चिन्दी फिर ससुराल से भागकर मायके आ गई थी. यह तीसरी बार हुआ था. ब्याह हुए अभी चार ही महीने हुए थे. चार महीने में वह चार हफ्ते भी सस...
चिन्दी फिर ससुराल से भागकर मायके आ गई थी. यह तीसरी बार हुआ था. ब्याह हुए अभी चार ही महीने हुए थे. चार महीने में वह चार हफ्ते भी ससुराल में न टिकी होगी. ब्याह के चार दिन बाद बिदा हो के मायके आई थी, तो पन्द्रह दिन बाद ससुराल गई थी. लेकिन वहां दुबारा हफ्ता भर भी न टिकी. कोई विदा करने भी न गया था. अकेले ही भागकर चली आई. मां-बाप को आश्चर्य हुआ. पूछा तो कह दिया कि मायकेवालों की याद आ रही थी, इसलिए चली आई.
मां ने भरपेट गालियां सुनाई, ‘‘नरगाजी, रांड, तेरे को शरम नहीं आई. महीना भी नहीं हुआ कि ससुराल से भागना शुरू कर दिया. नाक कटवाएगी. तेरी ससुराल के लोग क्या कहेंगे ? गांव-घर के लोग थूकेंगे. जवानी चरचरा रही है. खसम करके दिया है, मन नहीं भरता, जो मायके भागकर आई है.''
मां चीखती-चिल्लाती रही, गन्दी-गन्दी गालियां देती रही, पर उसके कानों में जूं न रेंगी. बैठी मुस्कराती रही. शादी का लाल जोड़ा पहन कर आई थी. पूरे गहने भी डाल रखे थे. माथे में बड़ी सी बिन्दी लगा रखी थी. मांग ऐसे भर रखी थी, जैसे सिन्दूर की पूरी डिब्बी ही उड़ेल दी हो. पांवों में महावर भी खूब रचा रखा था. पतिव्रता पत्नी का पूरा श्रृंगार कर रखा था, परन्तु पति को छोड़कर भाग आई थी.
जैसे-तैसे करके उसको मां-बाप ने मनाया. टोला-पड़ोस की औरतों ने समझाया और उसे ससुराल भेजा गया. गई तो... पर दो दिन बाद फिर वापस आ गई. मां-बाप चीखते-चिल्लाते रहे. टोला-पड़ोस में तमाशा बना रहा, परन्तु चिन्दी को कोई फर्क नहीं पड़ा. मां-बाप की परेशानी से उसे कोई लेना-देना नहीं था. वह अपने में मस्त थी.
इस बार उसके पति को बुलाया गया. वह बेचारा भोंदू किस्म का लड़का था. ज्यादा चटक-मटक नहीं थी. उससे पूछा गया, ‘‘क्यों पाहुन, क्या बात है कि लड़की तुम्हारे घर में रुकती नहीं. सास परेशान करती है कि तुम ?''
लड़की की मां ने ही पूछा था. उसे लड़की की करतूतों का पता था, फिर भी अपनी हेठी दिखा रही थी. बाप तो बेचारा शरम के मारे दामाद के सामने ही नहीं पड़ रहा था. चिन्दी का भाई था, परन्तु छोटा था. वह असलियत जानता था. चिन्दी का गांव के कई लड़कों के साथ चक्कर चल रहा था. भाई ने बहुत बार चिन्दी को उनके साथ खेतों और बागों में पकड़ा था. उसने घर में बताने की धमकी दी थी, परन्तु चिन्दी ने उसके हाथ-पैर जोड़े थे, उसे कुछ रुपये भी दिए थे. वह अभी इतना छोटा था कि प्रेम की गंभीरता को नहीं समझता था. अतः चुप्पी साध ली थी.
अब चिन्दी बार-बार ससुराल से भागकर आ रही थी तो भाई को मामला समझ में आ रहा था. शादी के बाद भी उसने बहन को बाहर जाते हुए देखा था, लड़के भी उसके आगे-पीछे मंड़राते रहते थे. वह समझ गया कि लड़कों के चक्कर में चिन्दी भाग-भाग कर मायके आती थी, परन्तु जीजा के सामने कैसे यह बात बताये ? उसी के घर की बदनामी होती. इतना तो तेरह-चौदह साल का लड़का समझता ही था.
मां-बाप को भी चिन्दी की करतूतों का पता था. तभी तो आनन-फानन में उसकी शादी कर दी थी. अभी अठारह की भी नहीं हुई थी कि गांव-टोले, खेत-खलिहान, बाग-बगीचे में मां-बाप का नाम रोशन करने लगी थी. कई बार पकड़ी गई. मां-बाप ने पीटा, परन्तु उस पर कोई असर न हुआ. जहां मौका मिलता, मुंह मार लेती. एक बार तो हमल गिरवाना पड़ गया था.
मां-बाप गरीब थे. दूसरों के खेत खलिहानों में काम करते थे. बेटी भी करती थी. गरीब की बेटी घर में बैठकर शौक-सिंगार नहीं कर सकती. दस काम के लिए उसे बाहर निकलना पड़ता है. कभी मां-बाप के साथ, कभी अकेले. मां-बाप कहां-कहां नज़र रखते ? बेटी बिगड़ गई.
गरीब की बेटी छुट्टा मादा जानवर की तरह होती है. कोई भी उसे पुचकार कर अपना बना लेता है. चिन्दी के साथ भी ऐसा ही हुआ. गांव के हर जवान, बड़े और बूढ़े की आंखों में उसकी जवानी खटकने लगी. उसकी जवानी एक बाढ़ की तरह आई थी और गांव के लंपट लोगों को लीले जा रही थी. सबके लिए वह भंडारे का प्रसाद बन गई थी, जो चाहे चख लेता. कई जवान लौंडों की काली रातों की चांदनी बन गई थी वह.
ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे नहीं होती. पूरे गांव में जब थू-थू होने लगी तो मां-बाप की आंखों का पर्दा हटा. घर में तो कुछ था नहीं, ठाकुर के यहां से काढ़-मांग कर शादी की व्यवस्था की गई. चिन्दी देखने में ठीक-ठाक थी. दबे रंग की, तीखे नैन-नक्श और छरहरे बदन की लड़की थी. मां-बाप पैसे से मजबूत होते तो ढंग का लड़का मिल जाता. बड़ी मुश्किल से यह लड़का मिला था. रिश्तेदारी में था. बेहद गरीबी में पला था. बाप नहीं था. विधवा मां थी और अकेला लड़का. देखने में अच्छा नहीं तो बुरा भी नहीं था. काठी ठीक थी, परन्तु थोड़ा ठिगना था. मां-बेटा खेतों में मजदूरी करके गुजारा कर लेते थे. बिना दहेज के शादी हो गयी.
लड़का बड़ा सीधा था. इतना सीधा कि बचपन में ही उसका नाम भोला पड़ गया था. अब उसे सब भोलाराम कहते थे.
चिन्दी को सर आंखों पर रखता था, परन्तु वह उसे भाव ही न देती. सास को तो गिनती ही न थी. घर का काम भी न करती. सास बड़बड़ाती रहती, परन्तु चिन्दी साज-सिंगार में लगी रहती. जवाब तो न देती, किन्तु घूंघट के अन्दर ऐसे मुंह बिचकाती, जैसे कह रही हो, ‘चल बुढ़िया, अपना काम कर... मेरे पीछे मत पड़.'
उसी चिन्दी के मां-बाप अपनी बेटी की गलतियों को छिपाने के लिए दामाद को उंगलियों पर नचाने की कोशिश कर रहे थे. वह बेचारा दब्बू... दूसरी बार ससुराल आया था. एक बार बारात लेकर... और दूसरी बार आज... नई-नई ससुराल थी. शर्मा रहा था. मुंडी नीचे किए बैठा रहा. मुंह से बोल न फूटे. चिन्दी की मां दुलारी की आवाज़ कड़क हो गयी. झूठा आदमी हमेशा ऊंची आवाज में बात करता है. सत्य को चीखने की जरूरत नहीं पड़ती. वह दबे शब्दों में भी अपना तेज प्रकट कर देता है.
‘‘तुम लोग उसे क्यों परेशान करते हो ?'' दुलारी कह रही थी. बेटी दीवार की ओट में खड़ी कुटिल हंसी-हंस रही थी. पेट के अन्दर किलक रही थी. बाप बाहर बैठा अपनी किस्मत को रो रहा था, बेटा मन ही मन सच और झूठ को तौल रहा था.
बेचारा दामाद... अपनी किस्मत को रो रहा था. कहां आ फंसा ? बीवी को कभी आंख उठा कर न देखा था, कड़ी बात कहना तो दूर... सास-बहू में चौबीस घण्टे ठनी रहती, वह बेचारा गूंगा बना रहता. न मां का पक्ष लेता, न बीवी का. जब दोनों की जुबान घिस जाती तो अपने आप चुप हो जातीं. उस बेचारे का क्या दोष ? चिन्दी तो उसको अपना पति ही नहीं समझती.
चिन्दी की मां ने बार-बार पूछा, परन्तु दामाद की जुबान न खुली. उसकी कोई गलती होती तो बोलता भी. लिहाज के मारे चुप बैठा रहा.
खा-पीकर सब लोग लेट रहे तो मां ने चिन्दी की खबर ली, ‘‘अब कौन सा दिन दिखाएगी तू हमें. तेरे कारन भोले-भाले पाहुन को डांट लगाई. क्या मैं तेरे लक्षन नहीं जानती ? सीधा-सादा मरद मिला है, बूढ़ी सास है. हिल-मिल कर रहे, तो क्या सुखी नहीं रह सकती ? परन्तु मरजानी को जवानी चढ़ी है. एक मरद से पूरा नहीं पड़ता. मन करता है बांस डाल दूं तेरे में... चैन आ जाएगा.''
चिन्दी चुपचाप मां की गालियां सुनती रही....
मां की बातों का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ था, ‘‘देखती नहीं... तेरे ब्याह का कर्जा सर पर लदा है. टूटे नहीं टूटता. बाप जवानी में बूढ़ा हो गया. भाई छोटा है, पर अभी से काम करने लगा. तू अपने घर-दुआर की नहीं होगी, तो कहां से तेरा पेट भरेंगे ? यहां आकर कुलक्षन करेगी, बदनामी होगी... क्यों हमें जीते-जी मारना चाहती है...बता... तू कोई परी है, जो उस घर में नहीं सह सकती है. वहां गरीबी है, तो यहां कौन से छप्पन भोग लगते हैं.''
चिन्दी सूखे लट्ठ की तरह पड़ी थी. मां की बातें उसके सिर के ऊपर से फिसली जा रही थी.
मां का लाउड स्पीकर शान्त होने का नाम नहीं ले रहा था, ‘‘दिन में खेतों में मरने गई थी. कहीं कुछ हो गया, तो किसको मुंह दिखाएगी. जा दामाद के पास चली जा. कम से कम ये तो होगा कि दामाद ससुराल गया था, उससे ही रह गया होगा.''
चिन्दी मन्द मन्द हिनहिनाने जैसे स्वर में हंस पड़ी. मां का गुस्सा भड़क गया, ‘‘शरम नहीं आती रण्डी को... इतनी उमर में क्या-क्या न कर डाला ? भगवान, आगे क्या करेगी. इसको सत्बुद्धि दे. गांव में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अब क्या मरने का ठौर भी नहीं छोड़ेगी ? चल उठ, मरी... अब क्या डोली में बैठकर जाएगी ?''
चिन्दी मतुवाती हुई उठी, जैसे मान कर रही हो. फिर धीरे-धीरे हिरनी की सी चाल से कोठरी की तरफ बढ़ गई. परन्तु कोठरी के अन्दर नहीं गई. दरवाजे के बाहर ही जमीन पर लेट रही. दुलारी को पता नहीं चला और भोलाराम इंतजार करता ही रह गया.
दूसरे दिन चिन्दी पति के साथ ससुराल चली गई. इस बार बहुत समझाकर भेजा गया था. दुलारी ने पाहुन को भी दुनियादारी समझाई थी. लगा कि चिन्दी राह पकड़ लेगी, परन्तु चिन्दी का स्वभाव ऐसा न था. बकरी जिस तरह हरी दूब छोड़कर कांटों में मुंह मारती है, उसी प्रकार चिन्दी को ससुराल का साफ-सुथरा जीवन पसन्द न था. वह इधर-उधर मुंह मारने की शौकीन थी. घूंघट के अन्दर उसका दम घुटता था. सास की पहरेदारी उसे पसन्द न थी और पति का भोला-भाला रूप उसको अखरता था.
आज तीसरी बार चिन्दी फिर भागकर मायके आ गई थी.
मां-बाप के लिए डूब मरने वाली बात थी. चिन्दी अपना साज-सिंगार का बक्सा भी उठा लाई थी इस बार. आंगन में ठसक से बैठी थी. मां बाहर से आई तो देखते ही जल-भुन गई. माथा पीट लिया, ‘‘अब क्या हो गया री. हमें जीते-जी मारेगी तू. क्या करुं मैं तेरा ? तूने तो अपना नाम सच्ची में साबित करके दिखा दिया.'' मां रोने लगी. दुलारी ने पता नहीं कब लड़की का नाम चिन्दी रखा था, उसे खुद याद नहीं. या उसकी हरकतों की वजह से उसको यह नाम मिल गया था.
चिन्दी फटे-पुराने कपड़े का वह टुकड़ा होता है, जिसे कहीं जोड़ा नहीं जा सकता. उस पर पैबन्द नहीं लगाया जा सकता. कपड़े का तार-तार होना इसी को कहते हैं, जब कपड़ा चिन्दी हो जाता है, तो वह पहनने लायक नहीं रहता. आज चिन्दी अपने मां-बाप की इज्जत को चिन्दियों में उड़ा रही थी. उसे तार-तार कर रही थी.
मां ने तय कर लिया कि अब वह चिन्दी को कुछ नहीं कहेगी. बाप पहले भी कुछ नहीं बोलता था. बेटा कुछ कहने लायक नहीं हुआ था. चिन्दी स्वछन्द जानवर की तरह मायके में रहने लगी. मन होता तो कोई काम कर देती, न मन होता लेटी रहती, या हिरनी की तरह खेत-बागों में विचरती रहती.
मां-बाप ने आंखों में पट्टी बांध ली थी. परन्तु कब तक... दुलारी को जल्द ही पता चल गया कि चिन्दी पेट से थी. पता नहीं कितने दिन का है ? मायके आए लगभग एक महीना हो चुका था. पति का ही होगा, सोचकर वह सन्तुष्ट हो गयी. मन ही मन खुश हुई, चलो अच्छा हुआ. एक बच्चा हो जाएगा, तो चिन्दी भी रास्ते पर आ जाएगी. आग ठण्डी हो जाएगी. बेटे को पालने-पोसने में अपना सिंगार भूल जाएगी. चूसे आम की तरह हो जाएगी तो पराये मर्द भी उसकी तरफ मुंह उठाकर न देखेंगे. एक बच्चे के बाद गांव की औरतों में रस कहां रहता है. मर्द नहीं ताकेंगे तो अपने-आप सुधर जाएगी.
बात खुशी की थी. समधियाने खबर भिजवानी ही थी. घर में दो दानों के अलावा और क्या था, परन्तु चिन्दी की मां का दिल बहुत बड़ा था. दो-तीन घरों से कुछ गेहूं, चावल और दाल उधार लिए. बचुका बनाया और पति को दूसरे दिन ही समधियाने भेज दिया. रामचरन समधियाने पहुंचा, तो घर में समधन थी. दामाद कहीं गया था. बचुका एक किनारे रखकर रामचरन माथे का पसीना पोछता हुआ छप्पर के नीचे चारपाई पर बैठ गया.
समधन ने लोटे में पानी लाकर रामचरन के पास रख दिया और एक कोने में घूंघट करके खड़ी हो गई, ‘‘बहू को नहीं लाये समधी जी!''
रामचरन ने हाथ-मुंह धोकर एक घूंट पानी पिया. फिर सांस खींचकर बोला, ‘‘लाता, लेकिन सोचा, पहले खुशखवरी दे दूं आप लोगों को... फिर पाहुन आकर विदा करा ले जाएंगे.''
‘‘कैसी खुशखवरी! अब क्या छांड़ी-छुट्टा (तलाक) करवाओगे ? बहू के पैर तो यहां टिकते नहीं,'' समधन ने कड़वाहट से कहा.
रामचरन मुस्कराया, ‘‘ऐसा अशुभ क्यों निकालती हो, समधन जी. हम कौन सा बड़े लोग हैं. एक बेटी की शादी में कमर टूट जाती है. छांड़ी-छुट्टा करवाके उसे कहां बिठा के खिलायेंगे. दूसरा मरद करेंगे तो क्या पैसा नहीं लगेगा.''
‘‘फिर ऐसी कौन सी खुशी की बात है. बहू तो हाथ ही धरने नहीं देती. किसी की सुनती नहीं. मैं तो चलो बूढ़ी हुई. आज हूं, कल नहीं; परन्तु मरद के साथ उसे जिन्दगी गुजारनी है, उसकी भी नहीं सुनती.''
‘‘सब सुनेगी,...समधन! बस एक बच्चा हो जाने दो. यही खुशखवरी लेकर आया था.''
‘‘अयं, तो क्या वह पेट से है.''
‘‘हां,...''
‘‘बिगड़ी घोड़ी है, पता नहीं सुधरेगी कि नहीं!'' समधन को आशंका थी. बहू के लक्षन देख चुकी थी, ‘‘बच्चा वही जनेगी कि यहां आएगी. उसको वही रखो. यहां मैं नहीं संभाल जाऊंगी. मेरे बस की नहीं है वह!'' समधन ने साफ बात कह दी.
‘‘बच्चा तो मायके में ही होगा, परन्तु कुछ दिन यहां आकर रह ले. बाद में दिन पूरे होने पर विदा करा ले जाएंगे.'' रामचरन ने स्पष्ट किया.
‘‘भैया, जो अच्छा समझो! मैं तो बेटे की शादी करके पछता रही हूं.''
‘‘पाहुन कहां गए ?''
‘‘और कहां जायेगा ? मजदूरी करने गया है, शाम तक आएगा.''
‘‘मैं तो रुकूंगा नहीं. शाम को पाहुन को खबर कर देना. कल आकर बिटिया को बिदा करा ले जाएं.''
‘‘कह दूंगी, परन्तु उसका भी मन खट्टा हो गया है. भोला है, मन की बात कहता नहीं, परन्तु मन ही मन घुटता रहता है.''
रामचरन क्या कहता ? जानता था कि उसकी लड़की की गलती है. चुप रहा. दोपहर खाना खाकर भर आराम किया और शाम को वापस अपने घर चला आया.
सुबह से ही चिन्दी उदास थी. मन मारे बैठी थी. मां की समझ में नहीं आया कि चिन्दी की चंचलता कहां गायब हो गयी थी. मां ने पूछा तो उसने बताया नहीं. मां समझी, पेट से है, जी मितला रहा होगा, इसलिए अनमनी है. मां ने खटाई दी और चूल्हे की पक्की मिट्टी दी; जिससे खाकर जी हल्का हो सके. परन्तु चिन्दी सारा दिन सोचती सी बैठी रही. बहुत गहन चिन्ता में लग रही थी. मां ने सोचा- पहलौठी का है, चिन्ता तो करेगी ही.
शाम को रामचरन समधियाने से लौटा तो चिन्दी चंचल हो उठी. कान लगाकर ससुराल की बातें सुनने लगी. जब सुना कि भोलाराम नहीं मिला तो परेशान सी हो उठी. जाकर कोठरी में लेट गयी. खाना भी नहीं खाया. मां ने कहा भी, परन्तु उसने एक कौर भी मुंह में नहीं डाला. पता नहीं कौन सी चिन्ता उसे खाए जा रही थी. चिन्दी अपने मन की बात किसी को बता भी नहीं सकती थी. किस मुंह से बताती ?
शंका-आशंका के बीच दूसरी सुबह हुई. चिन्दी के मां-बाप को आशा थी कि आज पाहुन आएंगे. मांगकर घर में घी-दूध और दही का इंतजाम कर लिया गया था. पकवान बनने की तैयारी थी. पूरे टोले को खबर हो गई थी कि चिन्दी को गरभ है और उसका घरवाला विदा कराने आ रहा है. इतनी चर्चा तो तब भी नहीं हुई थी, जिस दिन चिन्दी का ब्याह हुआ था.
चिन्दी को बहुत चिन्ता थी. मन बेचैन हो रहा था. पता नहीं भोलाराम आएगा कि नहीं. शायद न आए.
सुबह से दोपहर हो गयी, भोलाराम नहीं आया. दुलारी की आशा धूमिल पड़ गई. चिन्दी की चिन्ता गहन हो गई. परन्तु शाम होते-होते सबकी शंका और चिन्ता खत्म हो गई. अन्धेरा होने के पहले ही भोलाराम पैदल दनदनाता हुआ आ पहुंचा. इस बार उसके चेहरे में भोलापन या शर्म का आवरण नहीं था. उसका मुंह विदीर्ण था, जैसे किसी अन्दरूनी दर्द से दो-चार हो रहा हो. मुंह से कुछ नहीं बोला. सब लोग उसके आगे-पीछे लगे रहे, जैसे उसको मनाने के लिए लल्लो-चप्पो कर रहे हों. दही दिया गया, उसने मना कर दिया. दूध का शरबत बनाकर दिया गया, उसने मुंह बनाकर नीचे रख दिया, गोया-उसे भूख नहीं थी. न वह कुछ खा-पी रहा था, न मुंह से बात कर रहा था.
रात में भोजन के लिए बुलाया गया, तो भी मटक गया. छोटा साला हाथ पकड़कर उठाने लगा. सास ने चिरौरी की. ससुर मनाने लगे. काफी मान-मनौव्वल के बाद भी जब वह नहीं माना और खाने के लिए नहीं उठा तो दुलारी बोली, ‘‘लल्ला, कुछ मुंह से भी बोलोगे ? बिना बोले हम क्या समझेंगे कि किस बात पर नाराज हो ?''
‘‘हम फैसला करने आए हैं ?'' भोलाराम के बोल फूटे,
‘‘किस बात का फैसला...?'' उन सबके मुंह चौड़े हो गये.
‘‘हम इसको नहीं ले जाएंगे.'' वह कड़क हो गया.
‘‘कारण...?''
‘‘कारण अपनी बेटी से पूछो.'' उसका स्वर और ज्यादा ऊंचा हो गया. रामचरण और दुलारी की बोलती बन्द हो गयी. कुछ-कुछ वह समझ गये थे. क्या पाहुन को चिन्दी के चरित्र पर शक है ? क्या उसे बीवी की करतूतों का पता चल गया है ? शायद यही बात होगी...?
इसके एक क्षण बाद ही दहलीज से रोने की आवाज आने लगी. सब लोग चौंक गये...मुड़कर दहलीज की तरफ गये. देखा, अन्धेरे में चिन्दी बैठी रो रही है. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. दौड़कर उसके पास पहुंचे. दुलारी ने उसे संभाला, ‘‘क्या हुआ बेटी!''
वह बू..बू... करके रोती रही. बड़ी मुश्किल से चुप हुई. मां ने फिर रोने का कारण पूछा. उसने बस इतना कहा, ‘‘मुझे उनसे अकेले में बात करनी है.''
दुलारी बाहर गई. भोलाराम पहले की तरह ही अकड़कर बैठा था. उसने कहा, ‘‘लल्ला, कोठरी में चलो. चिन्दी तुमसे कुछ कहना चाहती है.''
‘‘अब कहने के लिए क्या रह गया है ?''
‘‘तुम मिल तो लो...'' वह हाथ पकड़कर मनाने लगी. भोलाराम भोला तो था ही, मन का भी सीधा-सादा था. बीवी बुला रही है, तो मन में कसक सी हुई. जल्दी ही मान गया. कोठरी में पहुंचा तो चिन्दी वहां पहले से खड़ी थी. आले पर मिट्टी के तेल का दिया जल रहा था. उसकी पीली रोशनी में चिन्दी का चेहरा तांबे जैसा लग रहा था. भोलाराम जैसे ही कोठरी के अन्दर घुसा, चिन्दी उसके चरणों में गिर पड़ी. जोरों से उसके पैर पकड़ लिए. वह चौंककर पीछे हटा और गिरते-गिरते बचा. चिन्दी ने तब भी उसके पैर नहीं छोड़े.
‘‘क्या करती हो ?'' वह लगभग चीखता सा बोला. चिन्दी के रोने का स्वर और तेज हो गया. वह डर गया, कौन सी मुसीबत में आकर फंस गया. चिन्दी से उसे पहले भी डर लगता था, अब और ज्यादा लगने लगा था. बड़ी भयानक औरत है... वह मन ही मन सोच रहा था.
चिन्दी ने अपना सर उसके पैरों पर रख दिया. आंसुओं से भोलाराम के पैर भिगोने लगी. वह कांपने लगा. पता नहीं क्या होने वाला है. चिन्दी चुप होने का नाम नहीं ले रही थी. आखिर भोलाराम ने हिम्मत करके उसके कन्धों को पकड़कर ऊपर उठाया, ‘‘कुछ बोलोगी या यूं ही बुबुआती रहोगी.''
चिन्दी का त्रियाचरित्र बड़ा तगड़ा था. एकदम से चुप हो गयी. अपना सिर उसके सीने पर रख दिया. आंखें बन्द करके बोली, ‘‘मुझसे बहुत बड़ी गल्ती हो गयी. माफ नहीं करोगे ?''
चिन्दी पहली बार भोलाराम के सीने से लगी थी. भोलाराम का शरीर झनझना गया. औरत का शरीर बहुत मादक होता है. अच्छे-अच्छों को बेहोश कर देता है. भोलाराम पहली बार स्त्री का शरीर स्पर्ष कर रहा था. उसको यह अनुभूति बहुत अच्छी लगी. स्त्री के शरीर में ऐसा क्या होता है, जो पुरुष अपनी सुध-बुध खो देता है, भोलाराम मदहोश होने लगा. उसने चिन्दी को कसकर अपने सीने से लगा लिया.
चिन्दी चिहुंक उठी. भोलाराम को बिस्तर पर गिराती हुई बोली, ‘‘तो तुमने मुझे माफ कर दिया ?''
वह सकपका कर बिस्तर पर अधलेटा हो गया. चिन्दी अभी भी उसके ऊपर झुकी हुई थी. वह फंसी हुई आवाज में बोला, ‘‘माफ करने लायक काम तो तुमने नहीं किया है.''
‘‘जानती हूं, परन्तु मैं वायदा करती हूं कि तुम्हारे प्रति वफादार बनकर रहूंगी. बचपन की गलती थी. अभी तक दोहरा रही थी. तुमसे शादी हुई, तो तुम्हारे भोले रूप को सहन न कर पाई. गुस्से में और बड़ी गलती कर बैठी.''
भोलाराम का आत्मविश्वास वापस लौट रहा था. दृढ़ता से बोला, ‘‘तुमने शादी के पहले गलती की...माफ किया. लेकिन ब्याह होने के बाद तो तुम मेरी थी. सुहागरात में मुझे छूने नहीं दिया. बाद में भी दूर-दूर रही... आखिर क्यों ? मेरा हक तुम्हारे ऊपर बनता था, पर तुम किसी और का बिस्तर गरम करती रही. अब दूसरे का बच्चा पेट में लिए घूम रही हो, मैं कैसे माफ कर दूं.'' वह आवेश में आ गया था.
इस बीच चिन्दी पूरी तरह से उसके ऊपर लेट गयी थी. अपनी उंगलियों से उसके सीने में गुदगुदी करने लगी. वह खेली-खाई औरत थी. मर्द के सारे संवेदनशील अंगों से परिचित थी. भोलाराम को दो पल में ही उत्तेजित कर दिया. फिर उन दोनों के बीच कोई संवाद नहीं हुआ. दोनों के शरीर से ज्वाला मुखी फूटा और एक दूसरे के शरीर में समा गया.
भोलाराम शर्मिन्दा था तो चिन्दी खुश. उसके बगल में लेटती हुई बोली, ‘‘अब तो खुश हो, मैंने अपना शरीर तुमको सौंप दिया. अब मैं तुम्हारी हो गई. तुमने मेरे साथ सुहागरात मना ली. अब शादी की सारी रस्में पूरी हो गयीं.''
भोलाराम सचमुच भोला था. मासूमियत से पूछा, ‘‘अब मायके तो भाग कर नहीं आओगी.''
‘‘नहीं, कभी नहीं. वायदा करती हूं. कोई लिवाने भी आएगा, तो भी नहीं आऊंगी. तुम्हारी मां की खूब सेवा करूंगी. तुम्हारा कहना मानूंगी. एक अच्छी और पतिव्रता पत्नी बनकर दिखाऊंगी.''
भोलाराम उसकी बातें सुन-सुनकर खुश हो रहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद आया. सिर उठाकर पूछा, ‘‘लेकिन यह बच्चा! यह मेरा नहीं है.''
‘‘यह तो केवल मैं और तुम जानते हो. किसी और को कहां पता कि शादी के बाद हमारे संबन्ध नहीं बने. यह शादी के बाद का है. अब यह मेरे पेट में है तो दुनिया इसे हमारा ही बच्चा समझेगी. मैं तुम्हारी हूं तो मेरा सब कुछ तुम्हारा है.'' वह फिर से भोलाराम के बदन से चिपक गयी.
भोलाराम का बदन ही नहीं, दिमाग भी सनसनाने लगा. वह फिर से तर्कशास्त्र को भूल गया.
बाहर रामचरण तथा दुलारी चिन्ताग्रस्त बैठे थे. काफी देर बाद चिन्दी कोठरी से निकली, फिर मुंह झुकाए भोलाराम बाहर आया. सबके दिल धड़क रहे थे. पता नहीं क्या होगा, रामचरन और दुलारी गौर से भोलाराम को निहार रहे थे. वह आंगन की चारपाई पर बैठ गया.
चिन्दी ने चहकते हुए कहा, ‘‘पहले खाना खा लो.'' उस ने हाथ-पैर धोकर चट से खाना लगा दिया. भोलाराम भी नाबदान पर हाथ-पैर धोने लगा. घर के लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई. दुलारी के उत्साह का ओर-छोर नहीं था. जितने उल्लास से खाना बनाया था, उससे दुगुने उत्साह से दामाद को खिला रही थी. दामाद भी ऐसे खा रहा था, जैसे सात जनम का भूखा हो.
सारे गिले-शिकवे दूर हो गए थे.
दूसरे दिन चिन्दी अपने पति के साथ इस तरह रोती हुई बिदा हुई, जैसे पहली बार ससुराल जा रही हो. मां-बाप उससे भी ज्यादा रो रहे थे. पड़ोस की ढेर सारी औरतें इकट्ठा हो गई थीं. चिन्दी सबके गले लग-लग के रो रही थी. उसका रोना इतना करुण था कि पत्थर को भी आंसू आ जाते.
बारात की विदाई के वक्त उसके आंसू झूठे थे. वह दिखावे के लिए रो रही थी. लेकिन आज वह सचमुच ससुराल जा रही थी. उसके आंसू सच्चे थे. इसीलिए उसके स्वर में करुणा थी. वह छल नहीं कर रही थी. सच्चे मन से पति के साथ बिदा हो रही थी.
चिन्दी चली गई. वह मर्द खोर थी. अपने पति से धोखा किया था, परन्तु इस बार जब वह बिदा होकर गई तो ससुराल की होकर रह गई. कभी भागकर मायके नहीं आई. पिता विदा भी कराने गया, तब भी नहीं आई. रात दिन पति की सेवा और घर के कामों में लगी रहती. पति, बच्चे और सास के अलावा बाकी दुनिया उसके लिए गौण थी. सास की इतनी सेवा करती कि वह उसके गुणगान मोहल्ले भर में गाती-फिरती थी.
उसके बाद वह केवल एक बार मायके गई थी, जब उसके छोटे भाई की शादी थी. पति के साथ गई और पति के साथ वापस आ गई. अपने मायके की गलियां, खेत-खलिहान और बाग-बगीचों को वह भूल चुकी थी. अब उसका संसार अपने पति, सास और बच्चों तक सीमित था.
भोलाराम की खुशियों का संसार बस गया था. वह चार बच्चों का बाप बन चुका था. चिन्दी ने उसके घर को स्वर्ग बना दिया था. पति की इतनी भक्त बन गई, जैसे अपने जीवन में उसने दूसरे मर्द का मुंह भी न देखा हो. जो वह नहीं थी, वह बनकर दिखा दिया.
शादी के पहले अगर लड़कियां भटकती हैं, तो शादी के बाद वह अच्छी पत्नियां साबित होती हैं. पश्चाताप की आग में जलकर वह सोना बन जाती हैं. फिर उनके कदम नहीं डगमगाते.
चिन्दी के अन्य गुणों के साथ-साथ उसके पातिव्रत-धर्म, सास के लिए की जाने वाली अनन्य सेवा और बच्चों के लिए लाड़-प्यार की चर्चा पूरे गांव में होती थी. बाकी स्त्रियों के लिए वह एक मिसाल बन गई थी.
'''''
(राकेश भ्रमर)
सी.बी.आई./एसीबी,
कैराव्स कामर्शियल काम्लपेक्स,
15, सिविल लाइन्स, जबलपुर-482001.
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(चित्र – रेखा की कलाकृति)
nice story. there is flow in the language and it is very catching.
जवाब देंहटाएंDeepali Verma