जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 5)

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(पिछले भाग 4 से जारी…) का रोबारी आदमी ठहरे-गुप्‍ता जी जिस उद्‌देश्‍य से आए थे उसे प्राप्‍त करके लौट गये। अभी मित्रों को यह जानकारी नहीं...

(पिछले भाग 4 से जारी…)

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कारोबारी आदमी ठहरे-गुप्‍ता जी जिस उद्‌देश्‍य से आए थे उसे प्राप्‍त करके लौट गये। अभी मित्रों को यह जानकारी नहीं थी कि कुंवरसाहब लौट आए हैं। अतएव शान्‍त मन से कुछ सोचने का अवसर मिला।

बहुत देर तक कुंवरसाहब गुसलखाने में रहे। जाकर एक कोने में बैठ गये।

सोचते रहे-क्लेश किसलिये। दुख क्‍यों?

राजकुंवरी मालविका शिष्‍ट है, सुन्‍दर है।

परन्‍तु वह संसार की एक मात्र सुन्‍दर स्‍त्री तो नहीं है। देश विदेश में उससे सुन्‍दर स्‍त्री देखी, सम्‍पर्क में आई।

आमतौर से इस आयु में व्‍यक्‍ति बूढ़ा होने लगता है। कुंवरसाहब की बत्‍तीस वर्ष की आयु थी और इस आयु में कितनी ही स्‍त्रियों से शारीरिक सम्‍बन्‍ध भी स्‍थापित हुआ।

विवाह नहीं किया यह अलग बात है। उन्‍होंने स्‍वयं विवाह करना नहीं चाहा था।

वह सोचते रहे और सोचते रहे।

उदासी किसलिये? मालविका के लिये शोक क्‍यों?

फिर मस्‍तिष्‍क अपने प्रश्‍नों के उत्‍तर स्‍वयं देता है।

मालविका काण्‍ड संवेदनशील मन पर एक ताजा घाव है। उसे समय के मरहम की आवश्‍यकता होगी।

प्रश्‍न मालविका का नहीं है। मालविका पीड़ा नहीं है। पीड़ा का कारण है।

तब पीड़ा क्‍या है?

पीड़ा है अपमान की। वासना तो एक भूख है। भूख को मिटाने के जब अनेकों साधन हैं तो दिमाग पर बोझ क्‍यों?

इसलिये कि अपमान का कडुवा जहर पीना पड़ा।

इसलिये कि अपमान का कारण थी मालविका।

दुख इसलिए है, क्‍लेश इसलिए है कि यह शरीर जिन पूर्वजों के रक्‍त से बना है वह अपमान सहने के आदी नहीं थे।

फिर भी अपमान सहना ही होगा।

उनकी आराध्‍य है देवी सरस्‍वती ! वह पूर्वजों की लकीर पीटेंगे।

अपने आपको व्‍यवस्‍थित करना होगा। सम्‍भलना होगा और एक भले आदमी की तरह जीना होगा। यह सब तनिक कठिन तो है परन्‍तु असम्‍भव नहीं है।

मन तनिक शान्‍त हुआ।

जब स्‍नान के बाद वह लौटे तो जाना कि गुसलखाने में पूरे दो घन्‍टे व्‍यतीत हो गए। समय ने भला किसी की प्रतीक्षा की है?

और जब वह कमरे में पंहुचे तो चकित हुए।

अभी अभी शायद कमरा धोया गया था। कमरा पूरी तरह व्‍यवस्‍थित था। मेज पर कोरे कागज और पेन एक ओर रखा था।

कमरे के हर गुलदस्‍ते में ताजे फूल महक रहे थे।

आश्‍चर्य हुआ ! इस घर के नौकर इतने समझदार कब से हो गए।

दो नौकर थे-तनकू और करोड़ी ! एक बूढ़ा अफीमची और दूसरा जवान किन्‍तु मूर्ख। पशुओं की देखभाल अधिक अच्‍छी तरह कर सकता था। यूं वह खाना भी बनाता था। कुंवरसाहब उसके बनाए खाने की उपमा पशुओं के रातब से दिया करते थे।

दो नौकरानी थीं। इमरती और लछिया। इमरती प्रौढ़ थी, काम से अधिक बातें करती थी। लछिया करोड़ी के साथ खाना भी बनाती थी परन्‍तु वहां करोड़ी को छेड़कर मनोरंजन अधिक करती थी। इन चारों में से किसी एक को पकड़कर अक्‍सर कुंवरसाहब अपने कमरे तथा हॉल की सफाई स्‍वयं खड़े होकर कराया करते थे।

आज ईश्वर ने किसे इतनी सद्‌बुद्धि दी।

कमरे की व्‍यवस्‍था और सफाई देखकर सचमुच आज प्रसन्‍नता हुई थी। इच्‍छा हुई कि जिसने सफाई की हो उसे पांच रुपये इनाम दे दिये जायें।

उन्‍होंने पुकारा-‘अरे कोई है?'

किसी नौकर या नौकरानी के स्‍थान पर डाक्‍टर माथुर ने कमरे में प्रवेश किया-‘जी गुलाम हाजिर है।'

-‘वाह ! हम भी क्‍या याद करेंगे कि एक एम.बी.बी.एस. डाक्‍टर गुलाम रखते थे। तशरीफ रखिए डाक्‍टर साहब।'

-‘हां जब आया हूं तो बैठूंगा ही। आज मैं इनाम के काबिल काम करके आया हूं कुंवरसाहब।'

-‘मुन्‍शी फारसी का कत्‍ल कर आए क्‍या?'

इस पर ठहाका लगा। डाक्‍टर और कुंवरसाहब के बीच यह बहुत पुराना मजाक था। जिला हस्‍पताल के मेडीकल सुपरिन्‍टेन्‍डेन्‍ट डाक्‍टर माथुर साहब कुंवरसाहब की काव्‍य प्रतिभा के कारण उनके मित्र थे और इसीलिये फैमिली डाक्‍टर भी थे। अक्‍सर वह कुंवरसाहब को कम पीने की सलाह दिया करते थे और कितनी ही बार उन्‍होंने कहा था-‘ कुंवरसाहब आप शराब इसलिये अधिक पीते हैं कि मुन्‍शी फारसी आपके लिये रात के दो बजे भी बोतल सप्‍लाई कर देता है। आपको शराबी बनाने में बहुत बड़ा हाथ उसका भी है। मैं उस कमबख्‍त को गोली मार दूंगा।'

खूब हंसने के बाद डाक्‍टर माथुर बोले-‘बेशक किसी दिन मुन्‍शी फारसी मेरे ही हाथों से मरेगा। फिलहाल तो आपके लिये रानी मां से वकालत करके आ रहा हूं।'

-‘खुदाखैर करे ! मेरे लिये वकालत?'

-‘जी हां। उन्‍होंने रानीगढ़ी वाले रिश्‍ते की गड़बड़ के बारे में बात चलाई ।'

-‘ओह !'

-‘मैंने कहा . ... .रानी मां। कुंवरसाहब को आपने जन्‍म दिया है। वह आपकी गोद में खेले हैं। स्‍वाभाविक है कि वह आपकी नजर में बच्‍चे ही रहें लेकिन वह बच्‍चे नहीं हैं। इस प्रकार के घरानों में जिस प्रकार के कुंवर होते हैं हमारे कुंवरसाहब वैसे नहीं हैं। आप इन्‍हें आजादी दीजिए कि वह जहां चाहे शादी करें चाहे न करें।'

कुंवरसाहब हंस पड़े।

-‘मुझे ही देखिए। तब मैं मेडीकल कालेज का छात्र था। माता जी बीमार हुईं तो कहा टिक्‍कू का ब्‍याह कर दो, बहू का मुंह देखकर मरुंगी। साहब हम मजबूर हो गए और मुन्‍शी सदासुखलाल की भैंस जैसे रंग और आकृति की कन्‍या हमें गा बजाकर सौंप दी गई। हम भी निहाल हो गये और हमारी मम्‍मी भी। अब साहब उस गलत काम का नतीजा यह हुआ कि हमें नर्स रीटा से प्रेम बढ़ाना पड़ा। अब हालत यह है कि नीचे का पाट मुन्‍शी सदासुखलाल की पुत्री चंचल कुमारी बनीं हैं, उपर का पाट चिर कुंवारी रीटा। इसलिए तो चलती चक्‍की देखकर कबीर जी रो दिये थे। जब दो पाटों के बीच इतने महापुरुष का दलिया हो गया था तो मैं साधारण इन्‍सान माथुर तो खूब बारीक पिस रहा हूं। हमें चंचल कुमारी जी के साथ गृहस्‍थी चलाने में भैंस पालने जैसा मजा आ रहा है।'

यूं वह डाक्‍टर के साथ हंसते रहे।

परन्‍तु मन से वह चाहते थे कि कोई उन्‍हें मालविका की याद न दिलाए।

नौकर का इनाम देने की बात वह भूल गए। डाक्‍टर के बाद वह रानी मां के चरण स्‍पर्श करने गए और लौटकर भौंपू को गाड़ी तैयार करने का आदेश दिया।

वैसे आज मूड कुछ बुरा नहीं था।

पैलेस से कंधे पर रायफल टांग कर चले जरुर परन्‍तु वैसे नया गीत गुनगुना रहे थे-

मैं रात रात भर दहूं और

तू काजल आंज आंज सोए।

तेरे घर केवल दिया जले,

मेरे घर दीपक भी मैं भी।

भटकूं तेरी राहें बांधे ,

पैरों में भी पलकों में भी।

मैं आँसू आँसू बहूं और

तू बादल ओढ़ ओढ़ सोए।

चाहा था कि प्राकृतिक वातावरण में खोकर जो बीत गया और जो दुखदाई है उसे भुलाने का यत्‍न करेंगे। कुंवरसाहब ने मन ही मन निर्णय किया कि वह नित्‍य ही नगर से बहुत दूर अपनी कथित जागीर में जहां पैतृक बाग आज भी उन्‍हीं की सम्‍पत्‍ति था-जाया करेंगे। वहां कुछ लिखने पढ़ने का यत्‍न करेंगे। अगर इच्‍छा हुई तो गंगा के कछार में शिकार के लिए भी जायेंगे।

दोपहर बाद वह बाग में पंहुच गए।

बाग की उजाड़ कोठी में मन नहीं लगा।

जैसे ही चौथा पहर आरम्‍भ हुआ मन जैसे बिलखने लगा। अनार के वृक्ष की हल्‍की छांव में मसनद लगवाई। भौंपू साकी बना। सांझ से कुछ पहले ही दौर शुरु हुआ।

जैसे मन पिंजरे का पक्षी था। व्‍याकुल पक्षी जो पिंजरा तोड़ देना चाहता हो।

बाग में चार माली थे। सीधे सादे व्‍यक्‍ति ऐसे आकर बैठ गये थे जैसे मन्‍दिर में भजन करने आये हों। जानबूझ कर मौन और श्रद्धानत। कुंवरसाहब उनका क्‍या करें ! कह दिया उनसे कि अपने काम में लगें।

भौंपू साकी भी था और साथी भी।

वह खाना भी पास के कस्‍बे से लाया। परन्‍तु उसी ने खाया। कुंवरसाहब पीते रहे और पीते रहे।

आधी रात हो गई।

एक बजा। नींद नहीं आ रही थी।

आज भौंपू भी जाग रहा था। इसलिये कि मालिक जाग रहे थे तो भला वह कैसे सोये। फिर आज सूखा नहीं था, बाकायदा रंगीन था।

बोतल लगभग समाप्‍ति पर थी।

कोठी में लैम्‍प जल रहा था। धीमे प्रकाश में जैसे दमघोंटू वातावरण था।

कुंवरसाहब बहुत पी चुके थे। अन्‍तिम पैग उन्‍होंने अपने हाथ से डाला।

-‘हुजूर . ... .।' भौंपू ने कहा।

उन्‍होंने भौंपू की ओर देखा।

-‘यह पिएं तो मेरा खून पिएं सरकार। आप बहुत पी चुके हैं।'

-‘तुम पी लो।' मुस्‍करा कर कुंवरसाहब ने प्‍याली उसकी ओर बढ़ा दी।

-‘मैं . ... .।'

-‘हमारा हुक्‍म है।'

भला भौंपू हुक्‍म कैसे टालता। भौंपू ने आदाब बजाया और पी गया।

-‘भौंपू।'

-‘सरकार।'

-‘तुमने भी जरुर पिछले जन्‍म में ताल्‍लुकेदार बनकर पाप किये होंगे तभी इस जन्‍म में भोग रहे हो। यहां से चलो भई। सूनापन जैसे काटने को दौड़ता है।'

-‘जो हुक्‍म। गाड़ी तैयार है हुजूर। मैंने पिछले जन्‍म में कोई पाप नहीं किया सरकार। पुण्‍य किया है जो आप जैसे देवता की सेवा करने का मौका मिला है।'

वह हंसंे कहा-‘राक्षस वंश में देवता कैसे जन्‍म सकता है भई?'

-‘आप राक्षस वंश के नहीं राजा वंश के हैं, राजाओं में खूब देवता जनमें हैं। शास्‍त्रों में लिखा है।'

-‘क्‍या कहने। तो अब पण्‍डितों को नया शास्‍त्र पढ़ने तुम्‍हारे पास आना होगा!'

-‘बात हंसी की नहीं है सरकार . ... .।'

-‘अच्‍छा अच्‍छा बात शास्‍त्रों की सही। ज्‍यादह नशा तो नहीं है न? चल सकोगे?'

-‘जरुर सरकार जरुर।'

विधवा जैसी उदास रात की निस्‍तब्‍धता भंग करते हुए कुंवरसाहब की कार वापस दौड़ पड़ी।

तब रात का अन्‍तिम पहर था। तीन बज चुके थे।

-‘रोको भौंपू . ... .।'

कुंवरसाहब के आदेश से कार रुकी राधा के कोठे के नीचे।

आदेश हुआ-‘राधा को जगाओ।'

राधा को जगाया गया। भला कैसे न जागती। जिस व्‍यक्‍ति ने दरवाजा खोला था उसने राधा को झंझोड़ कर जगाते हुए कहा-‘बाई जी . ... .बाई जी . ... .कुंवरसाहब आए हैं।'

अभी एक घन्‍टा पहले ही तो राधा सोई थी। थकान स्‍वाभाविक थी। नाचते नाचते जब अंग अंग टूट जाता था तब कहीं पुलिस की मुजरा खत्‍म करने की आदेशात्‍मक सीटी बजती थी।

अस्‍त व्‍यस्‍त और नींद के नशे में झूमती हुई सी राधा उठी। कुंवरसाहब के लिये नीचे पंहुची।

-‘आदाब अर्ज है हुजूर।' उनींदी सी आंखें कुंवरसाहब पर टिक गईं।

-‘तसलीमात . ... . शायद गहरी नींद में थीं?'

-‘आइए, तशरीफ लाइए न ! नींद क्‍या कुंवरसाहब। अगर मर भी जाउं तो एक बार आपके पुकारने पर उठकर बैठ जाउंगी। आजमाकर जरुर देखिएगा, तशरीफ ले आइए।'

राधा ने कार का दरवाजा खोलकर कुंवरसाहब का हाथ थाम लिया। परन्‍तु शीघ्र ही राधा ने यह जाना कि उसे कुंवरसाहब को सहारा देना होगा।

सचमुच उनके पांव लड़खड़ा रहे थे।

राधा सहारा देकर उन्‍हें उपर ले गई।

परन्‍तु अन्‍दर ले जाकर उसने उन्‍हें मसनद पर नहीं पलंग पर लिटाया जिस पर वह सो रही थी।

-‘हम थोड़ी सी व्‍हिस्‍की लेंगे।'

-‘व्‍हिस्‍की तो हुजूर खत्‍म हो गई। आप लेटिए न . ... .। अभी मुन्‍शी जी के यहां आदमी भेजती हूं . ... .।'

राधा के कोठे पर भला व्‍हिस्‍की की क्‍या कमी। परन्‍तु कुंवरसाहब की हालत देखकर वह जानबूझ कर टालना चाहती थी।

और यह बात कुंवरसाहब भी जानते थे।

राधा उनके निकट बैठकर उन पर झुक गई।

-‘एक बात हमारी मानेंगे कुंवरसाहब !'

-‘जरुरी नहीं कि मानें।'

-‘मेरी कसम।'

-‘न, अब हम किसी के जाल में नहीं फंसेंगे।'

-‘हुजूर।'

-‘जानें तो क्‍या कहना है।'

-‘कुछ देर आराम कर लीजिये।'?

-‘ओह !'

-‘स्‍विच आफ कर दूं?'

कुंवरसाहब कुछ नहीं बोले।

राधा ने मौन स्‍वीकृति समझी।

वह उठी और तेज रोशनी के बल्‍ब का स्‍विच आफ करके हल्‍के प्रकाश का नाइट लैम्‍प प्रकाशित करके लौटी तो कुंवरसाहब उठकर बैठ चुके थे।

राधा लेट गई-‘कुंवरसाहब . ... .।'

-‘हां।'

-‘हमने कसम दी है। आप जागे हुए और परेशान लगते हैं। आराम कीजिए।'

कुंवरसाहब बिना कुछ उत्‍तर दिए उठकर खड़े हो गए।

-‘कुंवरसाहब . ... .।' चौंकती सी राधा उठकर बैठ गई। राधा की ओर देखे बिना ही वह बोले-‘पहले तो मैं तुम्‍हें धन्‍यवाद दूंगा राधा। नए गीत का दूसरा छन्‍द तुमसे प्रेरित होकर बना है। सुनोगी न, सुनो . ... .।'

कुंवरसाहब ने नशे के प्रभाव से लरजते स्‍वर में गीत का एक छन्‍द सुनायाः-

बासी भोरें टूटी सांझें,

कच्‍चे धागों जैसी नींदें,

बैचेन कटीले अंधियारे,

पैनी यादें, तन मन बींधें।

मैं खण्‍डहर खण्‍डहर ढहूं,

और तू अलके गूंथ गूंथ सोए !

स्‍वर जैसे कुंवरसाहब को विधाता का वरदान था। उनकी वाणी में जैसे श्रोता का मर्म वेध देने की क्षमता थी।

गीत की अन्‍तिम पंक्‍ति कहते कहते वह कमरे से बाहर निकल आए।

राधा को जैसे अपनी भूल का एहसास हुआ।

वह तेजी से उठी और सहन में जाते हुए कुंवरसाहब की बांह थामते हुए कहा-‘सरकार माफी चाहती हूं।'

-‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए राधा। मेरी नींद विधाता ने मुझ से छीन ली, परन्‍तु दूसरे की नींद छीनने का तो मुझे अधिकार नहीं है। मैं सभी कुछ कीमत देकर खरीद लेना चाहता हूं, लेकिन मुझे जानना चाहिए कि हर चीज बिकाउ नहीं होती . ... .मैं जा रहा हूं राधा . ... .और यह है तुम्‍हारी कीमत . ... .।'

जेब में लगभग चार हजार रुपयों के नोट थे। कुंवरसाहब जानते थे कि राधा नोट हाथों में नहीं लेगी। उन्‍होंने नोट कमरे में फेंक दिये।

आगे बढ़कर रोती हुई राधा ने सीढ़ियों का द्वार रोक दिया।

-‘नाराज होकर जा रहे हैं। लेकिन तभी तो जाइयेगा जब मैं जाने दूंगी। मैं गाउंगी . ... .नाचूंगी ।'

-‘हटो !' बलपूर्वक कुंवरसाहब राधा को बांह पकड़कर एक ओर धकेल दिया।

इससे पूर्व कि राधा बावली सी सीढ़ियां उतर कर नीचे पंहुचे, कार स्‍टार्ट होकर दौड़ पड़ी थी।

आंखों से सावन भादों की झड़ी बरसाती राधा अपने निजी कमरे में पंहुची। सुबकते हुए उसने बिखरे नोट समेटे और एक संदूकची खोलकर वह नोट उसमें रख दिये।

यह वह कोष था जो कुंवरसाहब के रुपयों से बना था। इन रुपयों को राधा अलग रखती थी और इन पर अपना स्‍वामित्‍व नहीं समझती थी।

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शेष रात्रि राधा सो नहीं सकी।

अलबत्‍ता तब जबकि पक्षी चहचहाने लगे थे कुंवरसाहब को नींद आ गई।

भोर होेते ही अपना एक नौकर राधा ने भेज दिया था। नौकर का काम केवल इतना था कि जब कुंवरसाहब जाग जाएं तो वह राधा को जाकर सूचित कर दे।

नौ बजे कुंवरसाहब जागे।

उठकर जब चाय के बाद कुंवरसाहब स्‍नानादि के लिये गये तो उत्‍सुकतावश आप केवल पैंतालीस मिनिट में ही लौट आये।

परन्‍तु आज फिर उत्‍सुकता बढ़ गई।

कमरा बिल्‍कुल साफ था। हर वस्‍तु दमक रही थी। ताजे गुलाब गुलदस्‍तों में महक रहे थे।

कल की भांति ही आज भी कुंवरसाहब कुछ क्षण हतप्रभ से कमरे को निहारते रहे-हे ईश्वर कौन सा नौकर और नौकरानी इतनी समझदार हो गई है !

सचमुच इनाम के काबिल काम है आज जरुर सफाई करने वाले को दस रुपये देने होंगे ।

जैसे सफाई करने वाले के भाग्‍य में दस रुपये पाना ही नहीं था . ... .आज भी तब जबकि वह किसी को पुकारने ही वाले थे दरवाजे की चिक हटाकर कमरे में राधा ने प्रवेश किया।

उसकी आंखें सूजी हुई थीं। मानो रोई थी। बहुत रोई थी। बहुत रोई थी। बाल अस्‍त व्‍यस्‍त थे। साड़ी में जगह जगह सिकुड़न थी।

-‘आदाब अर्ज है कुंवरसाहब . ... .।'

-‘खुदाखैर करे ! क्‍या रुप है, जैसे चाँद हो चौदहवीं का। मगर चाँद कैसे सवेरे सवेरे . ... .।'

-‘माफी मांगने आई हूं सरकार . ... .।'

-‘कैसी माफी?'

-‘मैं आपके बिना, आपकी कृपा के बिना जिन्‍दा नहीं रह सकती। मुझे माफ कर दें। मैं आपकी कसम खाकर कहती हूं आइन्‍दा कभी गुस्‍ताखी नहीं होगी। दरअसल मैं नींद में थी। मुझे आपसे आराम करने के लिये नहीं कहना चाहिए था। मुझे मुजरे के लिये फौरन तैयार होना चाहिए था। यह सरासर आपकी तौहीन हुई है . ... .कुंवरसाहब अगर आपने मुझे क्षमा नहीं किया तो मैं पागल हो जाउंगी मैं . ... .।' वह रो पड़ी।

दयार्द्र होकर कुंवरसाहब ने . ... .राधा को बाहों में भर लिया।

जैसे मन का बांध टूट गया। राधा की रुलाई रुक ही न पा रही थी।

-‘राधा !'

-‘मुझे माफ कर दीजिये कुंवरसाहब।'

-‘सुनो तो राधा।'

-‘कुछ नहीं सुनूंगी। पहले कह दीजिये कि माफ किया।'

-‘हां हां माफ किया . ... .जरा चाँद सा मुखड़ा उपर उठाओ तो।' उन्‍होंने अपने हाथों से राधा के आँसू पोंछे।

राधा को संयत होने में समय लगा।

कुंवरसाहब ने उसे बैठाया। स्‍वयं भी उसके निकट सोफे पर बैठे।

-‘अब हमें कुछ कहने की इजाजत है?'

-‘जी।' नववधू की भांति राधा ने दृष्‍टि झुकाकर कहा।

-‘शराब तुमने भी पी है। शराब के गुण दोष तुम अच्‍छी तरह जानती हो। शराब पीने के बाद आदमी कुछ सनकी सा हो जाता है। दोष तुम्‍हारा नहीं था राधा।'

-‘आप देवता हैं। परन्‍तु मैं अपना दोष पहचान गई हूं।'

-‘तुम्‍हारा दोष नहीं था राधा, विश्‍वास करो।'

-‘मेरा दोष था . ... .।' नम्र किन्‍तु दृढ़ स्‍वर में वह बोली-‘हर चाहत के साथ फर्ज भी तो जुड़ा होता है। मैं कोठे वाली थी और कोठे वाली ही रही। चाहकर भी अपने संस्‍कार नहीं छोड़ सकी ।'

-‘उफ ! मैं तुम्‍हें कैसे विश्‍वास दिलाउं कि उस समय मैं मुजरा नहीं सुनना चाहता था।'

-‘शायद ऐसा ही हो।'

-‘मैं नशे में था। वास्‍तव में मैं बहुत नशे में था। किसी और पर झुंझलाहट थी और वह झुंझलाहट तुम पर उतरी।'

-‘मैं बच्‍ची नहीं हूं कुंवरसाहब ! सब जानती हूं, सब समझती हूं गुस्‍सा मुझ पर ही क्‍यों उतरा, भौंपू पर क्‍यों नहीं उतरा। मुझ पर गुस्‍सा इसलिये उतरा कि आपको जान से ज्‍यादा चाहने के बाद भी मैं कोठे वाली का चरित्र नहीं छोड़ सकी। हो सकता है कि आप मुजरा न सुनना चाहते हों। लेकिन मुझ मुंहजली को यह सोचना चाहिए था कि जिनकी इतनी बड़ी हवेली है क्‍या वह मेरे दो कौड़ी के कोठे पर सोने आयेंगे। मुझ अभागी ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि क्‍या पेश करुं। यह न सोचा कि आप से खाने के लिए पूछूं। यह भी न सोचा कि . ... .।'

-‘बस राधा बहुत हुआ।'

-‘कुछ भी तो न हुआ। आप ने मुझे मुआफी दे दी एक तरह से मुझे जिन्‍दगी मिल गई। लेकिन अभी मैंने अपने आपको मुआफ नहीं किया है। मेरे मन ने कहा अभागिन अगर तुझे कुंवरसाहब की ब्‍याहता होने का गौरव प्राप्‍त होता तो क्‍या दरवाजे पर टकटकी लगाये जागती न रहती . ... .जब आप आते तो क्‍या कुछ भी न पूछ कर इसलिये सो जाने को कहती कि मेरी नींद खराब न हो . ... .।'

-‘राधा।'

-‘कुंवरसाहब मैं अच्‍छी बनना चाहती हूं। मैं अच्‍छी बन कर रहूंगी।'

-‘बहुत हुआ राधा। तुमने कहा कि मैं कहूं कि माफ कर दिया वैसा मैंने कह दिया . ... .।'

-‘आप देवता हैं।'

-‘अगर एतराज न हो तो मैं यह कहूं कि राधा मुझे रात की बदतमीजी के लिए मुआफ कर दो।'

-‘मैं आपके दरवाजे पर सिर पटक कर मर जाउंगी कुंवरसाहब।'

-‘बदले में मैं भी कुछ कर सकता हूं। यह ठीक है कि इन्‍सान होने के बावजूद कुंवरसाहब की पूंछ मेरे पीछे लगी है। लेकिन बोलो झगड़ा पसन्‍द है या यह सिर दर्द करने वाली बात अब खत्‍म कर रही हो?'

राधा चुप !

-‘अजीब होती हो तुम औरतें। तो झगड़ा ही करना है?'

मौन राधा ने कुंवरसाहब के दोनों हाथ थामकर मुस्‍कराते हुए अपने कपोलों से सटा लिये।

और फिर सुलह हो गई।

दोपहर में कुंवरसाहब राधा के साथ घर से निकले। तीसरा पहर राधा के साथ शहर घूमने में बिताया। लगभग साढ़े चार बजे पीनी आरम्‍भ की।

आज मन भटका भटका सा नहीं था।

आज . ... .।

सात बजे वह वापस लौट आये।

कोठी से चलते हुए उन्‍होंने कहा था-‘राधा बहुत शीघ्र ही मैं तुम्‍हारे लिये नई कालोनी में कोठी बनवाउंगा। उस कोठी का नाम रखूंगा-पी कहां। नाचना, गाना और आधी रात के बाद तक जागना, यह सब छोड़ देना। मैं जानता हूं कि यह थका देने वाला काम है।'

राधा ने पूछा था-‘परन्‍तु उसका नाम पी कहां क्‍यों होगा? मेरे पी तो मेरे पास होंगे।'

चलते चलते कुंवरसाहब ने कहा था-‘इसका जवाब फिर दूंगा।'

राधा से कुंवर साहब ने यह कह कर विदा ली थी कि आज नींद आ रही है वह सोयेंगे।

अपने कमरे में पंहुचकर लेटने से पहले उन्‍होंने अपनी डायरी में लिखा -‘राधा पूछती है कि कोठी का नाम ‘पी कहां' क्‍यों होगा? मेरे पी तो मेरे पास होंगे। मैंने उसे जवाब देना उचित नहीं समझा मुझे लगा है कि मालविका की स्‍मृति मुझे जीने नहीं देगी और तब वियोगी पपीहे को ‘पी कहां' सार्थक हो जायेगी। वियोगी पपीहे की भूमिका निभाने को आरम्‍भ में निस्‍सन्‍देह राधा को कुछ कष्‍ट होगा। मैं जानता हूं कि राधा केवल कोठे वाली नहीं है।'

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी9:20 pm

    वाह
    यह किस्त पीछे की चार किस्तों से कहीं ऊपर पहुँच गयी है। आशा है अब और ऊँची उड़ान भरेगी पुस्तक

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 5)
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 5)
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