अशोक गौतम का व्यंग्य : एक चना बस!

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शहर के बेरोजगार बंधुओं के लिए खुशखबरी थी! शहर के बेराजगारों को रोजगार से जोड़ने की वचनबद्धता को कार्य रूप देते हुए कल उसके शहर के प्रशासन ...

ashok gautam

शहर के बेरोजगार बंधुओं के लिए खुशखबरी थी! शहर के बेराजगारों को रोजगार से जोड़ने की वचनबद्धता को कार्य रूप देते हुए कल उसके शहर के प्रशासन ने घोषणा की कि जो बेरोजगार कमेटी के कार्यालय में जितने कुत्ते पकड़ कर लाएगा वह पर कुत्ते के हिसाब से बिना कोई कमीशन काटे बदले वह पूरे सौ रूपए पाएगा। इसके दो लाभ होंगे, एक तो बेरोजगारों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम हो जाएगा और दूसरे शहर के कुत्तों पर भी सरकार नकेल कस सकेगी । पर प्रशासन ने साथ में कहा कि कुत्ते विशुद्ध आवारा होने चाहिएं। पालतू कुत्तों को पकड़ने पर कोई मानदेय नहीं होगा , उल्टे जुर्माना होगा।

उसने भी सोचा कि अरसे से अनखुले हाथ खोल लिए जाएं। देखता हूं कि जब हथेली पर मेहनत की कमाई आती है तो कैसा लगता है? कमाने को किसका मन नहीं करता? अब तक तो बाप का ही खाया, उसकी ही बनियान, कमीज पहनता रहा।

और वह अपनी पढ़ी लिखी बेरोजगारी के कलंक को धोने के लिए घरवालों को बिन बताए निकल पड़ा कुत्तों को पकड़ने। हाथ वह रस्सी ले घर से बाहर कदम रखा ही कि हर घर के आगे से कुत्तों के भौंकने की आवाजें आने लगीं। हद है यार ! इत्ते कुत्ते!! शासन परेशान क्यों न हो? पर वे सब अपने जानने वालों के घर में भौंक रहे थे सो चुप रहा यह सोचकर कि मेरी गली के कुत्तों को कोई और पकड़ कर कमा लेगा, अपनी गली तो चोर भी छोड़ देता है। सच कहूं! उसने तो आजतक सपने वह भी नहीं सोचा था कि कुत्तों को पकड़ने से भी पेट पाला जा सकता है। उसके लिए पेट भरने का एक मात्र रास्ता नेता जी के पांव पकड़ना ही लगता था। और वे बापू के हजार बार कहने के बाद भी नहीं पकड़े गए तो नहीं पकड़े गए।

तभी आगे से एक कुत्ता मदमाता हुआ आता दिखा तो सबसे पहले उसने उसे पहचानने की कोशिश की कि ये कुत्ता आवारा है या पालतू । ऐसा न हो कि वह अपनी ओर से पकड़े उसे आवारा कुत्ता समझकर और वह निकले पालतू। श्रम वृथा जाए। असल में वह कुत्तों के बारे में इतना अधिक ज्ञान नहीं रखता था। इसी के चलते वह बड़ी देर तक किसी नतीजे पर न पहुंच पाया। सच कहूं! उसे अभी तक तो सारे कुत्ते वैसे एक से ही लगते हैं। समय के साथ शायद भेद करना जान जाए साहब! जब उसके चेतन ने कहा कि पकड़ ले बच्चे , आवारा ही है तो उसने उसके गले में रस्सी बांधने को खुद को तैयार कर उसे बहलाने, फंसाने की कोशिश करते पूछा,‘ और साहब क्या हाल हैं?’

‘आंखें फूटी हैं क्या! देखता नहीं एकदम फिट हूं।’ उसने जिस रौब से कहा तो लगा जैसे उसके चेतन ने गलत जज कर लिया। यार, बात तो ऐसे कर रहा है जैसे किसी बड़े पद पर हो। उसने अपनी गलती सुधारते हुए यों कहा,‘ सर माफ करना! पहचानने में गलती हो गई। आपके अहं को ठेस लगी हो तो इस गुस्ताखी के लिए क्षमा चाहता हूं।’

‘ वैरी गुड!! एजुकेटिड हो?’

‘जी सर! बिना नकल किए एमए हूं।’ उसने सीना तानकर कहा तो वह उसके सीने को देख हंसने लगा। कुछ देर हंसने के बाद बोला,‘ लगता है देश में मेहनत पर अभी भी कुछेकों को विश्वास है। तो कुत्ते पकड़ कर कमाने निकले हो बरखुरदार?’

‘जी हां!!’

‘गुड!’ कह वह हंसा।

‘ पर पालतू नहीं सर! केवल आवारा।’

‘ जानता हूं। पालतू पकड़ने तो दूर तुम उनसे आंख भी नहीं मिला सकते। देखो! तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूं। गलत फहमी में रहोगे जो सोचोगे कि देश में आवारा कुत्ते भी हैं। यह व्यवस्था युवाओं से हमेशा झूठ बोलती रही है। उसे सपने देने के बदले सब्जबाग दिखाती रही है। सच यह है कि यहां कोई आवारा नहीं। न कुत्ते, न गीदड़, न सियार, न सांप। सभी किसी न किसीके पालतू हैं। किसी न किसी के खूंटे से बंधे हैं। किसी न किसी की रसोई में डटे हैं । प्रशासन ने तुम लोगों का उल्लू बनाने के लिए घोषणा कर दी। सोचा होगा कि तुम्हारा भी कुछ देर के लिए मन बहल जाएगा और प्रशासन को भी लगेगा कि उसने बेरोजगारों को काम दे दिया। अजीब है यह व्यवस्था भी !जो पहले कुत्तों का पालती है और बाद में उन्हें ही पकड़वाने के लिए देश की अनर्जी को खराब करती है। पता है ये कुत्ते पकड़ने की मुहिम शासन क्यों चला रहा है?’

‘ कुत्तों को देश में और बढ़ने रोका जा सके। पकड़कर उनकी नसबंदी कर दी जाए ताकि संसद से एक बूंद भी पानी की चलेे तो वह सीधे पौधे की जड़ों में जाकर ही सांस ले।’ उसने देश को राम राज्य की ओर ले जाने वाले रास्ते की ओर टकटकी लगाए देखा तो देखता ही रहा।

‘बस! देख ले सपने! देखता रह सपने!! जवान आंखों में सपनों के सिवाय और कुछ होता ही नहीं। इसी बहाने भूख, बेरोजगारी में भी बाप की जेब से अच्छी कट जाती है। पहले भी सरकार ने ऐसे कुप्रयास बड़ी बार किए। पर वे हैं न कि हर बार पैसा रिलीज करवाते हैं कुत्तों को पकड़वा उनकी नसबंदी के लिए और हर बार वे उसे खर्च डालते हैं कुत्ते पैदा करने पर।’ उसने ठहाका लगाया तो आसपास आते जाते लोग भी रूक गए। यार! देखो इस बंदे को! आर्थिक क्राइसिस के भंयकर दौर वह भी कैसे ठहाके लगा रहा है।

‘तो सर इन हाथों का क्या होगा?’ उसने कहा तो उसने उसके हाथ की रेखाओं को बड़ी देर तक घूरने के बाद कहा,‘ कहने के लिए अधिकृत तो हूं नहीं। पर एक बात कहूं, जो बुरा न मानो तो?’

‘ बुरा मानने की सीमाओं से आज मैं बहुत ऊपर उठ गया हूं सर!’

‘ तो तुम्हारे हाथों में पोस्टर लगाने वाली ही रेखाएं हैं। रस्सी पकड़ने वाली रेखाएं ही हैं।’

‘ तो??’

‘ हूं तो कुत्ता! पर कुत्तों को पकड़ने के बदले कुत्तों की मां को पकड़ो। मैं भी कभी जवान था। जवान आंखों में रोते सपने कम से कम मैं नहीं देख सकता। जिंदगी तुम्हारे आगे पड़ी है। अपनी तो कट रही है। कागजों में विशुद्ध शाकाहारी होने के बाद भी बिना गोश्त साली नींद नहीं आती गॉड ब्लेस यू मेरे यूथ!। विश यू आल द बेस्ट!!’ कह उसने उसके कंधे को थपथपाया और आगे हो लिया।

अब खाली हाथ घर लौटा तो बापू फिर कुछ कुछ कहेंगे जरूर!

कहीं एक चना मिलेगा क्या!!

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अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सेालन-173212 हि.प्र.

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अशोक गौतम का व्यंग्य : एक चना बस!
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