"उधार प्रेम की कैंची है" पान वाले की दुकान पर पांच रु. का पान लेकर चबाते हुए सामने के शीशे में टेढ़े-मेढ़े एवं सुन्दर अक्षरों में...
"उधार प्रेम की कैंची है" पान वाले की दुकान पर पांच रु. का पान लेकर चबाते हुए सामने के शीशे में टेढ़े-मेढ़े एवं सुन्दर अक्षरों में लगे हुए उपर्युक्त शब्दों के एक साइन बोर्ड पर नज़र पड़ी तो ठिठक कर रह गया मैं; लगा सोचने -- उधार...प्रेम ..व कैंची ...तीनों में क्या सम्बन्ध....!!
कैंचियाँ तो बहुत देखीं हैं हमने | एक डाक्टर साहब की कैंची , देखकर ही रोगी भय से चीखने चिल्लाने लगता है मानो कोई साक्षात दैत्य ही सम्मुख आ गया हो ; बायोलोजी के स्टूडेंट्स की की 'बोन सीजर्स' का भी ध्यान आया | ये कैंचियाँ भी मेंढक, मछलियाँ यहाँ तक कि अन्य जानवरों की हड्डियां काटने से भी नहीं चूकतीं | परन्तु ...पर ,ये उधार की कैंची.... विस्मय में डूब गया मैं |
जूनियर क्लासेज़ में थोड़ा बहुत 'बुक क्राफ्ट' का भी अध्ययन किया था | यहाँ भी कैंची है, पर 'बोन सीजर्स ' से कम तीक्ष्ण , क्योंकि ये केवल कागजों को काटती हें | मनुष्य भी तो वातावरण के अनुसार स्वयं को बदल लेता है | ध्यान आया ...एक बार जब मैं 'अबरी' काट रहा था तो हाथ कट जाने पर मारे पीड़ा के चिल्ला उठा था मैं | मुझे हंसी आ गई अपनी इस नादानी पर, भूल पर .....|
विचार का रुख कुछ मुड़ गया | सोचा...दर्जी की भी तो कैंची होती है ..तीक्ष्ण ..पैनी| गजों लम्बे कपड़ों को काट कर मिनटों में ढेर लगा देती है |
इतनी मेहनत ! इतना परिश्रम ...!! परन्तु फिर भी बेचारी पैरों में पड़ी रहती है| इतना अन्याय...!!! परन्तु..परन्तु ...यह क्या ? विचार आया कि यही ठीक है ; वास्तव में जो किसी में फूट डालते हैं वे इसी योग्य हैं | किसी ने कहा भी है---
"कैंची टुकड़े कर देती है यह चरणों की अधिकारी "
विचार फिर पलटा | एका एक ध्यान चला गया 'पंडित बाल कृष्ण भट्ट ' की ओर | आपने भी तो अपने ' चंद्रोदय ' नामक आलेख में दूज के उगते हुए 'बाल-चन्द्र' को विरहिणीयों के प्राण कतरनें की कैंची कहा है | सोचा ...वाहरी अक्ल ! आपने तो कैंचियों की गणना में मुफ्त में ही एक कैंची और शामिल कर दी | किन्तु ...यह तो केवल अधूरी उत्प्रेक्षा है , वास्तविकता नहीं , यह कोई कैंची-वैन्ची नहीं है | परन्तु दिमाग ने फिर जोर मारा ..वाह! वास्तविकता नहीं तो क्या ! कल्पना का चमत्कार तो है ही , साहित्यकार की अपनी सृष्टि तो है ही | इसे भी क्यों न कैंचियों की श्रेणियों में गिन लिया जाय |
खैर, अपने मन को किसी तरह समझा-बुझा कर शांत किया | परन्तु विचार ने फिर पलटा खाया ....; रेल में टिकट चेकर साहब की कैंचियाँ भी तो अपनी लंबी चोंच के समान जिह्वा से बेचारे यात्रियों की धक्का-मुक्की सहकर , पैसे देकर ली हुई टिकटों को किट-किट करके बेकार कर देती हैं |
पान वालों की कैंचियाँ भी बड़ी उस्ताद होती हैं ;बड़ी शीघ्रता से पानों के सड़े-गले टुकड़ों को काट - छांट कर , बढ़िया ..महोबा, लंका, बनारसी पान बनाकर पान के शौकीनों को ठगती हैं | पान के शौकीनों का नाम आते ही मैं चौंक पड़ा | मैंने कहा ,बस..बस ..बस , अब बंद करो, तुम तो अपने आप को ही बदनाम करने लगे | भला यह भी कोई बात है , मैंने तो पान की कैंचियों की बात कही थी इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि तुम अपने आप को बदनाम करो, हाँ यह अवश्य है कि वास्तव मैं ये कैंचियाँ लोगों की हजामत अच्छी तरह से बनाती हैं, और बड़े-बड़े लोग भी पांच रु. का पान लेकर , चबाते हुए ..पिच-पिच थूकते हुए , बड़े आराम से घर चले जाते हैं | और यदि कोई जरूरत का मारा गरीब, भिखारी अभी इनसे एक रुपये के लिए हाथ पसारे तो कहेंगे--दूर हो बदमाश ...कामचोर ...| देखा.... जमाने की चाल को |
हजामत का नाम आते ही चला गया मेरा ध्यान, नाई की कैंचियों की ओर | ये कैंचियाँ पान वाली कैंचियों से भी अधिक उत्साही व उस्ताद होती हैं | नाई के हाथ के इशारे के साथ खोपड़ी पर ऐसे नृत्य करती हैं, मानो महाराणा प्रताप यवनों की सेना से बीच तलवारों के हाथ दिखा रहे हों|
अथवा खोपड़ी पर नृत्य करती हुई ये, ऐसी मालूम होती हैं मानों ओलम्पिक प्रतियोगिता में एक बहादुर घोड़ा अन्य सभी को कुचल कर अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख होरहा हो | और जब ये अपने प्रिय-पात्र कंघे के साथ नृत्य करती हैं तो प्रेम में इतनी आत्म विभोर हो जाती हैं कि बालों को काट छांट कर ऐसा सुन्दर कर देती हैं और हम उनकी तारीफ़ करते हुए , इनाम देकर तारीफ़ को द्विगुणित करते हुए ' ढाई घड़ी के अंधे ' होकर चल देते हैं | यदि कोई उस समय आपसे पूछे -कहाँ से आ रहे हैं ? तो कहेंगे , जी हजामत बनवा कर | लो साहब , नाई से हजामत बनवाने पर इतनी खुशी ; परन्तु अभी कोई "सभ्य गण " आपकी "हजामत बना दे " तो आप उसे ...चार सौ बीस, चोर , लफंगा की उपाधि दे डालेंगे और पुरस्कार स्वरुप एक सौ एक गालियाँ भी | करें क्या ज़माना ही ऐसा है |
विचार मार्ग में एक बार फिर मोड़ आया| सोचने लगा.... माली की कैंचियाँ भी तो पार्कों को ,पौधों को, फेंसिंग को काट-छांट कर एक सा करती हैं | पर ये किसी की हजामत नहीं बनाती अपितु मानव के दृष्टि लाभ हित पार्कों को सुन्दर-सुन्दर आकार-प्रकार देती हैं | अचानक ही एक धाँसू विचार और अवतीर्ण हुआ .....किसी की जुबान भी तो कैंची ............|
क्यों आज कालिज नहीं जाना है क्या ?.... इन शब्दों ने अचानक मेरी विचार श्रृंखला को तोड़ दिया | चौंक कर देखा तो वह हमारा लंगोटिया यार श्री कान्त था | और हम अपने विचारों को ताक पर रखकर उसके साथ कालिज चल दिए |
---- लेखक –डॉ. श्याम गुप्त , सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ -२२६०१२.
COMMENTS