आखिर गिरते पड़ते जीवन का साठवां वसन्त या पतझड़ आ पहुँचा। सोचता था सन्दर्भ, प्रसंगवश या अभिनन्दन करा लूं। मगर नहीं हो पाया। वर्षों पहले धर्...
आखिर गिरते पड़ते जीवन का साठवां वसन्त या पतझड़ आ पहुँचा। सोचता था सन्दर्भ, प्रसंगवश या अभिनन्दन करा लूं। मगर नहीं हो पाया। वर्षों पहले धर्मयुग ने पण्डित गोपाल प्रसाद व्यास से पूछा था षष्टिपूर्ति पर कैसा लगता है। मस्तमौला व्यास जी ने लिखा था-साठ के है, नहीं ठाट से है। साठ के ठाट तो नहीं है मगर साठा सो पाठा है और विरोधियों की नजर में साठे बुद्धि नाटे भी हूँ। आज पिछली पगडन्डी पर नजर घुमाकर देखता हूँ तो लगता है बहुत कुछ पीछे छूट गया है। लेकिन अभी बहुत कुछ साथ है। चल रहा है। देश को करवटें बदलते देखा। समाज को विघटित होते देखा और न जाने क्या क्या देखना बाकी है। समाज, साहित्य सब कुछ बहुत जल्दी बदल गया है। बचपन के दिन, जवानी के दिन सद्यः बुढापे के दिन। लेखन-नौकरी के प्रारम्भिक दिन। माता- पिता के साथ बिताये खूबसूरत दिन। काम काज की तलाश में भटकते दिन। छोटों की जिम्मेदारियों के दिन। बड़ों से डरने, घबराने, दबने के दिन। दादा के सानिध्य में बिताये-सीख के दिन। अब पेाती-नाती के साथ खेलने के दिन। पहली नौकरी वेयर हाउस में की। इसके पहले तार घर में बैठ कर तार लिखे। तहसील में नकलें की। साहित्य मण्डल, जिला पुस्तकालय को चाट डाला। पढ़ाई- लिखाई में सामान्य था, डाक्टरी में प्रयास किये। असफल रहा।
इन्जीनियरिंग में भी असफल रहा। जैसे तैसे रसायनविज्ञान में घुस गया। कालेज में अस्थायी अध्यापक बना। मई में निकाल दिया गया। एक छोटे से कस्बे में स्कूली शिक्षा में लग गया। मन नहीं लगा। छोड़ दिया। फिर एक कॉलेज में घुस गया। फिर निकाल दिया गया। मगर मुझे फिर अवसर मिला और एक स्थायी प्राध्यापकी मिल गई। काफी समय था। अखबार, पत्रिकाएं खरीदने और संग्रह करने का शौक लग गया। आज भी धर्मयुग, सारिका, गंगा, इण्डिया टुडे के साहित्य अंक भरे पड़े है। पढ़ते पढ़ते ही लगा कि ऐसी रचनाएँ तो मैं भी लिख सकता हूँ। प्रयास किया और एक लघु व्यंग्य धर्मयुग में भेज दिया। स्वीकृति आई, मैं महीनों उस स्वीकृति पत्र को जेब में डाल कर तना तना घूमता रहा। जब रचना छपकर आई, प्रति आई तो मैंने कई धर्मयुग खरीदे और देखा कि क्या सभी प्रतियों में मैं छपा हूँ। अब मैं स्वयं को भावी साहित्यकार समझने लग गया था। जब पारिश्रमिक का धनादेश आया तो धनादेश के नीचे वाले हिस्से को भी मैंने लम्बे समय तक संभाल कर रखा।
एक रचना सारिका में छप गई। बस हो गई बल्ले बल्ले। मौंजा ही मौंजा। उन दिनों धर्मयुग जिस लेखक का फोटो छाप देता था, वो स्वतः ही बड़ा लेखक मान लिया जाता था। मेरा भी फोटो छप गया था। इधर शादी हो गई। घर-गृहस्थी के नून-तेल- लकड़ी के साथ साथ साहित्य का चस्का। मगर घरवाली ने सब कुछ संभाल कर मुझे खुली छूट दे दी। मैं पढ़ता लिखता और रचना भेजता। कभी कभी पांच पांच सम्पादकों से लौटी रचना छठें, सातवें, सम्पादक ने छाप दी। धीरे धीरे कारवां बढ़ता गया। उदयपुर से जयपुर आ गया। बड़ा शहर बड़े लोग मगर छोटे दिल। जल्दी से किसी को कोई पहचानता नहीं। अजनबी शहर में घुसपैठ करता रहा। पत्र-पत्रिकाओं के दफतरों में, आकाशवाणी भवन में दूरदर्शन में सब जगह जाना और प्रयास करना। सफलता कम सही मगर मिली। मैंने प्रकाशकों के भी चक्कर लगाने शुरु कर दिये। पहली पुस्तक स्वयं छाप ली। नहीं बिकी एक सेवा संस्थान को भेंट कर दी। दूसरी तीसरी पुस्तक प्रकाशकों ने छाप दी। बिक गई, पहली बार एक मुश्त रायल्टी के चेक का स्वाद चखा। घरवाले भी प्रसन्न हुए कि कविता कहानी से भी रुपये बन सकते हैं। लेकिन इन रुपयों से साग सब्जी ही आ सकती थी। गृहस्थी के लिए नौकरी जरुरी थी। धीरे धीरे और पुस्तकें आई छोटी मोटी चालीस पुस्तकें, और एक हजार लेख लिख डाले मैंने। फीचर एजेन्सीज को दिये। अकादमी ने भी पुरस्कृत किया।
राजस्थान साहित्य अकादमी की कमेटियों में 6 वर्षों तक घुसा रहा। हिन्दी समिति में भी घुस गया।
लेकिन सब कुछ अच्छा ही अच्छा किसके भाग्य में होता है और साहित्य में तो कभी नहीं। कुछ आलोचकों ने तरह तरह के आरोप लगाये। बस लिखता रहा। छपता रहा। आलोचना अपनी मौत मर गई। साहित्य के फलक पर उन दिनों शरद जोशी, परसाईं का बोलबाला था। मैंने उन्हें बार बार पढ़ा और बार बार लिखा, काटा फिर लिखा। अस्वीकृत होने पर सुधार किये। फिर छपाये। एक ही रचना को बार बार छपाया ताकि अधिकतम पाठकों तक पहुंचा जा सके। लोग फिर नाराज हुए, मगर मैं जमा रहा। मैंने मन का ही किया, किसी के दबाव में कभी नहीं लिखा। 'जर्नल आफ आयुर्वेद', 'आयुर्वेद बुलेटिन' का प्रबन्ध सम्पादक रहा। नई गुदगुदी का मानद सहायक सम्पादक रहा। प्रेस नोट लिखे, छपाये बीच बीच में घर गृहस्थी के कारण लम्बे अवकाश काल आये। बच्चे बड़े हुए। पढ़े। अच्छी जगह लग गये। फिर साहित्य में ध्यान लगाया, इस बार एक उपन्यास अंग्रेजी में लिख मारा और लन्दन की एक संस्था ने पीडीएफ बुक के रुप में छाप दिया। काफी हिटस प्राप्त हुए। इन्टरनेट क्या आया। सब कुछ बदलने लग गया। मैंने इन्टरनेट पर भी ढ़ेरों सामग्री दी, वहाँ सब कुछ निशुल्क है अतः खूब आसानी से पुस्तकें ई बुक के रुप में प्रसारित-प्रकाशित हो गई। ढ़ेरों पाठक। ढ़ेरों हिटस। ढ़ेरों पृष्ठ और सब कुछ निशुल्क। कापी राइट को भूल कर लेखकों को कापी-लेफ्ट के क्षेत्र में ध्यान देना चाहिये। पूर्ण कालिक लेखक बनने की बड़ी तमन्ना थी, मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति हेतु आवेदन किया, सरकार ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति दे दी, मैंने ले ली ओर फिर कागज-कलम और कम्प्यूटर की दुनिया में जम गया रम गया।
राजनीति के फटे में भी टांग फंसाने की कोशिश की मगर अभी उलझी हुई है। शायद बिल्ली के भाग से छींका टूटे।
लेखन लेखक के लिए जीवन मरण की तरह है। लेखन सृजनरत रहे यही आकांक्षा आवश्यक है। लिखना एक नशे की तरह है। लेखन प्रक्रिया बहुत आसान है जब भी लगता है कि व्यंग्य लिखने के लिए सामग्री है लिख डालता हॅू। दूसरे दिन पढ़ता हूँ और टाइप कराकर साफ सुथरा करके भेज देता हॅू। नहीं छपे तो दूसरे ,तीसरे, चौथे अखबार को भेजने में भी कोताही नहीं करता। राजनीति पर कम लिखा है। क्योंकि राजनीति पर ढेरों लोग ढेरों रचनाएँ लिख रहे है। मगर भारतीय मध्यमवर्गीय नागरिक की समस्याओं पर काफी लिखा है। किस तरह पेट काटकर वो टेक्स देता है, या मकान या साधन एकत्रित करता है, ये मेरे लेखन की अनिवार्यता है। बहुत सारे स्तम्भ लिखे। कुछ निशुल्क कुछ सपारिश्रमिक।
मैं नहीं भी लिखता तो कोई फर्क नहीं पड़ता मगर रहीम के शब्दों में लिखता हॅू गो कि कतरा ए खून अपने जिस्म से अलग करता हूँ। या धूमिल के शब्दों को थोड़ा परिवर्तित करें तो साहित्य से रोटी तो तुम भी नहीं पाओगे, मगर साहित्य पढोगे तो रोटी सलीके से खाओगे।
व्यंग्य लेखन की रिस्क से कौन अपरिचित है। सबके साथ कुछ न कुछ होता ही है। मगर दिल है कि मानता ही नहीं। दिल की सुनों क्योंकि वही सही होता है, दिमाग तो जोड़ बाकी की गणित समझता है मगर लेखक का मन जो कहे सो सही। कई बार निर्णयों के कारण या लेखन के कारण लम्बी आलोचनाएं सुननी पड़ती है, मगर अन्त भला तो सब भला।
पिछले कुछ वर्षों में समाज राजनीति ,साहित्य, पत्रकारिता, कला, संस्कृति के क्षेत्र में बड़ी तेजी से बदलाव आये हैं। इन बदलावों से लेखक-कलाकार भी प्रभावित हुआ है। उनके मन में भी तेजी से लाभ कमाने की इच्छा जाग्रत हुई है। पेडन्यूज, एडवेटोरिएल, तथा रिटर्न गिफ्ट के इस युग में सम्पादक नामक संस्था की बड़ी किरकिरी हुई है। ऐसी स्थिति में कविता-कहानी, व्यंग्य के सहारे आगे पीछे की बात करना मुश्किल हो गया है। बड़ी पत्रिकाऐं बन्द हो गई है, लघुपत्रिकाएँ खेमेबाजी में व्यस्त है और अल्प जीवी होती है, एक विज्ञापन की राशि के सामने लेख और लेखक बहुत बौने हो गये है। सब प्रेक्टिकल होना चाहते है, व्यावहारिकता की मदद से स्वयं की मार्केटिंग कर सकना ही सफलता है, मगर राजस्थान का लेखक स्वयं की मार्केटिंग में भी कमजोर है। खुद को बेचने की कला में व्ययवहारिकता का छौंक लगाना जरुरी हो गया है।
पच्चीस से चालीस साल के लेखक कवि नहीं है, नये भी नहीं आ रहे है, कुछ में लेखकीय प्रतिभा है तो वो पत्रकारिता और विशेषकर टीवी पत्रकारिता की और जा रहे है। लेखकीय प्रतिबद्वता या खेमेबाजी से दूर रह कर लिखना ज्यादा जरुरी है। पहले दर्जे के अनुवाद या समीक्षा कर्म के बजाय दूसरे दर्जे के मौलिक लेखन को बेहतर मानता हूं। समय के साथ साथ बहुत कुछ पीछे छूट गया है। कई मित्र-परिचित रिश्तेदार लेखक-पत्रकार चले गये है। सब जायेंगे। लेकिन जो है उन्हें सहेजने की प्रवृत्ति को बनाये रखना है। उपलब्धियां कम सही मगर है यही क्या कम है और किसका गम है। अभी नया लिखने की इच्छा शक्ति बरकरार है। जो लोग ज्यादा सफल हुए उनका भाग्य या परिवार का लाभ उन्हें मिला क्योंकि भाग्य के बिना और समय से पहले कुछ नहीं मिलता।
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रचनायात्रा -
यशवन्त कोठारी : जीवनवृत्त
नाम : यशवन्त कोठारी
जन्म : 3 मई, 1950, नाथद्वारा, राजस्थान
शिक्षा : एम.एस.सी. -रसायन विज्ञान 'राजस्थान विश्व विद्यालय' प्रथम श्रेणी - 1971 जी.आर.ई., टोफेल 1976, आयुर्वेदरत्न
प्रकाशन : लगभग 1000 लेख, निबन्ध, कहानियाँ, आवरण कथाएँ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, नवज्योती, राष्ट्रदूत साप्ताहिक, अमर उजाला, नई दुनिया, स्वतंत्र भारत, मिलाप, ट्रिव्यून, मधुमती, स्वागत आदि में प्रकाशित/ आकाशवाणी / दूरदर्शन ...इन्टरनेट से प्रसारित ।
प्रकाशित पुस्तकें
1 - कुर्सी सूत्र (व्यंग्य-संकलन) श्री नाथजी प्रकाशन, जयपुर 1980
2 - पदार्थ विज्ञान परिचय (आयुर्वेद) पब्लिकेशन स्कीम, जयपुर 1980
3 - रसशास्त्र परिचय (आयुर्वेद) पब्लिकेशन स्कीम, जयपुर 1980
4 - ए टेक्सूट बुक आफ रसशास्त्र (मलयालम भाषा) केरल सरकार कार्यशाला 1981
5 - हिन्दी की आखिरी किताब (व्यंग्य-संकलन) -पंचशील प्रकाशन, जयपुर 1981
6 - यश का शिकंजा (व्यंग्य-संकलन) -प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 1984
7 - अकाल और भेड़िये (व्यंग्य-संकलन) -श्रीनाथ जी प्रकाशन, जयपुर 1990
8 - नेहरू जी की कहानी (बाल-साहित्य) -श्रीनाथ जी प्रकाशन, जयपुर 1990
9 - नेहरू के विनोद (बाल-साहित्य) -श्रीनाथ जी प्रकाशन, जयपुर 1990
10 - राजधानी और राजनीति (व्यंग्य-संकलन) - श्रीनाथ जी प्रकाशन, जयपुर 1990
11 - मास्टर का मकान (व्यंग्य-संकलन) - रचना प्रकाशन, जयपुर 1996
12 - अमंगल में भी मंगल (बाल-साहित्य) - प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 1996
13 - साँप हमारे मित्र (विज्ञान) प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 1996
14 - भारत में स्वास्थ्य पत्रकारिता चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली 1999
15 - सवेरे का सूरज (उपन्यास) पिंक सिटी प्रकाशन, जयपुर 1999
16 - दफ्तर में लंच - (व्यंग्य) हिन्दी बुक सेंटर, दिल्ली 2000
17 - खान-पान (स्वास्थ्य) - सुबोध बुक्स, दिल्ली 2001
18 - ज्ञान-विज्ञान (बाल-साहित्य) संजीव प्रकाशन, दिल्ली 2001
19 - महराणा प्रताप (जीवनी) पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2001
20 - प्रेरक प्रसंग (बाल-साहित्य) अविराम प्रकाशन, दिल्ली 2001
21 - 'ठ' से ठहाका (बाल-साहित्य) पिंकसिटी प्रकाशन, दिल्ली 2001
22 - आग की कहानी (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
23 - प्रकाश की कहानी (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
24 - हमारे जानवर (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
25 - प्राचीन हस्तशिल्प (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
26 - हमारी खेल परम्परा (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
27 - रेड क्रास की कहानी (बाल-साहित्य) - पिंकसिटी प्रकाशन, जयपुर 2004
28 - कब्ज से कैसे बचें (स्वास्थ्य) - सुबोध बुक्स, दिल्ली 2006
29 - नर्शो से कैसे बचें (बाल-साहित्य) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली 2006
30 - मैं तो चला इक्कीसवीं सदी में - (व्यंग्य) सार्थक प्रकाशन, दिल्ली 2006
31 - फीचर आलेख संग्रह -सार्थक प्रकाशन, दिल्ली 2006
32 - नोटम नमामी (व्यंगय-संकलन) - प्रभात प्रकाशन 2008
33 - स्त्रीत्व का सवाल - (प्रेस)
34 - हमारी संस्कृति - वागंमय प्रकाशन-2009
35 -तीन लघु उपन्यास-सन्जय प्रकाशन-2009
36 - बाल हास्य -एकांकी - (प्रेस)
37-असत्यम अशिवम असुन्दरम-व्यगं उपन्यास-रचना प्रकाशन 2009
38 Introduction to Ayurveda- Chaukhamba Sansskrit Pratishthan, Delhi 1999
39 Angles and Triangles (Novel) –abook2read.com-london
40 Cultural Heritage of Shree Nathdwara –abook2read.com-london
सेमिनार - कांफ्रेस :- देश-विदेश में दस राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों में आमंत्रित / भाग लिया राजस्थान साहित्य अकादमी की समितियों के सदस्य 1991-93, 1995-97 , ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की हिन्दी समिति के सदस्य-2010-13
पुरस्कार सम्मान-
1. 'मास्टर का मकान' शीर्षक पुस्तक पर राजस्थान साहित्य अकादमी का 11,000 रू. का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार ।
2. साक्षरता पुरस्कार 1996
3. बीस से अधिक पी.एच.डी. /डी. लिट् शोध प्रबन्धों में विवरण -पुस्तकों की समीक्षा आदि सम्मिलित ।
4. प्रेमचन्द पुरस्कार, दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार, लक्ष्मी नारायण दुबे पुरस्कार आदि ।
राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर में रसायन विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर एवं जर्नल ऑफ आयुर्वेद तथा आयुर्वेद बुलेटिन के प्रबंध सम्पादक. पद से सेवा-निवृत्त।
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यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2, फोन- 2670596 ईमेल - ykkothari3@yahoo.com
Bahut achha sansmaran hai..wo log khushqismat hote hain,jinke paas mudke yaad karne jaisa ateet hota hai..
जवाब देंहटाएंआदरणीय
जवाब देंहटाएंश्री यशवन्त कोठारीजी को षष्टिपूर्ति की हार्दिक बधाइयां और सुख और स्वास्थ्य और ऊर्जा से भरपूर आगामी साठ वर्षों के लिए शुभकामनाएं !
मगलकामनाएं !!
संस्मरण में भी मुखर व्यंग्य गुदगुदाता रहा ।
आपकी लेखनी को नमन !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
" शस्वरं " http://shabdswarrang.blogspot.com
आप शतक लगायें, यही प्रार्थना है..
जवाब देंहटाएंषष्टिपूर्ति की हार्दिक बधाई । आपकी गाथा बहुत प्रेरणास्पद व रोचक है।
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