स्त्री-पुरुष संबंध जैविक होने के साथ विपरीत लिंगी होने के कारण सहज व प्राकृतिक हैं। सुदृढ़ पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ...
स्त्री-पुरुष संबंध जैविक होने के साथ विपरीत लिंगी होने के कारण सहज व प्राकृतिक हैं। सुदृढ़ पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्हें जन्म-जन्मांतर के अंध विश्वास से जोड़ा गया। लेकिन कालांतर में स्त्री के शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वावलंबी और विश्वग्राम के दौर में देश-विदेश में स्त्री की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी पाने की ललक व अवसर ने स्त्री देह से जुड़ी अनेक वर्जनाओं को तोड़ने का क्रम शुरू किया। नतीजतन स्त्री पर पुरुष के प्रति आकर्षित हुई। आदर्श नारी को महिमामंडित करने वाले नैतिकता के आरोपित छद्म मानदण्ड शिथिल होने लगे। देह सुख की जुगुप्सा ने उन्मुक्त यौन आनंद की राह पकड़ ली। इस लैंगिक उत्सुकता में परिवार के लिए नौकरीपेशा स्त्री की आय ने भी किसी हद तक सैद्धांतिक अर्थ दिए। इसलिए समझदार पुरुषों ने तो स्त्री की इस वर्जना को जानबूझकर नजर अंदाज किया। लिहाजा वे दांपत्य और परिवार दोनों को ही बिना किसी हीनता अथवा अपराध बोध के सुरक्षित रख पाने में सफल हैं। लेकिन जिनके लिए दांपत्य, परिवार व समाज की अवधारणा धर्म के बिना संभव नहीं है उन्होंने इस लैंगिकता अथवा जैविकता को महज स्त्री देह की यौनजन्य आसक्ति से जोड़ कर देखा। परिणाम स्वरूप चरित्रजन्य पवित्रता के अतीत से स्त्री का पीछा नहीं छूटा। गोया, मनुष्य ने वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग जो स्वास्थ्य संबंधी परीक्षणों के लिए इजाद की थीं उनका स्त्री के ‘शील’ की जांच और उसकी पति के प्रति ‘निष्ठा’ की तहकीकात के लिए होने लगे। पुरुष की इस विषम सोच ने स्त्री अस्मिता के लिए ही नए सिरे से चुनौती ला खड़ी कर दी।
हाल ही में इन्दौर में घटी एक घटना में हत्यारे पति ने पुलिस हिरासत में कबूल किया कि बेवफाई के शक में उसने पत्नी का नार्को टेस्ट कराया। टेस्ट में पत्नी द्वारा पड़ोसी से अवैध संबंध बना लेने के कबूलनामे के बाद उसने पत्नी की गोली मारकर हत्या कर दी। शरीरजन्य वफा और बेवफाई से जुड़ी नार्को एनालिसिस, पालीग्राफ एवं ब्रेनमेपिंग जैसी जांचों की विश्वसनीयता अभी संदिग्ध है। इस वजह से न्यायालय इन जांचों को केवल साधारण साक्ष्य मानती है। इस तरह की जांच को ‘न्याय’ का आधार नहीं बनाती। वैसे ये जांचें मानवाधिकारों के हनन के भी गंभीर पहलू हैं। बहरहाल तकनीक का आविष्कार और स्त्री पर उनके प्रयोग प्राचीनकाल से लेकर अब तक स्त्री की दैहिक शुचिता के संदर्भ में एक संकट के रूप में ही उभरे हैं। स्त्री भ्रूण से जुड़ी लैंगिक तकनीक की अल्ट्रासाउण्ड जांच ने पुरुष की तुलना में स्त्री का अनुपात ही आश्चर्यजनक ढंग से घटा दिया। वर्तमान में पूरी दुनिया में विकास की प्रतिस्पर्धा और धार्मिक आडंबर इतने प्रभावशील हैं कि स्त्री संदर्भ में शारीरिक, नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की परवाह किसी को नहीं है।
पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर साहित्यिक हलकों में स्त्री-विमर्श का खूब हल्ला रहा। राजेन्द्र यादव और उनके ‘हंस’ में अभी भी बरकरार है। उन्होंने पूरी तल्खी से ऐसी रचनाओं और बहसों को हंस में स्थान दिया जो स्त्री के तईं स्त्री देह से अविभाज्य यौन वर्जनाओें और धर्माश्रित पारंपरिक जड़ताओं पर कुठाराघात करती हैं। ‘कथादेश’ भी इन सवालों की पैरोकार रही। गाहे-बगाहे ‘ज्ञानोदय’ ‘वागर्थ’, ‘परिकथा’ और ‘कथाक्रम’ भी मर्यादित रूप में ही सही इस किस्म की कहानियों को तरजीह देती रही हैं। ‘ज्ञानोदय’ के प्रेमकथा महाविशेषांक के दूसरे अंक में मधु कांकरिया की कहानी ‘दो चम्मच औरत’ अविवाहित देवर और विधवा भाभी के दायित्व बोध से जुड़ी होने के बावजूद यौन व परंपरागत नैतिक वर्जना पर तल्ख प्रहार करती है। यहां घर की चाहर दीवारी में स्त्री इयत्ता एक ऐसे रूप में पेश आती है जो सदियों से पुरुष के अधिकार क्षेत्र में रही है। अपने दायरे में कहानी की नायिका की उत्सुकता अविभाज्य देह मुक्ति की विराट उद्घोषणा है। इस सिलसिले में ‘हंस’ (अगस्त 2008) में छपे मनीषा के लेख ‘विमर्श को वियाग्रा न बनाएं.....’ में ठीक ही लिखा है, ‘यह तो विज्ञान भी मानता है कि प्यार करते ही देह में केमिकल रिएक्शन शुरू हो जाते हैं। इन्हीं में से कुछ सेक्स के लिए उकसाते हैं, वे खांटी औरतें ढर्रे में जीने की आदी हैं। दूसरे जिन औरतों ने माथे पर टिकुली और साड़ी जैसी परंपरा को ढोते हुए वह सब आनंद लिया और जो उछंृखल और कामपिपासु औरतों ने भोगा, तो उनसे क्या सुनने को मिलेगा आपको’। सच तो यह है अब स्वावलंबी औरतें पुरुष बनने की होड़ में हैं। वे जामने लद रहे हैं जब भारत की बहुसंख्यक औरतें घरों में जरा-जरा सी बात पर पिटती थीं और पल्लू में मुंह ढांप दुनिया भर की जलालत सहती व पीती हुईं परंपराओं को ढोती रहती थीं। व्यावसायिक पत्रिकाओं के सर्वेक्षणों की बात मानें तो स्त्री केवल पति के लिए ही बिस्तर पर नहीं खुल रही, पर पुरुष के लिए खुल जाने में उसका संकोच दिनों-दिन टूट व बढ़ रहा है। वियाग्रा की बिक्री के साथ वायब्रेटर (कृत्रिम लिंग/आउटलुक में गीताश्री) की बिक्री भी बढ़ने के साथ इनका प्रयोग आमफहम हो रहा है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में लिखी यह बात सटीक बैठ रही है कि औरत की यौन उन्मुक्तता की वल्गाएं शिथिल कर दी जाएं तो उनमें पुरुष की तुलना में आठ गुनी ज्यादा काम-पिपासा देखने को मिलती है। उसे केवल मातृत्व और अवचेतन में पैठ बनाए बैठे योनि की शुचिता से जुड़े लांछन के सवाल ही दुर्बल बनाते हैं।
स्त्री की दैहिक पवित्रता के तारतम्य में हम अपने प्राचीन भारतीय साहित्य बनाम धर्म ग्रंथों को नाहक कोसते हैं। यह निंदा हमारी अज्ञानता को भी दर्शाती है। लिहाजा हमने अपने उस प्राचीन भारतीय साहित्य को जिसे बड़ी चतुराई से अंग्रेज विद्वानों ने उनमें दर्ज ज्ञान को सीमित बनाए रखने के दृष्टिगत धर्म व अध्यात्म की कपोल-कल्पना से जुड़ा मिथकीय साहित्य क्या कहा, हमारे बुद्धिजीवी भेड़चाल में शामिल हुए और फिर जैसे समृद्ध ज्ञान के भण्डार की उपेक्षा किए जाने की मुहिम ही चल पड़ी।
इन ग्रंथों में स्त्री को यौनिक पवित्रता से बाधित जरूर किया लेकिन यह स्थिति वैदिक काल के बाद शुरू हुई। अन्यथा व्यभिचार (बलात्कार) की शिकार स्त्री के प्रसंग में याज्ञवल्क्य ने कहा है, ‘मासिक धर्म की समाप्ति के उपरांत स्त्री पवित्र हो जाती है।’ याज्ञवल्क्य ने घोषित किया कि, ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों की पत्नियों ने यदि शूद्रों के साथ व्याभिचार करने के पश्चात गर्भधारण न किया हो तो प्रायश्चित करके वे पवित्र हो सकती हैं। इन उदाहरणों से तो ये संकेत मिलते हैं कि सवर्ण समाज की स्त्रियां यौनतुष्टि के लिए घर के नौकर-चाकरों, मसलन शुद्रों से स्वयं यौनिक व्यभिचार करती थीं।
महर्षि वेद न्यास ने लिखा है, ‘व्यभिचार में पकड़ी गई पत्नी को घर में ही रखना चाहिए, किंतु धार्मिक कृत्यों एवं संभोग के उसके सारे अधिकार छीन लेने चाहिए। धन-संपत्ति पर उसका कोई हक नहीं रहेगा। उसकी भत्र्सना की जाती रहेगी। किंतु व्यभिचार के उपरांत स्त्री का मासिक धर्म शुरू हो जाए और वह पुनः व्यभिचार में संलग्न न हो तो उसे पुनः पत्नी के सारे अधिकार मिल जाने चाहिए। अत्रि ऋषि ने बलात्कार की शिकार स्त्री को केवल आगामी मासिक धर्म के आगमन तक अपवित्र माना है। देवल ने भी म्लेच्छों द्वारा अपहृत कर भ्रष्ट की गईं स्त्रियों के गर्भधारण कर लेने के बावजूद उनकी शुद्धि की मुहिम चलाई थी। व्यास ने तो शांति पर्व में यहां तक लिखा है कि यदि स्त्री कुमार्ग पर जाए तो दोष उसके पति का है न कि पत्नी का। वराहमिहिर ने तो ‘बृहत्संहिता’ में स्त्री की जबरदस्त पैरवी की है, ‘स्त्रियां धर्म एवं अर्थ आश्रित हैं। उन्हीं से पुरुष इन्द्रिय सुख एवं संतान लाभ प्राप्त करते हैं। ये घर की लक्ष्मी हैं। इनको सदैव धन एवं सम्मान देना चाहिए। जिन मंत्रों को हमने सुफल जीवन की सिद्धी का साध्य माना हुआ है, उन्हीं वेद मंत्रों में इतनी अश्लील वार्ताएं तथा स्त्री द्वारा यौन समागम के लिए खुले आमंत्रण हैं कि फुटपाथों पर बिकने वाले कोकशास्त्र के रचयिता मस्तराम भी शर्मा जाएं। यम की बहिन यमी और इन्द्र की पत्नी इंद्राणी की वार्ताएं काम शास्त्र की खुली किताब हैं। यथा, ये ऋचाएं सार्थक जीवन व अलौकिक शक्तियों को सिद्ध करने के मंत्र कैसे हो सकते हैं ? यहां कथित रूप से धार्मिक कही जाने वाली पुस्तकों के उदाहरण इसलिए भी दिए हैं क्योंकि वह धर्म और धर्मशास्त्र ही है जो स्त्री देह को पवित्रता-अपवित्रता से जोड़ते हैं।
लैंगिकता या यौनिकता दायित्व निर्वहन के उपक्रम में संतान प्राप्ती के अभीष्ट के लिए भी प्रणय का माध्यम है। साथ ही बाजारवादी आधुनिक परिवेश में भविष्य अथवा कॅरियर से जुड़ी उपलब्धियां हासिल करने तथा सामाजिक सरोकारों एवं कारकों के रूप में भी विचलित कर देने वाली मनस्थितियों के रूप में सामने आ रही हैं। काॅर्पोरेट जगत का केवल भारी-भरकम पैकेज से जुड़ा एकांगी पक्ष सार्वजनिक होता है। गुलाबी अखबार इस पक्ष को प्रमुखता से उभारते है। इस जगत का जो परोक्ष, अप्रत्यक्ष या अतीन्द्रीय पक्ष है उसके विद्रूप चेहरे को यथार्य अर्थ सुकेश साहनी ने अपनी लघुकथा ‘कसौटी’ (कथादेश, जून 2007) में बेहद सहज व तार्किक अभिव्यक्ति दी है। यह कथा ‘लघु’ जरूर है लेकिन कॉर्पोरेट जगत के मुनाफे के लिए अंग्रेजीदां उच्च शिक्षित प्रबुद्ध महिला को देह बिछा देने की किन शर्तों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां नौकरी देती हैं, वे शर्तें दैहिक नैतिकता की सभी सांस्कृतिक चूलें हिलाकर रख देती हैं। क्या वाकई इस जगत में स्त्री की देह, सौंदर्य और वाक्चातुर्य लाभ के कारोबार के लिए छल-बल के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। वरना पर्सनॉलिटी टेस्ट के बहाने बॉस के साथ घर से बाहर रहने, मित्रों के साथ शराब पीने, एक से अधिक मित्रों के साथ डेटिंग पर जाने व हमबिस्तर होने जैसे बेहूदे सवालों का स्वस्थ्य कारोबार से क्या लेना-देना है ? सही मायनों में इस जगत में लैंगिकता निम्न और उच्च मूल्यों के द्वंद्व के बीच कॅरियर बनाने की होड़ में स्त्री के लिए समर्पण की लाचारगी है। जिस पर पैकेज रूपी धन का अवगुंठन पडा है। अलबत्ता स्त्री स्वस्थ नैतिक समाज को प्रतिष्ठित करने वाले दैहिक शुचिता के मूल्यों से कॉर्पोरेट जगत में मुक्त है।
गर्भ जल परीक्षण (अल्ट्रा साउण्ड) तकनीक से कोख में पल रहे गर्भस्थ शिशु के लिंग जांच से जुड़ी इधर कुछ अच्छी कहानियां आई भी हैं। इनमें सुनीता सृष्टि की ‘पुट्ट बड़ी हो गई है’, विद्यासिंह की ‘समरूपा’ डाॅ. पदमा शर्मा की ‘हरी कोख’, जयश्री राय नेहा की ‘गुडिया’ और प्रमोद भार्गव की ‘मुक्त होती औरत’ प्रमुख हैं। लेकिन इन सभी कहानियों में तकनीक जो स्त्री भ्रूण को नष्ट करने का कारण बन रही है उस पर तीखा हमला करने की बजाय, उसे कमोबेश नजरअंदाज किया गया। गोया, स्त्री-पुरुष के बीच लैंगिक आधार पर जो भेद हैं उन्हें जरूर बाल व प्रौढ़ मनोविज्ञान के मार्फत अच्छे ढंग से उभारा गया। जबकि लैंगिक भेद के साथ तकनीकी पक्ष के खतरे और पुत्र-कामना के ढकोसले पर प्रहार किया जाना चाहिए था। क्योंकि वैदिक ऋुचाओं के रचना-काल से ही ईश्वर से पुत्र-कामना की मांग बनी चली आ रही है, जबकि पुत्री की कामना कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती है। यथास्थितिवादी यह मांग आज भी कायम ही नहीं है बल्कि प्रचंड रूप में सामने आ रही है। आश्चर्य तो तब होता है जब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और उच्च शिक्षित स्त्री भी पुत्र-कामना में संलग्न रहकर अल्ट्रासाउण्ड तकनीक अपनाकर जैसे पुत्रेष्ठि यज्ञ में लगी है। इस विडंबना की पृष्ठभूमि को क्या कहा जाए, धार्मिक जड़ता या मरणोपरांत पिण्डदान के पाखण्ड की आसक्ति ! जबकि स्त्री समझ रही है कि स्त्री के घटते अनुपात में इसी तकनीक की प्रधानता निहित है।
कुछ समय पूर्व मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री कन्यादान योजना से जुड़ा मुद्दा प्रदेश की विधानसभा और देश की लोकसभा में चर्चित हुआ था। सरकारी मद्द से गरीब कन्याओं के सामूहिक विवाह से जुड़ी इस कल्याणकारी योजना को पूर्वग्रह से ग्रस्त राजनितिज्ञों ने चिकित्सकीय परीक्षण बनाम कौमार्य परीक्षण की तकनीकी से जोड़ते हुए नव-वधुओं की दैहिक शुचिता को निशाना बनाया। इस योजना में यदि कुछ खामियाँ थीं भी तो उन्हें दूर करने के उपाय सुझाने की जरूरत थी न कि ‘कौमार्य’ जैसे अप्रासंगिक हो चुके पुरातनपंथी सवाल उठाकर हो-हल्ला मचाने की ? वैसे भी चिकित्सा शास्त्र में ऐसा कोई निष्पक्ष तकनीकी पैमाना नहीं है जो स्त्री के कौमार्य की निरापद पड़ताल कर सके ? गर्भधारण ही एक ऐसी प्राकृतिक स्थिति है जो स्त्री के शील-भंग की तसदीक करती है। दरअसल यह चिकित्सकीय परीक्षण स्त्री की दो तरह की जाँच से जुड़ा होता है, एक उसके बालिग होने की उम्र से और दूसरे, कहीं वह गर्भवती तो नहीं है ? क्योंकि शहडोल जहां का यह मामला सुर्खियों में रहा था, वहाँ जाँच में पद्रह महिलाओं को गर्भवती पाए जाने के बाद उन्हें विवाह समारोह से बंचित कर दिया गया था। ये सभी महिलाएँ विवाहित थीं। और आर्थिक मदद के लालच में अपने वर्तमान पतियों से ही पुनर्विवाह करने जा रही थीं। एक महिला ने तो विवाह समारोह के तत्काल बाद बच्चे को जन्म भी दे दिया था। यहाँ राजनीतिज्ञों से अपेक्षा यह थी कि अनियमितता और भ्रष्टाचार का शिकार हो जाने वाली इस सरकारी योजना में ऐसी कौन सी जाँच प्रक्रिया अपनाई जाए जिससे योजना निर्विवाद रूप से लाचार महिलाओं के लिए लाभकारी बने रहे ?
आधुनिक समाज की दुनिया कानून और तकनीक के वशीभूत है। कानून और तकनीक के बीच परस्पर द्वंद्व है। शरीर जन्य यौन शुचिता के परंपरागतता सामाजिक-नैतिक आदर्श वर्तमान परिदृश्य में गौण होते चले जा रहे हैं। बावजूद इसके अंततः हमारी मानसिकता स्त्री देह के संदर्भ में यथास्थितिवादी है। इसीलिए गुप्त जाँच संबंधी चिकित्सकीय परीक्षण भी ‘कौमार्य’ में हस्तक्षेप अथवा स्त्री की चरित्रजन्य पारंपरिक मान्यताओं से खिलवाड़ की श्रेणी में आ जाते हैं। अधिकतर मध्य, निम्न मध्य समाजों में कन्या के सम्मान की कसौटी कौमार्य ही है। स्त्री की मातृत्व धारण करने की प्राकृतिक विशिष्टता एक ऐसा गुण है जिससे उसे लंपट से लंपट व्यक्ति भी नैतिक-अनैतिकता के पितृसत्तात्मक सामाजिक आदर्श के दायरे में ला खड़ा करता है। वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकी के इस युग में प्रजनन संबंधी जितनी भी तकनीकों का इजाद हुआ है अंततः वे दैहिक शुचिता और गर्भजन्य स्थितियों को ही नियंत्रित करने वाली हैं। स्त्री अस्मिता संबंधी सुरक्षा के सवालों से जोड़कर हम हो-हल्ला चाहे जितना कर लें अंततः ये सवाल स्त्री को सामाजिक मानसिक कष्ट ही देते हैं। क्योंकि यौनजन्य परीक्षण से जुड़ी गोपनीयता भी छन-छन कर सार्वजनिक होने लगती है। जिससे स्त्री लोकोपवादों का शिकार बनती है।
स्त्री-पुरुष को दांपत्य-सूत्र में बांधने वाली श्वेतकेतु द्वारा अस्तित्व में लाई वैदिक रीति में ऐसी कोई दिव्यदृष्टि नहीं है कि वह विवाहित-अविवाहित जोड़ों के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा खींच सके ? संसद और विधानसभा में राजनेता जिस जाँच को कौमार्य परीक्षण कहकर उछाल रहे हैं दरअसल वह मातृत्व परीक्षण है। इसे गर्भ परीक्षण भी कह सकते हैं। क्योंकि यही परीक्षण एक ऐसी तकनीकी जाँच है जो स्त्री के विवाहित होने अथवा न होने में स्पष्ट भेद कर दूध का दूध और पानी का पानी कर सकती है। इसी जाँच के बूते शहडोल में विवाह बेदी पर बैठने को तत्पर पन्द्रह महिलाएँ गर्भवती पाई गई आबरू के अर्थ और योनि की पवित्रता को कौमार्य परीक्षण के बहाने ‘अग्नि परीक्षा’ के दौर से गुजरना पड़ा। जिन्हें विवाह से बंचित भी किया गया। ‘कौमार्य-विच्छेदन’ अथवा ‘शीलभंग’ को आधार बनाकर एक भी महिला को विवाह से पृथक नहीं किया गया। दरअसल बालिग उम्र में कौमार्य परीक्षण संभव ही नहीं है ? स्त्री गर्भधारण कर ले तभी यह सुनिश्चित हो पाता है कि कौमार्य भंग हुआ है। और कोख (गर्भाशय) पुरुष संसर्ग में आने के बाद जीव-सृजन के प्राकृतिक कर्म से जुड़ी होती है इसलिए वह कुंवारी अथवा ब्याहता नहीं होती है ?
वैसे भी जब श्वेतकेतु द्वारा निर्मित विवाह संस्था दरक रही हो, स्त्री की कुंवारी, सधवा, परित्यक्ता और विधवा के विविध रूपों वाली पहचान गौण होने लग गई हो, विधवा व परित्यक्ताओं के विवाह होने लग गए हों, विवाह की न्यूनतम उम्र भी अठारह साल हो गई हो, अविवाहित बने रहते हुए जीवन साथी बने रहने का चलन शुरू हो गया हो और समलैगिकों को भी साथ रहने की वैधानिक मान्यता मिलने लग गई हो तब कौमार्य से जुड़े सवाल चाहे वे किसी भी परिप्रेक्ष्य में उठाये गए हों अंततः समाज में वे अखण्ड कौमार्य और असाधारण व असाध्य सतीत्व की परंपरागत अवधारणा को ही पुष्ट करने वाले साबित होते हैं ? क्योंकि पुरुष वर्चस्ववादी समाज में आज भी स्त्री चरित्र की संदिग्धता को लेकर सवाल दागना सहज है। स्त्री चरित्र के संदर्भ में आज भी शरीरजन्य यौन शुचिता अखण्ड कौमार्य से जुड़ी है ? हम कितने भी आधुनिक क्यों न हो गए हों बहुसंख्यक हिन्दू समाज में दैहिक पवित्रता और कलंक (अपवित्रता) के सवाल वर्तमान हैं। पुरुष द्वारा तलाक लिए जाने की स्थिति में उसके पास अलगाव का सबसे मजबूत आधार स्त्री को शारीरिक स्तर पर ‘चरित्रहीन’ के रूप में आरोपित अथवा घोषित कर देना ही है ? इन कारणों से तय होता है कि स्त्री के सम्मान की कसौटी ‘शील अथवा कौमार्य’ ही है।
कौमार्य से जुडे़ सवाल जितने बडे़ स्तर पर उछाले जाएँगे उतना ही ज्यादा स्त्री का सम्मान आहत होगा। आधुनिक या पाश्चात्य हो जाने का दंभ हम चाहे जितना भर लें अंततः हमारे अवचेतन में बैठे सनातनी संस्कार हमें चरित्र कलंकित हो जाने के बोझ से उबरने नहीं देते ? इसलिए अनचाहे गर्भों की गर्भपात कराये जाने की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे में इस तरह के सारहीन मुद्दे जब तूल पकड़ते हैं तो नहीं चाहने के बावजूद हम कहीं पुरातन मूल्य और पारंपरिक अवधारणाओं की ही पुनर्स्थापना में संलग्न नजर आते हें। ऐसे में स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब मानवाधिकारों से जुड़ी स्वायत्त संस्था महिला आयोगों के बयान परस्पर विरोधाभासी तो हों ही महिला सम्मान को आहत करने वाले भी हों। राज्य महिला आयोग के निष्कर्ष जता रहे थे कि जाँच सामान्य थी। कौमार्य को परिभाषित करने वाला कोई परीक्षण नहीं किया गया। इस निष्कर्ष से राष्ट्रीय महिला आयोग असहमत था। इसका दावा था कि कुँवारी कन्या का कौमार्य परीक्षण किया जा सकता है। उद्देश्य साफ है केन्द्र और राज्य में परस्पर धुर विरोधी सत्ताएँ काबिज होने के नतीजतन राष्ट्रीय महिला आयोग उस तकनीकी जाँच को महत्व दे रहा है जिसके नतीजों में स्त्री को लांछित किए जाने की संभावना अंतनिर्हित है ? जबकि ऐसी जाँच संभव भी है तब भी हमें इन जाँचों को स्त्री अस्मिता की खातिर नजरअंदाज करना चाहिए। वैसे भी किसी भी प्रकार की तकनीकी जाँच उतनी ही जरूरी होनी चाहिए जितनी कानून के पालन में अनिवार्य शर्त हो ?
सच तो यह है कि वैज्ञानिक तकनीक की बाध्यकारी जरूरत फिर चाहे वे कौमार्य परीक्षण से जुड़ी हों अथवा गर्भ में आकार ले रहे भ्रूण के लिंग परीक्षण से अंततः, वे स्त्री अस्तित्व को नियंत्रित कर संकट में डालने वाली ही हैं ? असल जरूरत अब स्त्री को ऐसी जाँचों से मुक्ति दिलाने की है जो देहजन्य प्राकृतिक क्रियाओं को बाधित तो करती ही है इनका खुलासा स्त्री-अस्मिता को लज्जित करने वाला भी होता है। स्त्री को इन जाँचों से छुटकारा मिलता है तो उस असहनीय पीड़ा से भी निजात मिल सकती है जो स्त्री-भ्रूण अथवा अनचाहे गर्भ को नष्ट करने में होती है।
सच्चाई यह है कि यौनिकता को तकनीक से नियंत्रित व बाधित रखते हुए हम आधुनिक समाज में स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं कर सकते। लिहाजा जरूरी हो जाता है कि पहले यौनिकता से जुड़े पवित्रता-अपवित्रता के सामाजिक सरोकारों और तकनीकी कारकों को मानवीय धरातल दिया जाए। स्त्री को यह धरातल इस आधुनिक व वैज्ञानिक युग में तकनीक के हस्तक्षेप से अगल किए बिना संभव नहीं है। देह के स्तर पर तकनीक से मुक्ति ही स्त्री को प्रकृति-प्रदेय जैविक अधिकारों की स्वतंत्रता दे सकती है।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कालोनी,
शिवपुरी (म.प्र.) पिन- 473-551
कटु किन्तु सत्य..
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