आदिवासी-चार अक्षरों का एक छोटा सा नाम, लेकिन सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक समुदाय, जातियां और किस्मों में बंटा संसार और इस संसार की अपन...
आदिवासी-चार अक्षरों का एक छोटा सा नाम, लेकिन सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक समुदाय, जातियां और किस्मों में बंटा संसार और इस संसार की अपनी समस्याएं, अपना राजवेश, अपने रीति-रिवाज। सामान्यतः शांत और सरल, लेकिन विद्रोह का नगाड़ा बजते ही पूरा समूह सम्पूर्ण प्रगतिशील शहरियों के लिए एक ऐसी चुनौती, जिसे सह पाना लगभग असंभव। एक चिंगारी जो कभी भी आग बनकर सबको लपेटने की क्षमता रखती है।
आदिवासियों के उपयुक्त संबंधों, रंगबिरंगी पोशाकों, संगीत, नृत्य और संस्कृति के बारे में हमारी अपनी कल्पनाएं हैं। हम उन्हें पिछड़ा, असभ्य, गंदा, गैर-आधुनिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं।
अंग्रेजी राज ने भारतीय आदिवासियों को दूसरे दर्जें का नागरिक समझा। जिसके अंतर्गत उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को बाकी दुनिया से अलग-थलग रख कर उसे अध्ययन और कौतूहल का विषय बना दिया हैं। लेकिन भारतीय समाज में अंग्रेजों को पहली चुनौती सन् 1824-30 भीलों ने दी और बाद में 1846-46 में संथालों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।
आजादी के बाद हमारे इस नजरिए में परिवर्तन आए। पं. नेहरू ने आदिवासियों से पूर्णतया अलगाव के बजाय उनसे सम्पर्क रखने का सिलसिला बनाया। संविधान में उनके लिए विशेष सुविधाएं रखी गई। लेकिन इन प्रशासनिक प्रयासों के बावजूद आदिवासी अलग-थलग रहा और चतुर महाजन इनका शोषण और उत्पीड़न करते रहे।
लगभग 15 करोड़ आदिवासी इस देश के विभिन्न राज्यों में बिखरे पड़े हैं। मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा, पं. बंगाल, केरल आदि इलाकों में आदिवासियों की बहुत बड़ी संख्या है। पिछले कुछ वर्षों में आदिवासियों के प्रति एक नई चेतना का विकास हुआ है।
वास्तव में आदिवासियों की इस दुःखद स्थिति का प्रमुख कारण उनका गरीब होना है, इस आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ वे सामाजिक सांस्कृतिक रूप से भी अलग है। पूरे देश का आदिवासी समुदाय एक सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इसके कारण आदिवासियों में अलगाव और मुख्य धारा से अलग रहने की प्रवृत्ति का विकास हो रहा है। शोषण, असंतोष, गरीबी और सामाजिक बदलाव के कारण आज आदिवासी स्वयं की उद्धेलित और असंतुष्ट महसूस करता है।
आदिवासी असंतोष के प्रमुख कारण आर्थिक और सामाजिक है। ईसाई मिशनरियों तथा धर्म परिवर्तन की घटनाएं भी एक कारण हैं। जब तक बाहरी लोगों ने इनके जीवन और जीवन-पद्धति तथा इनकी परम्पराओं में घुसपैठ की, इन आदिवासियों ने हथियार उठा लिए। जब-जब इनका दमन और शोषण हुआ, ये चुप नहीं रहे, इनकी मजबूरियों का फायदा उठाने की हर कोशिश का उन्होंने विरोध किया है। आदिवासी आंदोलनों की पृष्ठभूमि को देखना, समझना एक उचित आधार होगा।
वास्तव में आदिवासी आंदोलन अंग्रेजों के जमाने से काफी पहले से चल रहे हैं। मुगल शासनकाल में औरंगजेब ने जब धर्म-परिर्वतन और जाजिया कर चलाया तो इन आदिवासियों ने इसका विरोध किया।
सन् 1817 में भीलों ने खान देश पर आक्रमण किया। यह आंदोलन 1824 में सतारा और 1831 में मालवा तक चला गया। 1846 में जाकर अंग्रेज इस विद्रोह पर काबू पा सके। इस पराजय से भीलों में चेतना जागी और वे हिन्दुओं की तरह रहने लगे और इसी दौरान भीलों में धार्मिक आंदोलन शुरू हुए। डूंगरपूर में ललोठिया तथा बांसवाड़ा, पचमहाल (गुजरात) में गोबिंद गिरी ने धार्मिक आंदोलन चलाए। 1812 में गोबिंद गिरी को अंगेजों ने गिरफ़्तार कर लिया।
वास्तव में भीलों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि था और भूमि पर साहूकारों, व्यापारियों ने कब्जा कर लिया। वनों की लगातार और अंधाधुंध कटाई के कारण बनों पर आश्रित वनवासी, गिरिजन और अन्य समुदायों के आदिवासियों को खाने के भी लाले पड़ गए।
इन्हीं कारणों से लगातार आदिवासी आंदोलन होने लगे। उड़ीसा में 'मल का गिरी' का कोया विद्रोह 1871-80 में हुआ। फूलबाने का खांडे विद्रोह (1850) में तथा साओरा का विद्रोह (1810-1940) में हुआ। ये विद्रोह आर्थिक शोषण के कारण हुए।
सन् 1853 में संथाल-विद्रोह हुआ। 1895 में मुंडा विद्रोह हुआ। 1914 में उंरावों का ताना-मगत विद्रोह हुआ। मिजो आंदोलन लंबे समय तक चला और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने।
पिछले डेढ़ वर्षों के आदिवासी असंतोष और व्यग्रता से पता चलता है कि अभी भी आदिवासी अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं।
वास्तव में शासन के विरुद्ध आदिवासियों की लड़ाई शासक और शासित की लड़ाई है, जिसमें बेचारा शासित और दब जाता है। उसके ऊपर और दुःखों का पहाड़ आ जाता है। शासन को आदिवासियों के बारे में विवेकशील जानकारी हो और वे आदिवासियों के प्रति संवेदनशीलता रखें तो आदिवासियों को समझने में आसानी होगी।
प्रारम्भ से ही आदिवासियों के साथ शोषण की प्रवृत्ति तथा सौतेला व्यवहार हुआ है इसी बात को मुद्दा बनाकर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंदोलन पृथक राज्यों की मांग को लेकर लंबे समय तक चलते रहे। छोटा नागपुर (बिहारी), संथाल, आदिलाबाद (आंध्र प्रदेश) आदि ऐसे ही स्थल थे।
महाजनी चक्र के कारण आदिवासियों, बंधुओ मजदूरों खेतिहरों का शोषण लंबे समय से होता आया है। गरीबी और मजबूरी का मारा आदिवासी बनिये के पास जाता है और अपना शोषण कराता है। आजकल आदिवासियों में खुद एक तबका बन रहा है जो महाजनों की तरह ही अपने समाज का शोषण कर रहा है और स्वयं महाजन बन बैठा है।
अकाल, बाढ़, बीमारी, चिकित्सा आदि ऐसे तात्कालिक कारण होते हैं, जब आदिवासी को महाजनों की शरण में जाना पड़ता है या ईसाई मिशनरियों के पास धर्म परिवर्तन कराना होता है।
आदिवासियों में व्याप्त असंतोष, विद्रोह या आंदोलनों के तथा उनकी समस्याओं को समझने और सुलझने के लिए हमें हमारे नजरिए में परिवर्तन करना होगा। उन्हें उपेक्षित, बेसहारा और मजबूर समझने के बजाय उन्हें हम में से एक समझना होगा।
उन्हें राष्ट्रीय धारा से जोड़ने के लिए उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज, उनके रहन-सहन, उनकी संस्कृति, उनकी जीवन पद्धति को समझना होगा। उनकी सामाजिक बनावट का व्यापक और समग्र अध्ययन किया जाना उचित होगा।
आदिवासियों को केवल केलेंडर या उन्मुक्त सेक्स के रंगीन चश्मे से देखना बंद करना होगा।
उन्हें देखने,समझने और परखने के लिए हमें अपनी आंखों पर लगे चश्मे के नम्बर बदलने होंगे। अर्ध्विश्वास या पूर्व ग्रहों की दीवारों को तोड़कर जो प्रकाश आएगा, उसमें ये आदिवासी हमें हमारी जमीन से जोड़ेगे।
आर्थिक शोषण, सामाजिक शोषण, वनों की कटाई और खेती को महाजनी सभ्यताओं से मुक्त कराने से आदिवासियों की काफी समस्याओं का हल हो सकता है और वे हमारी मुख्य धारा में जुड़कर राष्ट्रीय विकास में योगदान दे सकते हैं, क्योंकि उनके पास लोक-साहित्य, लोक-चिकित्सा और लोक-कलाओं का एक समग्र संसार है।
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-यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002फोनः-2670596
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