( पिछले अंक से जारी …) नीं द रुठ गई थी। और एक के बाद एक बीती यादें। चन्द्रावती। कुंवरसाहब की छोटी बहन। सुन्दर और नटखट, सात वर...
नींद रुठ गई थी।
और एक के बाद एक बीती यादें।
चन्द्रावती। कुंवरसाहब की छोटी बहन। सुन्दर और नटखट, सात वर्ष से विवाहित।
परन्तु भाग्यहीन।
एक जागीरदार घराने में ब्याही गई। परन्तु ग्रेज्युएट लड़की को वर अच्छा नहीं मिला। असली जागीरदार चरित्र। जागीरदारी चरित्र का भ्रष्ट और पतित रुप।
सात वर्ष के विवाहित जीवन में चन्द्रावती को सन्तान नहीं हुई थी। पति ने उसे बांझ करार दिया। वैसे भी दामाद साहब अपने इलाके के अच्छे खासे गुण्डे थे। यूं न जाने कितनी रखेलें थीं परन्तु दूसरा विवाह करने में कानूनी बाधा थी। इसलिए वह चन्द्रावती के लिए घर में सौत तो नहीं ला सके अलबत्ता छोड़ देने की धमकी दी।
बात कुछ और अधिक बढ़ी।
और पति ने चन्द्रावती से कहा कि या तो वह अपने बाप की जायदाद में से हिस्सा ले या चली जाए।
बहन मां के पास आकर रोई।
बात कुंवरसाहब के पास तक पंहुची। उन्होंने बहनोई को बुलवाया।
बात हवेली पर नहीं वकील के यहां हुई।
बहनोई का नाम था राजसिंह। कुंवरसाहब उन्हें ठाकुर साहब कहा करते थे।
शान्त किन्तु दृढ़ स्वर में कुंवरसाहब ने वकील के सम्मुख पूछा-‘अब कहिए ठाकुर साहब आप क्या चाहते हैं?'
राजसिंह हो हो करके हंस दिया।
-‘मैं साफ साफ बात करना चाहता हूं ठाकुर साहब !'
-‘अपनी बहन को सम्भालिए।'
-‘क्या मतलब?'
-‘मैं तलाक देना चाहता हूं।'
-‘सचमुच यह एक अच्छा सुझाव है ! परन्तु मजबूरी यह है कि रानी मां और चन्द्रा इसे नहीं मानेंगी। क्या कोई और रास्ता नहीं है?'
-‘रास्ता तो है . ... .।'
-‘कहिए।'
-‘कानून है कि लड़की को उसके बाप की जायदाद में हिस्सा मिले।'
उत्तर में कुंवरसाहब के वकील ने कुछ कहना चाहा पर कुंवरसाहब ने उसे रोक दिया।
-‘हूं ! कितना हिस्सा आप चाहते है।?'
-‘मैंने आपकी जायदाद पांच लाख रुपये की कूती है बहुत कम . ... .।'
-‘ओह !'
-‘एक लाख रुपये में मैं विवाह माने लेता हूं।'
-‘ठीक।'
-‘समझौता एक लाख नगद पर हो सकता है।'
-‘हूं।'
-‘मैं साफ आदमी हूं और साफ बात पसन्द करता हूं। उम्मीद है कि आप भी साफ बात ही कहेंगे।'
वकील ने फिर बोलना चाहा और कुंवरसाहब ने उसे फिर रोक दिया।
-‘एक शर्त के मुझे आपका सुझाव स्वीकार है ठाकुर साहब।'
ठाकुर जैसे आसमान से गिरा।
झल्ला कर वकील साहब ने कहा-‘कुंवरसाहब आप मेरी भी तो सुनिये।'
-‘प्लीज वकील साहब . ... .यह मेरी जिन्दगी का सवाल है। जी हां, अगर मेरी बहन मेरे होते दुखी हो तो मेरी जिन्दगी क्या अच्छी हो सकेगी। ठाकुर साहब मैं आपको एक लाख रुपया दे सकता हूं। शर्त जरुर है।'
-‘कहिए।'
-‘नम्बर एक आपको लिखकर देना होगा कि आपने हिस्सा ले लिया है।'
-‘लिख दूंगा।'
-‘नम्बर दो आपको लिखकर खेद प्रगट करना होगा कि आपका अब तक मेरी बहन से बर्ताव अच्छा नहीं था और अब हिस्सा मिलने के बाद आप अच्छा व्यवहार करेंगे।'
-‘यह मैं अपने वकील से सलाह करके बताउंगा।'
-‘तीसरी और अन्तिम शर्त यह कि रुपया मैं आपको नहीं अपनी बहन को दूंगा और वही उसकी स्वामिनी होगी।'
उस समय समझौता नहीं हो सका।
ठाकुर चन्द्रावती को वहीं छोड़कर लौट गया।
उदास चन्द्रावती को देखकर कुंवरसाहब उदास हो जाते थे।
उधर ठाकुर के लिए भी एक लाख का प्रलोभन कुछ कम नहीं था और रिश्तेदारों के जरिए उसने खत्म बात को फिर चलवाया।
कुंवरसाहब अपनी बहन के प्रति मन के स्नेह से मजबूर से थे। इसलिये वह अपने प्रस्ताव से पीछे नहीं हटे।
रिश्तेदारों की खासी पंचायत सी हुई।
और ठाकुर ने कुंवरसाहब का प्रस्ताव मान लिया।
कुंवरसाहब ने तीनों बातें लिखाकर उस पर पंचों के हस्ताक्षर करा कर एक लाख रुपया चन्द्रावती के नाम से बैंक में जमा करवा दिया।
उनके चेहरे पर न रंज था न मलाल।
बात उन्होंने न मालविका से कही थी न रावसाहब से, परन्तु रिश्तेदारों के द्वारा बात वहां भी पंहुची थी।
जैसे एक लाख रुपया वरदान थे।
समाचार मिला था कि चन्द्रावती को दिन चढ़े हैं।
रानी मां ने खुश होकर कुंवरसाहब को ढेरों सौगातें वहां लेकर भेजा था।
वैसे भी बहन की ससुराल में कुंवरसाहब कई हजार रुपया अपने मन से खर्च कर आए। ठाकुर की हवेली में उन्होंने बहन की सुविधा के लिए आधुनिक ढंग का गुसलखाना चन्द्रावती के कमरे के निकट ही बनवाया। कमरे का फर्श नए ढंग का बनवाया।
लजाते हुए चन्द्रावती ने स्वीकार किया था कि अब ठाकुर साहब का व्यवहार अच्छा है।
और कुंवरसाहब खुशी से भर गये थे।
उन्हें लगा था जैसे उनके बुजुर्गों ने जो पाप किए थे उनका कुछ निवारण हो गया हो।
बहन के यहां से वह सीधे रानीगढ़ी गये थे।
बहुत प्रसन्न थे वहुत ही प्रसन्न।
गये थे विवाह का मुहूर्त निकलवाने।
खास तौर पर दिल्ली होकर गए थे। मालविका के लिए बहुत सी सौगातें लेकर।
और रानीगढ़ी में !
जैसे उनकी नींद रानीगढ़ी में किसी ने चुरा ली थी।
कुंवरसाहब रानीगढ़ी पंहुचे तो रावसाहब चुप चुप से थे।
सदा की तरह उन्होंने कुंवरसाहब को गले लगाकर गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया। बुझा बुझा सा प्रति नमस्कार का उत्तर मिला।
फिर एक चोट। नौकर को बुलाकर उन्होंने मरदाने हिस्से में ही बैठक से लगे मेहमानखाने में कुंवरसाहब का सामान रखवा दिया। कहा-‘लोग शिकायत करते हैं कि में पर्दे का ख्याल नहीं करता। आप मेहमान खाने में ही आराम करें। आपको किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।'
पर्दे का ख्याल ! तब कुंवरसाहब को साधारण सन्देह ही हुआ। दिन के तीसरे पहर का समय था। रावसाहब ने चाय के लिये पूछा। कुंवरसाहब ने ना कर दी।
उन्होंने रावजी के नौकर से कहा कि वह उपहार की वस्तुएं अन्दर पंहुचा दे। थके से थे, स्वयं लेट गये। दो घन्टे गहरी नींद सोये।
उठ कर देखा तो उपहार की वस्तुएं उनके निकट ही रक्खी हैं।
-‘भौंपू।' उन्होंने आवाज दी।
-‘जी सरकार।' भौंपू बाहर से आया।
-‘यह सब चीजें तो मैंने राव साहब के नौकर से अन्दर भिजवाने के लिये कहा था। यह सब यहां कैसे?'
-‘राव साहब के हुक्म से।'
-‘क्यों?'
-‘क्या जानूं सरकार। रावसाहब के तेवर कुछ बदले से लगते हैं।'
-‘राव साहब बैठक में हैं?'
-‘नहीं। कहीं गए हैं।'
-‘आएं तो बताना।'
रात हो गई। नौकर आकर खाना रख गया।
कुंवरसाहब समझ नहीं आ पा रहे थे कि बेरुखी किस लिये।
रात में लगभग दस बजे राव साहब लौटे।
-‘राव साहब . ... .।' कुंवरसाहब बैठक ही में गये।
-‘ जी कुंवरसाहब।'
-‘मुझे रानी मां ने भेजा है।'
-‘जी किस लिए?'
-‘विवाह की तिथि निश्चित करने के लिये।'
-‘ओह। मुझे अफसोस है कुंवरसाहब यह रिश्ता नहीं हो सकेगा।'
कुंवरसाहब जैसे आसमान से गिरे।
-‘क्यों?'
-‘राजकुंवरी को रिश्ता पसन्द नहीं है।'
-‘क्यों?'
-‘इसीलिये कि वह रानीगढ़ी की राजकुंवरी है। आराम में पली है-दानी हरिश्चन्द्र के साथ वह गुजारा न कर सकेगी।'
-‘सीधी बात कहें तो कृपा होगी।'
-‘बहनोई को एक लाख नगद दिया है न?'
-‘जी।'
-‘हमसे पूछा?'
-‘जी दरअसल ।'
-‘राजकुंवरी से पूछा?'
-‘जी नहीं।'
-‘एक लाख रुपया बहुत होता है कुंवरसाहब।'
-‘जी।'
-‘जो एक लाख इतनी आसानी से दान कर सकता है वह सब कुछ दान करके एक दिन कंगाल भी हो सकता है।'
-‘शायद आपने ठीक सोचा है।'
-‘आप बिरादरी के हैं। कवि और विद्वान हैं। महल आपका है हमें आपके आगमन से सदा खुशी होगी। लेकिन यह रिश्ता नहीं हो सकेगा।'
-‘हूं।'
-‘अब आप विश्राम करें।'
-‘क्या मैं राजकुमारी से भेंट कर सकता हूं।'
-‘नहीं।'
-‘ओह ! राव साहब कृपा होगी अगर आप रानी मां के लिये इसी आशय का एक पत्र लिख दें।'
-‘लिख दूंगा।'
-‘कृपया लिख दें।'
-‘हां हां ! आप विश्राम कीजिये, सुबह लिख दूंगा।'
-‘कृपा होगी अगर अभी लिख दें तो। मेरा ख्याल है तीसरे पहर से अब तक की नजरबन्दी भी भुगत चुका हूं। रिहाई पाकर मुझे प्रसन्नता होगी।'
-‘अभी आपका जाना नहीं होगा।'
-‘मैं एक मिनट के लिए भी जेल भुगतने को तैयार नहीं हूं।'
-‘लेकिन कुंवरसाहब राह में जंगल पड़ता है। जंगली जानवर . ... .।'
-‘राव साहब मेरी रायफल कार में है।'
-‘फिर भी . ... .।'
-‘अगर आप लिख कर नहीं देना चाहते तो न सही।'
-‘नहीं मैं लिखे देता हूं।'
रावजी ने पत्र लिखकर कुंवरसाहब को दे दिया। पत्र पाते ही कुंवरसाहब ने पुकारा-‘भौंपू।'
-‘हुजूर।'
-‘कार तैयार है?'
-‘बिल्कुल तैयार है हुजूर।'
-‘चलो . ... .।'
तभी रावजी ने अपने नौकर को बुलाकर कहा-‘देखो कुंवर जी जा रहे हैं। मेहमान खाने से सभी वस्तुएं लाकर हिफाजत से कार में रख दो।'
बात कुंवरसाहब समझ गये। वह इस स्थिति में भी उपहार लौटाकर नहीं ले जाना चाहते थे परन्तु जवाब में कुछ कह न सके। और कुंवरसाहब कार में बैठ गये।
लग रहा था जैसे लुट गए हों। बरबाद हो गये हों।
कार चल पड़ी।
कुंवरसाहब ने एक बार मुड़कर महल की ओर देखा। तब तक देखते ही रहे जब तक कि महल की बुर्जी आंखों से ओझल न हो गई।
परन्तु रानीगढ़ी से उस रात जाना न हो सका।
तब जबकि उनकी कार पैट्रोल पम्प पर खड़ी थी उनकी ही जागीर का एक लड़का जमील वहां दिखाई पड़ गया।
वह एक सरकारी जीप में था। जीप से कूदते हुये उसने उन्हें देखकर चौंकते हुए कहा-‘हुजूर कुंवरसाहब !'
कुंवरसाहब को लगा जैसे उस व्यक्ति को कहीं देखा है।
-‘पहचाना हुजूर?'
-‘भई तुम्हें देखा जरुर है . ... .।'
-‘हुजूर मैं आपकी प्रजा हूं। जमील, हकीम शकीलउद्दीन का लड़का। आपने मेरी इन्टर की फीस दी। बी.ए. और एम.ए. की फीस और किताबों के लिए जब मैंने आपको लन्दन खत लिखा था, आपने वहां से पैसा भेजा।'
-‘ओह जमील . ... .वही बाग का दुश्मन।'
-‘जी हां। आपके बाग का एक चोर। आपकी रैयत . ... .।' झुक कर जमील ने कुंवरसाहब के पांव पकड़ लिये।
-‘जीते रहो,खुश रहो। भई यहां कैसे?' जमील को गले से लगाते हुए कुंवरसाहब ने पूछा।
-‘इसी जिले में मजिस्ट्रेट हूं। दौरे पर था, आपके दर्शन हो गये। कहीं जा रहे थे हुजूर?'
-‘हां घर जा रहा हूं ।'
-‘भला यह कोई जाने का वक्त है हुजूर। आज रात खादिम के साथ डाक बंगले में रहिए . ... .पिछले साल शादी की थी। आपको खुद दावतनामा देकर आया था, लेकिन वायदा करके भी आप नहीं आए। आपका बधाई पत्र मैंने फ्रेम करवा कर बंगले में टांग रक्खा है। रात में जाना हरगिज नहीं हो सकेगा हुजूर। डाक बंगले में दुल्हन भी हैं हुजूर। उसे आशीर्वाद दिये बिना . ... .।'
-‘क्या कहते हो भौंपू . ... .।'
-‘सरकार भला मैं क्या कहूं। आप भी राजा हैं और जमील साहब भी राजा हैं। बड़ों के बीच मैं कैसे बोलूं।'
जमील कह उठा-‘ड्राईवर साहब खबरदार। हमें अपनी बेइज्जती बर्दाश्त नहीं होगी। यह हमारे राजा हैं और हम इनकी रैयत हैं। कुछ हैं नहीं लेकिन कुछ भी हो जायें फिर भी इनकी रैयत ही रहेंगे। यह दिल का रिश्ता है और उम्र भर नहीं बदलेगा।'
बहुत स्वागत सत्कार किया जमील ने।
उसकी दुल्हन बेपर्दा होकर सामने आई। अपने राजा का आशीर्वाद लेने।
जमील उनकी आदतों से परिचित था। जाने कहां से वह आधी रात को व्हिस्की की बोतल जुटा लाया।
तौबा टूट गई।
रात के लगभग तीन बजे तक कुंवरसाहब जमील के साथ पीते रहे।
यह कल रात की ही तो बात है। कुछ घन्टे उन्हें नींद भी आई।
सुबह वह सभी उपहार जो मालविका के लिए थे, सभी दुल्हन के सम्मुख रख दिये।
-‘इतना सब . ... .।'
आगे वह कुछ न कह सकी। कुंवरसाहब बोले-‘हम तुम्हारे राजा हैं दुल्हन। अगर हम दर-दर भीख भी मांगने लगे तो तुम लोगों के राजा ही कहलायेंगे। हुक्म उदूली हमें बरदाश्त नहीं होगी।'
वह रात अच्छी कट गई थी, परन्तु आज की रात!
और रात समाप्त हो गई।
यूं वातावरण में अभी अंधेरा था। परन्तु पक्षियों का कलरव भोर की सूचना दे रहा था।
और कुंवरसाहब को नींद आ ही गयी।
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प्रातः नौ बजे गुप्ता जी ने कुंवरसाहब से गुप्ता जी का खुला नाता था। कोई छुपाव नहीं था। बात चली तो कुंवरसाहब ने सब बातें बता दीं।
गुप्ता जी व्यापारी आदमी थे। बोले-‘अगर आप कहें तो मैं रानीगढ़ी जाकर कोशिश करुं।'
सुनकर कुंवरसाहब जोर से हंसे
फिर बोले-‘यह सही है गुप्ता जी मालविका जैसे नस-नस में बस गई थी। लेकिन मैं आपसे कितनी ही बार कह चुका हूं कि बुजुर्गों की सब बुराइयों से मैं पीछा नहीं छुटा हूं। टूट सकता हूं झुक नहीं सकता। मालविका के लिए तड़प कर मर जाना मंजूर है लेकिन मालविका से अब समझौता नहीं होगा।'
गुप्ता जी जानते थे यही उत्तर मिलेगा।
उन्होंने अपनी बात को मनवाने की कोशिश नहीं की बल्कि एक नई बात छेड़ी-‘कुंवरसाहब आप राजा हैं और मैं अदना बनिया हूं। चार आदमियों के सामने जब आप मुझे अपना मित्र मानते हैं तो स्वयम् अपने भाग्य से ईर्ष्या होती है। मान लीजिए कि मुझे कुछ रुपयों की जरुरत पड़ जाये तो आप दोस्ती के नाते मुझे कितने रुपये तक दे सकते हैं?'
-‘मेरा इम्तिहान ले रहे हैं गुप्ताजी?'
-‘यूं ही समझ लीजिए।'
-‘तो चाहे जब आजमा लीजिये। इस हवेली के अतिरिक्त मैं अपनी सारी पूंजी आपको दे सकता हूं। रानी मां के होते मेरी मजबूरी है कि मैं हवेली आपको नहीं दे सकता।'
-‘मुझे दस हजार रुपयों की जरुरत है।'
-‘बस ! अरे कमबख्त कुछ तो मांगते।'
-‘छोटा आदमी हूं भला बड़ी बात कैसे कहूं।'
-‘दस हजार रुपये आपको आज ही मिल जायेंगे।'
-‘पक्का वादा है न?'
-‘अरे बाबा अभी चैक ले लो। हो असली बनिए।'
-‘मेरी बात का जवाब दीजिये कुंवरसाहब। वादा पक्का है न?'
-‘तुम्हारी जान की कसम गुप्ता जी।'
-‘अब सुनिये। मैं साहूपुर गांव का मुकदमा लड़ना चाहता हूं। कोर्ट फीस के लिये मुझे रुपयों की जरुरत है।'
-‘लानत है गुप्ताजी आप पर। रहे आप बनिये ही . ... .।'
-‘जी हां बनिया तो हूं ही। लेकिन आप वादा कर चुके हैं . ... .।'
साहूपुर था कुंवरसाहब की पैतृक जमींदारी का एक गांव। वह गांव पैतृक जमींदारी में है इसके बहुत से पुख्ता सबूत कुंवरसाहब के पास थे।
उसी गांव में कुंवरसाहब के पूर्वजों के पुरोहित रहते थे। एक बार फसल बहुत खराब हो गई थी तो पुरोहित जी के कहने से कुंवरसाहब के प्रपिता ने उस गांव की मालगुजारी अपने पास से जमा करा दी थी और भविष्य में ऐसी व्यवस्था करा दी थी कि गांव पंचायत सीधे सरकारी लगान जमा करा दे। जमींदारी भाग सदा के लिये क्षमा कर दिया गया था।
अपना हक नहीं छोड़ा था कुंवरसाहब के बुजुर्गों ने। परन्तु कुछ वर्ष लगान की रसीद गांव पंचायत के नाम से कट गई और सीधे मामले में कुछ घपला पड़ गया।
जब जमींदारी समाप्त हुई तो कुंवरसाहब बालिग नहीं थे और किसी कुसूर पर पुराने कारिन्दे को रानी मां ने नौकरी से निकाल दिया था।
यह बात तब खुली जब लन्दन से पढ़कर लौटे।
लगभग चार लाख का मामला था। परन्तु कुंवरसाहब ने न रानी मां का कहा माना न मित्रों का।
कुंवरसाहब ने कहा-‘भई घी कहां गया, खिचड़ी में। उसका मुआवजा अंग्रेज तो अपने साथ ले नहीं गए। गवर्नमेन्ट के पास ही तो है, रहने दो। अगर हमें जो कुछ मिला है वह भी कांग्रेस ले लेती तो हम क्या कर लेते।'
परन्तु आज गुप्ता जी ने दोस्ती के नाम पर कुंवरसाहब को फांस ही लिया था।
-‘एक बात पूछें गुप्ताजी?' कुंवरसाहब बोले।
-‘बात हजार पूछिए। लेकिन आप वादा कर चुके हैं।'
-‘हां जनाब हम वादा कर चुके हैं। परन्तु यह तो कहिए कि आज यह फितूर कहां से आया। रानी मां से मिले हैं क्या?'
-‘हां उन्हें तो प्रणाम करके आया हूं। लेकिन इस मामले में उनसे कोई बात नहीं हुई।'
-‘तब कहां से लाये यह लतीफा?'
-‘रानीगढ़ी से।'
-‘गुप्ता जी ।'
-‘यह कहने की मुझ में हिम्मत नहीं है कुंवरसाहब कि आप रानीगढ़ी के रावजी को राजी करने की कोशिश करें। लेकिन रुपये की क्या ताकत है यह आपको जानना ही होगा।'
-‘ओह ! उपदेश के लिये धन्यवाद गुप्ताजी।'
-‘सवाल उपदेश का नहीं है। कुंवरसाहब मैं तो सिर्फ इतना चाहता हूं कि इस तरह की कोई और घटना फिर न घटे। सबको सब सबूत और मुकदमें का प्रतिनिधित्व मुझे देना ही होगा।'
-‘ठीक है। हम अपना वादा नहीं तोड़ेंगे। लेकिन हम समझते हैं कि हमारा धन शापग्रस्त है। यह किसान के खून की कमाई है और हमें सदा दुख देगी।'
-‘मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं।'
-‘आपकी असहमति हमें तथ्य से नहीं भटका सकती। बहुत संभव है कि रानी मां के बाद आप एक दिन यह सुनें कि हम सब कुछ छोड़ कर बैरागी हो गए।'
-‘ऐसा मैं कभी नहीं सुनूंगा। यहां तक तो संभव है कि आप मित्रों के बंधन तोड़ दें। परन्तु क्या राधा को भुला कर सन्यासी हो सकेंगे?'
कुंवरसाहब मुस्करा भर दिये। उन्होंने गुप्ता जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
गुप्ताजी फिर बोले-‘यह बात दूसरी है कि आप अपने साथ को भी वैरागिन बना लें तब मैं आपको गुरु मान कर बाकायदा दीक्षा लूंगा और चेला बनकर साथ रहूंगा।'
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
इस उपन्यास को यहाँ पढ़ कर बहुत अच्छा लग रहा है।
जवाब देंहटाएंरोचकता बनाये हुये चल रहा है।
जवाब देंहटाएंab tak ki sabhi kishtein padha, aage bhi padhna chahunga, bhale hi kai kishte ek sath baith kar hi kyn na padhu.... shukriya aapka..
जवाब देंहटाएंएक उमदा कृति!
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