मूँछों का साइड इफेक्ट कौन जानता था कि एक दिन ऐसा आ जायेगा, जब पुरुषों व महिलाओं को एक दूसरे की जरूरत धीरे-धीरे कम होती जाएगी तथा वे एक दू...
मूँछों का साइड इफेक्ट
कौन जानता था कि एक दिन ऐसा आ जायेगा, जब पुरुषों व महिलाओं को एक दूसरे की जरूरत धीरे-धीरे कम होती जाएगी तथा वे एक दूसरे के वेशभूषा के दीवाने हो जायेंगे । सब समय का फेर है। समय बदलने से राजा रंक व रंक राजा बन जाता है। मित्र शत्रु तथा शत्रु मित्र बन जाते हैं । कभी मूँछ भी मित्र थी, आन-बान, शान और पुरुषत्व की प्रतीक थी। आज वही मूँछ बहुतों के लिए शत्रु से कम नहीं है। जैसे-जैसे मानव ने विकास किया। उसे प्रकृति की नाइंसाफी भी समझ में आने लगी। जब तक अनजान था, प्रकृति के गोद में खेलता था। आज प्रकृति से खेलने लगा है। इधर विज्ञान ने प्रगति की, उचित शिक्षा-दीक्षा मिली जिससे जानकारी बढ़ी और अच्छे-बुरे का उचित ज्ञान हुआ। लाभ-हानि के गणित समझ में आने लगे। किस चीज का कैसा साइड इफेक्ट होता है। इस पर काफी शोध हुआ।
एलोपैथिक दवाइयों के चलन में आने से लोग जान पाए कि इनका भी साइड इफेक्ट होता है। एक रोग की दवा करो तो दूसरा पनपने लगता है। इधर कुछ ज्ञानियों ने उड़ाया कि होमियोपैथिक दवाओं का साइड इफ़ेक्ट नहीं होता। होता क्यों नहीं, यह हो सकता है कि कम होता हो। लेकिन उसके डॉक्टर से पूछोगे तो वह थोड़े बतायेगा। उसे तो दोनों तरफ से खतरा है। यदि कह दे कि साइड इफ़ेक्ट होता है, तो कुछ मरीज यह सोचकर कट सकते हैं कि होता है तो एलोपैथी में क्या बुरा है ? आराम भी जल्दी मिलता है। अगर कह दे नहीं होता है। तब भी मरीजों के कट जाने का खतरा रहता है कि कहीं मरीज अपने आप ही खोज बीन कर दवा ना शुरू कर दे और मेरी फीस भी मुझे ना मिले। आज तो आयुर्वेदिक दवाओं का भी साइड इफेक्ट है। बिषैले रसायनों व तरह-तरह के प्रदूषणों के मार से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियाँ भला कैसे अछूती रह सकती हैं ? सच तो यह है कि आज हर चीज का कोई ना कोई साइड इफ़ेक्ट होता है ।
खैर धीरे-धीरे महिलाओं को पुरुषों के तथा पुरुषों को महिलाओं की वेशभूषा में दिन-दिन दिलचस्पी बढती गयी। आज के समय में ‘जिसे जो भाए वो वह कर जाये’ का चलन है। सबकी पसंद अलग-अलग होती ही है। इसलिए महिलाओं में किसी ने पुरुषों के कच्छा-बनियान वाला पोशाक अपनाया तो किसी को छोटे-छोटे बालों ने लुभाया। किसी ने मांग से सिन्दूर को तो किसी ने हाथ की चूड़ी को अलविदा कहा। किसी ने दुपट्टे से तौबा की, किसी ने जींस-पैंट और टीशर्ट को गले लगाया। इससे बहुत लोगों को महिलाओं में पुरुष का भ्रम भी होने लगा। मेरे एक साथी हैं जो साथ में पैदल चलें तो कभी कंधे पर हाँथ रख देंगे तो कभी पकड़ कर झूल जायेंगे। मैंने कई बार उन्हें समझाया कि अब इस आदत को अलविदा कहो नहीं तो कभी ना कभी पिट भी सकते हो। लेकिन आदत कहाँ आसानी से छूटती है ? अभी हाल में ये पिटने से बचे। हुआ यूं कि एक युवती को युवक समझकर साथ चलते हुए बतला रहे थे। काफी देर तक पता ही नहीं लग सका कि यह युवती है। एक बार हाथ धर भी दिए। शायद पकड़ कर लचक भी गये होते कि इतने में गले से नीचे ध्यान चला गया तो किसी तरह से भगवान को धन्यवाद देते हुए भाग निकले ।
महिलाएं सदा घरों में कैद भले ही क्यों ना रही हों। लेकिन उनमें हिम्मत थी। सो वे खुलकर सामने आ गयीं। पुरुष तो सदा महिलाओं के पीछे ही भागे हैं। चूंकि महिलाएं पुरुषों के पीछे चलती थी। इसलिए ही पुरुष आगे दिखाई देते थे। लेकिन महिलाओं जितनी हिम्मत नहीं थी। इसलिए लाज, संकोच और जो कुछ महिलाओं ने छोड़ा, ये अपनाते गये। साथ ही भय व लज्जा बश नाटकों और नौटंकियों में रात-विरात अपना भाग आजमाना शुरू किया। कभी रानी, महारानी तो कभी दासी आदि भी बने। ठुमुके भी लगाये यानि नाच-गाना भी किए। फलस्वरूप नोट बरसे , सीटी बजी। सब कुछ ठीक-ठाक गया। तजुर्बा अच्छा रहा। लोग प्रभावित हुए रात-विरात सभी अपने-अपने घरों में गाहे-वगाहे ट्राई करना आरम्भ कर दिए। फिर भी दिन में मूँछ छीलकर, चोटी लगाकर, रंग-विरंगे कपड़े पहनकर निकलने की हिम्मत नहीं कर पाए ।
जब मूँछें थीं तो लोग डरते थे कि कहीं मूँछें नीची ना हो जाएँ। इसलिए ठंढा पानी लगाकर ऊपर करते रहते थे। ऐंठते थे। कहीं मूँछें ना उखड़ जाएँ, इस बात की सबको लगातार चिंता बनी रहती थी । सब बहुत ही फूँक-फूँककर कदम रखते थे। मूँछों से एक समस्या थोड़े थी। इन झंझटों से छुटकारा कैसे मिलें ? यही सोचना था। ना मूँछें हों और ना ही ये झमेला। वैसे यह नई पीढ़ी का सोचना था। पुरानी पीढ़ी के लोगों को तो मूँछें जान सी प्यारी थीं। कहते हैं कि क्रांति एक दिन में नहीं आती है। वर्षों संघर्ष करना पड़ता है। लोग तरकीबें खोजते रहे। कामयाबी थोड़ी देर में मिली भले लेकिन मिली तो। लगे रहने से कामयाबी तो मिल ही जाती है। इसलिए ही लोग कहीं ना कहीं लगे ही रहते हैं। कुछ लोग भले ही कहते रहें कि ‘ लगे हैं ’। पहले लोग अक्सर कहते थे कि वे उनके मूँछों के बाल हैं। अब जब मूँछें ही नहीं हैं, तो मूँछों के बाल भी नहीं हैं। सब अपना-अपनी है।
अब प्रश्न यह है कि सबसे पहले खुलेआम मूँछों का कत्ल किसने किया ? किसने यह हिम्मत दिखाई ? इस मुद्दे पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोगों का कहना है कि अमूँछवादियों का दल दिनों-दिन सक्रिय होता जा रहा था। लेकिन केवल चोरी-छुपे रणनीति ही बनाई जाती रही। किसी ने भी बड़े-बूढ़ों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। अंततः सभी ने यह फैसला किया कि मूँछनुचवा की अफवाह फैला दो। उसके बाद अपनी-अपनी मूँछें नोच कर ठाठ से घूमो। लोगों ने यही किया, खुद अपने ही हाथों अपनी ही मूँछें नोच डाले। कुछ लोगों ने अपनी मूँछें खुद उखाड़ फेंकी तो कितनों ने दूसरों से उखड़वा डाला। इतना ही नहीं लोग दूसरों की मूँछें भी उखाड़ने में जरा सा भी नहीं सकुचाए। निर्दयता पूर्वक मूंछों के मर्दन का तांडव चलता रहा। और आज अमूंछ्वादी सारे विश्व में फैले हुए हैं। इसी तरह आज जब कभी हल्ला हो जाता है कि मुंह नोचवा का प्रकोप बढ़ रहा है । तो कुछ लोग कुछ लोगों के मुंह ही नोच लेते हैं। जिसका नुचता है तथा अन्य लोग यही समझते हैं कि मुंह नोचवा नोच ले गया। इसी तरह हथकटवा की अफवाह उड़ते ही, दो-चार लोग निकल ही पड़ते हैं। जिसका मर्जी हुआ उसी का हाथ काट लिए। देर सिर्फ उड़ाने की है। लोग तो तैयार बैठे रहते हैं ।
कुछ विद्वानों का कहना है कि एक महात्मा जी का प्रवचन चल रहा था। श्रोताओं में एक नवयुवक भी था। वह दिन में तीन बार शेव करता था। यानी सुबह-दोपहर और शाम। जैसे किसी डॉक्टर की बताई कोई दवा ले रहा हो, हर रोज दिन में तीन बार । उसको रेजर और ब्लेड साथ में ही हमेशा रखना पड़ता था। पता नहीं कहीं समय से घर ना लौट सके और कोई नाई भी समय से ना मिल सके। तब क्या करता ? महात्माजी मोक्ष्वादी और अमोक्ष्वादी पर प्रकाश डाल रहे थे। उनका कहना था कि मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना ही है। नवयुवक ने प्रश्न किया की भगवान ने पुरुषों के साथ ऐसा क्यों किया ? एक तो दाढ़ी रुपी जंगल दूसरे मोछ रुपी झाड़ी क्यों दिया ? वहीं लडकियों को दोनों से मुक्ति दे दी। ऊपर से आप हमें एक और मोछ लेने के लिए उकसा रहे हैं। आखिर क्यों लें मोछ हम ? हम लोग तो पहले ही एक मोछ पाकर परेशान हैं। शाश्त्रार्थ बढ़ता गया। अंत में लड़का बोला नहीं चाहिये, नहीं चाहिये मोछ हमें बिल्कुल नहीं चाहिये। और जेब से रेजर एवं ब्लेड निकालकर वहीं सबके सामने मोछ छीलकर रख दिया और बोला मुझे यह भी नहीं चाहिये और चलता बना ।
बिभिन्न मत हैं, कहाँ तक बताएं ? कुछ लोगों का कहना है कि भगवान को बिना मूँछ, जानकर कुछ लोगों को इर्ष्या हुयी। सभी लोग देखते ही हैं कि हर जगह भगवान बिना मूँछ के ही दिखाए जाते हैं। इससे कुछ लोगों को लगा कि बिना मूँछ के रहना तो अपने हाथ में ही है। क्यों ना हम भी भगवान जैसे बनें ? इनका भी खासा बड़ा दल था। इस दल में अधिकांश लोग ऐसे थे, जिनमें भगवान बनने या भगवान जैसे बनने की ही ललक थी। अगर भगवान बनना इतना ही आसान हो तो फिर देर किस बात की।
कुछ विद्वानों का ये भी मत है कि अमूंछ्वादी किसी ना किसी तरीके से मूँछों को उखाड़ फेकना चाहते थे। लेकिन कोई भी उपाय सूझ नहीं रहा था। कुछ समय बाद बड़े-बूढों को उन्हीं की गोली से मारने की एक तरकीब सूझ गयी। बड़े-बूढों को मूँछें बहुत प्यारी थीं, लेकिन कोई बात पड़ जाने पर अक्सर कहते थे कि अगर ऐसा ना हुआ अथवा अगर ऐसा नहीं कर पाये तो मूँछें छिला दूंगा। यह उनके बात का प्रमाण होता था कि वे जी-जान से वह कार्य करके दिखा देंगे। और वे कर भी डालते थे। क्योंकि उन्हें अपनी मूँछें बचानी होती थी। मूँछों का मान -सम्मान उनका मान-सम्मान था। कुछ भी हो जाये लेकिन मूँछें उखड़ना तो दूर नीची भी ना होने पायें। कुछ लोग तो मूँछें बचाने के लिए जान भी दे सकते थे। लेकिन अमूंछ्वादियों का मकसद तो सिर्फ किसी ना किसी बहाने मूँछों को उखाड़ फेकना ही था। अतः वे बात-बात में शर्त लगाने लगे कि अगर ऐसा ना कर सके अथवा ऐसा ना हुआ तो अपनी मूँछें उखड़वा देंगे। कुछ तो कहते कि गधे के पेशाब से छिला देंगे। अब जिसका मकसद सिर्फ मूँछों से निजात पाना ही हो, वह चाहे गधे के पेशाब से छिलाये चाहे पानी लगाके और चाहे वैसे ही उखाड़ फेके, क्या फर्क पड़ता है ?
कुछ भी हुआ हो, धीरे-धीरे लोग अमोक्ष्वादी के साथ-साथ अमूंछ्वादी भी हो गये। लेकिन आरम्भ में बड़े-बूढ़ों के लिए यह असहनीय था। बाद में वो भी इसके आदी हो गये। बहुत से लोग जो जवानी में कभी पानी लगा-लगाकर मूँछे एंठते थे, वे भी बुढ़ापे में छिला बैठे। एक बाबाजी अस्सी के उम्र में पहली बार मूँछ छिलाकर निकले। किसी ने पूछा अरे आप भी छिला दिए। बोले सुना है मूँछों का भी साइड इफेक्ट होता है। छीलने के बाद पता चला कि मूँछों के रहने से बुढ़ापा भी जल्दी आ जाता है। आज की पीढ़ी सच में बहुत चालक है। हम पहले जो भी खाते-पीते थे, आधा पेट में जाता था और आधा मूँछों में ही टंगा रहता था। भूंखे रहने से लाख गुना बेहतर है कि मूँछों का ही कत्ल कर दिया जाय। खैर पहले जमाने में मूँछों का छिलाना बाप की मौत के बाद ही होता था। लेकिन आज लडकों को बाप की ज्यादा जरूरत नहीं रह गयी है। अगर बाप के पास कुछ दाम है तो उसका काम है। लेकिन बाप से कोई विशेष काम नहीं रहता।
कोई भी वाद हो या वादी उसे लोग आसानी से कबूल नहीं करते। शुरू में अमूंछवादियों को भी काफी कुछ सहना पड़ा। जब शर्मा जी का लड़का पहली बार मूँछ छिलाकर आया। तो वे लड़ाई-झगड़े पर भी उतारू हो गये। वे पहले से ही मानते थे कि उनका लड़का नालायक है। शर्मा जी के अनुसार उस दिन उसने इसी का एक बड़ा सबूत पेश कर दिया था। शर्मा जी बोले कि गीध के मनाने से जानवर नहीं मरते। तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे ऐसा करने से मैं जल्दी मर जाऊँगा ? ऐसा हरगिज नहीं होगा। उन्हें इस बात की शंका थी कि लड़का उनके जल्दी मरने के लिए ऐसा कर रहा है।
लड़का बोला कि आप तो लकीर के फकीर ही रहेंगे। आपको पता नहीं है कि आज नेता से अभिनेता तक, लेखक से लेखपाल तक, ज्ञानी, विज्ञानी से लेकर अज्ञानी तक, डॉक्टर से लेकर मास्टर तक , गरीब-अमीर, मूर्ख-विद्वान और संत-महंत तक सभी बिना मूँछ के हो गये हैं। तो अगर मैंने भी छिलवा दिया तो कौन सा पाप कर डाला ? आगे बोला कि इसका बहुत बड़ा साइड इफेक्ट होता है। युवाओं को तो इससे बहुत बड़ा खतरा है। यह साबित भी हो चुका है। तितलियाँ कभी भी काटों व झाड़-झंखाड़ की ओर भूल कर भी नहीं देखतीं। एक दिन उसे समझाने की गरज से बोले कि क्या मैं तुम्हारा बाप नहीं हूँ ? लड़का आधुनिक ज्ञानी था। शंका युग भी चल ही रहा है। वह बोला मुझे क्या पता ? शर्मा जी दो दिन तक ना बोले ना खाना खाए। बाद में वह रोज दिन में दो बार यानी सुबह और शाम, उन्हीं के सामने छीलने लगा।
मूँछें गयीं और कुछ पुरुष लम्बी-लम्बी चोटी भी रखने लगे। जब ये रंगीन कपड़े पहनकर निकल पड़ते हैं, तो पीछे चोटी ऊपर से बिना मूँछ देख कुछ मनचले सीटी बजा बैठते हैं। पता चलने पर गाली देते हैं और पछताते हैं। खैर जो शुरुआत में रात-विरात होता था। वही आज दिन में होने लगा । धीरे-धीरे ही सही लेकिन लोग अंततः हिम्मत जुटा ही लिए । बूढ़े छीलकर दर्पण देखते हैं, तो पूरा-पूरा जवान भले ही ना दिखें। लेकिन आत्मसंतुष्टि तो मिलती ही है। कहते हैं कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अतः फील गुड के लिए ही सही बूढ़ों को भी छीलना ही चाहिये। नवयुवकों को भी फील गुड होता ही है। रियल गुड ना ही सही। फिफ्टी-फिफ्टी का चलन है। इतना ही सही। कुछ लोग तो सर्जरी कराके भी औरत बनने का सपना पूरा कर ही रहे हैं। आगे और प्रगति होगी।
इतनी प्रगति के बाद भी चैन नहीं है। किसी का भी मूल मकसद पूरा नहीं हो पाता। जितने चैन के साथ घूमते हैं, उतनी ही बेचैनी बढ़ रही है। युवक-युवतियों के पास जींस-पैंट, टीशर्ट से लेकर पर्स तक में चैन ही चैन है। फिर भी बेचैनी। कारण। चलो देखते हैं हमारे तिवारी जी क्या बताते हैं ? लगता है असली इलाज इन्ही के पास है। तिवारी जी कहते हैं कि प्रकृति ने तो अपने तरफ से संतुलन के नाम पर फूल के साथ काँटा जोड़ ही रखा है। लेकन अब हम लोग भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने के लिए कमर कस चुके हैं। प्रकृति ने हमें नहीं बख्शा, हम उसे नहीं बख्शेंगे। इधर प्रकृति का कमाल देखिये। पुरुष चाहे जितनी गहराई से चाहे जितनी बार छीलें रोज घास तैयार हो जाती है। महिलाओं व पुरुषों के मदद के लिए भी कुछ लोग आगे आये। जहाँ-तहाँ ब्यूटी-पार्लर खुले। लेकिन ब्यूटी-पार्लर से बाहर निकलकर चेहरे अथवा शरीर के अन्य हिस्सों पर हाँथ फेरते ही नया जमाव पकड़ में आ ही जाता है। पार्लर वालों की भी चाँदी है। प्रकृति को हराना मुश्किल है। इधर कुछ महिलाओं के मूँछे और दाढ़ी भी निकलना शुरू हो गयी है। वहीं अब कुछ पुरुषों के मूँछें व दाढ़ी या तो आती ही नहीं अथवा बहुत ही कम आने लगी है। विज्ञानी हार्मोनल चेंज बताकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। लेकिन माजरा कुछ और ही लगता है ।
तिवारी जी कहते हैं कि मूँछों को निकालकर चेहरे को तो गुलाब के फूल की तरह मुलायम और चिकना बना लेते हैं। लेकिन शेष शरीर पर ध्यान ही नहीं देते। इनका मानना है कि संगमरमरी चेहरे के साथ संगमरमरी देह भी तो होनी चाहिये। मूँछों से ज्यादा रोंओं का साइड इफेक्ट है। लेकिन लोग अज्ञानता बश नजरंदाज किए रहते हैं। अतः तिवारी जी दो-तीन ब्लेड साथ लेकर बैठते हैं। दो-तीन घंटे की कड़ी मेहनत के बाद सिर से पांव तक पूरा शरीर संगमरमर की तरह निखर आता है। तिवारी जी अमोक्ष्वादी, अमूंछ्वादी तथा साथ ही अरोंआँवादी भी हैं एवं अपने पंथ के प्रचार में दिन-रात लगे रहते हैं ।
आशा है कि तिवारी जी शीघ्र ही अनेक लोगों के रोल मोडल होंगे एवं लोग उनके निम्न सन्देश पर यथासंभव अमल करेंगे -
मूँछों से अधिक रोंओं का साइड इफेक्ट होता है ।
रोंओं को भी छीलकर देखो कितना मजा होता है ।।
मूँछों को छीले मगर क्यों अद्भुत मजा खोता है ?
जो उखड़वा ही डाले लगाये रंगीन गोता है ।।
इससे देखने वालों को भी मनमोद होता है ।
जागो ! जागो ! मेंरे बीर क्यों बेखबर सोता है ?
चैन से घूमे मगर क्यों बेचैन होता है ?
कभी समझा नहीं तुमने ! रोंओं का भी साइड इफेक्ट होता है ।।
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एस के पाण्डेय,
समशापुर (उ. प्र.)
URL: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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Ha,ha,ha!
जवाब देंहटाएंAisehi kaka Hatharsi ki ek rachana yaad aa gayi:"lingbhed"....kakajiki moochh,chachiji ka jooda..matlab moonchh jo paurush ki nishani samajhi jati hai, uska ling 'stree' ling hai...
बहुत मज़ेदार !
जवाब देंहटाएंYE TO HAMESHA NIRWIWAD RHA HAI AUR RAHEGA KI MARD AUR KHAS KAR ASAL MARD KI PAHCHAN AAJ BHI MUCHHON SE HI HOTI HAI .
जवाब देंहटाएंअच्छा व मजेदार लिखा है ...
जवाब देंहटाएंअहा ! यह बाक़ई मूंछ की बात है.
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