भाषा भी क्या चीज है। आदमी को जानवर से इन्सान बना देती है। जब मनुष्य को बोलना नहीं आता था तो वह संकेतों से संवाद कर लेता था। उसके आंसू बता...
भाषा भी क्या चीज है। आदमी को जानवर से इन्सान बना देती है। जब मनुष्य को बोलना नहीं आता था तो वह संकेतों से संवाद कर लेता था। उसके आंसू बता देते थे, वह दुखी है। ठहाके उसकी ख़ुशी बयाँ करते थे। लाल आँखें और फड़कते होठ उसका गुस्सा जाहिर करते थे। वह अन्दर जो कुछ भी सोचता, महसूस करता था, वही उसके चेहरे पर भी छा जाता था. पर जब से उसने भाषा सीखी, वह झूठ बोलने लगा. वह अपने पड़ोसी का दुःख देखकर भीतर से खुश होता है लेकिन बाहर रोने का नाटक करता है। पड़ोसी का जमता व्यापार उसे परेशान करता है लेकिन ऊपर से गदगद होने का ड्रामा करता है. जब से उसने भाषा सीखी, उसे झूठ बोलने आ गया. जब से सभ्य हुआ, वह असभ्य हो गया.
नेताजी भाषण देते हैं, हमे एक बार मौका दीजिए, गरीबी मिटा देंगे , हर हाथ को काम देंगे । दूध की नदियाँ बहा देंगे । समाज में अमन कायम कर देंगे । चोरों को दंड मिलेगा। हर अमीर गरीब के जीवन और संपति की सुरक्षा होगी। पर नेताजी जब कुर्सी पा जाते हैं तो सारे वादे भूल जाते हैं। गरीबी मिटती है पर जनता की नहीं, नेता के घर की. इसकी रफ्तार इतनी तेज होती है कि देखते-देखते नेताजी का हुलिया बदल जाता है. कई शहरों में उनकी आलीशान कोठिया खड़ी हो जाती हैं, घर के हर सदस्य के लिए महँगी कारें आ जाती हैं, देशी-विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा हो जाता है, करोड़ों-अरबों के ठेकों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में उनकी हिस्सेदारी हो जाती है. वह काम और दाम की भी व्यवस्था करते हैं, पर जनता की नहीं, अपने नातेदारों-रिश्तेदारों की.. किसी को ठेका तो किसी को ऊपरी आमदनी वाली नौकरी. दूध की नदियाँ बहती हैं लेकिन उनके रास्ते जनता- जनार्दन के दरवाजे से न होकर उनके खुद के द्वार से होकर गुजरते हैं।
उनकी कोशिश होती है कि उनके घर में अमन-चैन रहे पर सत्ता में बने रहने के लिए वह समाज को टुकड़ों में बाँटने से बाज नहीं आते. वे दंगे करवाते हैं. इसके लिए वे बदमाशों का इस्तेमाल करते हैं, उनकी हर तरह से रक्षा करते हैं, उन्हें जेल जाने से बचाते हैं, पनाह देते हैं. सजा से बचाते हैं. वे और उनके गुर्गे बेवा, अनाथ की संपत्ति हड़पते हैं. जनता के नाम पर आये धन को हड़पने के इंतजाम में दिन-रात लगे रहते हैं. उनके गुर्गों की फ़ौज दिन-रात अनैतिक और अवैध कामों को अंजाम देने में लगी रहती हैं। समाज का बड़ा हिस्सा अभावों और अत्त्याचार के अँधेरे में जीता है और नेताजी ऐश करते हैं। चुनावों के वक्त उन्होंने जनता से रामराज का वादा किया था लेकिन जनता के हाथ में आया दरिद्रता और भयराज. असली रामराज नेताजी के दरबार में आया. नेताजी ने जो कहा, किया उसका ठीक उल्टा. नेताजी की भाषा संसद में कुछ और होती है और सडक पर कुछ.
पूरी दुनिया में एक दस्तूर बहुत आम रहा है. शासन व्यवस्थाएं चलाने के लिए शासकों ने हमेशा दो चेहरे रखे हैं. एक राजा का, दूसरा उसके नाम पर काम करने वाली नौकरशाही का. राजा का रूप कोई भी हो सकता है. मसलन, राजतन्त्र में राजा , प्रजातंत्र में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति. नौकरशाही का रूप भी व्यवस्थाओं की प्रकृति के हिसाब से अलग-अलग होता है. लेकिन उसके चरित्र में बुनियादी फर्क नहीं होता. लोकतंत्र में नौकरशाहों को जनसेवक कहा जाता है. जनता की भूमिका राजा की होती है. इंडियन सिविल सर्विस के नाम से जानी जाने वाली भारतीय नागरिक सेवा के चरित्र की पड़ताल की जाय तो उसका असली चरित्र समझ में आता है. झूठ का इतना बड़ा मायाजाल शायद ही कहीं देखने को मिले। इस तिलस्म में कोई एक देश ही नहीं पूरी दुनिया फँसी हुई है। बौद्धिकता के शीर्ष पर बैठा यह वर्ग झूठ का दस्तावेज तैयार करने में बहुत माहिर है।
दुनिया के इतिहास लेखन पर उसी के शासन की छाप होती है. गजट अर्थात वस्तुगत इतिहास का बुनियादी दस्तावेज नौकरशाही द्वारा ही तैयार किया जाता है। मिसाल के तौर पर लें। मौजूदा वक्त में जो भी गजट तैयार किया जा रहा है, उसमे देश की तस्वीर चमकते हुए भारत की है। भंडार गृहों में अनाज रखने की जगह नहीं है। सूचकांक आसमान छू रहा है। जीडीपी और जीएनपी दरें बहुत ऊँची हैं। देशभर में चमचमाती सडकों का जाल बिछा है। देश बहुत तरक्की कर चुका है. यहाँ अब कोई भूखा नहीं मरता। मोबाईल दुनिया के किसी भी कोने में पलक झपकते ही दिल की बातें करा देते हैं. देश का शासन लोकतान्त्रिक संविधान के आधार पर चलाया जा रहा है। देश परमाणु शक्ति बन चुका है। हर तरफ बहुत तरक्की है।
आने वाली पीढियां इन्हीं आंकड़ों पर भरोसा करेंगी और कहेंगी कि अतीत में देश में चारों तरफ अमन-चैन था. रामराज था. पर सच तो बड़ा भयावह है। बुंदेलखंड, कालाहांडी समेत देश के कई हिस्सों में भूख से लोग मर रहे हैं। सोमालिया और इथियोपिया का सच पूरी मानव सभ्यता के लिए कलंक है। वहां की अस्सी फीसदी आबादी पिछले तीस सालों में अकाल और दुर्भिक्ष की भेंट चढ़ चुकी है। महीनों भूख से तडपता आदमी जिन्दा नरकंकाल बन चुका दीखता है। जमीन पर पड़ी जिन्दा लाशों की अंतिम सांसें गिद्ध और चील गिना करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों के लोग जिस अनाज को फ़ेंक देते हैं या जिस पके हुए भोजन को जूठन कि तरह कुडाघरों में सडा देते हैं, उसे दुनियां के कई गरीब मुल्कों के लोग अपनी भूख मिटाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. मानव सभ्यता ने शायद ही कभी इतना बड़ा विरोधाभास देखा हो। अमेरिका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में जितना अनाज और भोजन सड़-गल जाता है और जानवरों को खिला दिया जाता है, उससे दुनिया के कई देशों की करोड़ों भूखी मानवता का पेट भरा जा सकता है।
नौकरशाही अपना पेट भरने में लगी रहती है। गरीब जनता के नाम आने वाले करोड़ो-अरबों का बजट बंदरबांट कर लिया जाता है। कचहरी से लेकर सस्ते गल्ले की दुकानों तक लूट का खेल बदस्तूर जारी है। भ्रष्टाचार का नंगा खेल पूरी बेशर्मी के साथ खेला जाता है। अफसरों, शासकों को घूस खिलाकर बाजारों में जहर बेचने का काम किया जा रहा है। अफसरों को रिश्वत देकर आदमखोर ताकतें समाज और प्रकृति दोनों का दोहन करने में लगी हैं। पुलिसवाला डंडे मारकर खोमचेवाले से वसूली करता है। पेशकार तारीख देने के नाम पर सुदूर गांव से आने वाले दरिद्रनारायणों की जेबें खाली कर लेता है। पंसारी आपूर्ति निरीक्षक और अधिकारी को पैसे देकर मिलावटखोरी का धंधा करता है। बोर्ड लगाता है ग्राहक हमारे भगवान हैं और उन्हीं भगवान को घी के बदले इसेंस डालकर डालडा, मसाले की जगह घोड़े की लीद और दवा की जगह जहर बेच देता है। परंतु सरकारी दस्तावेजों में सब कुछ बहुत अच्छा है। न गरीबी है और न कहीं अभाव। शब्दों की बाजीगरी ऐसी कि ऊपर से उतरे हुए फरिश्ते भी गच्चा खा जाएं। कागजों पर हर गांव रोशन हैं। वहां सड़कें हैं, नदियों पर पुल हैं। खेतों में लहलहाती फसलें हैं। मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दी जाती है। आला अफसरों की ऊंची कुर्सियों के ऊपर अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की फोटो लगी होती है। न्यायालयों में गीता और कुरान पर हाथ रखवाकर कसमें खिलवाने वाले जज हैं। पर झूठ और भ्रष्टाचार की गति इन सबसे तेज है। ज्ञान पर झूठ और पाखंड भारी पड़ गया। यही इस सभ्यता की विडंबना है।
भाषा के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ उन लोगों ने किया, जिन पर इसके पालन-पोषण, संरक्षण-संवर्द्धन का दारोमदार था। अर्थात लेखक, साहित्यकार और मीडिया। भाषा और व्याकरण को मानकों की सीमा में बांधने और उसे अनुशासित करने का काम समाज के इसी प्रबुद्ध वर्ग ने किया। शब्द गढ़े। शब्दों के अर्थ दिए। उसके भावार्थ दिए। व्याकरण के रूप में अनुशासन की डोर खींची। पर कितनी विचित्र बात कि इतिहास ही बदल गया। जो लिखा गया, उस पर सत्यापन की मुहर लगी, पर वैसा था नहीं। मनुष्य ने अपने चेहरों पर नकाब ओढ़ा। वह जो अंदर था, वैसा बाहर दिखना बंद हो गया। विष रस भरा कनक घट जैसे। झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर समाज में चलाया गया। मनुष्य ने भाषा को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।झूठ के शब्द गढ़े। शब्दों को पैर दिया। पैर को गति दी। सत्य को बिना हाथ-पैर कर दिया। दौड़ में उसका ठहर जाना, पीछे हो जाना और गुम हो जाना स्वाभाविक था। सो हुआ। इतिहास लेखन का काम करीब-करीब बंद है। अब प्रिंट मीडिया को इतिहास का हिस्सा मान लिया गया है। कहा जाता है यह दस्तावेजी इतिहास है। पर यह माध्यम कहां से कहां पहुंच गया, दुनिया जानती है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला यह वर्ग अब समाज, मानव सभ्यता और मानव हित की बात नहीं करता। उसे बिकाऊ माल चाहिए। ऐसा माल जो सनसनी पैदा करे। जो बिकाऊ हो। इलेक्ट्रॉनिक चैनल टीआरपी की बात करते हैं। वह खबर जो एक समय सबसे ज्यादा देखी जाए। जाहिर है वही देखी जाएगी, जो आंखों को झकझोरेगी। भले ही वह मनुष्य की अंत:चेतना को विकृत करती हो। हिंसा, सेक्स इस दौड़ में अव्वल हैं।
ध्यान कीजिए, जब बहुराष्ट्रीय फौजों के दर्जनों युद्धक विमान खाड़ी में बेशुमार बमबाजी कर रहे थे, तो सीएनएन उसका सजीव दूरसंप्रेषण (लाइव टेलीकास्ट) कर रहा था। धरती पर चारों तरफ आग लगी थी। तेल के कुए धूं-धूं कर जल रहे थे। लपटें आसमान छू रहीं थीं। बस्तियां जल रहीं थीं। जिंदा आदमी, हजारों महिलाएं और बच्चे पुतलों की मानिंद जलकर खाक हो रहे थे। और, दूर देशों के दर्शक डाइनिंग टेबल पर पराठों के साथ सॉस और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। सोमालिया और इथोपिया में अकाल और दुर्भिक्ष से लाखों की मौत खबर नहीं बन सकी। इंसानियत की जिंदा मौत और तबाही पर जश्न मनाने का ऐसा दृश्य इतिहास में शायद ही कहीं और देखने को मिले। नंगे और अधनंगे फैशन समारोहों से कोई चैनल अछूता नहीं रहता। मचलती, बलखाती सुंदरियां हर चैनलों पर देखी जाती हैं। उन्हें वह चटनी की तरह परोसते हैं ताकि दर्शक आंखें सेंकते रहें। प्रिंट मीड़िया के जितने भी ग्रुप हैं, उनकी लिखित घोषणा में यह शामिल होता है कि हम समाज में सत्य को उद्घाटित करने, उसकी रक्षा करने, बिना किसी लालच व भय के समाचार व विचार को प्रकाशित करने का संकल्प लेते हैं। पर सब झूठ। धन, पद, सत्ता में भागीदारी के लालच में सत्य को बार-बार बेचा जाता है। जिसके पास पैसा है, पूरा पन्ना क्या, पूरा अखबार ही खरीद लेता है। झूठ जीतता है, सच कोने में दुबक जाता है। भाषा में जो बड़े तमीजदार दिखते हैं, वे कर्म के स्तर पर असभ्य, अशिष्ट और पाखंडी होते हैं।
लेखक परिचय
जुलाई १९५९ में प्रतापगढ़ के ग्रामीण अंचल में जन्म. शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में. राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर. पेशे से पत्रकारिता. तीन दशकों से निरंतर पठन-पाठन और लेखन. बीच में कुछ समय तक बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के डिरेक्टर के रूप में कार्य-भार संभाला. विभागाध्यक्ष के रूप में अपने निर्देशन में बुद्ध, गाँधी, अरविन्द और आंबेडकर के जीवन दर्शन पर कई पुस्तकों का प्रकाशन कराया. वापस फिर पत्रकारिता में. समसामयिक राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर लगातार लेखन. सभ्यता का संकट नाम से एक पुस्तक प्रकाशित. सम्प्रति झाँसी से प्रकाशित डीएलए दैनिक समाचारपत्र में संपादक के रूप में कार्यरत.
jhkjhor kar rakh diya hai is aalekh ne
जवाब देंहटाएंandhe bhre aur gunge log banch payege ?
ye vishmtaye din prtidin badhti hi ja rahi hai .