जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 6)

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( पिछले भाग 5 से जारी…) रात के दो बज गये थे। नींद जैसे छलावा थी। रात्रि का दूसरा पहर आया तो रोम रोम में बस गई और फिर रात्रि का तीसरा ...

(पिछले भाग 5 से जारी…)

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रात के दो बज गये थे।

नींद जैसे छलावा थी। रात्रि का दूसरा पहर आया तो रोम रोम में बस गई और फिर रात्रि का तीसरा पहर आते आते निष्‍ठुर प्रिया की तरह रुठ गई।

कमरे में अंधेरा था। अंधेरा जैसे अच्‍छा लगता था।

कुंवरसाहब को लगा जैसे धीरे धीरे कमरे का दरवाजा खुला हो।

क्‍या चोर है?

मन ही मन कुंवरसाहब मुस्‍कराये। कैसा बेवकूफ चोर है? भला यहां उसे क्‍या मिलेगा। रानी मां के कमरे में तिजोरी तोड़ता तो शायद कुछ मिलेगा। जेवर, सोने के बहुत पुराने सिक्‍के। यहां इस कमरे में कमबख्‍त को पूरी अधूरी कविताओं, बोतलों और . ... .और रायफल के अतिरिक्‍त क्‍या मिलेगा?

फिर स्‍पष्‍ट आभास। जैसे कोई कमरे में आ गया हो।

जान बूझकर उन्‍होंने बैड स्‍विच जलाकर रोशनी नहीं की थी।

-‘कुंवर जी . ... .।'धीमा और दबा सा स्‍वर।

धारणा बदली-ऐसी मधुर वाणी तो किसी नौकरानी की नहीं है।

-‘कुंवर जी . ... .।' फिर सम्‍बोधन !लालित्‍यपूर्ण स्‍वर।

अनायास ही उन्‍होंने बैड स्‍विच दबा दिया।

दूसरे ही क्षण उन्‍होंने देखा और देखते ही रह गये।

मंत्रमुग्‍ध से वह उठे।

-‘तुम?'

-‘जी मैं सोना हूं कुंवर जी . ... .।'उत्‍तर मिला।

जैसे बोलती गुड़िया हो। रंग सांवला,परन्‍तु नखशिख ऐसा कि तपस्‍वियों का तप डगमगा जाये। वैसे सर्वांग देहाती। हल्‍की सी गुलाबी रंग की घाघरी, उपर बेतुकी सी कमीज। ओढ़नी रेशमी . ... . परन्‍तु पुरानी। बहुत पुरानी घिसी हुई।

लजाई सी, घबराई और सहमी सी। नवयुवती नहीं लड़की। कठिनता से अठारह वर्ष की।

-‘कुंवर जी मुझे यह कहना था . ... .।'

-‘सुनूंगा। जो तुम्‍हें कहना है वह भी सुनूंगा। पहले मुझे यह बताओ कि तुम कौन हो?'

-‘सोना . ... .।'

-‘नाम है सोना?'

-‘जी कुंवर जी।'

-‘यहां कैसे पंहुचीं।'

-‘रतनपुर से यहां रानी जी ने बुलाया था।'

-‘रतनपुर की हो?'

-‘जी।'

-‘यहां कब आईं?'

-‘महीना होने आया।'

-‘अच्‍छी पहेली है। जानूं तो जब मैं यहां होता हूं तब कहां छुपी रहती हो?'

कुंवरसाहब अचरज से उसकी ओर एकटक देखते रहे।

वह लजाई। फिर दृष्‍टि झुकाकर मुस्‍कराई आपसे डर जो लगता था। सभी कहते हैं आपको गुस्‍सा जल्‍दी आता है।'

-‘सब कहते हैं?'

-‘रानी मां नहीं कहतीं।'

-‘कमरे की सफाई तुम करती हो?'

-‘दो दिन से।'

-‘अच्‍छा तो तुम्‍हें हमसे डर लगता है?'

सोना चुप। दृष्‍टि नीची।

-‘अचरज की बात है। हमसे डर भी लगता है और हमारे सामने भी नहीं आती। जब सामने आती हैं तो रात के दो बजे होते हैं। अब डर नहीं लगा?'

-‘लगा।'

-‘फिर भी आ गईं?'

-‘जी।'

-‘क्‍यों?'

-‘रानी मां की तबीयत बहुत खराब है जी। बदन में ऐसा दर्द है कि रो रही हैं। एक पल को भी नींद नहीं आई। डाक्‍टर बाबू को बुलाने के लिये कहा है।'

-‘हूं . ... .अच्‍छा।'

-‘कुंवरसाहब ने तुरन्‍त ही फोन का रिसीवर उठा लिया। पूरे दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद कहीं डाक्‍टर फोन पर आये।

फिर वह सोना के साथ रानी मां के कमरे में चले गये।

डाक्‍टर माथुर आये।

सचमुच रानी साहिबा को बड़ी पीड़ा थी। उनका अंग अंग कांप रहा था, आंखों से आँसू झर रहे थे।

डाक्‍टर माथुर ने इन्‍जेक्‍शन दिया।

एक तेज असर की गोली दी।

लगभग आधे घण्‍टे बाद रानीसाहिबा की हालत कुछ सुधरी। डाक्‍टर अभी बैठे थे।

-‘माथुर बेटा . ... .।' रानी मां ने डाक्‍टर को सम्‍बोधित किया।

-‘मैं यहीं हूं रानी मां।'

-‘बेटा मैं अभी दो महीने नहीं मरना चाहती।'

डाक्‍टर माथुर हंसे-‘मैं आपको बीस वर्ष की गारन्‍टी लिखकर देने को तैयार हूं। आप देखियेगा। तंग आ जायेंगी आप नाती पोतों से। इतनी जल्‍दी आपको स्‍वर्ग का टिकट मिलने वाला नहीं है। निश्‍चिन्‍त रहें।'

-‘बातें बनाना कोई तुझसे सीखे। लेकिन बेटा मेरी सुन, उस लड़की को देखता है न। बेचारी के मां बाप दोनों मर गये। मुझे खबर मिली कि चाचा चाची सताते हैं इसलिये मैंने इसे अपने पास बुला लिया। बिरादरी की है और मेरी प्रजा है। इसके विवाह के लिये लड़का भी ढुंढवा लिया हैं। परन्‍तु अभी दो महीने का मुहूर्त नहीं है। बेचारी अनाथ लड़की है हाथ पीले हो जायें तो निश्‍चिन्‍त होकर मरुंगी।'

-‘अगर आप झगड़ा ही करना चाहती हैं तो आपकी इच्‍छा रानी मां। मैं ऐसा इलाज तो कर सकता हूं कि आप और बीस साल जिन्‍दा रहें। दो महीने में मार देने वाला इलाज मैं नहीं करता। अगर दो महीने में मरना चाहती हैं तो हकीम फज्‍जू खां को बुलवाइए। वह ऐसे इलाज में माहिर हैं . ... .।'

-‘क्‍यों रे, हकीम फज्‍जू खां ने तेरा क्‍या बिगाड़ा है जो हर जगह उनकी बुराई करता फिरता है। जानता है वह राजा साहब के दोस्‍त थे। मेरे देवर लगते हैं।'

-‘मैं नहीं मानता। वह न किसी के दोस्‍त हैं न किसी के देवर। वह तो जहन्‍नुम के एजेण्‍ट हैं। खुदागंज की थर्ड क्‍लास के बुकिंग क्‍लर्क। जाने यह मुसीबत इस शहर से कब दफा होगी। हकीम फज्‍जू खां . ... .।'

इतना कहते कहते डाक्‍टर माथुर ने हकीम फज्‍जू खां की मुख मुद्रा की नकल बनाई। पोपला मुंह। नाक पर बहुत आगे रक्खे चश्‍मे से देखने वाली अदा।

बरबस ही रानी मां हंस पड़ीं।

केवल यही डाक्‍टर माथुर का उद्‌देश्‍य था। हकीम फज्‍जू खां से डाक्‍टर की कोई दुश्‍मनी नहीं थी। सामने पड़ते तो उन्‍हें भी चचा कहकर आदाब बजाना पड़ता था। अक्‍सर रानी मां हकीम फज्‍जू खां की तारीफ के पुल बांधा करती थीं और डाक्‍टर हकीम साहब की उल्‍टी तारीफ करके रानी मां को हंसाया करते थे।

रानी मां को अब नींद आने लगी थी।

डाक्‍टर और कुंवरसाहब दोनों उठकर बाहर आ गए।

-‘आओ डाक्‍टर।'कुंवरसाहब ने कहा-‘सुबह हो रही है कुछ चाय काफी पीकर जाना।'

-‘धन्‍यवाद। मुझे आपसे कुछ कहना है कुंवरसाहब।'

-‘फरमाइये।'

-‘रानी मां परहेज नहीं करती।'

-‘मैं जानता हूं।'

-‘उन्‍होंने जरुर कोई बदपरहेजी की है इसीलिए उनकी यह हालत हुई है।'

-‘यह भी जानता हूं।'

-‘तब यह भी जान लीजिए कि बिना परहेज के गाड़ी चलने वाली नहीं है।'

-‘इससे भी अन्‍जान नहीं हूं। आप अच्‍छी तरह जानते हैं डाक्‍टर कि मैंने इस विषय में कुछ कम प्रयत्‍न नहीं किये हैं। रानी मां परहेज नहीं कर सकतीं। शायद उनके खून का ही असर है कि मुझसे भी नियमों का पालन नहीं होता। जब तक चले . ... .आप जानते हैं कि यह गाड़ी ऐसे ही चलेगी। आइये।'

-‘मैं चलूंगा कुंवरसाहब।'

-‘नाराजगी है?'

-‘जी नहीं सरकार। भला आपसे नाराज होकर कहां रहूंगा। दो बजे आपरेशन थियेटर से लौटा था। कुछ घण्‍टे सोना चाहता हूं।'

-‘चाय काफी कुछ भी नहीं?'

-‘जी नहीं आपसे नाराजगी जो है।'

-‘खैर तो है। मुझसे नाराजगी?'

-‘हां। आपके यहां हम किसी नौकर या नौकरानी द्वारा बनाई गई चाय काफी नहीं पियेंगे। पहले कहीं से पैलेस की रानी को लाइये। तब चाय काफी की बातें होंगी।'

-‘हाथ की लकीरों पर विश्‍वास करते हो डाक्‍टर।'

-‘मुझे विश्‍वास होने लगा है।'

-‘बुजुर्गों ने जाने कितनी स्‍त्रियों को महल में रानी बनाकर रक्‍खा। कितनी स्‍त्रियों को दासी बनाया। फिर वेश्‍याओं की जैसे पूरी फौज पाली। इससे भी बढ़कर बहुत से पाप किये-जो स्‍त्री सुन्‍दर देखी उसे दिन दहाड़े उठवाकर महल में बुलवा लिया। शास्‍त्र कहते हैं कि पाप पुण्‍य का भोग पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता है। मेरे हाथ की लकीरों में शायद ऐसा सुख नहीं है। मेरे हाथ की लकीरों में शायद ऐसा सुख नहीं है। स्‍त्री के नाम पर मेरे भाग्‍य में बस कोठ वाली ही हैं।'

-‘भई कुंवरसाहब आप ठहरे विद्वान कवि। बहस में मैं आपसे जीत सकूं यह मुमकिन नहीं। कहना यह है कि पत्‍थर एक होता है-घड़कर फर्श में लगा दो तो ठोकरें खाता रहे। मूर्ति बनाकर देवालय में लगा दो तो पुजे। हमें तो यह कहना है कि कुछ जल्‍दी में कर ही डालिये। महल में आकर तो राधा भी रानी बन जायेगी और वह देहाती लड़की भी जिसके विवाह की रानी मों को चिन्‍ता है। रानी किसी खास मिट्‌टी से तो नहीं बनती न।'

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डाक्‍टर गये तो कुंवरसाहब ने नौकरों को पुकारा-‘ननकू . ... .किरोड़ी . ... .अरे काई है?'

कोई नहीं बोला। कोई बोलता भी कैसे। अच्‍छी खासी सर्दी थी सभी कहीं दुबके पड़े थे।

दोबारा कुंवरसाहब ने और भी जोर से आवाज दी।

इस बार लजाती सी, सकुचाती सी सोना आई।

-‘तुम . ... . अजीब बात है। वह सब मर गये क्‍या?'

-‘सभी तो सो रहे हैं। मैं जाकर जगाये देती हूं। कुंवर जी जोर से न पुकारें। रात भी तड़पने के बाद रानी मों अब सोई हैं।'

वह मुस्‍कराए-‘जो हुक्‍म। हम जबान भी न निकालेंगे, सोना जी सुनिए।'

-‘जी।'

-‘हम आपको तरकीब बताते हैं कि चाय कैसे बनती है। आप एक प्‍याली चाय बना लायें।'

-‘चाय बनानी मैं जानती हूं।'

-‘ओह, तब तो हमारी जान बच गई।'

सोना ने दृष्‍टि उठाई। नजर भरकर कुंवरसाहब ने सोना को देखा, वह लजाई और चली गई।

कुंवरसाहब चकित रह गये। जाने के बारहवें मिनट वह चाय बनाकर ले आई।

जैसे यह सब जादू के चिराग से हुआ हो। टी पाॅट में बिल्‍कुल ठीक चाय का पानी। दूध खूब गर्म। प्‍याले में गर्म पानी। बर्तन खूब साफ चमकते हुए।

-‘सुनो . ... .।'

-‘जी कुंवर जी।'

-‘यह सब तुमने कहां से सीखा सोना जी?'

-‘यहीं सीखा जी।'

-‘किससे सीखा जी?'

-‘सभी से। ननकू से, किरोड़ी से, इमरती और लछिया से।'

-‘एक गलती रह गई।'

-‘गलती . ... .?'

-‘हां। अगर एक आदमी भी चाय पिये तो प्‍याले दो लाने चाहिए। एक प्‍याला लाना अशुभ होता है।'

-‘जी . ... .।'

जैसे सोना लड़की नहीं हिरनी थी। आंधी की तरह गई और तूफान की तरह लौट आई। दूसरा प्‍याला लेकर।

-‘अब ठीक हो गया।'

-‘मैं तो आपके सामने आते भी डरती थी कुंवर जी। गांव की हूं न कुछ जानती नहीं। कहते हैं जो पढ़ा लिखा नहीं होता वह पशु समान होता है। मुझे पढ़ना लिखना भी नहीं आता। गलती हो तो माफ कर दें।'

चमत्‍कृत से कुंवरसाहब सोना की ओर देख रहे थे।

क्‍या स्‍त्री इतनी सरल भी होती है।

चाय बना कर सोना ने कुंवरसाहब की ओर बढ़ा दी।

-‘फिर गलती . ... .चाय के दोनों प्‍याले एक साथ बनने चाहिये थे।'

वह बोली नहीं। परन्‍तु जिसे तेजी से उसने दूसरा प्‍याला बनाया वह तेजी आश्‍चर्यजनक थी।

-‘अब ठीक है जी?'

-‘हां अब ठीक है। प्‍याला हाथ में उठाओ और चाय पियो।'

-‘लेकिन मैं . ... .?' सोना चौंकी।

-‘प्‍याली उठाओ सोना जी'

-‘मैं कुंवर जी आपकी रैयत हूं। आप राजा हैं।'

-‘यूं ही सही। राजा का हुक्‍म रैयत को मानना चाहिए न? चाय पियो। ऐसे नहीं। बैठकर चाय पियो।'

सोना ने प्रतिवाद नहीं किया।

वैसे वह डरी डरी सी थी। सहमी सहमी सी थी। बड़े ही अजीब ढंग से कुर्सी के छोर पर बैठी चाय पीती रही। ऐसी सर्दी में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं।

मानो कोई कठोर कर्तव्‍य था जो उसे निभाना पड़ा। चाय समाप्‍त करते ही वह उठकर खड़ी हो गई।

-‘चाय और दूं कुंवर जी?'

-‘हां।'

कुंवरसाहब ने देखा सोना के हाथ कांप रहे थे।

-‘सोना जी।'

-‘जी कुंवर जी।'

-‘हमसे कोई गलती हुई?'

-‘नहीं कुंवर जी।'

-‘जरुर हमसे कोई गलती हुई। आपके माथे पर पसीना, आपके कांपते हुए हाथ। बात क्‍या है . ... .?'

सोना चुप।

-‘सोना जी।'

-‘जी।'

-‘बताइये न, बात क्‍या है?'

-‘जान ही तो नहीं पा रही हूं कुंवर जी कि बात क्‍या है।'

-‘कोई बात तो है ।'

-‘एक राजा मुझ गरीब को ऐसा मान दे। जाने यह सपना है या जाग। ऐसा तो मेरा भाग्‍य भी न था।'

-‘बस बस।'

-‘मैं तो आपकी दासी जैसी हूं कुंवर जी।'

-‘आप मेरी दासी नहीं हैं सोना जी। क्‍या हैं, यह बाद में फैसला होगा। अच्‍छा सोना जी . ... .क्‍या रानी मां आपसे यही सब पहनने को कहती हैं जो आप पहनती हैं?'

-‘न न। उन्‍होंने तो मेरे लिए धोती और छोटे छोटे ब्‍लाउज बिल्‍कुल अंगिया जैसे और न जाने क्‍या क्‍या मंगाया था। परन्‍तु मुझे वह सब पहनते अच्‍छा नहीं लगता।'

-‘यह अच्‍छा लगता है?'

-‘जी !'

-‘कोई देखे तो समझे कि रानी मां ने अपनी रैयत को गुलाम बनाकर रख रक्‍खा है ।'

-‘नहीं जी।'

-‘आज से आप यह सब नहीं पहनेंगी सोना जी।'

-‘अच्‍छा जी।'

बरतन समेट कर सोना जाने लगी।

-‘सोना जी ।'

-‘हाथ जोड़ती हूं कुंवर जी। मुझे जी मत कहा कीजिए।'

-‘हम लाख बार यही कहेंगे, आप हमें रोक नहीं सकतीं।'

-‘नहीं जी।'

-‘हमारी जान में जान आई। आपसे डर वाली बात सुनकर हमें खुद डर लगने लगा था। सोचने लगे थे कि हम इन्‍सान हैं या निरे लंगूर।'

होंठों में मुस्‍कराहट दबाये सोना चली गई।

भोर हो रही थी। विश्‍वास हो चला था कि अब नींद नहीं आएगी।

यूं ही कुंवरसाहब लेट गए।

जाने कैसा जादू किया था सोना ने। लेटते ही तो नींद आ गई। सपने में कुंवरसाहब मीलों तक फैला रंग बिरंगा गुलाब का बाग देखा। देखा कलियां मादकता से झूम रही हैं।

जब आंखें खुली तो कुंवरसाहब चौंक पड़े।

ग्‍यारह बज रहे थे।

किरोड़ी उनके जागने की प्रतीक्षा में खड़ा था।

-‘आज तो बहुत सोए हुजूर ! कई दिन की नींद जो रुकी थी। मैंने जगाना मुनासिब नहीं समझा। कलक्‍टर साहब का फोन आया था। आज टाउनहाल में कवि सम्‍मेलन है सरकार। दिल्‍ली से स्‍नेही जी आये हैं, यहां के कई कवि भी बैठे हैं। सभी का चाय पानी करा दिया है सरकार। स्‍नेही जी कह रहे थे कि भोजन आपके साथ ही करेंगे।'

उठते हुए कुंवरसाहब ने पूछा-‘रानी मां की तबीयत कैसी है?'

-‘ठीक है। डाक्‍टर बाबू आ कर देख गये हैं। पहिये की कुर्सी पर धूप में बैठी हैं।'

-‘सोना से कहो कि चाय लाये।'

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इसके बाद दो सप्‍ताह बीतते हैं।

कुंवरसाहब के मित्र आश्‍चर्य चकित हैं जैसे कोई रोग था और वह दूर हो गया। वह तेजी से गीत लिख रहे हैं-अच्‍छे और सुन्‍दर गीत! स्‍थायित्‍व पायें ऐसे गीत!

लोग कुंवरसाहब को शाम के समय कवि मित्रों के साथ रेस्‍तरां में देखते हैं। देखते हैं कि खूब कहकहे और चुटकुलों की भरमार रहती है। भौंपू उनकी बाहर प्रतीक्षा करता है परन्‍तु अब लौटते समय कुंवरसाहब मुन्‍शी फारसी की दुकान पर बोतल नहीं खरीदते।

इस दौरान में बाहर के कई कवि सम्‍मेलन उन्‍होंने धन्‍यवाद पूर्वक अस्‍वीकार कर दिये।

इन दो सप्‍ताह में कुंवरसाहब केवल दो बार राधा के कोठे के नीचे रुके। पान स्‍वीकार किया और हर बार एक सौ का नोट दिया।

एक बोतल चलती है चार दिन। भौंपू ले आता है। ग्राहकी बढ़ी है फल वालों की, और हलवाई की।

कुंवरसाहब वास्‍तव में मालविका को भूल गये।

मालविका का स्‍थान सहज किन्‍तु आश्‍चर्यजनक रुप से सोना ने ले लिया है।

कोई कुछ कहता नहीं, परन्‍तु दबे स्‍वर में घर के सभी नौकर कानाफूसी करते हैं।

सोना में सचमुच आश्‍चर्यजनक परिवर्तन हुआ है।

कभी कभी कुंवरसाहब को आश्‍चर्य भी होता है। स्‍त्री कितनी जल्‍दी बदल जाती है?

सोना की सीमा है-वह नई नहीं रानी मां की पुरानी साड़ियां पहनती है। रानी मां के फटे हुए ब्‍लाउज उसने स्‍वयं छोटे करके उपयुक्‍त बना लिये हैं।

और सोना बदल गई। हर क्षण उसमें परिवर्तन हो रहा है।

पहले दिन उसने कुंवरसाहब को आग्रह पूर्वक खाना खिलाया। जाने कितने दिनों बाद ऐसा आग्रह मिला था।

दूसरे दिन . ... .सोना ने विनती की कुंवर जी अधिक शराब मत लिया कीजिये। कुछ पैग उसने अपने हाथों से दिये।

तीसरे दिन दोपहर के खाने के समय कुंवरसाहब ने शराब लेनी चाही। सोना ने बहुत भारी कसम दी। दिन में शराब पीएं तो मेरा खून पिएं।

चौथे दिन जैसे बहुत से बंधन टूट गए। कुंवरसाहब ने आग्रह किया और सोना ने उनके साथ बैठकर कुछ कौर खाए।

पांचवे दिन कुंवरसाहब अपने गीत की कोई कड़ी गुनगुना रहे थे अनायास ही सोना सम्‍मुख आ गई।

-‘सोना जी।'

-‘जी कुंवर जी।'

-‘आज तक तुमने हमारा कोई गीत नहीं सुना?'

-‘रानी मां आपकी किताब में से गीत पढती हैं। सुने क्‍यों नहीं?'

-‘कैसे लगे?'

-‘समझ में नहीं आए। पढ़ी लिखी नहीं हूं न !'

-‘मैं तुम्‍हारे लिये ऐसे गीत लिखूंगा जो तुम समझ सको।'

छठे दिन !

प्रातः नौ बजे उठने वाले कुंवरसाहब के लिये सोना प्रातः पांच बजे ही चाय बनाकर ले आई।

-‘उठिए कुंवर जी। चाय पीजिए और फिर घूमने जाइए। रानी मां का हुक्‍म है। सुबह घूमने जाना अच्‍छा होता है।'

कुंवरसाहब उठना नहीं चाहते थे और सोना जैसे उठाने की प्रतिज्ञा करके आई थी।

झुंझलाकर कुंवरसाहब ने सोना को पलंग पर खींच लिया। उसके कपोलों पर अनगिनत चुम्‍बन अंकित कर दिए।

एक बंधन और टूटा। जीत सोना की हुई। कुंवरसाहब को उठना पड़ा।

सातवें दिन !

हाल में कुंवरसाहब के कवि मित्र जमा थे। यहां के बाद लगभग तीन घण्‍टे रेस्‍तरां में जमना था।

कुंवरसाहब कपड़े बदलने अपने कमरे में आए।

स्‍वयं सोना ने उन्‍हें कपड़े पहनने में सहायता दी थी, परन्‍तु जब कुंवरसाहब ने रुमाल मांगा तो इठला कर वह बोली-‘हम नहीं लाते। किसी और नौकर से मंगा लीजिए।'

तब कुंवरसाहब को सोना अजीब और रहस्‍यपूर्ण लगी।

-‘अरे लाओ न रुमाल।'

-‘हम नहीं लाते।'

-‘क्‍यों?'

-‘बस नहीं लाते।'

-‘बात क्‍या है।'

सोना मौन रही।

उन्‍होंने उसे बाहों में खींच लिया। सोना के कपोलों और होंठों पर चुम्‍बनों की झड़ी लग गई।

-‘नाराज हो क्‍या?'

-‘हां।'

-‘क्‍यों?'

-‘लौटने में आप बहुत देर लगा देते हैं, हमारा मन नहीं लगता।'

कुंवरसाहब को जल्‍दी लौटने का वायदा करना पड़ा।

आठवें दिन।

सुबह पांच बजे।

चाय लेकर आना और जगाना तो सोना का नित्‍य का नियम बन गया था।

सोना चाय लेकर आई। चाय रखकर कुंवरसाहब के पलंग पर बैठ कर उनके वक्ष पर झुकते हुए वह बोली-‘दासी चाय लेकर आई है कुंवर जी।'

और उस दिन !

कुंवरसाहब ने उसे बाहों में जकड़ा तो छोड़ा नहीं।

सोना ने जैसे मात्र दिखावे की आपत्‍ति की।

और !

सोना शरीर से भी कुंवरसाहब की हो गई।

कष्‍ट हुआ।

तुरन्‍त उठ नहीं सकी। कुछ देर निरीह सी पड़ी रही।

फिर उठी। कुंवरसाहब का सहारा लेकर।

चाय ठंडी हो गई थी। दूसरी चाय बनाकर लाई। गिरती पड़ती सी। परन्‍तु इतना सब होने के बावजूद उसने कुंवरसाहब को घूमने भेजा।

जब कुंवरसाहब घूमकर लौटे तो सोना स्‍नान कर चुकी थी और खिले फूल जैसी लग रही थी।

नौंवे दिन।

सोना शरारती भी हो गई थी।

मुंह बिचका, अंगूठा दिखाती हुई सोना भाग गई।

दसवें दिन !

दोपहर का खाना दोनों ने साथ साथ खाया।

ग्‍यारहवें दिन।

तीसरे पहर वह कुंवरसाहब के लिए फल लाती थी। खूब तकल्‍लुफ रहा। कुंवरसाहब ने अपने हाथों से सोना को फल खिलाया।

बारहवें दिन।

कुंवरसाहब पर जैसे वज्रपात हुआ।

सोना की गांव में सगाई भेजी गई। सगाई उसी गांव में भेजी गई जिस गांव का भौंपू रहने वाला था। सारे दिन कुंवरसाहब उदास उदास से रहे।

रात में सोना ने कहा-‘आप क्‍या समझते हैं कि मैं आपके बिना रह सकती हूं। रानी मां बीमार हैं वह जो कहे उन्‍हें करने दीजिए। जानते हैं मैं जिसके साथ ब्‍याही जा रही हूं उसके पास जमीन नहीं है। किसी का घोड़ा तांगा चलाता है। सब कुछ हो जाने दीजिए। घोड़ा तांगा जुड़वाकर उसे यहां ले आउंगी। आपकी हूं और आपकी रहूंगी।'

अपनी इच्‍छा से उस रात सोना ने अपना शरीर अर्पित किया।

जैसे कुंवरसाहब की प्रेम दीवानी हो। उस रात से प्रातः तक वह कुंवरसाहब के गले में बाहें डाले सोती रही।

तेरहवें दिन !

कुंवरसाहब को विश्‍वास सा हो गया कि सोना उनकी है। सोना ने स्‍वयं कहा कि उसे लिपिस्‍टिक चाहिए।

चौदहवें दिन!

कुंवरसाहब के आग्रह पर सोना ने एक पैग व्‍हिस्‍की ली।

और चौदह दिनों में अपरिचित सोना चिर परिचित बन गई थी।

यह सोना और कुंवरसाहब दोनों की मजबूरी थी कि वह हर क्षण उनके कमरे में उपस्‍थित नहीं रह सकती थी। रानी मां की देखभाल भी तो उसी के जिम्‍मे थी।

जब सोना कमरे में न होती तो कुंवरसाहब गीत लिखते।

कभी-कभी डायरी भी लिखते।

चौदहवें दिन उन्‍होंने अपनी डायरी में लिखा-‘अभी अभी राधा का सन्‍देश आया है। उसने बुलाया है। तो आज उसके पास जाना ही होगा। अब मुझे राधा की आवश्‍यकता प्रतीत नहीं होती। परन्‍तु अपने भाग्‍य से डरता हूं। यह भी तो हो सकता है कि भाग्‍य मुझसे सोना को भी ऐसे ही न छीन ले जैसे मालविका को छीन लिया था।'

सोना !

काश भाग्‍य मुझे सोना की भीख दे दे।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 6)
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 6)
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