(पिछले अंक से जारी…) हवेली का नाम था-रतनपुर पैलेस। जमींदारी उन्मूलन से पहले इस हवेली के स्वामियों की जागीर इसी नाम से पुकारी जाती थी-अ...
(पिछले अंक से जारी…)
हवेली का नाम था-रतनपुर पैलेस।
जमींदारी उन्मूलन से पहले इस हवेली के स्वामियों की जागीर इसी नाम से पुकारी जाती थी-अब भी रतनपुर कस्बे में किले के प्रकार का बेमतलब महल है।
हवेली में कुल मिलाकर छोटे बड़े पच्चीस कमरे हैं। नीचे ग्यारह। दस कमरे और बड़ा हाल नुमा कमरा।
इतनी बड़ी हवेली की सफाई कौन करे? इसलिए उपर की मन्जिल लगभग बन्द रहती है। कभी त्यौहार पर ही झाड़-पोंछ होती है। नीचे के कमरे भी सब रोज साफ नहीं किये जाते थे। एक कुंवरसाहब का कमरा, दूसरा बूढ़ी रानी साहिबा का कमरा। इस के अतिरिक्त आंगन बरामदे आदि तथा हाल यह रोज साफ होते हैं। नौकर सीमित हैं न!
सर्दियों के मौसम में रानी साहिबा गठिया रोग के कारण अधिक चल फिर नहीं सकतीं। उन्हें रानी कहिए या इस हवेली की बन्दिनी।
कुंवरसाहब की कार हवेली में प्रविष्ट हुई।
लड़खड़ाते से कुंवर साहब कार से उतरे। सीधे मां के कमरे में पंहुचे-प्रणाम करने।
पुत्र को आया देख कराहती सी रानी साहिबा बैठ गईं। पुत्र के सिर पर हाथ फेरा-‘जीते रहो, बहुत उम्र हो। सीधे रानीगढ़ी से आ रहे हो?'
-‘जी।'
-‘राव साहब अच्छे हैं?'
-‘सब अच्छे हैं?'
-‘विवाह की तारीख तय हुई?'
-‘नहीं।'
-‘क्यों?'
-‘अब विवाह नहीं होगा।'
रानी बोली-‘हम देख रहे हैं कि आज आप शराब के नशे में हैं। जाइये, हम सुबह बात करेंगे।'
-‘जो हुक्म, लेकिन रानी मां मैं . ... .मैं . ... .मैं वहां से सम्बन्ध तोड़ आया हूं।'
-‘ कुंवरसाहब . ... .।' रानी मां ने डांट कर कहा।
-‘राव साहब की नजर में हम भिखारी हो गये हैं। वह राजकुमारी मालविका को भिखारी के हाथों ब्याहने के लिये तैयार नहीं हैं।'
-‘हम समझ नहीं रहे हैं कुंवरसाहब।'
-‘जीजा जी वाली बात राव साहब तक पंहुच गई है।'
-‘तो इससे क्या?'
-‘राव साहब का ख्याल है कि मुझे अपनी बहन से मुकदमा लड़ना चाहिये था। एक लाख रुपया देने का प्रस्ताव नहीं करना चाहिये था।'
रानी मौन रही। अलबत्ता चेहरे से वह व्याकुल सी लगती थी।
कुंवरसाहब फिर बोले-‘राव साहब ने आपके नाम एक पत्र भी दिया है। हुक्म हो तो पढ़ कर सुनाउं।'
-‘सुनें तो क्या लिखा है?'
कुंवरसाहब ने जेब से एक कागज निकाला।
पत्र पढ़ना आरम्भ किया।
रानी साहिबा को राम राम बंचना।
आगे हाल यह है कि आपने दामाद जी की धमकी से घबरा कर उन्हें जो लाख रुपये नकद दिये वह मुनासिब नहीं है। मामला मुकदमा करके भी लड़की जायदाद में इतनी आसानी से हिस्सा नहीं पा जाती। खैर आपका मामला था, आप जानें। मैं कुंवरसाहब से राजकुमारी की मंगनी तोड़ रहा हूं। इसलिए कि मुझे यह स्वीकार नहीं है कि मेरी बेटी आप जैसे दानी हरिश्चन्द्र के घराने में ब्याही जाये और जिन्दगी कंगाली में बिताये।
राघव राजा भरतसिंह।
सुनकर रानी की आंखें छलछला उठीं-‘मैंने तो पहले ही आपसे कहा था कुंवर जी। आपको चाहिए था कि दामाद जी को मुकदमा करने देते। एक लाख बहुत होते हैं ।'
-‘एक लाख कितने होते हैं मैं जानता हूं रानी मां। परन्तु मुकदमा लड़कर मैं बहन की जिन्दगी को नरक नहीं बना सकता था।'
रानी ने निश्वास ली-‘अब क्या करें?'
-‘मुझे कुछ कहने की इजाजत है रानी मां?'
-‘क्या?'
-‘मैंने तो देखा नहीं। आपके मुंह से ही सुना है जो किसान बेगार से इन्कार करता था दादा जी उसे हाथी के पांव से बांधकर खिंचवाते थे। किसान से लगान वसूल न हो तो बांधकर बेंतों से पिटवा देना पूज्य पिताजी के लिये मामूली बात थी . ... .यह पाप था ।'
-‘कुंवरसाहब।' चीखती सी रानी बोलीं-‘जो बुजुर्ग मर गए हैं उन्हें कोसना आपको शोभा नहीं देता।'
-‘उनके पाप मुझे भरने होंगे रानी मां। आप खूब जानती हैं कि अब हम कुछ नहीं हैं। लकीर पीटना मुझे पसन्द नहीं है इसलिये आपको मुझसे वादा करना होगा कि आप किसी भी राजा प्रकार के खानदान में मेरे विवाह की बात नहीं चलाएंगी।'
-‘तो क्या हमारे कुंवर भिखारी खानदान में विवाह करेंगे?'
-‘मुझे एतराज नहीं होगा।'
-‘जाकर आराम कीजिये . ... .शायद आपको नशा ज्यादह है।'
-‘जी।'
कुंवरसाहब साहब झुके। रानी मां के चरण स्पर्श किये और लौट पड़े।
वह सीधे अपने कमरे में पंहुचे।
नौकर आया-‘खाना बनाउं हुजूर?'
-‘नहीं।'
-‘दूध लेंगे?'
-‘नहीं।'
नौकर लौटने लगा। कुंवरसाहब ने आदेश दिया-‘कार में बोतल रखी है उसे ले आओ।'
नौकर बोतल मेज पर रख गया।
सूट पहने ही कुंवरसाहब बिस्तर पर लेट गये।
फिर उठे। बोतल से मुंह लगाकर उन्होंने कुछ घूंट व्हिस्की ली।
अब वह सो जाना चाहते थे।
परन्तु मन बार-बार रानीगढ़ के महल पर मंडराने लगा था।
एक के बाद एक स्मृति!
रानीगढ़ी, राव साहब और मालविका।
राजकुमारी मालविका।
0000
नशा कुछ तेज था।
और जिस मनोव्यथा को भूल जाने के लिये नशा चल रहा था वह मनोव्यथा घट नहीं रही थी।
आज ही तो यह चार लाइनें रची गईं थीं ः
जिन्दगी क्या है, क्या बताउं मैं,
एक गूंगे का ख्वाब हो जैसे ।
या किसी सूद खोर बनिए का,
उलझा उलझा हिसाब हो जैसे ।
क्या करें!
किससे मन का दुख कहें। किसी से कहें भी तो क्या होगा। शीशा टूट जाता है तो जुड़ता नहीं।
जो नहीं होता उसके लिये तो मात्र खेद ही होता है, परन्तु जो पास होता है, वह छिन जाये तो, खो जाये तो . ... .ओह!
मस्तिष्क से पाप पुण्य की समीक्षा होने लगती है।
एक अभिशाप!
एक जागीरदार घराने में जन्म।
एक ऐसी व्यवस्था का अन्तिम चिराग जो मिट चुकी है और जिसे मिट जाना चाहिये भी था।
जिन्दगी चल रही थी, अथवा घिसट रही थी। बुरी नहीं थी।
हां, वह जिन्दगी भी बुरी नहीं थी।
कुंवरसाहब के गीत रेडियो पर, कवि सम्मेलनों में गूंजते थे, सराहे जाते थे।
साथी नम्बर एक थी शराब . ... .। पीते थे, झूमते थे, लड़खड़ाते थे और बेहोशी के आलम में खो जाते थे।
साथी नम्बर दो थी राधा। लोग जाने क्या क्या कहते थे, परन्तु इससे क्या जब वह बाहों में होती थी तब सुख मिलता था।
इसके बाद ।
एक सब्ज बाग।
उस सब्ज बाग ने कुंवरसाहब को लुभा लिया।
शराब जो मुद्दत से साथी थी छूट गई, राधा छूट तो न पाई परन्तु राधा से रिश्ता मानो औपचारिक रह गया था।
सभी मित्र कहते थे- कुंवरसाहब में जबरदस्त सुधार आया है।
परन्तु . ... .।
जैसे कि ताश का एक महल था जो ढह गया।
ताश का महल ढह गया और शेष रह गया सन्ताप।
यूं हर इन्सान की मन्जिल एक है-हर इन्सान की कहानी समाप्त होती है। मृत्यु पूर्ण विराम है।
परन्तु कहते हैं जीवन अमूल्य है।
आत्महत्या पाप है।
परन्तु ऐसा भी होता है ।
जब जिन्दगी बोझ बन जाती है, जब इन्सान जीवन के बोझ से कराह उठता है।
जिन्दगी की जरुरत है, भूख और प्यास।
हां, जरुरत मुख्य रुप से दो ही हैं।
परन्तु भूख और प्यास के प्रकार बहुत से हैं। पेट की भूख के अतिरिक्त मस्तिष्क की भूख भी तो है, शरीर की भूख भी तो है। प्यास के भी प्रकार हैं।
शराब और वेश्या।
शुभचिन्तक और मित्र सभी कुंवरसाहब को सलाह देते हैं।
शराब छोड़ दो, वेश्या का साथ छोड़ दो।
क्यों? यह प्रश्न कुंवरसाहब ने कभी सीधा नहीं किया।
दुनिया की जानी मानी बात है।
शराब तबाह कर देती है-शराब को मुंह लगाना तबाही को निमन्त्रण देना है। आज से नहीं युगों युगों से कहा जाता है।
और वेश्या ।
हां, यह भी तो कहा जाता है। वेश्या . ... .वेश्या तो वेश्या ही है। तबाही का रास्ता।
कही सुनी बातें तो ठीक हैं।
लेकिन कुछ सवाल हैं . ... .।
इन्सान क्यों शराब या किसी नशे की शरण में जाता है?
कहा जाता है क्षणिक आनन्द के लिये। तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाये कि सामान्य जीवन में क्षणिक आनन्द पाने का दूसरा मार्ग नहीं है।
और वेश्या?
पुरुष क्यों इस तबाही के रास्ते पर जाता है। रुप और लावण्य की पिपासा शान्त करने के लिये।
रुप और लावण्य क्या वेश्या की बपौती है . ... .।
और क्या वेश्या जीवन सदा ही फूलों की सेज है।
वह सदा ही उठते ही रहने वाले प्रश्न हैं, इन प्रश्नों के उत्तर योगी महात्माओं को प्राप्त हुए हों तो हुए हों, जनसाधारण स्त्री पुरुषों में पीढ़ी दर पीढ़ी से चर्चा में हैं।
और कुंवरसाहब . ... .एक कवि ।
आज ।
अपने आपको मिटा देने के लिए इच्छुक . ... .।
क्यों?
एक वर्ष पहले।
जब रिश्ता पक्का करने रावसाहब भरत सिंह आये थे।
पूरी हवेली शानो शौकत से जगमगा उठी थी। पुताई, रंग रोगन और सजावट।
पूरी एक रात उत्सव सा रहा।
बहुत ही दबी जुबान से कुंवरसाहब ने कहा था-‘मैं अपनी भावी पत्नी को एक बार देख लेता तो . ... .।'
जब यह बात कुंवरसाहब ने कही तो राव साहब उनके सामने बैठे थे और कुंवरसाहब की रानी मां पर्दे के पीछे थीं।
सुनकर राव साहब ठहाका मारकर हंसे थे।
-‘एक बार . ... .अजी कुंवरसाहब एक बार नहीं सौ बार देखिये। आप क्या समझते हैं कि हम पुराने जमाने से चिपके रहने वाले इन्सान हैं। हमने राजकुंवरी को अंग्रेजी पढ़ाई है साहब . ... .आप हमारे साथ चल रहे हैं। कुछ दिन हमारी गढ़ी में मेहमान रहेंगे। कुछ और सुनिये . ... .हमने आपके यहां आने से पहले आपका फोटो राजकुंवरी को दिखाया था। कैसी हैरत की बात है कि उन्होंने आपको देखा है। आप भी चौकेंगे। अजी साहब आप उनके कालेज में हुए कवि सम्मेलन में जा चुके हैं। तो साहब आप चल रहे हैं हमारे साथ और आपको अपने कवित्त भी सुनाने होंगे। एकदम अनपढ़ हम भी नहीं हैं।'
और फिर रानीगढ़ी की प्रथम यात्रा!
हरे भरे प्रदेश से दूर सूखा सूखा मरुस्थल दिखाई पड़ने वाला राजस्थान।
प्राचीन वैभवपूर्ण इतिहास की प्रतीक बड़ी गढ़ी और किले। साथ ही दरिद्रता में डूबे से गांव।
रानीगढ़ी तक कार का सफर।
टीले जैसी उंचाई पर बना रानीगढ़ का किला और अन्दर महल। प्राचीन वैभव की गवाही और टूटे से वर्तमान में केवल एक महल का ड्योढ़ीदार!
रात की महफिल में दरबारी नहीं कुछ सरकारी अफसर . ... .और . ... .।
रात के खाने के बाद!
परम्परागत महफिल में शराब के दौर भी चले थे, कुंवरसाहब ने भी खासी पी थी। खाने के बाद सरकारी अफसर विदा हुए। कुंवरसाहब को उनके कमरे तक पंहुचाने स्वयं रावसाहब आये और इस कमरे में उपस्थित एक दासी सहित राजकुंवरी मालविका को देखकर कुंवरसाहब चौंक पड़े।
-‘लीजिए कुंवरसाहब। यह है आपका कमरा। मैंने राजकुंवरी से कहा था कि स्वयं कमरे का इन्तजाम सम्भाले। अब आप लोग बात कीजिए मैं जरा चलूंगा।'
दोनों ही जैसे एक दूसरे को सम्मुख पाकर स्तब्ध से हो गये थे।
परस्पर अभिवादन भी नहीं हुआ।
राजकुंवरी मालविका दृष्टि झुकाए खड़ी थी और कुंवरसाहब उसे एक टक देख रहे थे।
ऐसे जैसे रेगिस्तान में गुलाब खिला हो।
ऐसे जैसे निर्जीव पत्थरों के महल में वीणा के स्वर झंकृत हो उठे हों।
राजकुंवरी मालविका सचमुच सुन्दर थी।
शरीर पर मोतियों के कुछ आभूषण।
स्वच्छ श्वेत साड़ी और नितम्बों पर झूलते मोहक केश।
यह मौन तुड़वाया दासी ने। दोनों को चुपचाप खड़े देखकर वह खिलखिला कर हंसती हुई बोली-‘हाय! जोड़ी को नजर न लगे। मैं वारी जाउं-आमने सामने नहीं जरा बराबर खड़े हों तो आरती उतार लूं।'
तब राजकुवरी ऐसे चौंकी थी जैसे मधुर स्वप्न में यकायक जाग हो गई हो।
-‘नमस्कार कुंवर जी।' अस्फुट स्वर में वह बोली।
-‘नमस्कार।'
-‘विराजिए।' राजकुंवरी मालविका ने चांदी मढ़ी कुर्सी की ओर संकेत किया।
-‘आप भी ।'
कुंवरसाहब बैठे। सकुचाती सी मालविका भी।
फिर मौन!
दासी ने फिर मौन तोड़ा-‘हुजूर कुंवरसाहब। आपने तो विलायत देखी है। जो विलायत देख ले, वहां की मेम देखले, समझा जाता है कि हीरे की खान देख ली-कहिए तो जरा हमारी राजकुंवरी कैसी लगीं।'
-‘हीरों में कोहेनूर।'
लाज से मालविका की दृष्टि और भी झुक गईं।
-‘राजकुंवरी जी . ... .।' दासी ने मालविका को सम्बोधित किया।
चौंकती सी राजकुंवरी ने दासी की ओर देखा।
-‘कुंवर जी कैसे लगे?'
मालविका ने दासी की ओर देखा। फिर चोर की सी दृष्टि कुंवरसाहब पर डाली। तनिक होंठ हिले और फिर लजाकर दृष्टि झुका ली।
अब कुंवरसाहब बोले-‘राजकुंवरी जी . ... .।'
-‘जी।' धीमा स्वर।
-‘कहिए न कि हम कैसे लगे?'
-‘जैसे . ... .जैसे . ... .।'
-‘हां हां कहिए न।'
-‘जैसे मन्दिर में देवता।'
कैसा भोलापन था, कैसी सादगी थी। कुंवरसाहब के मन में जैसे मालविका की तस्वीर खिंच गई।
फिर धीरे धीरे संकोच टूटा।
मालविका ने कुंवरसाहब को अतिथिशाला की सुविधाओं के विषय में बताया कि दासी केतकी बराबर के कमरे में ही रात भर आदेश की प्रतीक्षा में रहेगी और पुकारते ही हाजिर होगी।
फिर पूछा-‘आप सुबह किस समय जागते हैं?'
-‘बहुत सुबह।'
-‘बिस्तर पर चाय लेते हैं?'
-‘जरुर।'
-‘पिताश्री कह रहे थे कि कल दोपहर बाद आपको शिकार पर ले जाएंगे।'
-‘आप नहीं चलेंगी?'
-‘हुक्म होगा तो जरुर चलूंगी . ... .लेकिन आप . ... .बुरा न मानिएगा आप शिकार करते हैं?'
-‘आपको कोई एतराज है?'
-‘आप कवि हैं बहुत कोमल भाव होते हैं आपके। क्या ऐसे कोमल भाव वाला व्यक्ति शिकार कर सकता है?'
-‘मैं कुछ कहूं!'
-‘जी।'
-‘आपकी बारी है . ... .मैंने बुरा नहीं माना तो आपको भी बुरा नहीं मानना होगा . ... .वायदा है न?'
सहजभाव से राजकुंवरी मुस्कराई-‘पक्का वायदा है।'
-‘खून का असर इन्सान में से तुरन्त नहीं चला जाता। या यूं कहिए कि संस्कार आसानी से नहीं मिटते। मुझ में वह सभी बुराई हैं जो मेरे बुजुर्गों में थी।'
-‘बुराई ही क्यों . ... .बुजुर्गों की अच्छाइयाँ भी तो होंगी?'
कुंवर मुस्कराये-‘हमारे . ... .मेरा मतलब है आपके और मेरे बुजुर्गों में कोई अच्छा संस्कार नहीं था। उनकी शानों शौकत इन्सानों का लहू पीती रही, वीरता के नाम पर वह निरीह पशुओं को मारते रहे और सदा अंग्रेज प्रभुओं के जूते चाटते रहे। वंश परम्परा से वह नाम राजा रामचन्द्र और हरिश्चन्द्र का लेते रहे और वास्तव में काम जयचन्द का करते रहे।'
-‘उफ!' मुस्कराती सी मालविका ने दोनों कानों पर अपने हाथ रखकर कहा-‘आप तो . ... .आप तो साक्षात ज्वालामुखी हैं . ... .मैं तो डर गई हूं जी।'
फिर कुछ और बातें हुईं। कुछ झिझक खुली।
और इसके बाद राजकुंवरी को लौट जाना पड़ा।
कुंवरसाहब को ऐसा लगा जैसे उस कक्ष से बहार लौट गई हो।
रात सुखद सपनों में बीती।
और . ... .और।
कुंवरसाहब की बड़े ही सुखद वातावरण में नींद खुली।
एक परिमार्जित नारी कंठ उनके वर्षा वियोग गीत की कड़ी गुनगुना रहा था।
किसी राधिका के मनहर की बाज उठी बांसुरिया
पंथ निहारत बिरहन कोई छलकत नयन गगरिया।
जब जब पंख पखेरु लौटे नीड़ सांझ घिर आई
जब जब गाएं कृषक मल्हारें याद तुम्हारी आई ।
कुंवरसाहब ने आंखें खोलीं!
देखा मेज पर चाय का सामान रक्खा है। साथ ही ताजे फूलों का एक गुलदस्ता भी। गीत गुनगुना रही थी राजकुमारी मालविका। यह खुली खिड़की के सहारे दूर आकाश में फैली उषा को निहार रही थी।
उस सुखद भोर की स्मृति . ... .।
उठते हुये कुंवरसाहब ने कहा था-‘ओह ईश्वर! यह सपना है या सत्य?'
सुनकर मालविका चौंकी थी।
हाथ वन्दना की मुद्रा में जुड़े थे-‘क्या बात है कुंवर जी?'
कुंवरसाहब एक टक राजकुमारी मालविका की ओर देख रहे थे।
कुछ समझ में नहीं आता?
कुंवरसाहब कुछ ऐसे अजीब ढंग से मालविका को देख रहे थे कि बेचारी सहम गई। उसे इस स्थिति से बचाने के लिए कुंवरसाहब पुनः लेट गये और आंखें मूंदते हुये कहा-‘जरुर सपना है।'
वह बेचारी घबरा गई।
घबराहट में नेह से दोनों हाथ कुंवरसाहब के गालों पर रखते हुए बोली - ‘कहां है सपना . ... .भोर हो चुकी है। उठिये न . ... .।'
कुंवरसाहब ने तब फिर आंखें खोली थीं-‘आप . ... .!'
-‘मैं आपकी . ... .मैं आपकी मालविका हूं . ... .आप . ... .।'
-‘ओह क्षमा करना राजकुंवरी जी, पहचान नहीं पाया था, देखा और डर गया . ... .सोचा जरुर सपना है।'
-‘क्या कह रहे हैं आप . ... .।'
-‘आंख खुली तो देखा सूर्योदय हो रहा है।'
-‘सो तो हो ही रहा है।'
-‘फिर कमरे में देखा . ... .।'
-‘क्या?'
-‘पूनम का चांद।'
-‘जी! पूनम का चांद?'
-‘जी हां, यह कैसे मुमकिन है कि सूर्योदय के समय पूनम का चांद भी दमक रहा हो।'
-‘लेकिन कहां?'
-‘यहां।' कुंवरसाहब ने मालविका की नाक को उंगली से छू दिया।
बेचारी मालविका!
पहले आवेश दमकी और फिर लाज से ढलकी तो कुंवरसाहब के वक्ष से उसके होंठ छू गये।
वह उठी।
दृष्टि झुकाए ही बोली-‘चाय बनाउं न?'
-‘नहीं।'
-‘क्यों?'
-‘यह अच्छा नहीं लगता कि आप तकलीफ करें।'
-‘हमें अच्छा लगता है ।'
प्रेयसी का स्थान मन के मर्म में होता है इसीलिये तो मालविका को देखते आंखें न थक रही थीं।
-‘राजकुंवरी जी . ... .।'
-‘जी।'
-‘अब भी हम सोच रहे हैं कि दिन में दमकता चांद कहीं सपना तो नहीं है।'
-‘हुजूर ।'
-‘फरमाइये।'
-‘आपके मजाक ने हमें डरा दिया है।'
-‘मजाक?'
-‘नहीं तो क्या . ... .हम सचमुच समझ बैठे कि आप पर सपने का प्रभाव है।'
-‘अब भी है।'
दोनों की दृष्टि मिली। लाज भरी मुस्कान सहित वह बोली-‘जाइये।'
-‘कहां जायें?'
फिर दोनों की दृष्टि मिली। लाज भरे नयन तनिक शोख हुये।
सामने थी मालविका।
बीच में मेज थी . ... .मालविका ने चाय की प्याली कुंवरसाहब की ओर बढ़ाई।
फिर दृष्टि मिली।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
हवेली का नाम था-रतनपुर पैलेस।
जमींदारी उन्मूलन से पहले इस हवेली के स्वामियों की जागीर इसी नाम से पुकारी जाती थी-अब भी रतनपुर कस्बे में किले के प्रकार का बेमतलब महल है।
हवेली में कुल मिलाकर छोटे बड़े पच्चीस कमरे हैं। नीचे ग्यारह। दस कमरे और बड़ा हाल नुमा कमरा।
इतनी बड़ी हवेली की सफाई कौन करे? इसलिए उपर की मन्जिल लगभग बन्द रहती है। कभी त्यौहार पर ही झाड़-पोंछ होती है। नीचे के कमरे भी सब रोज साफ नहीं किये जाते थे। एक कुंवरसाहब का कमरा, दूसरा बूढ़ी रानी साहिबा का कमरा। इस के अतिरिक्त आंगन बरामदे आदि तथा हाल यह रोज साफ होते हैं। नौकर सीमित हैं न!
सर्दियों के मौसम में रानी साहिबा गठिया रोग के कारण अधिक चल फिर नहीं सकतीं। उन्हें रानी कहिए या इस हवेली की बन्दिनी।
कुंवरसाहब की कार हवेली में प्रविष्ट हुई।
लड़खड़ाते से कुंवर साहब कार से उतरे। सीधे मां के कमरे में पंहुचे-प्रणाम करने।
पुत्र को आया देख कराहती सी रानी साहिबा बैठ गईं। पुत्र के सिर पर हाथ फेरा-‘जीते रहो, बहुत उम्र हो। सीधे रानीगढ़ी से आ रहे हो?'
-‘जी।'
-‘राव साहब अच्छे हैं?'
-‘सब अच्छे हैं?'
-‘विवाह की तारीख तय हुई?'
-‘नहीं।'
-‘क्यों?'
-‘अब विवाह नहीं होगा।'
रानी बोली-‘हम देख रहे हैं कि आज आप शराब के नशे में हैं। जाइये, हम सुबह बात करेंगे।'
-‘जो हुक्म, लेकिन रानी मां मैं . ... .मैं . ... .मैं वहां से सम्बन्ध तोड़ आया हूं।'
-‘ कुंवरसाहब . ... .।' रानी मां ने डांट कर कहा।
-‘राव साहब की नजर में हम भिखारी हो गये हैं। वह राजकुमारी मालविका को भिखारी के हाथों ब्याहने के लिये तैयार नहीं हैं।'
-‘हम समझ नहीं रहे हैं कुंवरसाहब।'
-‘जीजा जी वाली बात राव साहब तक पंहुच गई है।'
-‘तो इससे क्या?'
-‘राव साहब का ख्याल है कि मुझे अपनी बहन से मुकदमा लड़ना चाहिये था। एक लाख रुपया देने का प्रस्ताव नहीं करना चाहिये था।'
रानी मौन रही। अलबत्ता चेहरे से वह व्याकुल सी लगती थी।
कुंवरसाहब फिर बोले-‘राव साहब ने आपके नाम एक पत्र भी दिया है। हुक्म हो तो पढ़ कर सुनाउं।'
-‘सुनें तो क्या लिखा है?'
कुंवरसाहब ने जेब से एक कागज निकाला।
पत्र पढ़ना आरम्भ किया।
रानी साहिबा को राम राम बंचना।
आगे हाल यह है कि आपने दामाद जी की धमकी से घबरा कर उन्हें जो लाख रुपये नकद दिये वह मुनासिब नहीं है। मामला मुकदमा करके भी लड़की जायदाद में इतनी आसानी से हिस्सा नहीं पा जाती। खैर आपका मामला था, आप जानें। मैं कुंवरसाहब से राजकुमारी की मंगनी तोड़ रहा हूं। इसलिए कि मुझे यह स्वीकार नहीं है कि मेरी बेटी आप जैसे दानी हरिश्चन्द्र के घराने में ब्याही जाये और जिन्दगी कंगाली में बिताये।
राघव राजा भरतसिंह।
सुनकर रानी की आंखें छलछला उठीं-‘मैंने तो पहले ही आपसे कहा था कुंवर जी। आपको चाहिए था कि दामाद जी को मुकदमा करने देते। एक लाख बहुत होते हैं ।'
-‘एक लाख कितने होते हैं मैं जानता हूं रानी मां। परन्तु मुकदमा लड़कर मैं बहन की जिन्दगी को नरक नहीं बना सकता था।'
रानी ने निश्वास ली-‘अब क्या करें?'
-‘मुझे कुछ कहने की इजाजत है रानी मां?'
-‘क्या?'
-‘मैंने तो देखा नहीं। आपके मुंह से ही सुना है जो किसान बेगार से इन्कार करता था दादा जी उसे हाथी के पांव से बांधकर खिंचवाते थे। किसान से लगान वसूल न हो तो बांधकर बेंतों से पिटवा देना पूज्य पिताजी के लिये मामूली बात थी . ... .यह पाप था ।'
-‘कुंवरसाहब।' चीखती सी रानी बोलीं-‘जो बुजुर्ग मर गए हैं उन्हें कोसना आपको शोभा नहीं देता।'
-‘उनके पाप मुझे भरने होंगे रानी मां। आप खूब जानती हैं कि अब हम कुछ नहीं हैं। लकीर पीटना मुझे पसन्द नहीं है इसलिये आपको मुझसे वादा करना होगा कि आप किसी भी राजा प्रकार के खानदान में मेरे विवाह की बात नहीं चलाएंगी।'
-‘तो क्या हमारे कुंवर भिखारी खानदान में विवाह करेंगे?'
-‘मुझे एतराज नहीं होगा।'
-‘जाकर आराम कीजिये . ... .शायद आपको नशा ज्यादह है।'
-‘जी।'
कुंवरसाहब साहब झुके। रानी मां के चरण स्पर्श किये और लौट पड़े।
वह सीधे अपने कमरे में पंहुचे।
नौकर आया-‘खाना बनाउं हुजूर?'
-‘नहीं।'
-‘दूध लेंगे?'
-‘नहीं।'
नौकर लौटने लगा। कुंवरसाहब ने आदेश दिया-‘कार में बोतल रखी है उसे ले आओ।'
नौकर बोतल मेज पर रख गया।
सूट पहने ही कुंवरसाहब बिस्तर पर लेट गये।
फिर उठे। बोतल से मुंह लगाकर उन्होंने कुछ घूंट व्हिस्की ली।
अब वह सो जाना चाहते थे।
परन्तु मन बार-बार रानीगढ़ के महल पर मंडराने लगा था।
एक के बाद एक स्मृति!
रानीगढ़ी, राव साहब और मालविका।
राजकुमारी मालविका।
0000
नशा कुछ तेज था।
और जिस मनोव्यथा को भूल जाने के लिये नशा चल रहा था वह मनोव्यथा घट नहीं रही थी।
आज ही तो यह चार लाइनें रची गईं थीं ः
जिन्दगी क्या है, क्या बताउं मैं,
एक गूंगे का ख्वाब हो जैसे ।
या किसी सूद खोर बनिए का,
उलझा उलझा हिसाब हो जैसे ।
क्या करें!
किससे मन का दुख कहें। किसी से कहें भी तो क्या होगा। शीशा टूट जाता है तो जुड़ता नहीं।
जो नहीं होता उसके लिये तो मात्र खेद ही होता है, परन्तु जो पास होता है, वह छिन जाये तो, खो जाये तो . ... .ओह!
मस्तिष्क से पाप पुण्य की समीक्षा होने लगती है।
एक अभिशाप!
एक जागीरदार घराने में जन्म।
एक ऐसी व्यवस्था का अन्तिम चिराग जो मिट चुकी है और जिसे मिट जाना चाहिये भी था।
जिन्दगी चल रही थी, अथवा घिसट रही थी। बुरी नहीं थी।
हां, वह जिन्दगी भी बुरी नहीं थी।
कुंवरसाहब के गीत रेडियो पर, कवि सम्मेलनों में गूंजते थे, सराहे जाते थे।
साथी नम्बर एक थी शराब . ... .। पीते थे, झूमते थे, लड़खड़ाते थे और बेहोशी के आलम में खो जाते थे।
साथी नम्बर दो थी राधा। लोग जाने क्या क्या कहते थे, परन्तु इससे क्या जब वह बाहों में होती थी तब सुख मिलता था।
इसके बाद ।
एक सब्ज बाग।
उस सब्ज बाग ने कुंवरसाहब को लुभा लिया।
शराब जो मुद्दत से साथी थी छूट गई, राधा छूट तो न पाई परन्तु राधा से रिश्ता मानो औपचारिक रह गया था।
सभी मित्र कहते थे- कुंवरसाहब में जबरदस्त सुधार आया है।
परन्तु . ... .।
जैसे कि ताश का एक महल था जो ढह गया।
ताश का महल ढह गया और शेष रह गया सन्ताप।
यूं हर इन्सान की मन्जिल एक है-हर इन्सान की कहानी समाप्त होती है। मृत्यु पूर्ण विराम है।
परन्तु कहते हैं जीवन अमूल्य है।
आत्महत्या पाप है।
परन्तु ऐसा भी होता है ।
जब जिन्दगी बोझ बन जाती है, जब इन्सान जीवन के बोझ से कराह उठता है।
जिन्दगी की जरुरत है, भूख और प्यास।
हां, जरुरत मुख्य रुप से दो ही हैं।
परन्तु भूख और प्यास के प्रकार बहुत से हैं। पेट की भूख के अतिरिक्त मस्तिष्क की भूख भी तो है, शरीर की भूख भी तो है। प्यास के भी प्रकार हैं।
शराब और वेश्या।
शुभचिन्तक और मित्र सभी कुंवरसाहब को सलाह देते हैं।
शराब छोड़ दो, वेश्या का साथ छोड़ दो।
क्यों? यह प्रश्न कुंवरसाहब ने कभी सीधा नहीं किया।
दुनिया की जानी मानी बात है।
शराब तबाह कर देती है-शराब को मुंह लगाना तबाही को निमन्त्रण देना है। आज से नहीं युगों युगों से कहा जाता है।
और वेश्या ।
हां, यह भी तो कहा जाता है। वेश्या . ... .वेश्या तो वेश्या ही है। तबाही का रास्ता।
कही सुनी बातें तो ठीक हैं।
लेकिन कुछ सवाल हैं . ... .।
इन्सान क्यों शराब या किसी नशे की शरण में जाता है?
कहा जाता है क्षणिक आनन्द के लिये। तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाये कि सामान्य जीवन में क्षणिक आनन्द पाने का दूसरा मार्ग नहीं है।
और वेश्या?
पुरुष क्यों इस तबाही के रास्ते पर जाता है। रुप और लावण्य की पिपासा शान्त करने के लिये।
रुप और लावण्य क्या वेश्या की बपौती है . ... .।
और क्या वेश्या जीवन सदा ही फूलों की सेज है।
वह सदा ही उठते ही रहने वाले प्रश्न हैं, इन प्रश्नों के उत्तर योगी महात्माओं को प्राप्त हुए हों तो हुए हों, जनसाधारण स्त्री पुरुषों में पीढ़ी दर पीढ़ी से चर्चा में हैं।
और कुंवरसाहब . ... .एक कवि ।
आज ।
अपने आपको मिटा देने के लिए इच्छुक . ... .।
क्यों?
एक वर्ष पहले।
जब रिश्ता पक्का करने रावसाहब भरत सिंह आये थे।
पूरी हवेली शानो शौकत से जगमगा उठी थी। पुताई, रंग रोगन और सजावट।
पूरी एक रात उत्सव सा रहा।
बहुत ही दबी जुबान से कुंवरसाहब ने कहा था-‘मैं अपनी भावी पत्नी को एक बार देख लेता तो . ... .।'
जब यह बात कुंवरसाहब ने कही तो राव साहब उनके सामने बैठे थे और कुंवरसाहब की रानी मां पर्दे के पीछे थीं।
सुनकर राव साहब ठहाका मारकर हंसे थे।
-‘एक बार . ... .अजी कुंवरसाहब एक बार नहीं सौ बार देखिये। आप क्या समझते हैं कि हम पुराने जमाने से चिपके रहने वाले इन्सान हैं। हमने राजकुंवरी को अंग्रेजी पढ़ाई है साहब . ... .आप हमारे साथ चल रहे हैं। कुछ दिन हमारी गढ़ी में मेहमान रहेंगे। कुछ और सुनिये . ... .हमने आपके यहां आने से पहले आपका फोटो राजकुंवरी को दिखाया था। कैसी हैरत की बात है कि उन्होंने आपको देखा है। आप भी चौकेंगे। अजी साहब आप उनके कालेज में हुए कवि सम्मेलन में जा चुके हैं। तो साहब आप चल रहे हैं हमारे साथ और आपको अपने कवित्त भी सुनाने होंगे। एकदम अनपढ़ हम भी नहीं हैं।'
और फिर रानीगढ़ी की प्रथम यात्रा!
हरे भरे प्रदेश से दूर सूखा सूखा मरुस्थल दिखाई पड़ने वाला राजस्थान।
प्राचीन वैभवपूर्ण इतिहास की प्रतीक बड़ी गढ़ी और किले। साथ ही दरिद्रता में डूबे से गांव।
रानीगढ़ी तक कार का सफर।
टीले जैसी उंचाई पर बना रानीगढ़ का किला और अन्दर महल। प्राचीन वैभव की गवाही और टूटे से वर्तमान में केवल एक महल का ड्योढ़ीदार!
रात की महफिल में दरबारी नहीं कुछ सरकारी अफसर . ... .और . ... .।
रात के खाने के बाद!
परम्परागत महफिल में शराब के दौर भी चले थे, कुंवरसाहब ने भी खासी पी थी। खाने के बाद सरकारी अफसर विदा हुए। कुंवरसाहब को उनके कमरे तक पंहुचाने स्वयं रावसाहब आये और इस कमरे में उपस्थित एक दासी सहित राजकुंवरी मालविका को देखकर कुंवरसाहब चौंक पड़े।
-‘लीजिए कुंवरसाहब। यह है आपका कमरा। मैंने राजकुंवरी से कहा था कि स्वयं कमरे का इन्तजाम सम्भाले। अब आप लोग बात कीजिए मैं जरा चलूंगा।'
दोनों ही जैसे एक दूसरे को सम्मुख पाकर स्तब्ध से हो गये थे।
परस्पर अभिवादन भी नहीं हुआ।
राजकुंवरी मालविका दृष्टि झुकाए खड़ी थी और कुंवरसाहब उसे एक टक देख रहे थे।
ऐसे जैसे रेगिस्तान में गुलाब खिला हो।
ऐसे जैसे निर्जीव पत्थरों के महल में वीणा के स्वर झंकृत हो उठे हों।
राजकुंवरी मालविका सचमुच सुन्दर थी।
शरीर पर मोतियों के कुछ आभूषण।
स्वच्छ श्वेत साड़ी और नितम्बों पर झूलते मोहक केश।
यह मौन तुड़वाया दासी ने। दोनों को चुपचाप खड़े देखकर वह खिलखिला कर हंसती हुई बोली-‘हाय! जोड़ी को नजर न लगे। मैं वारी जाउं-आमने सामने नहीं जरा बराबर खड़े हों तो आरती उतार लूं।'
तब राजकुवरी ऐसे चौंकी थी जैसे मधुर स्वप्न में यकायक जाग हो गई हो।
-‘नमस्कार कुंवर जी।' अस्फुट स्वर में वह बोली।
-‘नमस्कार।'
-‘विराजिए।' राजकुंवरी मालविका ने चांदी मढ़ी कुर्सी की ओर संकेत किया।
-‘आप भी ।'
कुंवरसाहब बैठे। सकुचाती सी मालविका भी।
फिर मौन!
दासी ने फिर मौन तोड़ा-‘हुजूर कुंवरसाहब। आपने तो विलायत देखी है। जो विलायत देख ले, वहां की मेम देखले, समझा जाता है कि हीरे की खान देख ली-कहिए तो जरा हमारी राजकुंवरी कैसी लगीं।'
-‘हीरों में कोहेनूर।'
लाज से मालविका की दृष्टि और भी झुक गईं।
-‘राजकुंवरी जी . ... .।' दासी ने मालविका को सम्बोधित किया।
चौंकती सी राजकुंवरी ने दासी की ओर देखा।
-‘कुंवर जी कैसे लगे?'
मालविका ने दासी की ओर देखा। फिर चोर की सी दृष्टि कुंवरसाहब पर डाली। तनिक होंठ हिले और फिर लजाकर दृष्टि झुका ली।
अब कुंवरसाहब बोले-‘राजकुंवरी जी . ... .।'
-‘जी।' धीमा स्वर।
-‘कहिए न कि हम कैसे लगे?'
-‘जैसे . ... .जैसे . ... .।'
-‘हां हां कहिए न।'
-‘जैसे मन्दिर में देवता।'
कैसा भोलापन था, कैसी सादगी थी। कुंवरसाहब के मन में जैसे मालविका की तस्वीर खिंच गई।
फिर धीरे धीरे संकोच टूटा।
मालविका ने कुंवरसाहब को अतिथिशाला की सुविधाओं के विषय में बताया कि दासी केतकी बराबर के कमरे में ही रात भर आदेश की प्रतीक्षा में रहेगी और पुकारते ही हाजिर होगी।
फिर पूछा-‘आप सुबह किस समय जागते हैं?'
-‘बहुत सुबह।'
-‘बिस्तर पर चाय लेते हैं?'
-‘जरुर।'
-‘पिताश्री कह रहे थे कि कल दोपहर बाद आपको शिकार पर ले जाएंगे।'
-‘आप नहीं चलेंगी?'
-‘हुक्म होगा तो जरुर चलूंगी . ... .लेकिन आप . ... .बुरा न मानिएगा आप शिकार करते हैं?'
-‘आपको कोई एतराज है?'
-‘आप कवि हैं बहुत कोमल भाव होते हैं आपके। क्या ऐसे कोमल भाव वाला व्यक्ति शिकार कर सकता है?'
-‘मैं कुछ कहूं!'
-‘जी।'
-‘आपकी बारी है . ... .मैंने बुरा नहीं माना तो आपको भी बुरा नहीं मानना होगा . ... .वायदा है न?'
सहजभाव से राजकुंवरी मुस्कराई-‘पक्का वायदा है।'
-‘खून का असर इन्सान में से तुरन्त नहीं चला जाता। या यूं कहिए कि संस्कार आसानी से नहीं मिटते। मुझ में वह सभी बुराई हैं जो मेरे बुजुर्गों में थी।'
-‘बुराई ही क्यों . ... .बुजुर्गों की अच्छाइयाँ भी तो होंगी?'
कुंवर मुस्कराये-‘हमारे . ... .मेरा मतलब है आपके और मेरे बुजुर्गों में कोई अच्छा संस्कार नहीं था। उनकी शानों शौकत इन्सानों का लहू पीती रही, वीरता के नाम पर वह निरीह पशुओं को मारते रहे और सदा अंग्रेज प्रभुओं के जूते चाटते रहे। वंश परम्परा से वह नाम राजा रामचन्द्र और हरिश्चन्द्र का लेते रहे और वास्तव में काम जयचन्द का करते रहे।'
-‘उफ!' मुस्कराती सी मालविका ने दोनों कानों पर अपने हाथ रखकर कहा-‘आप तो . ... .आप तो साक्षात ज्वालामुखी हैं . ... .मैं तो डर गई हूं जी।'
फिर कुछ और बातें हुईं। कुछ झिझक खुली।
और इसके बाद राजकुंवरी को लौट जाना पड़ा।
कुंवरसाहब को ऐसा लगा जैसे उस कक्ष से बहार लौट गई हो।
रात सुखद सपनों में बीती।
और . ... .और।
कुंवरसाहब की बड़े ही सुखद वातावरण में नींद खुली।
एक परिमार्जित नारी कंठ उनके वर्षा वियोग गीत की कड़ी गुनगुना रहा था।
किसी राधिका के मनहर की बाज उठी बांसुरिया
पंथ निहारत बिरहन कोई छलकत नयन गगरिया।
जब जब पंख पखेरु लौटे नीड़ सांझ घिर आई
जब जब गाएं कृषक मल्हारें याद तुम्हारी आई ।
कुंवरसाहब ने आंखें खोलीं!
देखा मेज पर चाय का सामान रक्खा है। साथ ही ताजे फूलों का एक गुलदस्ता भी। गीत गुनगुना रही थी राजकुमारी मालविका। यह खुली खिड़की के सहारे दूर आकाश में फैली उषा को निहार रही थी।
उस सुखद भोर की स्मृति . ... .।
उठते हुये कुंवरसाहब ने कहा था-‘ओह ईश्वर! यह सपना है या सत्य?'
सुनकर मालविका चौंकी थी।
हाथ वन्दना की मुद्रा में जुड़े थे-‘क्या बात है कुंवर जी?'
कुंवरसाहब एक टक राजकुमारी मालविका की ओर देख रहे थे।
कुछ समझ में नहीं आता?
कुंवरसाहब कुछ ऐसे अजीब ढंग से मालविका को देख रहे थे कि बेचारी सहम गई। उसे इस स्थिति से बचाने के लिए कुंवरसाहब पुनः लेट गये और आंखें मूंदते हुये कहा-‘जरुर सपना है।'
वह बेचारी घबरा गई।
घबराहट में नेह से दोनों हाथ कुंवरसाहब के गालों पर रखते हुए बोली - ‘कहां है सपना . ... .भोर हो चुकी है। उठिये न . ... .।'
कुंवरसाहब ने तब फिर आंखें खोली थीं-‘आप . ... .!'
-‘मैं आपकी . ... .मैं आपकी मालविका हूं . ... .आप . ... .।'
-‘ओह क्षमा करना राजकुंवरी जी, पहचान नहीं पाया था, देखा और डर गया . ... .सोचा जरुर सपना है।'
-‘क्या कह रहे हैं आप . ... .।'
-‘आंख खुली तो देखा सूर्योदय हो रहा है।'
-‘सो तो हो ही रहा है।'
-‘फिर कमरे में देखा . ... .।'
-‘क्या?'
-‘पूनम का चांद।'
-‘जी! पूनम का चांद?'
-‘जी हां, यह कैसे मुमकिन है कि सूर्योदय के समय पूनम का चांद भी दमक रहा हो।'
-‘लेकिन कहां?'
-‘यहां।' कुंवरसाहब ने मालविका की नाक को उंगली से छू दिया।
बेचारी मालविका!
पहले आवेश दमकी और फिर लाज से ढलकी तो कुंवरसाहब के वक्ष से उसके होंठ छू गये।
वह उठी।
दृष्टि झुकाए ही बोली-‘चाय बनाउं न?'
-‘नहीं।'
-‘क्यों?'
-‘यह अच्छा नहीं लगता कि आप तकलीफ करें।'
-‘हमें अच्छा लगता है ।'
प्रेयसी का स्थान मन के मर्म में होता है इसीलिये तो मालविका को देखते आंखें न थक रही थीं।
-‘राजकुंवरी जी . ... .।'
-‘जी।'
-‘अब भी हम सोच रहे हैं कि दिन में दमकता चांद कहीं सपना तो नहीं है।'
-‘हुजूर ।'
-‘फरमाइये।'
-‘आपके मजाक ने हमें डरा दिया है।'
-‘मजाक?'
-‘नहीं तो क्या . ... .हम सचमुच समझ बैठे कि आप पर सपने का प्रभाव है।'
-‘अब भी है।'
दोनों की दृष्टि मिली। लाज भरी मुस्कान सहित वह बोली-‘जाइये।'
-‘कहां जायें?'
फिर दोनों की दृष्टि मिली। लाज भरे नयन तनिक शोख हुये।
सामने थी मालविका।
बीच में मेज थी . ... .मालविका ने चाय की प्याली कुंवरसाहब की ओर बढ़ाई।
फिर दृष्टि मिली।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
ऑमप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास के दोनों ही भाग दिल की गहराई में उतर गए है!... आगे की कहानी का इंतजार है!
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