दोहरी चाल चल रहे गंगाराम गड़रिया को पूरी रात ठीक से नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा। वह बा...
दोहरी चाल चल रहे गंगाराम गड़रिया को पूरी रात ठीक से नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा। वह बार-बार सूख-सूख जाते गले को लोटा भर पानी गढ़ककर तर करने का उपक्रम करता रहा। पर बार-बार मुताश आ जाने से उसे मोरी पर जाकर मूतना पड़ता और उसे फिर से शरीर में जल अभाव का अनुभव होने लगता। इस बार-बार की हलचल से उसकी घरवाली की भी शायद नींद उचट गई। वह कुनमुनाई, ''मुनिया के बापू तुम अब डकैतों से रिश्ता खतम कर ये मुखबिरी का काम छोड़ो। जा काम में दोई तरफ से जान पर आफत बनी रहत है। इतै...., डकैत दयाराम-रामबाबू की दबिश....., तो उतै पुलिस की........। जा में ऐसी खास आमदनी भी नहीं कि मोड़ा-मोड़ी ठीक से पल जायें।''
-''मुनिया की अम्मा तेरी बात मेरे दिमाग में बैठत तो है, पर मोऐ ऐसो भान होत है कि गिरोह को जब सफाया होए, तबहीं जाके मुक्ति मिलै। ला रसद की गठरी लाके मोए दे और किबाड़ खोल, भुनसारो होवे से पेलेईं गांव की सीमा पार कर जंगल की डगर पकड़ूं।''
गंगाराम की घरवाली ने बिछौना छोड़ा। चौके में जाकर उसने बच्चों के सो जाने के बाद डकैतों के लिये रात में ही देशी घी में बनाकर रखी पूड़ी-सब्जी की गठरी उठाई और द्वार पर आ गई। उसने बेंढ़ा और सांकल खोल एक किबाड़ इतने धीरे से खोला कि आस-पड़ोस के किसी के कान में कोई ऐरो सुनाई न दे जाये।
गंगाराम ने किबाड़ों के बीच से गर्दन निकालकर धुप्प अंधेरे में झांका तो उसके शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। चारों ओर व्याप्त सन्नाटा उसे बेहद भयावह सा लगा। दरवाजा पार कर गलियारे में जब वह आया तो उसे लगा जैसे वह मौत की अंधी सुरंग में प्रवेश कर रहा है। उसने पत्नी के हाथ से पोटली लेते हुये उसका हाथ कसकर पकड़ लिया, जैसे इंगित कर रहा हो कि अब मैं जीवित न लौटूं तो मेरे बच्चों का भविष्य तेरे ही हाथों में है। और फिर वह दबे पांव चल दिया। वह जानता है कि मुनिया की अम्मा को इस क्षण अनायास ही किसी अज्ञात गर्भ को फोड़ उठे बवंडर से उपजीं शंका-कुशंकाओं ने जकड़ लिया होगा। लेकिन वह कब लाचार मुनिया की अम्मा के कहे को तवज्जो देता है। वह तो शुरू से ही डकैतों की मुखबिरी करने की खिलाफत करती रही है। वही है जो समाज में अपना रौब-रूतबा बनाए रखने के लिये खूंखार गिरोह से मिला रहकर अपनी जान को हथेली पर रखे फिरता है। इस मदद के बदले में उसे कुछ धन जरूर हासिल हो जाता है। पर वह यह भी जानता है कि यदि दयाराम-रामबाबू को नेकई संदेह हो गया कि वह पुलिस से भी मिलकर दोहरी चाल चल रहा है तो दूसरे मुखबिरों की तरह उसकी सड़ी-गली लाश वीरान जंगल के किसी गड्डे में मिलेगी।
लंबे-लंबे डगों से कोस नापता हुआ गंगाराम पहली ही बरसात में हरिया चुके खोड़न के जंगल की परिधि में पहुंच गया था। गर्मी को राहत देने वाली सुबह की ठंडी हवा की पुरवाई चलने के बावजूद गंगाराम की रूह कांप रही है। उसे अनुभव हो रहा है जैसे सावन-भादो का महीना न होकर अगहन माघ की हडि्डयों के जोड़ कंप-कंपा देने वाली ठण्ड हो। वह फिर सोच में पड़ गया कि उसने भी कहां, यह बेवजह मुखबिर बन जाने की जोखिम उठा ली। एक तरफ गिरो तो कुआं और दूसरी तरफ गिरो तो खाई । पुलिस और डकैत ! ये दो पाटन के बीच पिसते-पिसते मुंएं पूरे छह साल गुजर गए, पर चैन कहां ? बीते दो साल पहले जर-जमीन और बंदूक के लालच में वह पुलिस का भी मुखबिर बन बैठा। इन दो सालों में उसने दो मर्तबा पुलिस को दयाराम-रामबाबू गड़रिया गिरोह की उपस्थिति की पिनपॉइन्ट खबर भी पुलिस को दीं, पर पुलिस कहां गिरोह का बाल भी बांका कर पाई ? हर बार नया बहाना गढ़कर पुलिस ने सीधी मुठभेड़ टाल दी। इस बार उसने भी पक्का मन बना लिया है कि अब की बार पुलिस ने मुठभेड़ टाली तो वह फिर पुलिस के लिये मुखबिरी कभी नहीं करेगा। दरोगा आलोक भदौरिया से बेहिचक कह देगा, ' कोई और मुखबिर ढूंड़ों साहब और हमारे प्राण बख्शो !' मुखबिरी के दौरान जान हलक पर आ अटक जाती है, सांस फूल जाती है और जुबान से बोल तक नहीं फूटते। गड़रिया को कहीं जरा भी भनक लग गई कि गंगाराम कहीं दाल में कुछ काला कर रहा है तो उसकी इहलीला खत्म ! अब तक कितने ही मुखबिरों का काम तमाम कर चुके हैं दयाराम-रामबाबु बंधू।
सूरज देवता प्रगट हो गये थे। जंगली पेड़ों की डाल-पत्तों से टकराकर सूर्य-किरणें आंख मिचौनी खेल रही थीं, पक्षियों की चह-चहाहट भी शुरू हो गई थी। दूर दराज से बरसाती झोरों के बहने की स्वर लहरियां भी वातावरण में गुंजायमान थी। प्रकृति के इस मुधुर परिवेश में गंगाराम को जंगल एक ठहरा हुआ सन्नाटा अनुभव हो रहा था। सर्प चाल सी लहर आई पगडंडी पर गंगाराम लंबे-लंबे डग भर रहा था। उसे जब हलक सूखा सा जान पड़ता तो वह छैले के पत्ते तोड़कर चबाते हुए आगे बढ़ता रहता। उसे जौराई टीले के नीचे बहने वाले झोरे के पास पीपल के पेड़ तक शीघ्र पहुंचना था। यहीं से दयाराम-रामबाबू गड़रिया गिरोह के गुजरने की खबर उसके पास गिरोह द्वारा पहुंचाई गई थी। उसे हुक्म था कि वह भोजन लेकर झोरे पर हाजिर हो।
समय करीब आ रहा था। कई मर्तबा वह इस दुर्गम सफर पर निकला है, पर वक्त की पाबंदी की शर्त से बंधा होने के कारण उसे आज का सफर बेहद लंबा महसूस हो रहा था। उसे एक तरफ तो गिरोह को रसद पहुंचानी थी, दूसरे पुलिस को भी सीधी मुठभेड़ के लिये उसने खबर दे दी थी। पुलिस ने अब तक चुपचाप मोर्चा संभाल लिया होगा, ऐसी पिन पाइंट खबर बमुश्किल ही मिलती है। खबर देते वक्त भदौरिया दरोगा ने उसकी पीठ थपथपाते हुये उसके हाथ पर दस हजार की गड्डी रख दी थी। उस गड्डी के स्पर्श से उसके सारे शरीर में अनायास ही गर्माहट पैदा हो गई थी। इसके पहले गंगाराम की हौसला-अफजाही के लिये भदौरिया दरोगा ने उसे मढ़ीखेड़ा डेम के रेस्ट हाउस में पुलिस कप्तान से भी मिलवाया था, तब कप्तान साहब ने उसे हिदायत दी थी कि मुठभेड़ स्थल ऐसा चुनना जो पुलिस के लिये पूरी तरह सुरक्षित व मुफीद हो और गिरोह को पुलिस होने की भनक तक न लगे। कप्तान साहब ने इसी वक्त पुलिस को यह भी सख्त हिदायत दी थी कि गिरोह के गुजरने के दौरान पहली गोली कप्तान साहब ही चलाऐंगे इसके इसके पहले मोर्चे पर तैनात कोई भी सिपाही गोली नहीं दागेगा। गैंग भले ही गुजर जाये। गंगाराम को तो बस ऊंची जगह पर खड़े होकर गिरोह द्वारा झोरा पार करते समय बीड़ी सुलगाकर मोर्चे पर तैनात पुलिस बल को इशारा भर देना था कि गिरोह गुजर रहा है। बस फिर क्या था पुलिस की बंदूकें आग उगलेंगी और दयाराम-रामबाबू को राम-नाम सत्य !
लंबे कदम नापता हुआ गंगाराम निर्धारित स्थल पर पहुंच ही गया। उसने पूरे जतन से सहेज कर लाई रसद की पोटली झोरे के किनारे एक समतल चट्टान पर रख दी। फिर वह पीपल के नीचे आकर खड़ा हो गया, उसने लिये यह जगह कोई नई नहीं थी, खोड़न से लेकर डोंगरी झोंपड़ी बम्हारी और रीछ-खो के जंगल का चप्पा-चप्पा उसका देखा-परखा था। वह यह देखकर आश्वस्त हो गया कि पुलिस ने उसके आने के पहले ही दो तरफ से मोर्चा संभाल लिया है। उसने कंधे पर टंगी स्वाफी से मूंह पर छलछला आये पसीने को पोंछते हुये सोचा, 'ईश्वर की कृपा हुई तो आज गड़रिया गिरोह का सफाया तय है। व्यूह रचना तो कुछ ऐसी ही रची जा चुकी है कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। बस गैंग दिये वचन अनुसार इस मौके से गुजर भर जाये।'
दम साधे गंगाराम पीपल के सहारे खड़ा है। भय संशय और बैचेनी उसे भीतर ही भीतर इस आशंका से खाये जा रही है कि कहीं ऐन वक्त पर कोई गड़बड़ी न हो जाए ? कहीं उसी के जान के लाले न पड़ जायें ? एक बार तो उसे लगा कि उसकी ऊर्जा कहीं शरीर में ही वाष्पीकृत होकर रोम-रोम से निकलती जा रही है, और वह जैसे गश खाकर गिरने ही वाला है। कुछ पलों के लिये उसने पीपल के तने का सहारा लेकर खुद को भगवान भरोसे निढाल-सा छोड़ दिया, और गहरी सांस लेकर आह भरी, 'हे रामजी अब एक तेरा ही आसरा है.....।'
गंगाराम ने निस्तब्ध वातावरण में साहस जुटाया। दूसरे क्षण उसे लगा कि जैसे कुछ समय के लिये लकवाग्रस्त हो गये उसके शरीर में प्राणवायु संचारित हो रही हो...। उसने पेड़ का सहारा छोड़ा। कुर्ते की जेब से बिंडल माचिस निकाले और बीड़ी सुलगाने के लिये जैसे ही तत्पर हुआ कि उसकी चेतना ने स्मृति लौटाई, 'बीड़ी तो गैंग के सामने से पास होने पर ही सुलगानी है।' उसे भयमुक्त होने की अनुभूति हुई और उसने बीड़ी पीने का मंसूबा फिलहाल टाल दिया।
गंगाराम ने अपनी समस्त इंद्रियां सर्तक करने की कोशिश की..., बीयावान जंगल में झाड़ झंखाड़ों के खड़कने के साथ दांई ओर से पग ध्वनियों की आहट सुनाई दी। गैंग के आगमन का संकेत भी इसी दिशा से था। चौकन्ना होकर गंगाराम ने आहट की ओर दृष्टि उठाई...। पहले वीरा धोबी.....फिर सिरनाम आदिवासी.....फिर गिरोह का मुखिया, शातिर दिमाग, मास्टर माइंड....., पांच लाख का इनामी सरगना दयाराम और फिर दयाराम का मां जाया छोटा भाई रामबाबू गड़रिया....! और फिर अन्य गिरोह के सदस्य डकैत।
गंगाराम ने पीपल के नीचे खड़े रहते हुये ही हाथ जोड़कर डकैतों का अभिवादन किया और फिर हिम्मत जुटाकर अपने कर्तव्य के पालनात बीड़ी सुलगाने के लिये तीली माचिस के रोगन से रगड़ी..., फुर्र सी हुई और तीली बुझ गई.....। एकाएक उसकी देह थराथरा उठी। उसने भरपूर संयम व विवेक की चेतना से मन-मस्तिष्क पर जोर डालकर अनायास ही थरथरा उठी देह को नियंत्रित करने की पुरजोर कोशिश करते हुये फिर से नई तीली को रोबन पर रगड़ा.....। चिंगारी लौ में तब्दील हुई। तुरंत उसने हवा के प्रवाह से लौ को बचाने के लिये तीली हथेलियों की ओट में ले ली और फिर बमुश्किल बीड़ी सुलगाने में कामयाब हुआ।
वीरा धोबी रसद की पोटली उठाकर झोरा पार कर गया था और फिर एक-एक कर सब झोरा पार कर करधही के जंगली पेड़ों से आक्षादित पहाड़ की सुरक्षित ओट में होते चले गये। गंगाराम बीड़ी के लंबे-लंबे सूटे लेकर धुंआं उड़ेलकर पुलिस को गैंग के गुजरने का संकेत देता रहा, पर पुलिस की बंदूक की नालों ने धुंआ नहीं उड़ेला। आशंकित गंगाराम किंकर्तव्यविमूढ़ ! यह क्या इतना सुनहरा अवसर पुलिस ने गवां दिया.....? पुलिस की गोली चलती को एक-एक कर गिरोह के पूरे सदस्य धराशायी होकर धरती पर पड़े होते। पर पुलिस ने गोली क्यों नहीं चलाई ? क्या पुलिस डकैतों से सीधी मुठभेड़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई....?
बदहवास गंगाराम उस टीले के पीछे पहुंचा जहां पर पुलिस तैनात थी, पुलिस कप्तान भारी भरकम गोल पत्थर के पीछे ए.के. 47 थामे उकडूँ बैठे मोर्चा संभाले हुये थे, परन्तु उनके चेहरे पर पसीने की उभरी लकीरों के साथ उससे आंखें न मिला पाने की लाचारी स्पष्ट झलक रही थी। उम्र के थपेड़े खाये गंगाराम ने कप्तान साहब के चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ा, 'शायद कप्तान साहब का ईमान पहले से ही डोला हुआ था, फिर चाहे वह जान के लालच में डोला हो अथवा पकड़ों को छोड़ने वाली फिरौती की धनराशि के कमीशन में !'
पुलिस और डकैत, दो पाटों के दर्मियान खड़ा गंगाराम सोच रहा था कि सीधी मुठभेड़ को अंजाम नहीं देने के यथार्थ का अर्थ जैसे उसके समक्ष विश्वास की अंधेरी सुरंग फाड़कर उजागर हो रहा है। गंगाराम अंजाने खौफ से बेख्याली के आलम की गिरफ्त में आने लगा। बेसुधी की हालत में उसे अहसास हुआ कि वह किसी भयंकर अजगर की गुंजलक में जकड़ता जा रहा है।
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प्रमोद भार्गव
शाही निवास, शंकर कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) 473-551
फोन- 07492-232007, 233882
मो. 94254-88224
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जीवन-परिचय
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नाम ः प्रमोद भार्गव
पिता का नाम ः स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव
जन्म दिनांक ः 15 अगस्त 1956
जन्म स्थान ः ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म. प्र.)
शिक्षा ः स्नात्कोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रूचियां ः लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में
विशेष रूचि।
प्रकाशन ः प्यास भर पानी (उपन्यास), मुक्त होती
औरत, पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं
लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक
(बाल उपन्यास) सोन चिरैया सफेद शेर,
चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के
विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है
पानी(जल समस्या) इन पुस्तकों के अलावा
हंस, समकालीन भारतीय साहित्य,वर्तमान
साहित्य, प्रेरणा, संवेद, सेतु, कथा परिकथा,
धर्मयुग, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स,
हिन्दुस्तान राष्ट्रीय सहारा, नईदुनियां,
दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण,
लोकमत समाचार, राजस्थान पत्रिका,
नवज्योति,पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून,
रांची एक्सप्रेस, नवभारत, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता, सुमन
सौरभ, मेरी सहेली, मनोरमा, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, आदि पत्र पत्रिकाओं में
अनेक लेख एवं कहानियां प्रकाशित।
सम्मान ः 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008
का बाल साहित्य के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश
जायसवाल सम्मान। 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ.
धर्मवीर भारती सम्मान।
3. भवभूति शोध संस्थान डबरा
(ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'।
4. म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकरी
संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिंधु सम्मान'।
5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन,
इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं
पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं
के लिए सम्मानित।
6. भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में
सम्मानित।
अनुभव ः जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक
शिवपुरी जिला संवाददाता।
नईदुनियां ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख,
शिवपुरी।
उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक
के पद पर।
संप्रति ः जिला संवाददाता आज तक (टी.वी.
समाचार चैनल)
संपादक -शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी
दूरभाष ः 07492-232008, 232007 मोबा.
09425488224
संपर्क ः शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.)
ई-मेल % PramodSVP997@rediffmail.com
This story is reality of the people living "called" below poovert line. They daily walk on the edge of the swords. Sailing on two boats knowingly that death is waiting for them with opened mouth. The fact is "they died every day". harendra singh rawat
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