गरीब के लाचार व मासूम शिशु उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केन्द्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। मध्यप्र...
गरीब के लाचार व मासूम शिशु उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केन्द्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। मध्यप्रदेश में कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों के चलते पिछले चार सालों में 1,22,400 बच्चे अकाल मौत मारे गए। ये मौतें प्रदेश के 50 में से 48 जिलों में दर्ज की गईं। यही नहीं जिला चिकित्सालय परिसर में यूनिसेफ की मदद से सतना में केवल बाल चिकित्सा सुविधा में लगे ‘सीक न्यूबोर्न केयर यूनिट' में चार माह के भीतर 117 नवजात शिशु मौत की नींद सो गए। सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए सर्वेक्षणों से साबित होता है कि कुपोषण और शिशु मृत्यु दर के सिलसिले में पूरे मध्यप्रदेश में हालात बद्तर तो हैं ही स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभागों के शिशु मृत्युदर व कुपोषण संबंधी आंकड़ों में जबरदस्त विरोधाभास भी है। इससे जाहिर होता है नौकरशाही के लिए शिशुओं की मौतें किसी संवेदना की बजाय आंकड़ों की बाजीगरी हैं। इन हालातों को झुठलाने की बजाय यह गनीमत है कि प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री ने स्वीकारा है कि मप्र में शिशु मृत्यु दर भारत में सबसे ज्यादा है।
राष्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मप्र में 60 फीसदी बच्चे कुपोषण की मार झेल रहे हैं। इस कारण 2008-09 में एक हजार जीवित पैदा हुए शिशुओं में से 70 से 72 शिशु काल के गाल में समाते चले गए। कुपोषण की सहायक बीमारियों मलेरिया, निमोनिया, डायरिया, मीजल्स के दुष्प्रभाव से 7811 बच्चे मरे। सरकारी आकंड़ों के ही मुताबिक 2005-06 में 30,563, 2006-07 में 32,188 2007-08 में 30,397 और 2008-09 में 29,274 बच्चे मारे गए। ये हालात तब हैं जब प्रदेश में ब्रिटेन के अंतराष्अीय विकास विभाग के सहयोग से उसी की इच्छानुसार दो सौ पोषण-पुनर्वास केन्द्र चल रहे हैं। इन केन्द्रों की संख्या 2010-11 में 25 प्रतिशत और बढ़ा दी जाएगी। इसके अलावा नवजात शिशुओं को कुपोषण मुक्ति के लिहाज से प्रदेश के छह जिला चिकित्सालयों में यूनिसेफ की मदद से एसएनसीयू चलाए जा रहे हैं। जल्दी ही यह सुविधा प्रदेश के आधे जिलों में विस्तार पाने जा रही है। कुपोषण और कुपोषणजन्य बीमारियों से सबसे बदहाल जिलों में सतना, छतरपुर, शिवपुरी, गुना, शहडोल, सीधी, बैतूल, बालाघाट,रीवा और सागर जिले हैं। आदिवासी बहुल जिले सिंगरौली और अलीराजपुर तो अभी इस फेहरिश्त में शमिल ही नहीं किए गए। दुर्गम इलाके होने के कारण इन जिलों में सर्वे कार्य फिलहाल अधूरा है। इन जिलों के दूरदराज के ग्रामों में आसान पहुंच न होने के कारण तय है कि इनमें कुपोषण के आंकड़े और भयावह होंगे।
कुपोषण की सबसे अधिक मार मौजूदा हालात में सतना जिले के स्वास्थ्य लाभ से वंचित बच्चों को झेलनी पड़ रही है। यहां 2005-06 से 2008-09 के भीतर चार सालों में 7257 बच्चे असमय काल-कवलित हुए। इसके बाद छतरपुर में इसी दौरान 6542 बालाघाट में 5666, शिवपुरी में 5866, शहडोल में 4313, सीघी में 4215, सागर में 4137, गुना में 4116, रीवा में 5049 और बैतूल जिले में 3823 बच्चों की असामयिक मौतें हुईं। ये मौतें सरकारी लापरवाही का विद्रूप, अमानवीय और असंवेदनशील रवैया प्रकट करने वाली हैं।
बच्चों के कुपोषण से मुक्ति के उपायों से महिला एवं बाल विकास विभाग भी जुड़ा है, जिसका दावा है कि कुपोषित 12 लाख बच्चों के लिए 200 पोषण-पुनर्वास केन्द्र चलाए जा रहे हैं। इसके बावजूद इसी विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में 1360 बच्चों की मौतें हुईं। ये बालक एक साल की आयु समूह के थे। जबकि इसी दौरान एक से पांच साल की उम्र के 490 बच्चे मरे। इसके विपरीत कुपोषित बच्चों के उपचार की जवाबदेही स्वास्थ्य विभाग की है। इस विभाग के आंकड़े बोलते हैं कि इसी अवधि में 13,500 बच्चों की मौतें हुईं। 2009 में अक्तूबर, नंवबर - दिसंबर माहों में मौत का यह आंकड़ा बढ़कर अचानक 23,467 पर जा पहंचा। आंकड़ों में यह विरोधाभास चूक है अथवा कंप्युटर से तैयार किए जाने वाले आंकड़ों की बाजीगरी, स्वतंत्र जांच का विषय है।
गैर सरकारी संगठन ‘भोजन का अधिकार अभियान और ' स्पंदन के सर्वे भी जाहिर करते हैं कि कुपोषण के मामलों में मध्यप्रदेश के चार जिले खण्डवा, सतना, श्योपुर और शिवपुरी अग्रणी हैं। कुपोषित बच्चों की ज्यादा संख्या उन जिलों में हैं जो आदिवासी बहुल हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव और बड़े बांध व अभयारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंश झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख जैसी लाचारी के चलते इनकी आबादी लगातार घट रही है। जल, जंगल व जमीन से बेदखल कर दिए जाने के कारण इन आदिवासी परिवारों में कुपोषित बच्चों का प्रतिशत बढ़कर 60 तक पहुंच गया है।
मध्यप्रदेश में ही नहीं पूरे भारत के गरीब तबकों में कुपोषण की महामारी लाइलाज के हालात बनाती जा रही हैं। लेकिन देश को महाशक्ति बनाने के भ्रमजाल और सकल घरेलू उत्पाद की दर बढ़ाने के फेर में देश के नीति-निंयताओं को कुपोषण की वह भूख दिखाई नहीं दे रही जिसने 2006 में इक्कीस लाख बच्चे लील लिए थे। यूनिसेफ की यह तसबीर हमारे विकास के फीलगुड पर कालिख पोतने वाली है। बच्चों में भूख से उपजा कुपोषण रक्तल्पता, हैजा, वायलर, निमोनिया, डायरिया व लीवर को कमजोर कर देने का कारक बनता है। किसी भी प्रदेश का प्रशासन व जवाबदेह नेतृत्व कुपोषण से होने वाली मौतों को कुपोषण का कारण न मानते हुए उपरोक्त बीमारियों की जड़ में तमाम अंधविश्वास और परिजनों की लापरवाही मानकर चलता है। जबकि चिकित्सा विज्ञान अपने प्रयोगों से हासिल निष्कर्षों से यह सिद्ध कर चुका है कि यदि कुपोषित बच्चों में ये बीमारियां घर कर जाती हैं तो उनके मरने की संख्या आठ गुना बढ़ जाती है।
महाशक्ति बनने क होड़ में अमीरी और गरीबी के बीच इतना फासला हो गया है कि गरीब चिकित्सा सुविधा, साफ पानी, पौष्टिक आहार और आजीविका के जरुरी संसाधनों से लगातार वंचित होता चला जा रहा है। इसीलिए स्वास्थ्य लाभ हासिल करने जैसे मामलों में आर्थिक रुप से कमजोर लोगों की परेशानियां बढ़ गई हैं। जीडीपी दर के उपर जाते ग्राफ ने दलित, वंचित और आदिवासियों को हाशिये पर खड़ा करके भगवान भरोसे छोड़ दिया है। अब तो हालात इतने बद्तर होते दिखाई देने लगे हैं कि मध्य व उच्च वर्गों के हितों को साधने के फेर में राजनीतिक दलों के अजेण्डे से गरीब और उसके स्वास्थ्य व शिक्षा संबंधी हित ठोस व कारगर नीतियों से जैसे बाहर कर देने की मुहिम ही चला दी गई है। नतीजतन जो जानकारियां रिस-रिसकर बाहर आ रही हैं उनसे पता चलता है कि मध्यप्रदेश सरकार ने महिला बाल विकास विभाग द्वारा चलाए जा रहे आंगनबाड़ी केन्द्रों के कार्यकर्ताओं को हिदायत दी है कि वे कुपोषित बच्चों को सूचीबद्ध ही न करें। अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने वाली इसी सोच के चलते महिला बाल विकास व स्वास्थ्य विभाग के कुपोषण संबंधी आंकड़ों में जबरदस्त विरोधाभास दिखाई दे रहा है।
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जीवन-परिचय
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नाम ः प्रमोद भार्गव
पिता का नाम ः स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव
जन्म दिनांक ः 15 अगस्त 1956
जन्म स्थान ः ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म. प्र.)
शिक्षा ः स्नात्कोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रूचियां ः लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में
विशेष रूचि।
प्रकाशन ः प्यास भर पानी (उपन्यास), मुक्त होती
औरत, पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं
लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक
(बाल उपन्यास) सोन चिरैया सफेद शेर,
चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के
विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है
पानी(जल समस्या) इन पुस्तकों के अलावा
हंस, समकालीन भारतीय साहित्य,वर्तमान
साहित्य, प्रेरणा, संवेद, सेतु, कथा परिकथा,
धर्मयुग, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स,
हिन्दुस्तान राष्ट्रीय सहारा, नईदुनियां,
दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण,
लोकमत समाचार, राजस्थान पत्रिका,
नवज्योति,पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून,
रांची एक्सप्रेस, नवभारत, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता, सुमन
सौरभ, मेरी सहेली, मनोरमा, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, आदि पत्र पत्रिकाओं में
अनेक लेख एवं कहानियां प्रकाशित।
सम्मान ः 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008
का बाल साहित्य के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश
जायसवाल सम्मान। 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ.
धर्मवीर भारती सम्मान।
3. भवभूति शोध संस्थान डबरा
(ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'।
4. म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकरी
संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिंधु सम्मान'।
5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन,
इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं
पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं
के लिए सम्मानित।
6. भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में
सम्मानित।
अनुभव ः जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक
शिवपुरी जिला संवाददाता।
नईदुनियां ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख,
शिवपुरी।
उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक
के पद पर।
संप्रति ः जिला संवाददाता आज तक (टी.वी.
समाचार चैनल)
संपादक -शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी
दूरभाष ः 07492-232008, 232007 मोबा.
09425488224
संपर्क ः शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.)
ई-मेल % PramodSVP997@rediffmail.com
मुझे आपके इस आलेख में इस बिन्दु पर आपत्ति है:-”नतीजतन जो जानकारियां रिस-रिसकर बाहर आ रही हैं उनसे पता चलता है कि मध्यप्रदेश सरकार ने महिला बाल विकास विभाग द्वारा चलाए जा रहे आंगनबाड़ी केन्द्रों के कार्यकर्ताओं को हिदायत दी है कि वे कुपोषित बच्चों को सूचीबद्ध ही न करें।” ’
जवाब देंहटाएंआपका यह कथन न केवल मिथ्या है वरन काल्पनिक ही है. राज्य सरकार ने न तो ऐसा कहा और न ही ऐसा किया जाना सम्भव है.क्योंकि इस विभाग के द्वारा कराये जाने वाले नियमित सर्वे के अलावा भी कई एजेंसीयां सर्वे किया करतीं हैं जिसमे राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे भी शामिल है . इतना ही नहीं विभाग द्वारा माह नवम्बर से विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्मित वृद्धि-निगरानी चार्ट का प्रयोग आरम्भ कर दिया है. स्वास्थ्य विभाग के पास सर्वे का कौन सा टूल है इस तथ्य तभी कुछ कहा जाए जब उस विभाग से नियमित सर्वे का कोई आधिकारिक प्रमाण प्राप्त हो महोदय क्या आपने इस बात की तस्दीक की है...? शायद नहीं रहा २०० पोषण पुनर्वास केन्द्रों का सवाल उन तक ब्च्चों को भेजने का काम आज भी आगनवाडी केन्द्रों के ज़रिये हो रहा है ये अलग बात है कि यूनिसेफ़ ने अपने निर्देशों के ज़रिये गम्भीर कुपोषित बच्चों को भर्ती करने के मापदण्ड में कुछ तब्दीलियां ज़रूर की हैं इससे बच्चों का एन आर सी में प्रवेश प्रभावित हो रहा है जिसे विभाग प्रमुख एवम मंत्री महोदया को अवगत करा दिया है. वैसे ये सवाल सीधे यूनिसेफ़ से हों तो बेहतर है