कन्यादान आदि की रस्म गांव के और बड़े बूढ़े कर रहे थे। प्रातः से ही सोना मन्दिर में चली गई थी। रानी मां की सेवा के लिए केवल एक नौकरानी थी। सोना के बिना घर सूना था। कुंवरसाहब का मन सूना था।
सांझ हुये बारात आई। प्रजाजन ठहरा, दूल्हा बारातियों के साथ कुंवरसाहब और रानी मां के पैर छूने आया। बारात में आये घोड़े का नाच करने वालों ने हवेली के आगे खूब धूम मचा कर इनाम प्राप्त किया।
तब जबकि सोना अग्नि साक्षी में किसी दूसरे को सौंपी जा रही थी कुंवरसाहब अपने कमरे में अकेले शराब पी रहे थे।
रात में लगभग बारह बजे कुंवरसाहब ने भौंपू को बुलवाया।
-‘आपने याद किया सरकार।'
-‘भौंपू सोना का विवाह हो गया?'
-‘जी !'
-‘यहां आ सकती है?'
-‘जी क्यों नहीं।'
-‘जरा बुला लाओ।'
लगभग आधे घण्टे बाद भौंपू लौटा। बुझे स्वर में बोला-‘सरकार आराम करें।'
-‘सोना कहां है?'
-‘सोना कमीनी है सरकार।'
-‘क्या बकते हो?'
-‘सरकार उसमें ठाकुर का खून नहीं है। मैंने कहा तो जानते हैं उसने क्या कहा-उसने कहा . ... .कुंवरसाहब को अगर मेरी इज्जत का ख्याल नहीं है तो अपनी इज्जत का ख्याल करें।'
अनजाने ही एक सर्द आह निकली-‘भौंपू शायद सोना ठीक कहती है जाओ।'
-‘हुजूर खाना ।'
-‘भूख नहीं है जाओ।'
किसे दिल चीरकर दिखाएं। आज सीमा टूट गई थी। वह पीते रहे और पीते रहे।
रात के तीन बज गये। कुंवरसाहब ने बोतल खाली कर दी। आसपास देखा पानी नहीं था। उन्होंने उठना चाहा। उठे लड़खड़ाये। फिर गिर पड़े। इतना देखा कि उन्हें खून की उल्टी हुई। एक बार पुकारा-‘भौंपू !'
इसके बाद कुछ क्षण के लिए चेतना लौटी तो भोर हो चुकी थी। आंखें खोली तो डाक्टर माथुर पास बैठे थे। रानी मां भी थीं और एक ओर सिमटी सी सोना भी खड़ी थी। माथुर झुंझला कर रानी मां से कह रहे थे-‘साफ बात कहते हुए मुझे दुख है रानी मां। अगर कुंवरसाहब इसी तरह बेकाबू शराब पीते रहे तो किसी दिन . ... .किसी भी दिन . ... .इतनी कम उम्र में यह लो ब्लड प्रेशर का रोग लगा बैठे हैं ।'
कोई देख न सका कोई जान ने सका। क्षण मात्र के लिए कुंवरसाहब ने आंखें खोली और फिर मूंद ली।
एक लम्बा अंतराल।
वह सारा दिन बीता। सोना विदा होकर अपनी ससुराल पंहुच गई। सोना का पति हीरा पहले किसी दूसरे का तांगा चलाता था, रानी मां ने एक घोड़ा तांगा दहेज में दिया।
वह सांझ बीती।
ससुराल में सोना की मुंह दिखाई हो रही थी।
वह रात ! शायद सोना सुहागरात मना रही थी।
कुंवरसाहब की बेहोशी टूटी।
डाक्टर माथुर अब भी मौजूद थे। भौंपू तथा अन्य नौकर चाकर कमरे में उपस्थित थे। एक कौने में कुर्सी डाले गुप्ता जी भी बैठे थे। रानी मां आराम कुर्सी पर पड़ी कराह रही थी।
-‘पानी ।'
डाक्टर माथुर ने चम्मच से मुंह में पानी डाला।
-‘धन्यवाद डाक्टर। अब मैं ठीक हूं।'
-‘जाहिर है अब आप ठीक हैं, लेकिन सरकार आपने मेरी जान ले ली।' माथुर बोले।
-‘बिल्कुल यही बात मुझसे किसी ने सपने में भी कही। हुजूर गुप्ता जी भी हैं न . ... .भई शायद मेज की दराज में चाबी पड़ी होगी। सेफ खोल कर एक हजार रुपए डाक्टर माथुर को दे दो . ... .।'
दोस्तों का यह लहजा डाक्टर माथुर को पसन्द नहीं आया।
-‘कुंवरसाहब . ... .।'
-‘मैं मजबूर हूं डाक्टर साहब। सपने में मुझसे शायद श्ौतान ने कहा है कि अगर डाक्टर माथुर से मुफत इलाज कराया तो दोजख की थर्ड क्लास मिलेगी। न लेंगे तो मुझे तकलीफ होगी डाक्टर।'
तकलीफ की बात कुछ ऐसी मार्मिक थी कि गुप्ता जी ने उठकर सेफ में से रुपये निकाल दिये और डाक्टर ने इच्छा न होते हुए भी ले लिए।
रानी मां बड़ी कठिनता से उठकर पलंग पर आ बैठी थी और बेटे का माथा सहला रही थी।
-‘कैसा जी है कुंवर जी।'
-‘अच्छा हूं रानी मां।'
-‘बेटा कुंवर जी। तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है। माथुर भैया कह रहे हैं शराब तुम्हारे लिये जहर है।'
-‘नहीं पीयूंगा मां जी।'
-‘जुग जुग जीयो बेटा। दूध पीयोगे मेरे हाथ से ।'
-‘क्यों न पीयूंगा?'
रानी मां ने कुछ चम्मच दूध कुंवरसाहब के मुंह में डाला।
इस दौर में डाक्टर माथुर ने रक्तचाप देखा। सन्तोष हुआ।
डाक्टर की ओर देखकर रानी मां ने कहा-‘कहूं कुंवर जी से?'
-‘हां।' डाक्टर माथुर तनिक मुस्कराये।
-‘क्या बात है मां जी?'
-‘कुछ खास बात नहीं बेटा। माथुर बेटा कहते हैं कि रात में तुम्हारी देखभाल के लिये एक नर्स रहनी चाहिए। लेकिन . ... .वह राधा है न ?'
कुंवरसाहब चौंके।
-‘सुना तो कई बार था परन्तु आज देखा।'
-‘रानी मां . ... .।' कराह उठे कुंवरसाहब।
-‘देखने में मुझे ऐसी नहीं लगी जैसी पतुरिया होती हैं। जाने कैसे उसे तुम्हारे बीमार होने की खबर लग गई। तुम्हें होश नहीं था बेटा। बेचारी दोपहर में आ गई। कोई बोलचाल के लिए भी तो नहीं था। मूर्ति सी बैठी रही।'
-‘उसकी बात छोड़ो रानी मां।'
-‘परन्तु कुंवर बेटा वह तो सत्याग्रह किये बैठी है दोपहर से यहां, पानी भी नहीं पिया। बहुत कहा क्या यहां आराम करने को जगह नहीं है। बस बुत बनी बैठी है।'
-‘कहंा?'
-‘कमरे के बाहर ही तो बैठी है। क्या उससे तुम्हारी कोई लड़ाई है बेटा?'
-‘नहीं तो मां।'
-‘मैं भी यही कहती थी। गुप्ता जी ने भी यही कहा। परन्तु माथुर बेटा कहते थे कि जरुर लड़ाई है। उसी के कारण तुमने इतनी शराब पी ऐसी बात तो नहीं है न बेटा?'
-‘नहीं मां।'
-‘मैं उसे अन्दर बुला लूं?'
-‘बुला लो।'
-‘वह अच्छी है न बेटा?'
-‘सभी अच्छे हैं मां। आपा ही बुरा होता है।'
-‘गुप्ता जी कहते हैं वह तुम्हारी नर्स से अच्छी देखभाल करेगी।'
कुंवरसाहब मुस्कराये-‘गुप्ता जी और क्या कहते हैं रानी मां।'
-‘गुप्ता जी हमारा भला ही तो चाहते हैं बेटा . ... .गुप्ता जी बुला लो न उस लड़की को।'
गुप्ता जी ने दरवाजा खोला-‘आओ राधा।'
राधा ने कमरे में प्रवेश किया। आंखें सूजी हुई, बाल बिखरे से, नर्तकी नहीं जैसे कोई जोगन हो।
-‘अच्छे हैं कुंवरसाहब?' निकट पंहुचकर वह बोली।
-‘हां। तुम सबकी शुभकामनायें मेरे साथ जो है।'
रानी मां राधा का सहारा लेकर उठी।
-‘बेटी . ... .।'
-‘हां रानी जी।'
-‘मैं तो जीते जी मर गई बेटी। अंग अंग जैसे टूट गया है। मुझे सहारा देकर कमरे में पंहुचा दे बिटिया। देख . ... .यहां डाक्टर हैं, गुप्ता जी हैं। इनके सामने कहती हूं। मेरा बेटा बहुत दुखी है, तू मेरा सब कुछ ले ले बेटी। मेरे बेटे को सुखी कर दे। मैं इन पंचों के सामने अपना बेटा तुझे सौंपती हूंू।'
-‘मैं तो दासी हूं रानी जी आपकी भी और कुंवरसाहब की भी।'
-‘रानी मां अपने कमरे में जा रही थीं। अकेली राधा से वह सम्भल भी न पातीं। दोनों नौकरानियों ने उन्हें थाम लिया।
राधा साथ-साथ थी।
-‘न रहने दे बिटिया। तू इसी कमरे में रह। मेरे कुंवर की देखभाल कर। मैंने तुझे अपना लाल सौंपा है।'
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किसी ने देखा नहीं, सुना और पढ़ा ही है कि एक बार मुगल युग में हुमायूं बीमार हुआ। वह क्षण क्षण मृत्यु के निकट पंहुच रहा था, तब उसके पिता बाबर ने खुदा से सच्चे दिल से प्रार्थना की कि हे परमपिता तू मेरे पुत्र को जीवन दे दे। ऐसा ही हुआ भी। उस क्षण के बाद हुमायूं ठीक होता गया और बाबर मृत्यु की मंजिल पर बढ़ चला।
कुछ ऐसी ही प्रार्थना रानी मां ने भी की थी। दोनों नौकरानियों ने सुना। अब जबकि वह रानी मां को बिस्तरे पर लिटा रही थीं। रानी मां कह रही थीं -‘मेरे कृष्ण कन्हैया जी, मुझे उठा लो ! मेरी उम्र कुंवर जी को दे दो। मैंने बहुत कुछ देख लिया उन्होंने कुछ नहीं देखा . ... .मेरी विनती सुन ले बांसुरी वाले . ... .।'
और . ... .!
जैसे बांसुरी वाले ने विनती सुन ली।
प्रातः चार बजे रानी मां को खून की उल्टी हुई।
डाक्टर माथुर आए। प्रातः वह रानी मां को जिला हस्पताल ले गये। तुरन्त एक्सरे हुआ। कई अन्य डाक्टरों ने देखा। सिविल सर्जन ने भी देखा।
कुछ नहीं हो सकता था। कुछ नहीं किया जा सकता था।
गठिया रोग की पीड़ा दूर करने के लिये जो दवायें रानी मां को दी जा रही थीं उन्होंने फेफड़ों को गला दिया था। रानी मां की दशा देखकर आश्चर्य किसी को नहीं हुआ। प्रश्न केवल यह था कि दवाओं के बल पर उन्हें कैसे और कब तक सामान्य रखा जा सकता है?
परन्तु डाक्टर मिलकर भी कोई ऐसी औषधि न खोज पाये। तीसरे पहर वह फिर अपनी हवेली में आ गईं। शाम को उन्हें फिर खून की उल्टी हुई। डाक्टर माथुर ने एक नर्स बुला ली। राधा भी थी। वह तो रानी मां के साथ हस्पताल भी गई थी।
दूसरी उल्टी के साथ ही रानी मां बेहोश हो गईं। तुरन्त ही उन्हें आक्सीजन देने का प्रबन्ध किया गया।
सारी रात और अगले दिन दोपहर तक बेहोश रहने के बाद रानी मां की नींद टूटी।
तीसरे पहर उन्हें होश आया। उन्होंने पानी मांगा। राधा ने कुुछ चम्मच ग्लूकोज युक्त पानी उनके मुंह में डाला।
कुंवरसाहब के लिये भी आराम कुर्सी रानी मां के पलंग के निकट ही डाल दी गई थी।
राधा के हाथ से पानी पीकर रानी मां ने पूछा-‘कुंवर जी कहां हैं?'
कुंवरसाहब उठकर रानी मां के सम्मुख आ गये।
-‘मैं सो गई थी कुंवर जी।' रानी मां ने कुंवरसाहब का हाथ थामकर कहा।
-‘जी हां। आप गहरी नींद सोईं।' आक्सीजन यंत्र को झुठलाते हुए कुंवरसाहब झूठ बोले-‘माथुर कहते हैं कि नींद से आप जल्दी अच्छी होंगी।'
हांफती सी वह मुस्कराईं।
-‘कुंवर जी।'
-‘जी।'
-‘हमारी तो पालकी आ गई। अभी अभी की तो बात है। नहीं, हम नहीं मानते कि वह सब सपना था। अभी कुछ देर पहले राजा साहब आये थे। उन्होंने हमें हुक्म दिया था कि रानी साहिबा पालकी तैयार है, चलो। बस कोई हमारे हाथों में मेहंदी लगा दे . ... .।'
कुंवरसाहब ने मजबूर से खड़े डाक्टर माथुर की ओर देखा।
-‘हमारी ओर देखो कुंवर जी।'
-‘जी।'
-‘हमें अब जाना है।'
-‘रानी मां।'
-‘सुन लो कुंवर बेटा ! हमें अब जाना है। हमें आपसे सिर्फ इतना कहना है कि राधा हमें अच्छी लगती है। खूब सेवा भी करती है। मान लो हम रात में मर जायें। बाद में आप चाहें जो करें। परन्तु हमारे मरने के बाद तेरहवीं तक राधा का घर में रहना ठीक नहीं होगा। तुम्हारी बहन, बहनोई आयेंेगे और भी रिश्तेदार आयेंगे। ध्यान रक्खोगे न कुंवर जी? राधा केवल तेरहवीं तक न रहे।'
-‘जी।' कुंवरसाहब ने केवल इतना कहा।
और राधा !
वह शान्त खड़ी थी, केवल आंखें डबडबाई हुई थीं।
-‘एक बात और कहनी है कुंवर जी।'
-‘जी।'
-‘वैसे भी सोना को एक बार बुलाना है। लड़की कुछ दिन साथ रही है इसलिये मोह सा हो गया है। आ जाये तो बस सूरत देख लूं।'
-‘मैं भौंपू को गाड़ी लेकर भेज देता हूं।'
कुंवरसाहब ने तुरन्त वैसा कर भी दिया।
रानी मां बस इतना कहना चाहती थीं। इसके बाद उन्होंने आंखें मूंद लीं।
इसके बाद रात के नौ बजे।
रानी मां को एक उल्टी और हुई।
और फिर दस बजे रानी मां का देहावसान हो गया।
नौकरानी और नौकर रो पड़े। राधा ऐसे रोई जैसे उसकी सगी सास चल बसी हों।
शान्त कुंवरसाहब उठे-‘तो चल ही दीं रानी मां। अच्छा . ... .।' झुककर कुंवरसाहब ने मृत देह के चरण स्पर्श किए और अपने कमरे में चले गये।
शेष रात्रि कोई सो न सका। अलबत्ता कुंवरसाहब अपने बिस्तरे पर लेटे रहे।
सुबह-सुबह ! लगभग चार बजे।
कार हवेली के दरवाजे पर आकर रुकी। भौंपू सोना को लेकर आया था। सोना कार के दरवाजे से निकलते ही जोर से रोई !
तब राधा जो अब तक कभी लाश के और कभी कुंवरसाहब के पास थी, कुंवरसाहब के पास पंहुची।
-‘हुजूर।'
-‘हां।'
-‘शायद रिश्तेदार आने आरम्भ हो गये हैं।'
-‘राधा . ... .।'
-‘आपकी दासी हूं। चाहें तो खाल की जूतियां बनवालें। परन्तु रानी मां की अन्तिम साध पूरी करने में मुझे आपकी आज्ञा की आवश्यकता है। मुझे आज्ञा दें जाकर भौंपू से कहूंगी कि वह मुझे मेरे कोठे तक पंहुचा दे।'
कुंवरसाहब कुछ कहना चाहते थे परन्तु तभी तो कहते जब राधा सुनती।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
अच्छा
जवाब देंहटाएंसुन्दर
मेरठ की रेवड़ी की तरह निबटा देने के बाद भी असर है।
जवाब देंहटाएंउत्सुकता के साथ इंतजार है अगली किस्त का।
इंतहा हो रही है इंतजार की :)
जवाब देंहटाएंआठवें (और बाद वाले) अध्याय का इंतजार है|
उपन्यास का आठवाँ भाग पढ़ा। रोचकता के साथ एक काल दिमाग में चलचित्र की तरह निकल पड़ा। साथ ही स्वतंत्रता के लगभग बाद के काल का बयान लगा। उम्मीद करता हूँ कि इस उपन्यास में तत्कालीन परिस्थितियों में पले-बढ़े लोगों का खाका दिखाई देगा। कुल मिलाकर आने वाले अंकों का इंतज़ार रहेगा।
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