अजीब पशोपेश में है गंगा बटाईदार ! गंगा बटाईदार कुछ बरस पहले तक अटलपुर का सबसे नामी-गिरामी बटाईदार हुआ करता था। हांलाकि उसका पूरा नाम गंग...
अजीब पशोपेश में है गंगा बटाईदार !
गंगा बटाईदार कुछ बरस पहले तक अटलपुर का सबसे नामी-गिरामी बटाईदार हुआ करता था। हांलाकि उसका पूरा नाम गंगाराम था, पर बटाईदारी खानदानी पेशा होने के कारण अनायास ही उसका नामाकरण हो गया गंगा बटाईदार ! यही नाम जनप्रिय होकर चलन में आ गया। गंगा से पहले उसके पिता रामलाल राव साहब के यहां लगभग बेगारी की विना पर बटाईदारी किया करते थे। बारह जिले और चौबीस परगने वाले ग्वालियर राज्य में 'राव' एक पदवी हुआ करती थी, जो राजघरानों के हित साधकों अथवा राजद्रोह की सार्म्थ्य रखने वाले ताकतवरों को दी जाया करती थी। पदवी से अलंकृत हो जाने के बाद कथित राव साहब शरणागत की अवस्था में राजा के जयकारे लगाने और उनके सूत्र वाहक की भूमिका में आ जाया करते थे। आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रयास व दबाव की सह-रणनीति के चलते राजशाही मध्यभारत में मर्ज हुई और फिर मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने के साथ ही राजतांत्रिक व्यवस्थाओं पर जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं भारी पड़ती चली गईं। ऊंची कद-काठी के स्वाफाधारी राव साहब की ठसक अपनी हवेली की चाहरदीवारी के बीच जमीन-जायदाद को बचाए रखने का उपक्रम जारी रखते हुए कुंद होकर भारी अवसाद के प्रभाव में कुंठित होने लगी।
इस बदलते परिवेश का एक सुनहरे अवसर की तरह सबसे ज्यादा लाभ गांव के ब्राह्मण और कायस्थों के युवाओं ने उठाया। इन जातियों के किशोर होते छोकरों ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए गांव में अध्ययन-अध्यापन के साधन न होने के बावजूद ईषागढ़ से प्राइमरी और पोहरी के आदर्श विद्यालय से अंग्रेजी मिडिल की सर्टिफिकेट परीक्षाऐं उत्तीर्ण कीं। तब पूरे नरवर जिले में (शिवपुरी आजादी के बाद जिला बना) अकेले पोहरी में ही माध्यमिक विद्यालय हुआ करता था। वहां के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गोपाल कृष्ण पुराणिक ने ग्वालियर राज्य के अधीन पोहरी के कमोवेश उदार प्रवृत्ति व स्वराजवादी जमींदार मालोजी नरसिंहराव शितोले को विश्वास में लेकर पोहरी और भटनावर में बमुश्किल पाठशालाओं की नींव रखी। वरना, पढ़-लिखकर आम आदमी जागरूक न हो जाए इसलिए नए विद्यालय खोले जाने पर राजशाही में प्रतिबंध था।
बहरहाल इतिहास की पृष्ठभूमि में बहुत गहरे जाना हमारा ध्येय नहीं है इसलिए कहानी के मूलपाठ पर आते हैं........।
जैसे-जैसे ये ब्राह्मण और कायस्थ छोकरे प्राइमरी और मिडिल परीक्षाऐं उत्तीर्ण करते चले गए वैसे-वैसे परिवर्तित हो रही नई सत्ता में पटवारी एवं मास्टरी के सरकारी पदों पर नियुक्ति पाते भी चले गए। लिहाजा परिवर्तित प्रक्रिया से गुजर रहे शासन-प्रशासन की लाभकारी सभी जानकारियां इनके पास थीं और शासन-प्रशासन में इनकी पहुंच भी आसान हो गई थी। नतीजतन जब सीलिंग कानून के तहत जमींदार, जागीदार और राव साहबों के पास जो सैंकड़ों एकड़ जमीनें थीं उनको राजसात कर भूमिहीनों को पट्टे देने की कार्यवाही शुरू हुई तो इन नए नौकर-पेशाओं ने नामी-बेनामी, बालिग-नाबालिगों के नाम पट्टे लेकर ज्यादातर जमीनें बिना किसी होड़ के हथिया लीं। राव साहब तो कहीं ठसक को अनायास ही ठेस न पहुंच जाए इस अनिश्चित भय से हवेली के कुहासे से बाहर ही नहीं निकले।
गांव के नए नौकर-पेशाओं ने कुटिल चतुराई बरतते हुए इतनी उदारता जरूर बरती कि जितने भी अटलपुर के आसपास के गांवों में उनके जजमान थे उनको भी जमीनों के पट्टे करा दिए। इसी कार्यवाही के दौरान पंडित अयोध्याप्रसाद ने दस बीघा भूमि का पट्टा राव साहब की बटाईदारी छोड़ देने की शर्त पर रामलाल को भी करा दिया था। फिर क्या था रामलाल राव साहब की सिंध में डूबती नैया से छलांग लगाकर पंडित अयोध्याप्रसाद के चरणों में, ''अब तो महाराज तुमरैई संग लगके जा जीवन की वैतरणी पार होएगी.....।'' रामलाल वैसे भी पंडित जी का जजमान था। तब से रामलाल गांव में हाल ही में रौब-रूतबा गालिव कर लेने वाले पंडित जी का बटाईदार हो गया। रामलाल के स्वर्ग सिधारने के बाद उसके मसे फूट रहे बेटे गंगाराम ने बटाईदारी का यह काम बतौर विरासत हासिल किया।
माली हालत कभी भी संतोषजनक स्थिति में नहीं पहुंचने के बावजूद गंगा बटाईदार सब धन संतोष समाना की तर्ज पर पंडित जी की बटाईदारी करते हुए सुखी था। महाराज अयोध्याप्रसाद तो अब रहे नहीं। उनके बेटों ने खेती-बाड़ी का कामकाज संभाल लिया था। पंडित जी के मरने के बाद उनके लड़कों का गांव से नाता कम से कमतर होता चला गया। अब शिवपुरी में ही उन लोगों ने स्थायी ठौर बनवा लिए थे, वहीं से गांव की सत्ता का संचालन करते पुरखों की निशानी बनी रहे इसलिए खेती किसानी चल रही थी, वरना भाइयों में जमीन बेचकर धन बांट लेने की बात भी गाहे-बगाहे चल पड़ती थी।
सब कुल मिलाकर गंगा बटाईदार मजे में था। मालिकों के शिवपुरी में रहने के कारण वह आटे में नोन बराबर टांका भी मुनासिब मौका देख लगा लिया करता और महाराज की दम पर अपनी जाति-बिरादरी में रौब भी गांठे रखता। महाराज से गाढ़ी छनने के बूते ही उसकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत सुरक्षित थी, इसलिए वह कहीं महाराज के आगे गलती फूट न पड़े इसलिए हर कदम फूंक-फूंक कर रखता। पर गंगा के ही संगी-साथी उसकी गरदन पर छुरी चलाने के नजरिये से वक्त बेवक्त शिवपुरी पहुंचकर महाराज को चुगलखोरी कर बरगला आते। कहते, 'महाराज सेमरी के गेंत में दस हजार को तो जाने घासई बेच दओ, जबकि तुमैं आठई हजार को बताओ है ? मुड़िया में एक सौ अठारह बोरी सोयाबीन निकरो, जबकि तुमैं एक सौ दस बोरी गिनाई। रातई रात आठ बोरा टंकार गओ। अबकी से महाराज जाए बदल देऊ। कोऊ और खों देके तो देखो पैदावार में कितेक फरक आवत है.....? नई तो पूरी जमीन ठेके पे उठा दो महाराज, एक मुश्त रकम मिलेगी और चोरी चकारी के झंझट से भी मुक्ति ?' शिवशंकर महाराज गंगा को शिवपुरी तलब करते। गंगा चिरौरी में कट्टा भर मक्के के भुट्टे तो कभी बूंटों (चना) का गट्ठर तो कभी भुना होरा-बालेंं लाकर पेश करता और महाराज के पैताने बैठ जाता। फिर महाराज खोद-खोद कर गंगा से संदिग्ध सवालों के जवाब मांगते ? गंगा खून-पसीने की ईमानदारी की कमाई की दुहाई देता। बाल-बच्चों की सौंगंध लेकर गंगाजलि उठाता। उसकी आंखें छलछला आतीं। महाराज भी गंगा की आंखों में दुख का पानी देख पसीज जाते। उन्हें लगता गांव के ईर्ष्यालु खेल बिगाड़ने के लिए उन्हें खोटी सलाह दे जाते हैं। आखिर में महाराज मुस्कुराकर गंगा को झिड़की देते, 'देख गंगा काम पूरी ईमानदारी से करिओ। आगे मोय शिकायत मिली तो मैं अगली बार से खेती ठेके पर ही उठांगो।' और लब्बोलुआव यह की बात आई गई हो जाती।
इधर पंडित अयोध्याप्रसाद का सबसे छोटा बेटा साकेत जब से इंदौर से एमबीए करके क्या लौटा है हर चीज में कुशल प्रबंधन को पैसा कमाने की कुंजी का फार्मूला बताने लगा है। उसने गांव की खेती को भी कुशल प्रबंधन के हाथों ठेके पर सौंप देने की वकालात की। चारों भाई मिल बैठे तो साकेत ने प्रबंधन के मार्फत बिना कोई जोखिम उठाए ज्यादा मुनाफे का गणित समझाया और जमीन अगली बरसात से ठेके पर उठा देने की बात इतने प्रभावकारी ढंग से कही कि सबसे बड़े भाई शिवशंकर को छोड़ अन्य तीनों भाईयों में खेती ठेके पर उठा देने के मुद्दे पर लगभग सहमति बन गई। शिवशंकर ने खेती की प्रकृति पर निर्भरता होने का बहाना लेकर गंगा को अधबटाई पर ही खेती चलती रहने की बात पूरी वजनदारी से रखी भी, पर जब उन्हें लगा कि भाईयों की पत्नियां भी धन के लालच में हस्तक्षेप करने पर उतारू हैं तो उन्होंने बड़प्पन से काम लेते हुये हथियार डाल दिए। शिवशंकर नहीं चाहते थे कि साकेत की शादी होने तक घर में फूट पड़ने की बात बाहर तक जाए।
मरता क्या न करता, तमाम मिन्नतें करने के बाद भी जब अधबटाई पर खेती उठा देने की बात नहीं बनी तो गंगा बटाईदार ने एक मुश्त साठ हजार की लिखा-पढ़ी कर खेती ठेके पर उठा ली। वरना दूसरे उसकी छाती पर मूंग दलने के लिये पेंसठ हजार से भी ऊपर में जमीन लेने को तैयार ही खड़े थे। साकेत के दखल के चलते इस मर्तबा लिखा-पढ़ी भी बकायदा स्टाम्प पेपर पर हुई। वरना, बड़े महाराज तो एक कोरे कागज के टुकड़़े पर लिखतम करते तो करते नहीं तो केवल कागज के निचले हिस्से पर उसके दस्तखत करा लिया करते थे। बड़े महाराज पर उसे विश्वास भी अटूट था, इसलिए कोरे कागज पर भी सालों से दस्तखत करते चले आने के बावजूद उसे कभी शक-सुबहा नहीं होती और वर्षा की शुरूआत के साथ ही बतर आने पर वह नए उत्साह और ऊर्जा में भरकर महाराज के टगर के खेतों की जुताई हल से करता और बड़े खेत किराये के टे्रक्टर से जुताता।
लेकिन अब जब से गंगा स्टाम्प पेपर पर दस्तखत करके लौटा है तभी से उसका गला सूखा जा रहा हैं। तमाम कुशंकाऐं महूक की माखियों की तरह उसके सिर के इर्द-गिर्द भिनभिनाकर उसका सिर चकरा दे रही हैं। उसे लगा, जैसे माखियों का ढेर उसका खून चूसने में लग गया है। तमाम शंका कुशंकाओं से उबरने का उपक्रम करते हुए उसे बड़े महाराज डूबते को तिनके का सहारा महसूस हुए। उसके सूखते खून में आद्रता आई और कुछ रक्त संचार भी बढ़ा। उसके भीतर ही भीतर एकाएक उत्तरोतर प्रबल होते जा रहे आत्म-विश्वास ने उसे जाताया कि कुछ होनी-अनहोनी होगी तो महाराज संभाल लेंगे। बीते तीस-पैंतीस साल से वही तो डूबने को होती नैया को खेते चले आ रहे हैं।
साकेत का परिवार-कुटुम्ब में ही नहीं पूरे गांव और आसपास के चौदह गांवों में दखल बड़ रहा था। इन सभी गांवों में उनकी पुरोहिताई जागीर की तरह थी जो पारस्परिक निर्भरता और भरोसे की डोर से बंधी पिछली सदी से चली आ रही थी। महाराज शिवशंकर संबंध प्रगाढ़ बनाए रखने की जो परंपराऐं सालों-साल चली आ रही थीं उनका निर्वाह अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए बखूवी करते चले आ रहे थे। वे गाढ़े समय में जजमानों के काम भी आते। वक्त जरूरत दुखी-बीमारी, सगाई-ब्याह में किसी जजमान को रूपयों की जरूरत पड़ती तो रकम या खेत रहन रखकर दो प्रतिशत ब्याज की दर दे देते। कभी बिना रकम रखे भी दे देते। वक्त पर पैसा न लौटाने वाले किसान को भी थोड़ी बहुत खरी-खोटी सुनाकर भड़ास भर निकाल लेते, पर बैर पालकर संबंध विच्छेद कर लेने की स्थिति से बचे रहते, क्योंकि वे भलीभांति जानते थे कि जजमानों से उनकी भी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। इसी समझदारी भरी चतुराई के चलते पूरे चौदह गांव की पुरोहिताई में आज तक उनका सम्मान बरकरार था और उनका पैसा भी कभी नहीं डूबा।
पर साकेत ने नफा-नुकसान के आधार पर संबंधों को तौलने की प्रक्रिया शुरू की। हाल ही में वह एक खाद बेचने वाली कंपनी की मार्केटिंग करने लगा। जिसमें सेलरी तो कम थी पर कमीशन आकर्षक था। इस बार खेती की दृष्टि से बरसात अच्छी हुई थी। खेतों में ज्वार, मक्का और सोयाबीन की फसलें लहलहा उठीं। खेतों में हरियाली देख गंगा बटाईदार की तबीयत भी हरी हो जाती। उसके मन में लड्डू फूट पड़ते। सोचता, 'ईश्वर की कृपा बनी रहे तो खरीफ की फसल पेंतीस-चालीस हजार की निकर ही आएगी और इतेकई रब्बी की फसल हो जाएगी। दसेक हजार का बंजर और परत पड़ी भूमि में वह घांस भी बेच ही लेगा। इतने में उस की पौ-बारह है। महाराज के साठ हजार चुकाके पच्चीस-तीस हजार की रकम बच गई तो जा जेठ-वैशाख में सयानी हो रही मोड़ी की कहीं ढंग-डोल को मोड़ा देख शादी कर देंगो। मोड़ी के ब्याह से मुक्ति पा लाई तो समझो कुंभ में डुबकी लगाय लई।'
गंगा बटाईदार अपनी घरवाली और बाल बच्चों के साथ दिन-दिन भर निंदाई गुड़ाई में लग खून-पसीना एक करता रहता। उसे जिन खेतों में फसल कमजोर जान पड़ी उनमें उसने घर के पीछे की खुड़िया में घूरे के बहाने पूरे साल तैयार हो रही खाद को खेतों में डालने की तैयारी शुरू कर दी। घूरा क्या था गाय-बैल, भैंसों का गोबर मूत था जो बिना कोई पूंजी खरच किए सड़ - गलकर उम्दा किस्म की खाद में तब्दील हो गया था।
गंगा तीन-चार गाड़ी ही खेतों में गोबर-खाद डाल पाया था कि जीप में सवार साकेत गांव आ धमका। उसके साथ थे सहकारी बैंक के दो कर्मचारी और दो खाद कंपनी के एजेंट। एक के कंधे पर माइक टंगा था। खाद की गुणवत्ता जाहिर करने वाली प्रचार सामग्री भी उनके पास थी। आसमानी के चबूतरे पर टीम ने मदारियों की तरह मजमा लगाया और बेचे जाने वाले खाद के चमत्कारिक गुणों का चासनी चढ़ी बोली में बखान किया। किसानों को बताया गया, जिस सोयाबीन की फसल आप एक बीघा में दो क्विंटल ले रहे हैं, इस खाद को खेतों में डालने के बाद पैदावार दोगुनी से भी ज्यादा लेंगे। मसलन एक बीघा में चार से पांच क्विंटल उपज ! एक ही साल में बारे न्यारे।
साकेत के साथ होने के कारण लोगों को भरोसा जल्दी बैठ गया। सहकारी बैंक के कर्मचारी साथ थे ही, सो हाथों-हाथ बैंक सोसायटियों के जरिये खाद उधारी पर दे देने का सिलसिला शुरू हो गया। जिन किसानों ने न-नुकुर की उन्हें साकेत ने रिश्तों से तौलकर भुना लिया। गंगा भी बैंक सेे कर्ज लेकर खाद लेने को तैयार नहीं था, पर साकेत ने भविष्य में संबंध खत्म कर देने का जो भय दिखाया तो बेचारा सहमत हो गया। दस हजार का खाद उसके सिर मढ़ दिया गया। वह भी उसकी भूमि स्वामी वाली जमीन की भू-अधिकार एवं ऋण पुस्तिका पर।
खेतों में खाद लेने के बाद पन्द्रह दिन बीते तो गंगा को ही क्या सभी किसानों को लगा, ठगे गए। खाद के असर के बाद तो पौधा तेजी से बढ़ने के साथ फैलना था, पर हुआ उल्टा। पौधे बौने रह गए। पत्तियां पीली पड़ गईं और सोयाबीन की फलियों में पूरे दाने नहीं पड़े। बाद में खोजबीन करने पर पता चला कि साकेत जिस खाद कंपनी का एजेंट था उसकी बिक्री ही मध्यप्रदेश में प्रतिबंधित थी। पर कंपनी ने कृषि विभाग के अधिकारियों, सहकारी बैंक के प्रबंधकों और खाद विक्रेताओं से सांठगांठ कर पूरे इलाके में टनों नकली खाद बेचकर खुद तो बारे न्यारे कर लिए पर कर्ज किसानों के सिर चढ़ा दिया। उड़ती-उड़ती गांव में यह भी खबर फैली कि इस खाद बेचने के गोरख धंधे में साकेत का लाखों का कमीशन बना। बहरहाल तहसीलदार से लेकर कलेक्टर तक तमाम शिकवे - शिकायतें हुईं। पर परिणाम शून्य। जांच जारी है...।
गंगा ने फसल काटकर खलिहान में लाकर दांय करने के बाद तौली तो बमुश्किल तीस बोरी ही निकली। दाना भी खराब था, झुर्रियों युक्त ! तुषार के मारे दाने जैसा, जो अगली फसल के लिए बीज के काबिल कतई नहीं था। अच्छा होता तो उसकी घरवाली अगले साल बोने के लायक बीज कुठीला में भरकर जतन से रख देती। बांकी सोयाबीन गंगा बदरवास मण्डी ले जाकर बेच आता। अब तो गंगा के लिये मुश्किलें और बढ़ गइंर् लगती हैं ? ठेके पर खेती उठाकर बड़ी भूल की उसने ? अधबटाई से होती तो हानि का पूरा ठींकरा उसके सिर तो न फूटता ? महाराज और वह आधा-आधा उठाते ? साकेत ने रचनई ऐसी रची कि जमीन ठेके पर उठाना उसकी लाचारी थी ? फिर मुए ने खाद और जबरन सिर-माथे लाद दओ। कैसे चुकायेगा साठ हजार.....? बैंक का कर्जा अलग से....। पर गंगा अभी से हार मान गया तो रब्बी की खेती कैसे करेगा....? अभी तो जैसे पूरा पहाड़ उसके सामने है..., चढ़ाई के लिए हिम्मत तो भरनी हो पड़ेगी।
नस्ल अच्छी नहीं होने के कारण गंगा को सोया का मण्डी में वाजिब दाम नहीं मिला। गंगा को उम्मीद भी यही थी इसलिए ज्यादा निराशा नहीं हुई। सात सौ पचास क्विंटल के मान से सोया बिका। तीस क्विंटल सोया के बाईस हजार पांच सौ रूपये उसकी गांठ में थे। जिनसे उसे खेतों में किराये के ट्रेक्टर से जुताई कराकर चने की बोनी करनी थी, और सिंचाई भी करानी थी। डीजल पंप तो उसके पास था, पर वह क्या सूखा चलता है ? उसकी टंकी में तेल तो चाहिए ही, सो उसका इंतजाम भी इसी राशी से करना था। जो उसे बड़ा ही मुश्किल जान पड़ रहा था। जान सांसत में थी। फिल्हाल अपने हाल को भगवान भरोसे छोड़कर गंगा ने रब्बी की फसल के लिए खेतों को हांकने की तैयारी शुरू कर दी।
दो बार हैरो चलवाकर खेत कामीदा बनाने के बाद उसने अगली सुबह ड्रिल मशीन से बीज डालने का मन बना लिया। घरवाली से वह सुबह ही कह आया था कि कुठीले से बीज निकालकर आंगन में फैलाकर जरा हवा खिला देना, सींड़ जाती रहेगी।
सांझ ढले घर में घुसा तो चौखट से उसका सिर फूटा। अशगुन ने उसे अंदेशे ने घेर लिया। आंगन में दीवार से मुंह छिपाये घर वाली रोने लगी थी। वह आसन्न संकट की दस्तक ठीक से समझ पाता इससे पहले ही बेटी ने बुरी खबर देकर माथा ठनका दिया, ''दद्दा, बीज के चने में तो घुन लग गओ..।''
गंगा ने झुककर मुट्ठी भर दाना उठाया। उसे हथेली पर फैलाया तो गंगा को जैसे सांप सूंघ गया, 'दाना बीज के काबिल का कतई नहीं रह गया था।' गंगा के घर मातम मना। किसी ने हलक में अन्न का दाना तक नहीं डाला। पानी पी-पीकर सूखी रात बमुश्किल गुजारी। गंगा से तो जैसे किस्मत ही रूठने लगी है।
साकेत अब एक जेनेटिक मोडीफाइड शीड बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी की मार्केटिंग करने लगा था। उसे जब पता चला कि वह नकली खाद बनाने वाली कंपनी में काम कर रहा है और इस गोरख धंधे में पुलिस उसे भी आरोपी बना सकती है तो तत्काल उसने खुद को कंपनी से अलग कर लिया। लेकिन नई कंपनी में नकली खाद भी बड़ी मात्रा में बेचने का हुनर रखने का दावा कर उसने नई नौकरी जल्दी ही हासिल कर ली। अब उसकी सेलरी भी ज्यादा थी और कमीशन भी। यह कंपनी अनुवांशिक तौर पर विकसित किए गए बीजों का निर्माण कर वितरण करती थी। इन बीजों को खेत में डालने से उपज कई गुना बढ़ जाने की गारंटी कंपनी के दलाल जताते।
अगले ही दिन कंपनी के दो और साथियों के साथ चमचमाती ऐसी कार से साकेत गांव आ पहुंचा। उसने फिर मजमा लगाया। एक सुन्दर से बॉक्स में, सुन्दर से डिब्बों में बडे ही सुन्दर से बीज थे। मस्त और चिकने। चना-बीज की कई किस्में...। जो आज से पहले अटलपुर के किसानों ने न सुनी थीं, न देखी थीं।
गांव वालों ने जब नकली खाद की चर्चा उठाई तो साकेत ने बड़ी ही विनम्र साफगोई से सफाई दी, 'मुझे कतई जानकारी नहीं थी कि खाद नकली है। वरना मैं अपने ही गांव में नकली खाद बेचता ? अपने ही खेतों में नकली खाद डलवाता ? मेरे और आपके बीच कई सदियों पुराने ताल्लोकात हैं, क्या इन्हें जरा से नफा के लिये बलि चढ़ा देता....?'
सब शांत। संतुष्ट...। खुसुर-फुसुर हुई, 'नामी घर को लरका है, जान बूझ के थोरे ही नकली खाद बेचो होगो...? बाके संग भी धोकोई भओ होगो'। इन कानाफूसियों ने साकेत का धोखाधड़ी का दाग जैसे धो दिया। साकेत ने इलाके के पूरे चौदह गांवों में क्विंटलों चना और गेहूं का जेनेटिक मोडीफाइड बीज बेचा। गंगा ने भी दस बीघा जमीन बाबू बनिया के यहां गिरवी रखकर जरूरत के मुताबिक बीज खरीदा।
इलाके के किसानों के साथ फिर धोखा हुआ। उपज के जो दावे किए गए थे वे खरे नहीं उतरे। किसान फिर ठगे गए। गंगा बटाईदार भी ठगा गया। उस पर तो दोहरी मार पड़ी थी। दोनों ही फसलें चौपट। तिस पर भी बुरी तरह फंस चुका कर्ज के जंजाल में। महाराज के पूरे साठ हजार बकाया। बैंक का खाद कर्ज और बनिया के बीज की उधारी। गंगा को लगा तोते हाथ से उड़ चुके हैं। किसान की जिंदगी खेत-खलिहान के आसरे कटती है लेकिन अब खेत बचेंगे न खलिहान। प्राण बचे रहें यही बौत है ? खेत की बाबू बनिया को रजिस्ट्री कराकर ही उसे कर्जों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता सूझता दिखाई दे रहा था।
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प्रमोद भार्गव
पत्रकार
शाही निवास, शंकर कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन. 473551
फोन- 07492-404863, 233882
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जीवन-परिचय
c
नाम ः प्रमोद भार्गव
पिता का नाम ः स्व. श्री नारायण प्रसाद भार्गव
जन्म दिनांक ः 15 अगस्त 1956
जन्म स्थान ः ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म. प्र.)
शिक्षा ः स्नात्कोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रूचियां ः लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्वीय विषयों के अध्ययन में
विशेष रूचि।
प्रकाशन ः प्यास भर पानी (उपन्यास), मुक्त होती
औरत, पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं
लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक
(बाल उपन्यास) सोन चिरैया सफेद शेर,
चीता, संगाई, शर्मिला भालू, जंगल के
विचित्र जीव जंतु (वन्य जीवन) घट रहा है
पानी(जल समस्या) इन पुस्तकों के अलावा
हंस, समकालीन भारतीय साहित्य,वर्तमान
साहित्य, प्रेरणा, संवेद, सेतु, कथा परिकथा,
धर्मयुग, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स,
हिन्दुस्तान राष्ट्रीय सहारा, नईदुनियां,
दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण,
लोकमत समाचार, राजस्थान पत्रिका,
नवज्योति,पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून,
रांची एक्सप्रेस, नवभारत, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता, सुमन
सौरभ, मेरी सहेली, मनोरमा, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, आदि पत्र पत्रिकाओं में
अनेक लेख एवं कहानियां प्रकाशित।
सम्मान ः 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008
का बाल साहित्य के क्षेत्र में चंद्रप्रकाश
जायसवाल सम्मान। 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ.
धर्मवीर भारती सम्मान।
3. भवभूति शोध संस्थान डबरा
(ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'।
4. म.प्र. स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकरी
संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिंधु सम्मान'।
5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन,
इकाई-कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं
पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं
के लिए सम्मानित।
6. भार्गव ब्राह्मण समाज, ग्वालियर द्वारा
साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में
सम्मानित।
अनुभव ः जनसत्ता की शुरूआत से 2003 तक
शिवपुरी जिला संवाददाता।
नईदुनियां ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख,
शिवपुरी।
उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक
के पद पर।
संप्रति ः जिला संवाददाता आज तक (टी.वी.
समाचार चैनल)
संपादक -शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी
दूरभाष ः 07492-232008, 232007 मोबा.
09425488224
संपर्क ः शब्दार्थ, 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.)
ई-मेल - PramodSVP997@rediffmail.com
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